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________________ १२४ ] मदनपराजय मैं जिनराज को किसी तरह संग्राममें प्राप्त कर सका तो उसकी भी वही दशा करूंगा जो सुर, नर, किन्नर, यक्ष, राक्षस और फणीन्द्रोंकी को है। अब तक जिन राज अपने घरमें बैठकर ही गरजता रहा है। अब मेरे जालमें प्रा फंसा है और देखते हैं कि इस जालसे वह किस प्रकार निकलता है। क्योंकि "पुरुषोंके शौर्य, ज्ञान, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा शील, संयम, चारित्र. सिद्धि, सम्पत्ति और पराक्रम तभी तक साथ देते हैं जब तक मैं ऋद्ध होकर रणाङ्गणमें अवतीर्ण नहीं होता।" * ततो बन्दिनाऽभिहितम्-देव, पश्य पश्य । सम्प्राप्तः सम्प्राप्तोऽयं जिननाथः तत्किमेवं गलगर्जसि । एचमुक्त्वा बन्बो स्मरं प्रति जिनसुभटान वर्शयामास । तथा च पश्य निवेगवीरोऽयं खड़गहस्तो महाबलः । पश्य बण्डाधिनाथोऽयं सम्यक्स्वाख्यो हि बुद्धरः ।४०। सम्मुखो दुद्धं रोऽयं ये तस्वीरोऽतिदुर्जयः। सम्प्राप्ताः पश्य पश्यते महानतनरेश्वराः ॥१॥ ज्ञानवीरा महाधोरा पैजितं सचराचरम् । पश्यायं संयमो वीरो वैरिणामपरो यमः ॥४२॥ एवमाधनन्तं जिनसंन्यं यावदन्दिना शितं तावन्मबनवलं वेगेन निर्गतम् । ततोऽनन्तरं जयका (क) रणार्थ दलयुगलमामिलितम् । तद्यथा तोरर्वाचालभल्लः परशुहयगदामुद्गरान्चाप नाराचैभिण्डिमा( पा)ला (सः)हलझषमुसलेः शक्तिकुन्तैः कृपाणः ।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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