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________________ द्वितीय परिच्छेद [ ७३ राग-द्वेष बोले-संज्वलन. तुम बिलकुल मूर्ख हो ! स्वामीकी माझा, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, अवश्य शिरोधार्य होनी चाहिए । अन्यथा भृत्य राज-प्रिय नहीं हो सकता । नीतिकारोंका कथन है कि: "जो भृत्य निडर होकर रणको भी शरण समझता है, मोर परदेशमें रहनेको स्वदेश आवासके तुल्य मानता है, वह राजाके लिए स्नेह पात्र होता है। ____ जो भूत्य क्षुधा, नोंद, सर्दी और गर्मीसे उविग्न नहीं होता है, बह राजाके लिए प्रेम-पात्र होता है। जो सम्मानके प्रसङ्गपर गर्व नहीं करता है, अपमानित होनेपर अपमानका अनुभव नहीं करता है और अपने बाह्य आकारका गोपन करता है उससे राजा स्नेह करते हैं। __ जो भृत्य राजाके द्वारा ताड़ित होनेपर भी, दुतकारे जाने पर भी, दण्डित होने पर भी उसके सम्बन्धमें पाप नहीं सोचता है, वह राजाका स्नेह-भाजक होता है। जो भृत्य बिना बुलाये भी सदा राज-द्वारमें उपस्थित रहता है और प्रश्न किये जाने पर सत्य और परिमित बोलता है वह राजाके लिए प्यारा होता है। ___ जो भृत्य सदा युद्धकाल में राजाके आगे चलता है. नगरमें पीछे चलता है और भवनपर उसके दरवाजे पर उपस्थित रहता है, वह राजाका प्रिय पात्र कहलाता है ।" साथ हो, "जो भृत्य प्रभुके प्रसादसे प्राप्त हुए धनको सुपात्र में लगाता है मौर वस्त्र आदिको शरीरमें पह्निता है, वह राजाके स्नेहका पात्र कहलाता है।" अथ च, संज्वलन, यह सेवा धर्म अत्यन्त कठिन काम है। कहा भी है :
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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