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द्वितीय परिच्छेद
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"प्रत्येक गृहस्यका यह कर्तव्य है कि भले ही उसके घर निम्न श्रेणोका आदमो क्यों न पावे वह उसके साथ इस प्रकारका सुखद और सोमित व्यवहार अवश्य करे -
पाइए, पाइए। इस प्रासनपर बैठिए। आप तो बहुत दिनों में दिख रहे हैं। क्या बात है ? आप तो बहुत दुर्बल हो गए हैं ? आपके दर्शनसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।
गृहस्थको चाहिए कि वह अभ्यागत की भोर प्रसन्न नेत्रोंसे देखे, मन और वारणोकी प्रवृति उसकी ओर लगावे और उठकर उसे आसन दे । स्वागतको यही प्राचीन परम्परा है ।" और
"संसार में ये पुरुष धन्य हैं, विवेकी हैं और प्रशंसनीय हैं, जिनके घर मित्रजन किसी-न-किसी कार्यवश निरन्तर आते रहते हैं।"
यह सुनकर संज्वलन कहने लगा-मित्र, मैंने तो आपके हितकी बात बतायी थी। आपने उसे द्वेष-गभित समझ लिया। प्रस्तु, मैं अभी स्वामीसे पूछकर पाता हूँ। नीतिकारोंका कथन है
पृथ्वीका, समुद्रका और पहाड़का तो अन्त मिल सकता है; पर राजाके चित्तका पता कोई कभी भी नहीं आन सका है।"
राग-द्वेष कहने लगे-अच्छी बात है, मित्र, पाप स्वामीके पास जाइए । पर यह तो बतलाइए, आप हमारी बातको अनुचित तो नहीं मान गये ? यदि यह बात हो तो हमें क्षमा कर दीजिए ।
राग-द्वेषकी बात सुनकर संज्वलन कहने लगा-मित्र, आपने तो यह गृहस्थश्चम की व्याख्या भर की है। इसमें बुराईकी क्या बात ?
* १० एवमुक्त्वा संज्वलनो जिनपार्षे गस्वेदमवा. दोत्-देव देव, मकरध्वजस्य दूतयुगलमागतमस्ति, तदि