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मदनपराजय "होयडा संवरि धाहडी मूउ न आवइ कोइ । अप्पत्रं अजरामरु करिवि पछइ अनेरां रोइ ।।१५।।" एवं संबोध्य प्रेषिता ।
* ११ मोह और कामकी इस प्रकार बातचीत हो ही रही यो कि इतनेमें नरकानुपूर्वी शीघ्र ही नरकगसिके स्थान को भोर रवाना हुई। जैसे ही नरकानुपूर्वी नरकगतिके पास पहुँचो, वह असिपत्रों के बोच वैतरिणीमें जलक्रीड़ा करके स्वच्छ सतखण्डे भवनपर बैठी हुई नरकानुपूर्वीको दिखलायी दी।
नरकानुपूर्वीन नरकगतिसे कहा - सखि, मिथ्यात्व नामका तुम्हारा पति युद्ध-भूमिमें मर चुका है और तुम यहाँ इस प्रकारसे सुखपूर्वक बैठी हुई हो? नरकगतिने ज्योंही नरकानुपूर्वी की बात सुनो, वह प्रसारसे पाहत पीले पनी तरह का गगी और जमीन पर गिर पड़ी। कुछ देरमें जब उसे होश आया तो वह सखी से कहने लगी--
सखि, पतिदेवसे विरह न रहे इसलिए मैंने अपने कण्ठ में हारतक नहीं पहना था। और अब तो हमारे और उनके बीच नदी-नद, सागर और पर्वतोंका अन्तर पड़ गया है। विधि-विडम्बना तो देखो। तथा च
___ एक मोर उत्कट प्रेमपूर्ण मेरी युवावस्था है और दूसरी ओर वर्षा काल पा गया है। ऐसे अवसर पर मेरे पतिदेव मुझे छोड़कर परलोक चले गए हैं इस समय तो "प्रथमासे मक्षिकापात:" बाली सुप्रसिद्ध किंवदन्ती चरितार्थ हो रही है।
इस प्रकार कह कहकर वह अपनी सखी नरकानुपूर्वीसे पुनः कहने लगी-सखि, मेरा मिथ्यात्व नामका पति मर गया है, यह बात मुझे भी सत्य-सी लग रही है । क्योंकि बहुत दिन पहलेकी बात है