SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १७१ * १९ इसके पश्चात् रति प्रीतिने जिनराजले पुनः निवेदन किया - महाराज, आप हमें ऐसा सहचर दीजिए जो कुछ दूरतक हम लोगों को पहुंचा श्रावे | क्योंकि श्रापके वीरोंसे हमें बहुत डर लग रहा है । यह सुनकर जिनेन्द्र ने धर्मं, प्राचार, दम, क्षमा, नय, तप, सत्य, कृपा, प्रायश्चित्त, मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, शील, निवेंग उपशम, सुलक्षण, स्वाध्याय, ब्रह्मचयं, धर्म, शुक्ल, गुप्ति, मूलगुण सम्यक्त्व, निर्ग्रन्यश्व, पूर्वाङ्ग और केवलज्ञान आदि जितने वीर थे उन सबको बुलाया, और बुलाकर कहने लगे-- श्राप लोगों में इस प्रकारका कौन वीर है जो कामको कुछ दूरतक भेजने के लिए उसके साथ जा सकता है ? जिनराजक यह बात सुनकर जय किसान कुछ उस नहीं दिया तो जिनराज फिर कहने लगे- प्राप लोग चुप क्यों रह गये हैं ? आप कामसे क्यों डरते हैं ? मैंने इसका दर्प क्षीण कर दिया है । अतः अब भयका कोई कारण नहीं है । और कामदेव इस समय तो विषहीन सौपकी तरह, दतिरहित हाथीकी तरह नखशून्य सिंहकी तरह, संभ्यहीन राजाको तरह शस्त्रहीन शूरको तरह, दन्तरहित बराहकी तरह, नेत्रहीन व्याघ्रकी तरह, गुराहीन धनुष की तरह शृङ्गशून्य भैसेकी तरह घोर दाढ़ीन वराहकी तरह क्षीणबल हो गया है | इस प्रकार जिनराजकी बात सुनकर शुक्लध्यानवीर कहने लगा -- देव मुझे आज्ञा दीजिए। मैं जानेके लिए तैयार हूँ। लेकिन एक निवेदन करना है, जिसपर आपको अवश्य ही ध्यान देना चाहिए । मेरा यह निवेदन है और श्राप स्वयं सर्वज्ञ होनेसे जिसे जानते भी हैं कि काम अत्यन्त पापात्मा और वैरी है। यह कदापि अपना स्वभाव छोड़नेवाला नहीं है। इसलिए आप इसे मार क्यों नहीं डालते ?
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy