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मदनपराजय हलः । कथमेतत् ? । मोहः प्राह-देव, योऽस्मदीयोऽ नमोमिष्यास्ववीरः स सम्यक्त्तवीरेण समराहणे पासितः तस्मात् परबलं गर्जति ।
*१० इतने ही में सम्यक्त्व-वीर मा पहुँचा । उसने देखाहमारी सेना डर के मारे भागना हो चाहती है तो उसने शीघ्र श्राफर अपने सिपाहियों को आश्वासन दिया कि पाप लोग डरिए नहीं। और जिनराजके संमुख उपस्थित होकर प्रतिज्ञा को कि
यदि अाज युद्ध में मैंने मिथ्यात्व-सुभटको पराजित नहीं किया तो मैं इन पापियोंके तुल्य पापका भागी बनू जो चर्म-पात्र में रक्खे हुए घो, अल और सेलके खानेवाले हैं। क्रूर जीवोंके पोषण में निरत रहते हैं । रात्रिमें भोजन करते हैं। व्रत और शीलसे शून्य हैं । निर्दय हैं । तिल आदि धान्यका संग्रह करते हैं। जुआ आदि सप्तव्यसनसेवी हैं। हिंसक हैं। जिनशासनके निन्दक हैं। क्रोधी हैं। कुदेव और कुलिङ्गधारी हैं । आत और रौद्र परिणामवाले हैं । असत्यवादी हैं। शून्यवादी हैं। पांच उदुम्बरभक्षी हैं और महावत लेकर उन्हें छोड़ देते हैं।"
सम्यक्त्व-वीरने इस प्रकारको प्रतिज्ञा करके जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया और वहां से चल पड़ा। इसके उपरान्त वह मिथ्यात्वसे कहने लगा-परे मिथ्यात्व, मैं पागया । गर्व मत करो। देखो, आकाशमें देवतागण बैठे हुए हैं। इनकी साक्षी में हम दोनोंका युद्ध हो जाने दो। काम और जिनकी जय-पराजयका निर्णय इस संग्रामसे ही हो जायगा।
सम्यक्त्वकी बात सुनकर मिथ्यात्व-वीर कहने लगा - अरे सम्यक्त्व चल, चल। क्या तू मरना चाहता है ? याद रख, जिस प्रकार मैंने दर्शन-वीरकी दुर्गति को है यदि वही हाल तेरा न कर डाल' तो तू मुझ स्वामि-द्रोही समझना ।