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प्रथम परिच्छेद
[ २९ निकलने लगे उसकी नजर अपनो रमणीके रमणीय लावण्यको ओर ससृष्ण हो गयी और वह अान्तरिक व्यथाके साथ इस प्रकार विचार करने लगा :
__ "युक्तिशून्य सैकड़ों प्रलापोंमें कोई सार नहीं है। पुरुषों के उपभोगको संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं। एक तो प्राथमिक मदक्रीड़ाओंसे मलस और स्तन-तट-परिपूर्ण सुन्दरियोंका यौवन और दूसरा वन ।"
उसके चिन्तनकी धारा यहाँ आकर ही न रुकी । वह मागे सोचने लगा---
"यह जिनदत्ता समस्त स्त्री-सृष्टि में मनोहर है । गुणवती है। संसारके सुखको देनेवाली है। मधुरभाषिणी है और विलासमें चतुर है। फिर भी मैं इसका भोग नहीं कर सका । मेरा भाग्य प्रतिकूल हो गया है। मुझे धिक्कार है कि मैंने यह पर्याय व्यर्थ ही खो दी ! मैंने पूर्वजन्ममें जो दुस्तर पाप किये थे अब उन्हींका परिणाम अनुभव कर रहा हूं।" अयं च
"इस प्रसार संसारमें शीत रश्मि चन्द्रमा, चन्दन, मालतीमाला और रमणीका सक्लिास अवलोकन-यही तो सारभूत है !" ___इस प्रकार अपनी स्त्रीके प्राध्यानसे पीड़ित जिनदत्तको महान् ज्वर हो आया और अन्तमें वह मर गया। मरकर वह तुरन्त अपने घरके आँगनको बावड़ोमें मेंढक हो गया।
*१३ ततोऽनन्तरं तस्य भार्या कतिपक्निस्तस्यामेव बाप्यां पामोयमामयनार्थ मानद गता तावत्ता वा पूर्वभवसंस्मरणात् तस्याः सम्मुखो धावनागतः । अप सा तहशनभयभीता सती शौनगृहास्यासरं विवेश । एवं यदा यदा सा स्त्री प्रतिदिनं तद्वाप्यां गच्छति तवा तदा स सम्मुखो धावबागच्छति । एवं प्रकारेण मूरि दिनानि गतानि ।