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________________ ७६ ] " लभ्यते भूमिपर्यन्त समुद्रस्थ गरेरपि । न कथचिन्महीपस्य चित्तान्तं केनचित् क्यचित् ॥४४|" मदनपराजय ततस्तामुक्तवन्तौ हे संज्वलन, एवं भवतु । परन्तु त्वया विषावयोरशुभं न ग्राह्यम् । सर्व क्षमितव्यम् । एवं श्रुत्वा संज्वलनोऽवोचत् ग्रहो युवाभ्यां गृहमेधिनां धर्म एवंविधोऽभिहितस्तत्र किमशुभं ग्रहोष्यामि ? * राग-द्वेषको इस प्रकार युक्तिसंगत बात सुनकर संज्वलनने कहा---' आपने सेवा-धर्मका बहुत वास्तविक चित्रण किया है । सचमुच सेवाधर्म इसी प्रकार परम गहन है । पर यह तो बतलाइए, आप यहाँ किस प्रयोजनसे प्राये हुए हैं ? संज्वलनकी बात सुनकर राग-द्वेष कहने लगे - संज्वलन, जिस तरह बने श्राप हम लोगोंको जिनराजका साक्षात्कार करा दीजिए । हम उन्हींसे मेंट करने आये हैं । P संज्वलन राग-द्व ेषकी बात सुनकर चिन्तामें पड़ गया और कहने लगा-- मित्र, मैं जिनराजके दर्शन करा तो सकता हूँ, लेकिन मुझे मालूम दे रहा है कि जिनराज से भेंट करना आपके हित में अच्छा न होगा । कारण यह है कि जिनराज कामका तो नाम ही नहीं सुनना चाहते हैं। फिर भेंट होनेपर कदाचित् उनके द्वारा प्रापका कुछ अहित हो गया तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा । संज्वलनकी बात सुनकर राग-द्वेष कहने लगे - मित्र, आपका कहना बिलकुल यथार्थ है । पर मित्र होकर भी जब आप इस प्रकार - की बात कह रहे हैं तो ग्राप हो बतलाइए. फिर हम किससे प्रार्थना करें ? इस समय हम प्रापके अभ्यागत हैं और अभ्यागतोंकी प्रार्थना तो अवश्य हो सुनी जानी चाहिए। नीतिज्ञों ने कहा भी है :
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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