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________________ चतुर्थ परिच्छेद [ १३३ जाय तो वे सिर्फ हँसी ही करेंगे। क्योंकि प्रसव-जन्य वेक्ना का अनुभव प्रसूता हो कर सकती है, वन्ध्या नहीं। इस प्रकार जब कामने हम सरीखे देवोंको इस प्रकारका बास दिया है तब जिनराजका क्या कहना ? क्योंकि जिन राज भी तो एक वेष ही हैं। सुरेन्द्रने ब्रह्माकी बात सुनी और वह इस सम्बन्ध में कहने लगा-ब्रह्मन्, आपको बात सच है। परन्तु जिनराज और पाप लोगोंमें कुछ न कुछ अन्तर तो है ही। कहा भी है 'गाय, हाथी, घोड़ा, गधा, ऊँट, काठ, पाषाण, वस्त्र, नारी, पुरुष और जल-इनमें आपसमें अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है।" हे ब्रह्मन्, इसी प्रकार कोई देव होनेसे ही एक नहीं हो सकता। देखिए चन्द्रमा और बगला -दोनोंही मोन-भोजी हैं, शुक्लपक्षवाले हैं, गगन-विहारी हैं परन्तु निष्कलनु होनेपर क्या बगला चन्द्रकी समानता कर सकता है ? * १ ततोऽनन्तरं सम्यक्त्ववीरेण यावरस्वसैन्यं भज्यमानं दृष्टम्, तावडावनागत्य (धावं घावमागत्य) 'अरे रे भवद्भिर्मा मेसध्यम् इत्युक्त्वाऽऽत्मवलल्याश्वासनं कृत्वा जिनराजं प्रति प्रतिज्ञा (मा)गृहीतवान् (गृहीसा) । तद्यथा ये धर्मसंस्थितहविर्जलतलभोजिनो ये ऋरजीवगणपोषणतस्परा नराः। ये नात्रिभोजनरता व्रतशीलजिता ये निष्कृपाः कृततिलाविरुधान्यसंग्रहाः ।।५२।। चूतादिकव्यसनसप्तकशीलिनो हि ये हिसारताश्च जिनशासननिन्वका नराः ।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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