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________________ प्रथम परिच्छेद [ ३७ को गृहस्थधर्मका पालन करना व्यर्थ ही है-वे जीवनभर गृहस्थधर्मको साधनामें न झलस कर क्यों न अन्त समय हो अपने परिणामोंको विशुब रखकर सद्गतिक वाद करें? भिन्नताकी गात सुनकर मुनिराज मन्दस्मितपूर्वक कहने लगे-पुत्रि, यह बात नहीं है । न भाव व्यर्थ हैं और न ही जीवनकी पाचरण-साधना । सुनो ! जो जीव जीवनभर शुभ धर्माचरण करता रहता है और अन्त समय कदाचित् उसके मन में अशुभ भाव पाता है तो उस अशुभ-भावके कारण उसे अशुभ गतिमें ही जन्म लेना पड़ता है। वहाँ थोड़े समय तक कर्मफल भोगने के पश्चात् उसे शुभगति मिल जाती है। क्योंकि बंधी हुई गति की स्थिति में तो अन्तर हो जाता है, लेकिन मूलगतिमें अन्तर नहीं आता । इसलिए न अन्त समयके भाव ही व्यर्थ हैं और न जीयनकी सदाचार-साधना ही। तुम्हारा पति भी कुछ ही दिनमें मेंढक पर्याय छोड़कर देव हो जायगा। इस प्रकार मुनिराजका कथन सुनकर जिनदत्ताने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और वह अपने घर चली प्रायो । मुनिराज चन्द्रसेन कहने लगे, मैंने इसीलिए कहा है :"मरणे या मतिर्यस्य सा गतिर्भवति भवम् ।। यथाऽभूज्जिनदत्तात्मः स्वाङ्गनासेन ददुरः।।" । "मरणके समय जिसके जैसे परिणाम होते हैं उसके अनुसार ही गति-बन्ध हुआ करता है। जिस प्रकार जिनदत्त अपनी स्त्रीके प्रार्तध्यानके कारण मेंढक हुआ।" इस प्रकार कथा सुनाकर मुनिराजने उस ककड़ोके कोट को पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया और वह मरकर सोलहवें स्वर्ग में देवरूपसे उत्पन्न हो गया। रति मकर बजसे कहने लगी-देव, मैं इसीलिए कहती हूँ :
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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