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द्वितीय परिच्छेद
[ ५३ "बुद्धि विद्यासे अधिक गुरु है-महत् है। बुद्धिहीन मनुष्य उसी तरह विनस जाते हैं जैसे सिंह बनानेवाले वे तीन पंडित ।"
___ मकरध्वज इस बातको सुनकर मोहसे कहने लगा-मोह, यह बात किस प्रकारको है ? मोह कहने लगाः
२ अथाऽस्ति कस्मिश्चित प्रदेशे पौण्डवर्द्धनं नाम नगरम् । तत्र च शिल्पि(ल्प)कारक-चित्रकारक-गिकसुतमन्त्रसिद्धाश्चेति चत्वारि मित्राणि स्वशास्त्रपारङ्गतानि सन्ध्यासमधे एकत्रोपविश्य परस्परं सुखगोष्ठी कुर्वन्ति स्म । एवं तेषां चतुएँ मित्रत्ववर्तमाननां कतिपदिवसः शिल्पि(ल्प) कारेण सन्ध्यासमये तांस्त्रोनाइय एकत्रोपविश्य वचनमेतदभिहितम्-ग्रहो, यवहं भणिष्यामि तवयं करिष्यथ ? तवा तच्छ त्वा ते अयः प्रोच:-भो मित्र, तब वचनं कामान कुर्मों अयम् ? उक्त च यत:-- "मित्राणां हितकामानां यो वाक्यं नाभिनन्दति । तस्य नाशो (शं) विजानीयात् यद्भविष्यो यथा मृतः ।६।" अथ शिल्पि (ल्प)कारोऽवोचत्-कथमेतत् ? ते प्रोच:--
* २ किसी प्रदेश में पौण्ड्रवर्धन नामका नगर था । इस नगर में अपने-अपने शास्त्रमें पारंगत चार मित्र रहते थे । उनमेंसे एक शिल्पकार था, एक चित्रकार था, एक वरिणा-पुत्र था और एक मन्त्रशास्त्रका जानकार था। चारों मित्र प्रतिदिन सन्ध्या-समय एक स्थानपर बैठकर विनोद-गोष्ठो किया करते थे। कुछ दिनोंके पश्चात् एक बार शिल्पकारने अपने तीनों मित्रों को सन्ध्याके समय निश्चित स्थानपर बुलाया और कहने लगा-क्या हम जिस बातको कहेंगे उसे