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________________ द्वितीय परिच्छेद [८१ तथा चइह हि वदनकंज हावभावालसाउथ मृगमदललिताङ्क विस्फुरद्म विलासम् । क्षणमपि रमणीना लोचनैर्लक्ष (क्ष्य)माणं जनयति हृदि कम्पं धैर्यनाशंच [साम् ।।१५।। तरिकमनेन बहुप्रोक्त न यदि स्वमात्मनः सुखमिच्छसि तत्तस्य मकरध्वजस्य सेवां कुरु। किमेतत् सियङ्गनामात्र परिष्यसि ? * १० इस प्रकार कहकर संज्वलन जिनराजके पास गया और कहने लगा-देव, देव, कामके दो दूत पाये हुये हैं यदि आप प्राज्ञा दें तो उन्हें अन्दर ले आऊँ। संज्वलनकी बात सुनकर परमेश्वरने हाथ के संकेतसे उससे कहा कि आने दो। जिनराजकी बात सुनकर सज्वलन राग-द्वेषको बुलाने जा ही रहा था कि इतने में सम्यक्त्वने कहा-परे संज्वलन, यह क्या कर रहे हो ? जहाँ निवंद और उपशम आदि वीर योद्धा मौजूद हैं वहाँ रागद्वेषकी किस प्रकार कुशल रह सकती है ? संज्वलनने कहा-जो हो, परन्तु राग-द्वेषका बल भी तो तीनों लोकमें प्रसिद्ध है। फिर अभी तो ये केवल दूत-कार्य ही सम्पादित करने पाये हैं। इसलिए इस समय इनकी कुशलता और अकुशलताका तो कोई प्रश्न ही नहीं है। संज्वलन मोर सम्यक्त्वको इस चर्चाको सुनकर परमेश्वर जिनराज कहने लगे-अरे, आप लोग आपस में क्यों विवाद कर रहे हैं ? प्रातः मुझे स्वयं सैन्यसहित मकरध्वजको पराजित करना है । इसलिए अधिक क्या, दोनों दूतों को भीतर माने दीजिए ।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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