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________________ द्वितीय परिच्छेद [ ६३ ततोऽनन्तरं मन्त्रसिद्धों ध्यानसिद्धो भूत्वा मन्त्रस्मरणं कृत्वा तस्मिन् वादमये जीवकलां चिक्षेप । अथाऽसौ जीव (व्य ) मानो भूत्वा कृतघनघोरघर्थराट्टहास उच्चलित चपेट : खदिराङ्गारोपनेत्र उच्छलित ललितपुच्छच्छटाटोपोऽतिभयङ्करस्त्रयाणामभिमुखो भूत्वा यथासङ् खघ निपातिता: (तितवान् ) । अतोऽहं ब्रवीमि "वरं बुद्धिर्न" इत्यादि । * ५ चलते-चलते श्रपरालके समय वे किसी भयंकर जंगल में जा पहुँचे 1 जैसे ही वे इस भीषण अरण्य में पहुँचे, सन्ध्या हो प्रायो । उनमें से शिल्पकार कहने लगा---देखो, हम लोग रातके समय कैसे भयंकर में आ पहुँचे हैं । यहाँ हम लोगोंमेंसे प्रत्येकको एक-एक पहर तक जागरण करना चाहिए। अन्यथा चोर या व्यात्र प्रादि वन्य जन्तुसे कुछ अनिष्ट हो सकता है। अन्य साथियोंने शिल्पकारकी बासका समर्थन करते हुए कहा-मित्र, आप ठीक कह रहे हैं । हम लोगोंको एक-एक पहरतक अवश्य जागरण करना चाहिए। इस प्रकार कह कर वे तीनों साथी सो गये । पहला पहर शिल्पकारको जागरण में व्यतीत करना था । इसलिए नींद न आनेके लिए उसने एक लकड़ी लाकर महाभयंकर सर्वोपूर्ण सिंह तैयार किया । इतनेमें उसका जागरण काल समाप्त हो गया और वह चित्रकारको जगानेके लिए उसके पास गया श्रीर कहने लगा - मित्र, उठिये, अब आपके जगमेका समय हो गया है । इस तरह वह चित्रकारको उठाकर सो गया | चित्रकारने जागकर जैसे ही नजर पसारी तो उसे लकड़ीका महाभयंकर सिंह दिखलायी दिया। उसे देखकर और कुछ सोचकर चित्रकार कहने लगा- 'अच्छा, इस उपाय से शिल्पकार ने अपनी नींद तोड़ी है। अब मुझे भी कुछ नींद न लेनेका यत्न करना चाहिए ।'
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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