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________________ प्रथम परिच्छेद [ २७ खल विषयविरक्तानीन्द्रियागीति यस्य सततममलरूपे मिविकल्पेऽव्यये यः । परमहृदयसुद्धध्यानतल्लीनता यतय इति वदन्ति ध्यानमेवं हि शुक्लम् ।। 'जिसकी इन्द्रियों सम्पूर्ण विषय-वासनामोंस विरत हो गयी हैं, जो निरन्तर शृद्ध, निर्विकल्पक और अविनश्वर पद की भोर उन्मुख है और जिसका पवित्र मन शुद्ध प्रारमध्यान में तन्मय है, उस पुरुषका ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है।" । मुनिराज चन्द्रसेन कहते गये-श्रावको, इसलिए यह सुनिश्चित है कि "प्राणान्त समय प्राणीका जिस प्रकारका ध्यान रहता है, उसे उसी प्रकारका गति-बन्ध हुआ करता है।" बागम में भी इस बातका समर्थन मिलता है :"मरणे या मतिर्यस्य सा मतिर्भवति ध्र वम् । यथाऽभूजिनदत्ताख्यः स्वाङ्गनातन वर्तुरः ॥" "मरण-समयमें जिसकी जैसी मति होती है उसको गति भी निश्चमसे उसी कोटिकी होती है । जिस प्रकार जिनदत्त अपने स्त्रीसम्बन्धी प्रार्तध्यानके कारण मेंढक हुआ।" श्रावकोंने कहा-भगवन् यह घटना किस प्रकारकी है ? मुनिराज कहने लगे : * १२ अस्ति कस्मिश्चित् प्रदेश राजगृहं नाम नगरम् । तरच जिनचरणयुगलविमलकमालपरमशिवसुखरसास्वाधनसीनमतमधुकरमिनदत्तवेष्ठिनामा श्रावकः प्रतिवसति स्म । तस्यका प्राणप्रिया स्वरूपनिजितसुरेशाङ्गनेस्याबनेकापूर्वरूपा जिनवसारख्या भार्या तिष्ठति । एवं तस्य "::
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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