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________________ चतुर्थ परिच्छेद { १५१ है। अतः आप अनावश्यक युद्धका विस्तार क्यों कर रहे हैं ? केवल काम हो ऐसा शेष रह गया है जिसको वश नहीं किया जा सका है। • मोहको तो केवलशानवीरके माधातोंने क्षीण हो कर दिया है । इसलिए पाप शीघ्र ही ऐसा मार्ग स्वीकार कीजिए कि एक ही संधानसे सेनाका संहार हो जाय । इस प्रकार अवधिज्ञानवीरकी बात सुनकर जिनेन्द्रका साहस और अधिक बढ़ गया और वे कामको इस प्रकार ललकारने लगेअरे काम, घरके भीतर बैठ कर ही तुमने अपने स्त्रीसुलभ दर्पका प्रदर्शन किया है। अन्त:पुरके सामने मूछ एंठते हुए अपनेको पुरुष कहलाने वाले बहुत मिलेंगे। परन्तु जहाँ छिन्न हुए हाथियोंके खूनसे समुद्र लहा उठता है, उस मुहिले वीर ही डटे रह रा है : अत: यदि साहस हो तो आओ, मुझसे सामना करो। जिनराजको बात सुनकर मोह एकदम स्तब्ध रह गया। कुछ क्षणबाद उसने मोहसे मंत्र करना प्रारंभ कर दिया। वह मोहसे कहने लगा-सचिवोत्तम, बतलाइए, इस समय हमें क्या करना चाहिए । मोह कहने लगा-देव इस समय परोषह नामक विद्याका स्मरण कीजिए । उस विद्याके बलसे आपकी अवश्यमेव अभीष्ट सिद्धि होगी। कामको मोहकी राय पसन्द आई। उसने क्रोधावेश में तरक्षण उस विद्याका अाह्वान किया, जिसके कारण वह बाईस प्रकारका रूप धारण करके कामके सामने उपस्थित हो गयी। और उपस्थित होते. ही कामसे कहने लगी-देव, मुझे आदेश कीजिए, आपने किस प्रयोजनसे मुझ स्मरण किया है ? __ काम कहने लगा-देवि, तुम्हें जिन राजको जीतना है। और जिनराजको पराजित करने में मेरी सहायता करनी है। इस प्रकार कहकर कामने उसे जिन राजके पास भेज दिया ।
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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