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प्रथम परिच्छेद
मनसि न परनिम्बा त्विन्द्रियाणां प्रशान्तिः कथितमिह हितशैनमेवं हि धर्मम् ।।१२।।
खलु विषयविरक्तानीन्द्रियाणीति यस्य सततममलरूपे निर्विकल्पेऽव्यये यः ।
परमहृदय शुद्धध्यान नहलोनचता
यतय इति वदन्ति ध्यानमेवं हि शुक्लम् ॥१३॥ तदवश्यं यादसं ध्यानमन्तकाले चोत्पद्यते तारशी गतिभवति । अन्यच्च
मरणे या मतिर्यस्य सा गतिर्भवति ध्रुवम् । यथाभूज्जिनदसाख्यः स्वाङ्गनार्त्तेन ददुरः || १४॥
प्रथ से श्रावकाः प्रोच :- भगवन् कथमेतत् ? ते मुनयः
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प्रोचुः
* ११ चन्द्रसेनकी बात सुनकर श्रावक कहने लगे:- महाराज, आप हम लोगोंको विस्तारसे बतलाइए कि प्रार्तध्यान, रोद्रध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे आपका क्या प्राशय है और इनका क्या स्वरूप है ?
चन्द्रसेन चारों ध्यानका स्वरूप समझाने लगे :--- " बसन शयनयोषित्न राज्योपभोगप्रवर कुसुमगन्धानेकस षणानि । सदुपकरणमन्यद्वाहनान्यासनानि सततमिति य इच्छेव ध्यानमात्तं तदुक्तम् ।।"
"जो व्यक्ति सदा वस्त्र, शय्या, स्त्री, रत्न, राज्य, भोगोपभोग, उत्तमोत्तम पुष्प, सुगन्धित द्रव्य, विविध आभूषण, सुन्दर उपकरण प्रशस्त सवारी और मृदुल प्रासन आदि प्राप्त करनेकी सदैव इच्छा करता रहता है उसका ध्यान भार्त्तध्यान कहलाता है ।" श्रीर