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________________ नार्म पनि । १४९ "प्राग्रह और ग्रह-ये दोनों ही लोकके अत्यन्त वैरी हैं। प्रह जहाँ एक का नाश करता है वहां प्राग्रह सर्वस्व नाश कर डालता प्रीति कहती गयो-अब ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो जिनराजको जयश्रीकी प्राप्ति और हम लोगोंके वैधव्य-योग को टाल सके । और फिर-- अपनी राय वहाँ देनी चाहिए जहां उसकी कुछ पूछ हो । जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्रपर लाल रंग खूब गहरा चढ़ता है। ___ रति और प्रीतिकी बात सुनकर कामने कहा- हे प्रिये, मेरी बात तो सुनो जिन बाणोंके द्वारा मैंने सुर, असुर इन्द्र, उरग और मानव आदिको जीता और अपने अधीन किया, वे बाण अब भी मेरे हाथ में हैं । फिर मैं कैसे भागू? और इस प्रकार भागनेसे क्या मुझे लज्जित नहीं होना पड़ेगा? इस प्रकार कहकर मदन, मोहन, वशीकरण, उन्मादन और स्तम्भन रूप पाँच प्रकारकी कुसुमवारणालीको धनुषपर चढ़ाकर और मनोगजपर मारूढ़ होकर उसे शीघ्र दौड़ाता हुमा कामदेव समराङ्गणमें जिनराजके सामने जाकर कहने लगा- अरे जिनराज, पहले हमारे साथ युद्ध करो । पश्चात् सिद्विवधू के साथ विवाह करना मेरी बाणावलीसे ही तुम्हें मुक्त्यङ्गनाके आलिङ्गनका सुख मिल जायगा । * १४ तच्छ वा मोक्षनवराजहंसेन सापशकुनिविश्रामारामेण मुक्तिवधकामेन पुष्पायुधोदधिमथनमन्दरेण भव्यजनकुलकमलविकासमार्तण्डेन मोक्षद्वारकपाटस्फोटनकुठारेण दुर्वारविषयविषधरवैनतेयेन साधकुमुदाकरविकासचन्द्र ण मायाकरिणीमृगेन्द्रेग सङ ग्रामावसरे मदन पाहतो जिनेन्द्रग-रे रे
SR No.090266
Book TitleMadan Parajay
Original Sutra AuthorNagdev
AuthorLalbahaddur Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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