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________________ ८४ ] मदन पराजय कामाग्निकी ज्वालानोंमें जलता हुमा संसार जानता हुमा भी नहीं जानता है और देखता हुमा भी नहीं देखता है ।" और -- "कामाग्निसे जलते हुएके संतापको मेघोंको वर्षा और समुद्रका प्लावन भी शान्त नहीं कर सकता।" तथा "मनुष्यको तभी तक प्रतिष्ठा रहती है, तभीतक मन स्थिर रहता है, और तभीतक हृदयमें विश्वतत्त्व-दीपक सिद्धान्त-सूत्र स्फुरित रहता है जबतक उसका हृदय क्षीर-सागरके तटवर्ती तरङ्गविलासोंके सदृश स्त्रियोंके कटाक्षोंमे पाहत होकर आन्दोलित नहीं होता है । जिनराज, ये वे स्त्रियाँ है जिनके सुन्दर भुज-लताओंके प्रालिङ्गिन-विलासको प्राप्त करके कुरबक, तिलक, अशोक और माकन्दवृक्ष भी प्रचुर रूपसे विकारी हो जाते हैं । तब ऐसा कौन कुशल योगी है जो इनके पूर्ण चन्द्र के समान निर्मल और सलिल मुख-कमलको देखकर अपने मनको निविकारी रख सके ।" तथा "हाव-भावोंसे पूर्ण, भालकी कस्तूरीसे अलङ कृत, भ्र कुटिविलाससे सुशोभित तथा लोल लोचनोंसे विराजित रमणियों के मुखका क्षरण-मात्र दर्शनतक पुरुषोंके हृदय में कम्प उत्पन्न करता है और उन्हें अधीर बना देता है।" राग-द्वेष इस प्रकार अन्समें कहने लगे :-जिनराज हम अधिक क्या कहें ? यदि साप आत्मतोष चाहते हैं तो महाराज मकरध्वजकी सेवा कीजिए । सिद्धि-अंगनाको विवाहनेके चक्करमें क्यों * ११ ततो जिननाथः प्रोवाच-परे, अशानिनौ, कि अल्पथः ? तस्यायमस्य सेवाऽस्माकं युक्ता न भवति । उक्तंच
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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