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________________ 3 तृतीय परिच्छेद [ ९९ * ४ एवं वचनमाकर्ण्य मनोभवोऽवोचत्-अहो, युवयोः परस्परं किमनेन विवादेन ? यत उक्त च "अज्ञातचित्तवृत्तीनां पुंसां किं गलगजितैः । शूराणां कातराणाञ्च रणे व्यक्तिर्भविष्यति || ८ | " तत् प्रभाते जिनेन्द्रस्य हरिहरपितामहादीनां यत्कृतं तदह यदि न करोमि तदा ज्वलितानलप्रवेशं करिष्यामि । इति सर्वजनविदिता मे प्रतिज्ञा । उक्त ं च “ सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति पण्डिताः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥६॥ " इति श्रीठक्कुरमाइन् देवस्तुत जिन (नाम) देवधिरचिते मदनपराजये सुसंस्कृतबन्धे कन्दसेन वर्णनो नाम तृतीयः परिच्छेदः ॥ ३ ॥ * ४ मोह और मिथ्यात्व के इस प्रकारके विवादको सुनकर कामदेव कहने लगा- आप लोग परस्पर में विवाद क्यों करते है ? इस विवाद कोई अर्थ सिद्ध होनेवाला नहीं है। कहा भी है: — "जिनकी मनोदशाका पता नहीं है, वे व्यक्ति कुछ भी कहें उनके कहने से क्या होता है ? समर-भूमि में उतरनेपर सबको मालूम हो जायगा कि कौन शूर है और कौन कानर है ?" कामदेव कहने लगा मेरा निश्चय है कि मैंने हरि, हर मौर ब्रह्माकी जो दशा को है वही दशा कल सवेरे यदि जिनेन्द्रकी न कर सका तो में जलती हुई श्रागमें प्रवेश कर जाऊँगा। नीतिकारोंकी इस बालसे में पूर्ण सहमत हूँ
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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