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प्रथम परिच्छेद
[ ४३ कर और किसे मैं अपना पति बनाना चाहती हूं ? इसलिए आपने जो मेरे ऊपर यह लाञ्छन लगाया है, उसका कोई अर्थ नहीं है ।
मकरध्वजकी बात सुनकर प्रीति कहने लगी-सखि, वास्तवमें इन्होंने बहुत ही अनुचित बात कही है। लेकिन अब इस व्यर्थ के विवादसे क्या मतलब ? फिर सखि, तुम्हीने तो अपने ऊपर सन्देह किया । देखो--
"कच्ची समझके मूोंके साथ बात करने के चार ही परिणाम हैं --वाणीका दयम, मनस्ताप, ताड़न और बकवाद ।"
"जो पुरुष दुराग्रही है उसके मनको कोई भी विद्वान् बदल नहीं सकता। जिस प्रकार मेष काले पत्थरोंको जरा भी मृदु नहीं कर सकते ।"
प्रीति कहने लगी-सखि, चलो, अब पतिदेवकी प्राज्ञाका पालन करके अपने पापका प्रायश्चित कर इालें । कहा भी है :- .
__ "महादेवजी अब भी कालकूटका परित्याग नहीं कर रहे हैं। कन्छप पाज भी अपनी पीठपर पृथ्वीका भार उठाये हुए है । और समुद्र अद्यावधि दुःसह बड़वानल समेटे हुए है। ठोक है, कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य अङ्गीकृत कार्यको सदैव पूर्ण करते हैं ।" तथा---
'सूर्यवंशी राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डाल की सेवा करनी पड़ी। अद्भुत पराक्रमी रामको पर्वतोंको कन्दराएँ छाननी पड़ीं । और भीम
आदिक चन्द्रवशी नरेशोंको रङ्कके समान दीनता दिखलानी पड़ी। ठीक है, अपनो बात के निर्वाहके लिए महान् पुरुषोंने भी क्या-क्या अनीसित कार्य नहीं किया ?"
इस प्रकार अपनी सखोकी बात सुनकर रतिने कामको प्रणाम किया और वह जिनराजके पास जाने के लिए आर्यिकाका घेछ बनाकर निकल पड़ी।