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THE ONE GOT
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Style
Life. it goes on
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Blessings Acharya Hemchandra Suriji
Editor Acharya Kalyanbodhi Suriji
Publisher K. P. Sanghvi Group
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SING IT
GAME
IS A DANCE
IS ASONG HARD.
FLOOR
PLAY DON'T STOP DANCE
IS A DARE प्राप्तिस्थान
FACE IT.
के. पी. संघवी एन्ड सन्स _1301, प्रसाद चेम्बर्स, ऑपेरा हाउस, मुंबई-400 004. फोन : 022-23630315 श्री चंद्रकुमारभाई जरीवाला
दु.नं.6, बद्रिकेश्वर सोसायटी, नेताजी सुभाष मार्ग, मरीन ड्राईव इ रोड,
मुंबई-400 002. फोन : 022-22818390/22624477 श्री अक्षयभाई शाह
506, पद्म एपार्ट., जैन मंदिर के सामने, सर्वोदयनगर, मुलुंड (प.), मुंबई-400 080. फोन : 25674780 श्री चंद्रकांतभाई संघवी
6/बी, अशोका कोम्प्लेक्स, जनता अस्पताल के पास, पाटण-384265 (उ.गु.). मो. : 9909468572 श्री बाबुभाई बेडावाला र सिद्धाचल बंग्लोज, सेन्ट एन. हाईस्कूल के पास, हीरा जैन सोसायटी, साबरमती,
अहमदाबाद-5. मो. : 9426585904 मल्टी ग्राफीक्स
18, खोताची वाडी, वर्धमान बिल्डींग, 3रा माला, प्रार्थना समाज, वी. पी. रोड, मुंबई-400 004.
फोन : 23873222/23884222 E-mail : support@multygraphics.com |www.multygraphics.com सेवंतीलाल वी. जैन (अजयभाई)
__52/डी, सर्वोदय नगर, 1ली पांजरापोल गली नाका, मुंबई. फोन : 22404717/22412445 महावीर उपकरण भंडार
सुभाष चौक, गोपीपुरा, सुरत. फोन : (0261) 2590265 महावीर उपकरण भंडार
शंखेश्वर. फोन : 273306. मो. : 9427039631
सृजन
155/वकील कॉलनी, भीलवाडा (राज.). मो. : 09829047251
प्रथम आवृत्ति : 2011 • मूल्य : 350/
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life calling
जीवन जीना और
जीवन जीतना
यह दौनो अलग अलग बात है
उन मे पहला काम तो समय ही कर देगा...
मगर दुसरा काम हमे स्वयं करना होगा.... जीवन जीतने की सही शैली को कहते है...
Life Style
CATCH IT... HAVE A GREAT VICTORY.
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• श्री पावापुरी तीर्थधाम •
करम
शीतल फूल
जिन मन्दिरर-जल मन्दिर - जीव मन्दिर का पुण्य प्रयाग अर्थात्
पावापुरी तीर्थ जीव मैत्रीधाम
K. P. SANGHVI GROUP
K. P. Sanghvi & Sons Sumatinath Enterprises
K. P. Sanghvi International Limited KP Jewels Private Limited Seratreak Investment Private Limited
K. P. Sanghvi Capital Services Private Limited K. P. Sanghvi Infrastructure Private Limited
KP Fabrics
Fine Fabrics
King Empex
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ITTTTE
TILLLEL
CONOMINARREE SORRESPREATED
श्री पावापुरी तीर्थ-जीव मैत्रीधाम
मोरासन
CRENA
एक मंदिर में अनेक मंदिरों का मेल
अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम... एक स्वर्ग में अनेक स्वर्गों का मेल
अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम... एक संकल में अनेक साधना संकलों का मेल
अर्थात् पावापुरी तीर्थधाम...
देवलोक के टुकड़े जैसा भव्यातिभव्य जिन मंदिर (प्रभु भक्तों का स्वर्ग) कला और कारीगिरी का कमाल कसब, शुद्धि और स्वच्छता का संगीन समागम, दिव्यता और भव्यता की एक मिसाल, शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु की कामणगारी प्रतिमा और अजब सी प्रभावकता ! जिसके पवित्र और प्रभावक अणु-परमाणुओं के स्पर्श मात्र से रोम-रोम रोमांचित होता है ! आँखें ठहरसी जाती है ! दिल डोल उठता है, हृदय में हलचल मच जाती है और अशांत मन शांत-प्रशांत बनता है।
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चतुर्मुख जल मंदिर (उपासकों का स्वर्ग)
यहाँ कदम रखते ही प्रभवीर की अंतिम अवस्था की अनुभूति के एक अनुपम एहसास का अनुभव होता है। चार मुख से देशना देनेवाले देवाधिदेव की स्मृति जागृत होती है।
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लेता गौतम नाम सीझे हर काम, टु:खेलहे विसराम पाये अविचल धाम!
गुरु गौतम-गणधर मंदिर (लब्धि साधकों का स्वर्ग) दुःख-दारिद्र दूर करनेवाले अनंत लब्धि निधान का यह अलौकिक अवतरण है। गुरु गौतम मंदिर के साथ नव सुंदर गुरु मंदिर। कला-कारिगीरी के साथ विनय-भक्ति-समर्पणभाव का सुलभ समागम।
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जीव मैत्री मंदिर (दयालुओं का स्वर्ग)... पांच हजार से अधिक अबोल पशु निर्भयता से किल्लोल कर रहे हैं, उनकी नियत-नित्य चर्या देखकर लगता है कि, “यह प्राणी तो अपने से अधिक धार्मिक हैं!" उनकी मस्ती देखकर लगता है कि, "यह अपने से अधिक सुखी हैं ! घूमते-फिरते-खाते, मानव को दुर्लभ ऐसी VIP ट्रीटमेंट की मौज माननेवाले जानवरों को देखकर विचार आता है कि, पशु होकर भी कितने पुण्यशाली! कितने निश्चिंत ! कितने तन्दुरुस्त ! दया और करुणा का भाव प्रगट करनेवाला यह पशुदर्शन जीवनदर्शन की एक नई राह दिखाता है।
auी विहारNI
आतिथ्य मंदिर (अतिथिओं का स्वर्ग) आधुनिक और अनुकूल अतिथिभवन, यात्रिक भवन, शांति विश्राम गृह, कनीमा विश्राम गृह, श्रीमती आशा रमेश गोयंका विशिष्ट अतिथि गृह, शुद्ध और संतुष्टिजनक भोजन, स्वच्छता से शोभायमान संकुल, भावोल्लास उछालता कर्णप्रिय भक्ति गीत गुंजन, बाल वाटिकाएँ, दर्शनीय प्रदर्शन वगैरे सर्जन, वर्षों से लाखों अतिथिओं का आकर्षण बिन्दु है।
शासन मंदिर (शासनप्रेमीयों का स्वर्ग)
जिनमंदिरों, जीर्णोद्धारों, पूजनीय गुरुभगवंतों की अनेक प्रकार की
वैयावच्च भक्ति-मूर्ति भंडार, चौदह स्वप्न भंडार, ज्ञान भंडार,
___ उपकरण भंडार इत्यादि इस तीर्थधाम की शासन-शोभा है।
मानव मंदिर (करुणाप्रेमीयों का स्वर्ग)
परिवार
साधना मंदिर (आत्मसाधकों का स्वर्ग) आत्मशुद्धि की अनुभूति करानेवाले अध्यात्मसंकुल, शांत-शुद्ध आलंबन से मन की स्थिरता का सर्जन कराते ध्यानसंकुल, चातुर्मास, उपधान, शिबिर, ओली, अट्ठम इत्यादि धर्मानुष्ठानों के द्वारा साधक की शुद्धि और पुण्य वृद्धि करते साधनासंकुल इस तीर्थभूमि की पावनता में प्राण डालते हैं।
देढ़ सो गाँवों में हर दिन कुत्तों को रोटी, कबूतरों को चना, गाय को चारा,
जैन बच्चों को मिड-डे मील,
मोबाईल मेडीकल सेन्टर, अनेक पांजरापोल में योगदान,
३६ कोम को उचित सहाय्य, सिरोही में हॉस्पिटल आदि अनेक कार्यों द्वारा पावापुरी ने भारतभर में "मानवता की महेक" फैलाई है।
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THE GIFT OF GOD IS ETERNAL LFE
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आओ दिल की बात करें...
।। जागरह णरा णिच्चं ।।
शायद किसी ने मेरा कोई नुकसान किया हो... मेरे लाभ में बाधा पहुँचाई हो... मेरे विरुद्ध कुछ कहा हो... मेरी निन्दा की हो... मेरा कहना नहीं माना... मेरा अपमान किया... मेरे मत का विरोध किया... मेरे लिए गलत धारणाएं तैयार कर ली... बस इन्हीं कारणों से मन आक्रोश और आवेग से भर जाता है... तब मैं पर - निन्दा में फँसकर मेरे क्षमा भाव को भुला देता हूँ... मुझे जागृत रहना है कि इन सब प्रसंगों पर मेरा मन दुःखी नहीं हो और मैं उन सबको क्षमा कर सकूं....
लगाओ देर न अब दिल को साफ करने में।
• भलाई सबकी है सबको माफ करने में ||
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Zein Education International
स्वयं
जिम्मेदार
Torou
आत्मैव रिपुरात्मनः आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः
For
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'मेरे जीवन की उलझनों में दूसरे कभी भी । जिम्मेदार नहीं है..... सारी जिम्मेदारी मेरी अपनी है। एक बात। सदा स्मरणीय है कि मेरे सुख-दुःख का कर्ता मैं स्वयं हूँ.....। हम अपनी जीवन-बगिया खुद संभालते भी हैं और उजाड़ते भी हैं..... जब कर्म मैंने किये हैं तो उसका फल भी मुझे ही मिलेगा....... जब बीज मैंने बोया । है तो फसल भी मैं ही का[गा। दूसरा तो मात्र मेरे सुख-दुःख का निमित्त है और कारण मैं स्वयं हूँ।। दूसरे को दोष नहीं देना है और ना ही दूसरों से । बंध जाना है। सभी समस्याओं का समाधान है - मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ..... दोष जमाने को न देकर अपने विचार और वर्त्तन पर ध्यान देना चाहिए।
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भाषा काविवेक
मेरी वाणी के सम्बन्ध में मुझे कुछ चिन्तन करना है -
यदि मैंने कर्कश, कठोर, दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुँचाने वाली भाषा बोली हो.....
कभी मैंने दूसरों के मर्म यानी रहस्य प्रकट करने वाली भाषा बोली हो... कभी मैंने पापकारी यानी पाप को प्रेरणा देने वाली भाषा बोली हो.....
कभी कपटपूर्वक दो अर्थ निकले ऐसी भाषा बोली हो....
कभी क्लेश पैदा हो ऐसी भाषा बोली हो......
इस प्रकार की दोषपूर्ण भाषा मुझसे बोली गई हो....... या बुलवाई गई हो या बोलने वाले की प्रशंसा की हो तो मुझे धिक्कार है.....
मुझे क्षमा करें.....
समावयंता वयणाभिधाया ।।
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जिन्दगी एक कांच की फूलदानी है, पता नही कब यह हमारे हाथ से फिसल जाएगी...? अब सिर्फ इस जीवन के निर्माण - कार्य
में लग जाना है। यह मानव - जीवन परम अनूकूलताआ का पुरुषार्थ की साधना करने का समय है।
आत्मा से परमात्मा बनना या उपासक से उपास्य बनने के लिए सम्यक् दिशा में पुरूषार्थ करने का नाम ही परम पुरूषार्थ है। इस जन्म में हमें स्वस्थ शरीर, परिपूर्ण इन्द्रियाँ और सुन्दर मन मिला है... ऐसी अनुकूलताओं को पाकर भी आत्म कल्याण के लिए कोई प्रयास नहीं हुआ तो प्रतिकूलता के क्षणों में आत्म विकास करना कितना कठिन होगा। यदि आपके पास अपार संपत्ति है तो दान-धर्म की आराधना सहज संभव है। स्वस्थ शरीर का योग मिला है तो तपधर्म सुगम है। सुन्दर मन मिला है तो आत्मा को शुभ भावों से सुवासित करना सरल है।
११ दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं विधेयं हितमात्मनः ।
सार इतना ही है शक्ति के काल में
धर्माचरण का पुरुषार्थ करके
प्राप्त अनुकूल समय और साधनों को
साध लेना चाहिए।
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सम्बन्धों को संभाले
चाहे ज़िन्दगी कितनी छोटी क्यों न हो परन्तु हम अकेले नहीं जी सकते | हम सम्बन्धों के धागों को बुन लेते हैं। जिन सम्बन्धों से बंधकर थकान, टूटन और घुटन पैदा नहीं होती हो वही सच्चे सम्बन्ध हैं। जिन सम्बन्धों में स्निग्धता, जीवंतता और सुगंध बनी रहती हो वे ही सच्चे सम्बन्ध हैं। जैसे एक बीज के लिए उचित मात्रा में खाद, पानी, धूप और हवा चाहिए तभी उसका पोषण समय पर हो सकता है। ठीक उसी प्रकार हमें सम्बन्धों के पौधे को विकसित करने के लिए प्रेम... विश्वास... सहयोग और सहिष्णुता का पोषण जरूरी है।
सम्बन्धों में स्वस्थता रहेगी तो जीवन स्वर्ग बन सकता है।
।। पोष्यपोषकः ।।
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प्रत्येक कार्य में
जल्दबाजी
करना ही उस
कार्य को विलम्ब से पूरा करना है... विचारपूर्वक धैर्य से काम करने वाले को कभी विघ्न नहीं आते। जल्दी से भरा हुआ चित्त अस्त-व्यस्त होता है। जल्दबाजी का मतलब है काम को जैसे-तैसे निपटाना... बेहोशी में ही कार्य को पूर्ण कर देना। जल्दबाजी में आप अपनी मलकियत खो देते हैं... जल्दबाजी में कार्य-शक्ति की क्षमता समय से पूर्व समाप्त हो जाती है। इसलिए कहावत बनी है - 'जल्दबाजी का काम शैतान का होता है और धीरज का काम भगवान का होता है ।' जल्दबाजी उथले आदमी का लक्षण है। धैर्य सुनार की तरह है। सुनार जब भट्टी में सोने को डालता है तब बड़ी धैर्यता की ज़रूरत होती है।
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।। सहसा विदधीत न क्रियाम् ।।
जल्दबाजी मत करो
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ज्ञान की रोशनी में मेरा जीवन-पथ आलोकित हो... ज्ञान को रोशनी से मार्ग के काँटे दृष्टिगोचर हो... मुझे अब भीतर जाना है। भीतर में जो आत्मतत्त्व है उसको देखना है। आत्मा की स्वभाव-दशा, विभाव दशा दोनों अवस्थाओं का सम्यग्दर्शन करना है... विभाव दशा से मुक्त होना है और स्वभाव दशा में स्थिर होना है।
मुझे ऐसी ज्ञान की रोशनी चाहिए जो मुझे मेरी मंजिल तक साथ देती रहे... जिससे मैं सहजता से प्रतिकूलता का स्वीकार और दुःखों को स्वागत कर सकूँ... स्वस्थ मन से, निराकुल चित्त से, मैत्री पूर्ण हृदय से समाधान खोज सकूँ... | _ज्ञान के अभाव में मैंने पर द्रव्यों को अपना द्रव्य मानने की भूल की है... पर भावों को अपने भाव मानने की भूल की है। ज्ञान ने मेरे जीवन को अमृतमय बनाया... मेरे हृदय-भवन में उजाला किया... मुझे यह बोध कराया कि मैं एक विशुद्ध आत्म-द्रव्य हूँ।
ज्ञान
को रोशनी
{ नमो नमो नाणदिवायरस्स {{
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Tooshtoosh
नो हीलए नो वि य खिसएज्जा ।।
अनमोल शिक्षा
जीवन का सच्चा पथ यही है कि जिस पर चलते हुए पथिक आलोक, अमृत
और आनन्द को प्राप्त कर सकें... इस जीवन में जो हमें प्राप्त नहीं है उसके लिए आज तक हम रोते रहे हैं... शिकायतें करते रहे हैं।
जीवन का ढंग यही है कि जो हमने पा लिया उसे पहचानें... उसे अपने अनुकूल बनाएं... उसमें रस लें... उसी में संतुष्ट हो... अपने जीवन की खटास को मिठास में बदल दें।
किसी भी चिथड़े का निरादर मत करो क्योंकि उसने भी किसी समय किसी की लाज रखी थी। जो चीज मेरे पास है... जो व्यक्ति मेरे साथ है... जो परिस्थिति मुझे प्राप्त है... उसका मैं आदर करूँ और उपयोग करूँ... उपस्थित को उपादेय मानने की चाबी मेरे पास हमेशा रहे....
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।। समाहिं अणुसंधए ।।
मेरे काम ऐसे हों
मैं ऐसे काम करूँ जिसे करके मुझे पछताना नहीं पड़े...
मैं ऐसे काम करूँ जिसे करते हुए मुझे प्रसन्नता मिले.......
मैं उतने ही काम करूँ जिससे
मेरे मन में समाधि का भाव बना रहे.......
हर काम का समय होता है
और मैं उसे समय पर कर सकूँ
अपने काम को चांद-सितारों और सूरज की तरह निःस्वार्थ बनने दूँ...
अपने काम को कभी असंभव नहीं मानूँ.....
कर्मशील लोग शायद ही कभी उदास रहते हैं क्योंकि वे प्रसन्नता से हर काम करते हैं......
करो ना काम ऐसे कि किसी का दिल ही टूट जाये । करो तुम काम ऐसे कि सोई हुई आत्मा जाग जाये ||
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जो क्षण बीत गया है उसकी चिन्ता मत करो और जो समय हाथ में है उसका जागृति पूर्वक सदुपयोग कर लो।
समय का
सदुपयोग समय
| का सदुपयोग
करने वाला ही महापुरुषों की पंक्ति में बैठ सकता है... समय का महत्त्व दो कारणों से है - पहली बात तो यह कि समय कभी रुकता नहीं और दूसरा कारण यह कि समय कभी लौटता नहीं है... इसलिए जीवन में समय का बड़ा महत्त्व है। समय किसी का भी द्वार दोबारा नहीं खटखटाता.... अतः आते हुए अवसर पर मुझे जागृत हो ही जाना है। समय का जो सार्थक उपयोग कर लेता है। वह कण-कण से सुमेरू खड़ा कर लेता है। अवसर हाथ से फिसलने पर
दोबारा हाथ नहीं लगते।
११ कालेण काले विहरेज्जा !
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यथा चन्दनं तथा जीवनम् ।। एक दिन भी जी मगर विश्वास बनकर जी। कल न बन तू जिन्दगी का आज बनकर जी।
जिन्दगी..... ऐसी बनाऊँ..
Eternal flame हमारा जीवन तो पानी के प्रवाह की तरह है... कभी-कभी हिसाब कर लेना होगा कि इतने क्षणों में कितने क्षण ऐसे हैं जो जीवन के क्षण हैं। सिर्फ जिन्दगी की लम्बाई का क्या मूल्य है? मनुष्य कैसे मरता है इसका कोई महत्त्व नहीं अपितु वह कैसे जीता है उसका महत्त्व है। मोमबत्ती की कहानी ऐसी है कि वह ज्यादा देर तो नहीं जलती परन्तु उसका थोड़ी देर तक जलना भी सार्थक है क्योंकि वह प्रकाश को फैलाकर दूसरों को भी प्रकाशित करती है... जीवन को चन्दन के पेड़ की तरह बनाना... जो वृक्ष के रूप में सुगन्ध देता है... काटने वाले को भी सुगंध देता है और रगड़ने पर भी सौरभ ही बिखेरता है।
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दृष्टि मूल्यवान है...
इस संसार में हम प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक स्थिति से कुछ न कुछ सीख सकते हैं परन्तु इसके लिए हमें अपने भीतर सूक्ष्म दृष्टि पूर्वक देखने की क्षमता होनी चाहिए। भीतर की जैसी दृष्टि होगी वैसी ही बाहर में सृष्टि दिखाई देती है। प्रत्येक तथ्य का अवलोकन करने के लिए जितनी भीतर में गहराई होगी उतना हर विषय को रोचक बनाया जा सकता है। सच्ची समझ हो तो एक ही चीज को अनेक पहलुओं से देखने की विधि को हासिल किया जा सकता है इसलिए कहते हैं...
किरती का रुख बदलो किनारे बदल जायेंगे || नज़र का जाबिया बदलो नज़ारे बदल जायेंगे ||
।। दृशा दृश्यं प्रसाधयेत् ।।
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कषाय-निग्रह
आत्मा को मलिन बनाने वाला तत्त्व कषाय है। क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे विकार हैं जो हमारी आत्मा को विकलांग बना रहे हैं।
कहते हैं क्रोधी व्यक्ति अन्धा होता है उसे कुछ सूझता नहीं। मानी व्यक्ति किसी की कुछ सुनता नहीं । मायावी व्यक्ति की जुबान का कोई भरोसा नहीं होता और लोभी की तो नाक ही कट जाती है। अर्थात् क्रोध ने हमारी आँखे छीन ली क्योकि उसके आते ही मनुष्य अंधा हो जाता है। मान ने मनुष्य के कान छीन लिए, माया ने हमारी जिह्वा के अर्थ बदल दिए और लोभ ने तो नाक ही कटवा दी।
जरा कल्पना करके देखिए मनुष्य के उस रूप की... जिसकी न आँख हो... न कान हो... न जिह्वा हो... नाक भी कटी हुई हो... | काषायिक परिणति में जीने वाले मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व ऐसा ही विकलांग होता है। अतः भगवान कहते हैं अपने आन्तरिक व्यक्तित्व को यदि सँवारना चाहते हो तो कषायों का निग्रह करो।
चन्तारि एए कसिणा कसाया ।
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सिर्फ जागो
जीवन को जानने के लिए और जीने के लिए जागना अनिवार्य है। अक्सर होता यह है कि हम जीवन में जाग भी नहीं पाते कि जीवन हमारे हाथ से फिसल जाता है... जीवन क्या है यह जान भी नहीं पाते कि जिन्दगी अपनी Boundary को पूरा कर देती है।
यह जन्म ही ऐसा है
जहां जागने के
लिए सुविधाएं खूब हैं। सारे
साधन जो जागने के
लिए चाहिए सब मौजूद है सिर्फ जागने का उपक्रम करना है।
जितनी जल्दी जाग जाओ और चल पड़ो उतना ही अच्छा है। यदि स्वयं की आत्मा को जगाना हो तो स्वयं को ही श्रम करना होगा। यदि जागना चाहते ही हो तो जागे हुए व्यक्ति का साथ निरन्तर चाहिए। जागृत व्यक्ति का एक वचन भी जागृति ला सकता है। अतः जो जाग जाते हैं वे चल पड़ते हैं ।
{{मा सुअह जग्गियव्वे ।।
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{{क भयेन मुनेः स्थेयं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः {{
भय मुक्त बनना है...
जब मेरी आत्मा का मौलिक स्वरूप निर्भयता है तो फिर मुझे भय क्यों लगता है? सच यह है कि हमें भय से मुक्त रहना चाहिए क्योंकि अपनी आत्मा तो अजर-अमर है उसका तीन काल में भी विनाश नहीं होता। इस आत्मा का न तो शस्त्रों से छेदन हो सकता है और न अग्नि उसे जला सकती है परन्तु कर्मों से बँधी आत्मा अपना मौलिक स्वरूप भूल कर भय के अंधेरे से कमजोर हो जाती है।
मेरी आत्मा में अनन्त शक्ति ऐसी है जो हर भव के अंधकार को दूर करने में सक्षम है ऐसा चिन्तन प्रतिदिन करें। किसी कवि की भी दो पंक्तियाँ है -
ऐसी आत्मा हो बलवान मेरा मन कभी भी डोले ना। खुद पर हो ऐसा विश्वास किसी का आसरा टोले ना ||
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{५ गौरवेण निमज्जति ११
अहंकार का त्याग पुण्य के उदय से साधन प्राप्त हुए हैं उसका अहंकार नहीं करें..... क्योंकि प्राप्त हुई शक्ति 'मदद' करने के लिए मिली है। धन, अधिकार, मान-सम्मान और ऐश्वर्य की प्राप्ति को 'ऋद्धिगौरव' कहा जाता है... खाने के लिए दूध, दही, मक्खन, मलाई जैसे रसवाले भोजन की सुलभता का अहंकार 'रस गौरव' कहा जाता है। शरीर की स्वस्थता के अहंकार को "साता गौरव' कहा जाता है..... ऐसी स्थितियों को आनन्द से भोगते समय पुण्य... से प्राप्त चीजों को पुनः पुण्य के कार्य में लगा देना चाहिए।
उदयमान पुण्य को पुण्य के कार्यों में RE-INVEST कर लेना ही बुद्धिमत्ता है।
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समता रखो
मेरी समता हर स्थिति में बनी रहे.... जो स्वीकार भाव की क्षमता को बढ़ा सकता है वही सुख-चैन से जी सकता है।
यदि जीवन में सुख हो या दुःख, लाभ हो या नुकसान, निन्दा हो या प्रशंसा, मान हो या अपमान इनको स्वीकार करेंगे तभी समता भाव को रखा जा
सकता है।
कोई भी दुःख व्यक्ति को कमजोर बनाता है और सुख उसे बंधन में डाल देता है। अतः जीवन में सुख व दुःख का चुनाव नहीं स्वीकार करना चाहिए। समता में रहने से मन के विचार शान्त हो जाते हैं।
ऐसी भावना बनी रहे परवरदिगार | तू जो भी दे वह हो मुझे स्वीकार || हे प्रभू ! तेरे फूलों से भी प्यार | तेरे कांटों से भी प्यार ||
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जीवन का हर दिन आखरी दिन
जीवन का हर दिन आखरी दिन है ऐसा समझकर भीतर की तैयारी कर लेनी चाहिए। यदि हमें हमारी मौत की याद निरन्तर बनी रहे तो भीतर की तैयारी की जा सकती है। मृत्यु हमारे सिर पर बंधी एक घंटी है जो हर घड़ी सावधानी रखने की चेतावनी देती है। दूसरे की मृत्यु देखकर परलोक की तैयारी कर लेनी चाहिए... पानी के बुलबुले को देखकर पाप से बचने की तैयारी कर लेनी चाहिए... हर शाम को ढलते सूरज को देखकर भीतर झाँकने की तैयारी कर लेनी चाहिए...
॥ गृहीत इव केशेन मृत्युना धर्ममाचरेत् ।।
इस मृत्यु के शास्त्र को हर पल याद रखो... भीतर की तैयारी आसानी से हो जाएगी।
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जग में ऐसे रहना... जिस संसार में हम रहते हैं यह बड़ा विचित्र है। विचित्रता यह है कि जो हम चाहते हैं वह होता नहीं और जो होता है वह भाता नहीं और जो भाता है वह टिकता नहीं फिर इस जग में कैसे रहना है उसका चिन्तन जरूरी करना है...
यह जग है काँटों की बाड़ी, देखी देखी पग धरना. 'आँखों देखिबा कानों सुनिबा, मुख से कुछ न कहना... ___ कहा भी है - यहाँ नमक है हर एक के पास में अतः जख्म अपने दिल के सभी को बताना अच्छा नहीं होता। जो भी बोलो मीठा बोलो... मीठा ऐसा भी नहीं हो जो कपटपूर्वक या चापलूसी से बोला गया हो... मन में कोमलता...। स्वभाव में मिठास... व्यवहार में विनम्रता और सम्बन्धों में स्निग्धता रखते हुए इस जग में रहना।
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जीवन का उद्देश्य
मुझे यह जीवन सिर्फ खाने-पीने के लिए नहीं, बल्कि खोई हुई आत्मा को खोजने के लिए मिला हुआ है। मुझे यह जीवन सोने के लिए नहीं, बल्कि जन्म-जन्म से सोई हुई आत्मा को जगाने के लिए मिला हुआ है...... मुझे यह जीवन घूमने-फिरने के लिए नहीं, बल्कि जन्म-जन्म से भटकती हुई आत्मा को सही पथ दिखाने के लिए मिला है।
अतः यह जीवन नर से नारायण बनने के लिए मिला है... यह जीवन जीव से शिव बनने के लिए मिला हुआ है... यह जीवन आत्मा से परमात्मा बनने के लिए मिला है...
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तिमाहुलाए पनि
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संयमयोगैरात्मा निरन्तरं व्यावृतः कार्यः ।।
जो व्यस्त रहता है उसकी तबियत स्वस्थ रहती है... मन किसी एक शुभ केन्द्र पर 10 एकाग्र रहता है समय सार्थक बातों में बीतता है। आराम करने वाले कभी सृजनात्मक
नहीं बन सकते... इस जीवन रूपी लोहे को कर्तव्य का पारसमणि स्पर्श कर लें तो ज़िन्दगी की हर पर सुनहरी बन जाती है... यह जीवन प्रशस्त कार्यों से हरा-भरा रहें..... यह जीवन अपनी ही शुद्धि करने में लग सके... यूं तो यह जीवन बड़ा छोटा है और एक दिन तो मरना ही है परन्तु कुछ अच्छा करके जायेंगे तो जमाना भी गुण गाता रहेगा और आत्मसंतोष भी प्राप्त हो सकेगा। कहा भी है - रुको मत चलते रहो। बुझो मत जलते रहो।।
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विवाद नहीं,
सामंजस्य बिठाएँ... {{ ण आणावेयव्वा {{
विवाद नहीं,
सामंजस्य बिठाएँ...
विवाद
विवाद नही
प्रायः यह देखा जाता है यदि दो व्यक्तियों की रूचियाँ अलग-अलग हों तो उनका आपस में सामंजस्य नहीं हो पाता। जिस कर में दो बच्चें हैं और दोनों की रूचि भिन्न-भिन्न है तो बात-बात में टकराहट होती है।
समान रूचि के लोगों के साथ रहोगे तो क्रोध के कारण कम बनेंगे। असमान रूचि के लोगों के मध्य कलह होता ही रहेगा। अपनी धारा में रहेंगे तो मतभेद नहीं होंगे और दूसरी धारा में जाओगे तो विवाद ही रहेगा।
जैसे विद्युत प्रवाह में शार्ट सर्किट से आग लग जाती है। शार्ट सर्किट का कारण क्या है? दो तार अपनी धारा प्रवाहित करते रहें तो ठीक किन्तु एक धारा का तार दूसरी धारा के तार से जुड़ जाए तो शार्ट सर्किट हो जाता है। अपनी रूचि अनुसार अपने ढंग से व्यक्ति चलता रहे तो कोई विवाद नहीं होता। विवाद तब होता है जब व्यक्ति अपनी रूचि के मुताबिक दूसरों को चलाना चाहता है।
के
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दसरों के
प्रभाव से हम मत जियो... अपने स्वभाव से कम और दूसरों के प्रभाव से अधिक जीते हैं। यह हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। यदि किसी ने कह दिया कि तुम बहुत सुन्दर हो... तुम बड़े उदार हो... तुम बहुत बुद्धिमान हो.... तुम्हारा कण्ठ बड़ा मधुर है... तुम बड़े । लोकप्रिय हो... यह सुनकर मन बड़ा प्रसन्न हो । जाता है। इसके विपरीत कोई कह दे कि आप बड़े क्रोधी है, स्वार्थी है, चालबाज है, लालची है, ईर्ष्यालु है... यह सुनकर हम नाराज हो जाते है। हम दूसरों के कथन से प्रसन्न और नाराज होते रहते हैं। ऐसे में हमने स्वयं को गौण कर दिया और दूसरे को जीवन का केन्द्र मान लिया। इस प्रकार दूसरों से संचालित होकर हम - कितनी दूर चल पायेंगे? हमारी आत्मा अपना वास्तविक
स्वरूप जानती है। अतः आत्मसाक्षी से धर्म की प्रवृत्ति में
मग्न होना चाहिये।
१५ अप्पा जाणइ अप्पा जहाँ?ओ अय्पसक्खिओ धम्मो ।
For Privat &Personalise
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{ भावे दीजे दान १ दान में विवेक रखो
forgive
me bae i'm sorryit will never happen again
it will never happen again you mean everyone to me sad
forgive me care about you take me back
3030
ei
ANSOME
जो दान अपनी कीर्ति-गाथा गाने को उतावला हो उठता है..... वह दान नहीं, अहंकार एवं आडम्बर है। प्रशंसा की इच्छा से दान नष्ट होता है। जब देने का भाव हो तो समय पर दो.... समय पर दिया हुआ दान थोड़ा सा भी श्रेष्ठ है..... समय पर दिया गया । दान वरदान बन जाता है। एक किसान बांस की नली में से धान्य कण खेत में डालता . है, दूसरा मुट्ठी भर-भर कर उछालता है। पहले
that is the only thing geicanoffer.NA
it never belonged
Our it or treasure it
hope it will remain with you forever.ori know,
my love will O
danANIRAL
Savya
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ambitionalways
m elopment
love-cycle
remained but search
, never ending elektron
ogllegiannai
Prever-ending Indangma
gujratioyalgiance
nocromatrons
Coach sweetheart
c
वाले किसान के सैंकड़ोंहजारों मन अनाज होता है
और दूसरे का फैंका यों ही व्यर्थ उड़ जाता है।
दान के विषय में गुप्त दान सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि उससे महापुण्य का लाभ है।
जब भी देने का समय आये विनम्र होकर दें जिससे लेने वाले को संकोच न हों।
दान प्रसन्नता के साथ दिया जाए तो प्रसन्नता ही दान का सर्वश्रेष्ठ फल है।
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मेरी आत्मा को निर्मल करने का यह उचित अवसर मुझे
मिला है।
जीवन में भूलें हो जाना
स्वाभाविक है परन्तु उन जिसने रखी झमा...
भूलों को बार-बार दोहराना
मेरी अज्ञानता है... ऐसी वह सबके दिल में जमा... अज्ञानता के कारण मैंने कई
लोगों के दिल को दुखाया और उनके शान्त जीवन को अशान्त कर दिया है पर...
१५ खाते सेविज्ज पौडए {{ मैं देखू अपने पाप को मुझे ऐसे नैन दो।। जमाने के सभी पुण्य ज़माने को मुबारक हो।
मेरी सदबुद्धि के दरवाजे जब से खुले हैं तब से मैं क्षमा प्रार्थी बनकर क्षमा का दान माँग रही हूँ... अपनी भूलों को कबूल करके उसका प्रायश्चित्त कर लेना चाहती हूँ। प्रायश्चित्त का भाव भीतर में हो और क्षमा की याचना बाहर में हो...
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झुकना ज़रूरी है...
एक घड़ा जब कुएं में उतरता है..... घड़े के चारो ओर पानी है पर जब तक घड़ा नहीं झुकेगा तब तक पानी प्रवेश नहीं करेगा.. कुछ पाने के लिए कुछ खोना है तो अहंकार को गलाना ही खो देना है।
झुकता वही है जिसमें जान है। अकड़ना तो खास मुर्दों की पहचान है ।
धर्म का मूल विनय है...... झुकने से पात्रता आती है...... झुकना एक ऐसा सुरक्षा कवच है जो कभी नहीं टूटता। जिसमें सद्गुण हो उसके सामने झुकना नम्रता है और स्वार्थ वश झुकना दीनता है तभी तो कहते हैं कि नमन - नमन में फेर होता है। नम्रता का पहला लक्षण है - किसी की कड़वी बात का मीठा उत्तर देना । दूसरा लक्षण है - दूसरों का सम्मान करना । तीसरा लक्षण है - क्रोध के क्षणों में मौन धारण करना ।
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इच्छाएं कम करो..
जीवन का घट पल-पल खाली हो रहा है उसी के साथ मन की इच्छाओं को कम करना होगा.... हमारी सारी आवश्यकताएं तो प्रकृति स्वतः पूरी कर देती है.... जरूरतों की पूर्ति में तो कोई झंझट है ही नहीं। जब आवश्यकता इच्छा बन जाती है तब ‘चाहिए' वाली कैसेट भीतर में चलनी शुरु हो जाती है। परिणाम स्वरूप 'यह चाहिए वह चाहिए' की प्रवृत्ति शुरु हो जाती है। सम्पन्न व्यक्ति वह है जिसे चाह नहीं है.... चाह के साथ अशान्ति है।
रोज अपने भीतर में जन्म लेने वाली चाहतों को समझ के द्वारा सीमित करो और सीमित इच्छाओं को शीघ्र सहयोग मत दो।
{{ अप्पिच्छे सुहरे सिया।।
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सुधारो... भूलों को
भूल हो जाना स्वाभाविक है परन्तु उसे नहीं सुधारना दूसरी भूल है। भूलों को छिपाना सबसे बड़ा पाप है।
मनुष्य जीवन में दो भूलें करता है पहली बार अज्ञान वश करता है तो दूसरी बार अज्ञान को छिपाने के लिए......
अपनी भूलों का जानना है... जानकर चिन्तन करना है... चिन्तन से भीतर की जागृति बढ़ेगी तो गलती को सुधारने का रास्ता खुलेगा।
भूलों को स्वीकारने से भीतर की पात्रता निखरती है... किन्तु हमारा अहंकार भूलों को स्वीकारने नहीं देता.
हम यह सोचने की, कभी भूल न करें कि हम कभी भूल कर ही नहीं सकते... जब तक परमात्मा नहीं बनेंगे, तब तक भूलें होती रहेंगी।
६ अतिक्रमानतिक्रमेत ।
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प्रसन्न
प्रसन्नता आत्मा का स्वास्थ्य है जो
वसंत की तरह सब कलियां खिला देता है। रहनासौखोसन्नता से अनेक सद्गुणों का जन्म
ऐसी चित्त की प्रसन्नता जब स्थिर हो जाए तब ज्ञानी का ज्ञान झलकता है। हम प्रसन्न तो हो जाते हैं पर कुछ पलों के लिए..... हमारी प्रसन्नता में गहराई नहीं आ पाती, क्योंकि हमारी दृष्टि बड़ी उथली है। प्रसन्न रहने के लिए जो मिला..... जैसा मिला..... जितना भी मिला.... उसी में संतुष्ट रहो। अपनी बात मनवाने का आग्रह मत रखो। सहिष्णु बन कर किसी की सुनो।
रना पड़ता है।।
'' समझौता भी करना।
हा है बंदे ! यह जीवन
क्या रखा
{ उउप्पसने विमले व चंदिमा ।।
बातों में
छोटी-छोटी बार
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सरल बनो
सरलता मन का ऐसा प्रकाश है जिसमें अन्तस् का एक-एक कोना स्पष्ट झलकता है। जिसकी सोच, वाणी और कर्म एक जैसे हो यानी वह जैसा सोचता है वैसा ही बोलता है और जैसा बोलता है वैसा ही करता है ऐसा पारदर्शी मेरा जीवन हो। सरल व्यक्ति सब चीजें सरल भाव से देखता हैं। उसकी गति, मति, भावना एवं आचरण सब सरलता से युक्त होते हैं। सब तीर्थों में स्नान करना और सब प्राणियों के साथ सरलता का व्यवहार करना ये दोनों एक समान है। जब तक मन में बालक जैसी निष्कपटता और निश्छलता पैदा न हो तब तक धर्म का बीज मन की भूमि में नहीं बोया
जा सकेगा।
N: 11 सन्तुष्टं सरलं सोमम्।।
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भय सदा अज्ञानता से उत्पन्न होता है।
ऐसे सात प्रकार के भय हैं - (१) मनुष्य को मनुष्य से भय होता है। (२) मनुष्य को जानवर से भय होता है।
(३) चोर आदि से भय होता है.
(४) अकारण भी भय लगता है। (५) पीड़ा के समय होने वाला भय है। (६) मृत्यु के क्षणों में होने वाला भय है।
(७) अपयश का भय है। भय जब भी लगे तभी मनोबल को तीव्र बना लो। जो दूसरों को डराता है, वही दूसरों से डरता है। ऐसा मनुष्य
किसी का सहायक नहीं बनता।
भय मुक्त रहो
पडिक्कमामि सहिं भयठाणेहिं {{
आत्मा की शक्ति अनन्त है जो भीतर में छिपी हुई है उसे प्रकट करो।
आत्मा की शक्ति से बढ़कर कोई भी शक्ति नहीं है।
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एकत्व का अवसर
यह संसार एक लम्बी और सुनसान सड़क है। मनुष्य अज्ञान के अंधेरे में उस सड़क पर चलता हुआ और ठोकरें खादा हुआ गिरकर भी पुनः चल पड़ता है।
/ संसार की इस वास्तविकता का स्वीकार करना ही होगा कि मुझे यहाँ अकेले ही जीना है... अकेले ही जीवन-पथ पर चलना है और निर्वाण तक की यात्रा भी अकेले ही करनी है।
एकत्व का अर्थ दीनता या विवशता नहीं है... यदि आपके स्वजन या प्रियजन आपको अकेले छोड़ गए हैं तो मानो वे आपको एकत्व की साधना करने का स्वर्णिम अवसर दे गए हैं। अतः निराश या हताश मत हो जाना।
एकत्व ही जीव मात्र की नियति है... अनेकत्व भ्रान्ति है। इसी एकत्व से प्रभु महावीर ने केवल ज्ञान की अनन्त सम्पदा को प्राप्त किया था। अकेलापन नकारात्मक है और एकत्व सकारात्मक है। जब-जब भी एकत्व का अवसर मिलें तब उसका सदुपयोग कर लेना।
एगोऽहं त्थि मे कोइ।।
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सम्मान की इच्छा मत करो...
उत्तम पुरुष विकारों से विमुक्त होता हुआ पूजा एवं यश का इच्छुक न बनकर जीवन व्यतीत करता है। तुम्हें कोई भाग्यवान कहे तो फूलो मत... तुम्हें कोई बुद्धिमान या धनवान कहे तो खिलो मत... क्योंकि उनका बुद्धि का तराजू पत्थर तोलने का है... हीरा तोलने का नहीं। ध्वनियों में सबसे मधुर है प्रशंसा की ध्वनि। अतः इस ध्वनि से बचते रहो... कम से कम धर्म के अनुष्ठान तो कीर्ति, यश और प्रशंसा से दूर रहकर ही करें।
करनी ऐसी कीजिए जिसे न जाने कोय। जैसे मेहंदी पात में बैठी रंग छुपाय||
काम करना आपका काम है..... बस सिर्फ काम करें..... नाम नहीं चाहे. धर्म करना आपकी आत्मा का स्वभाव है, तो सम्मान की इच्छा मत करो।
११ सम्माननं परां हानि योगः कुरुते यतः ।।
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मेरी आराधना { मृत्युपरिभावनं चैव ११
श्रीमद् रामचन्द्र जी ने कहा है - संसार में कदम रखते पाप है, देखने में ज़हर है
और मस्तक पर मौत मंडरा रही है ऐसा विचार करके आज के दिन में प्रवेश करो... यह संसार जिसमें हम रहते हैं यहाँ हर कदम पर पाप कराने वाली क्रियाएं हो रही हैं अतः हर पल पाप हो जाने की पूर्ण संभावना है..
यह संसार जिसमें हम रहते हैं यहाँ सभी ज़हर उगलते हैं अर्थात् देखने में जहर है। यूँ हर पल मौन सिर के ऊपर है अतः मृत्यु की स्मृति पाप करने से अटकाती है.... मेरी आराधना ऐसी हो जो मुझे पापों से अटकाये... मैं प्रभु भक्ति और ज्ञान की आराधना में एकाग्र हो जाऊँ। मन में समता, तन की क्षमता... आत्मरमण की शक्ति हो।
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जिन्दगी...
परिवर्तन का नाम है...
जीवन एक ऐसा प्रवाह है जिसकी धारा सदा एक रूप से नहीं बहती। जीवन में उतार-चढ़ाव, धूप-छाँव, सुख-दुःख, लाभ-हानि, अच्छा-बुरा आदि होता रहता है। यह ज़िन्दगी सुख-दुःख के मिश्रण से ज्यादा कुछ भी नहीं है। परिवर्तन इस संसार का निश्चित नियम है... चाहें हम इस परिवर्तन को पसंद करे या नापसंद करें परन्तु उसे स्वीकारना पड़ेगा। समता भाव से जीवन में होने वाले हर परिवर्तन को स्वीकारना ही चाहिए। कहा भी है -
सुख में ही सब यार होते हैं, दुःख में कपड़े भी भार होते हैं। सुख-दुःख दोनों में जो सम है, वे विरले सौ में चार होते हैं।
। संसारै सञ्चलत्येव सुखदुःखैकसन्ततिः ।।
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धैर्य रखने से तो चलनी में भी पानी अवश्य भरा जा सकता है। यदि हम पानी को बर्फ बन जाने जितना धैर्य रखें तो चलनी में भी। पानी भरा जा सकता है। किसी भी कार्य में जल्दबाजी पश्चात्ताप पैदा करती है।
जीवन का एक नियम है कि यदि तुम धीरज रख सको तो सभी चीजें पूरी हो सकती है। कच्चे फल शीघ्रता से मत तोड़ो... थोड़ा धैर्य रखो वे फल पकेंगे और गिरेंगे तब तोड़ने का श्रम भी नहीं करना पड़ेगा।
धैर्य
जो कुछ भी समय आने पर
होता है वह शुभ होता है।। ले धीरज का थोड़ा भी सम्बल। जितना ज्यादा धैर्य होगा उतनी मुश्किल का लम्हा स्वयं निकल जाता है| ही बड़ी घटना घटती है। ज़रा
धैर्य रखो... धूप निकलेगी।
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त्याग में आनन्द है...he anty
{१ स्वयं त्यक्तास्त्वेते शमसुखमनन्तं विदर्भात।।
जीवन-सरिता के दो किनारे है - भोग और त्याग... जन्म-जन्म के हमारे संस्कार भोग से जुड़े हैं परन्तु त्याग करने में जो आनन्द है वह वस्तुओं को भोगने में नहीं है।
ज्ञानियों का कथन है - जिन वस्तुओं को अंतिम समय में विवशता से छोड़ना ही है तो उन्हें पहले ही अपनी समझ से छोड़ देने में बुद्धिम त्ता है... त्याग से बढ़कर न कोई शक्ति है और न ही कोई मस्ती... _त्याग ज्ञान का सहज परिणाम है । ऐसे त्याग में जो छूटता है वह निर्मूल्य है और जो पाया जाता है वह अमूल्य है।
प्रकृति में भी त्याग का महत्व है - वृक्ष ने सदा फल-फूल का त्याग किया है... नदी ने सदा जल का त्याग किया है... त्याग से ही जीवन में संतुलन पैदा होता है।
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लक्ष्य जरूरी है...
Mo-Fr.10.00
80.9.00
Dachauer råder munich
80993 MOnch
हमारे जीवन में लक्ष्य का चुनाव करना यह एक अत्यन्त आवश्यक चिन्तन है। बिना लक्ष्य का जीवन पशु के समान होता है।
लक्ष्यहीन मनुष्य का प्रत्येक चरण आधार रहित है... उसकी साधना भी आकाश में लटकी रहती है... उसकी कार्य-शक्ति भी खंडित हो जाती है।
सारी शक्तियों को केन्द्रित करना और सभी प्रवाहों को एक दिशा में ले जाना लक्ष्य का ही काम है।
यह मनुष्य जन्म जो मिला है उसमें अपनी मंजिल का निर्णय कर लेना है। मोक्ष का लक्ष्य तय हो जाने पर बाहर की यात्रा छोड़कर अन्तर्यात्रा प्रारम्भ होती है। हमारी शक्ति सच्चे लक्ष्य के लिए समर्पित हो ऐसी भावना बनी रहै ।
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सम्यक्त्वी आत्मा
सम्यक्त्वी आत्मा यानी सच्ची समझ को जिसने प्राप्त कर लिया है। जिसने जान लिया है कि यह संसार सपने जैसा है। यह संसार मायाजाल से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
Just.
सम्यक्त्वी आत्मा संसार में रहता है पर संसार को अपना नहीं समझता। परिवार, ऐश्वर्य का भोग, शरीर के सुख-दुःख सबका अनुभव करते हुए भी अपने को उन सबसे अलग समझता है।
जैसे सेठ का मुनीम लाखों-करोड़ों का हिसाब रखता है, लेन-देन करता है परन्तु उस धन को अपना धन नहीं समझता। जिस दिन उस धन को अपना समझा तो जेल के दरवाजे दूर नहीं है। कहा भी है....
ऊपर से परिवार के बनकर रहो पर भीतर से वीतराग परमात्मा के बनकर रहो ।
HOW
आत्मा जब पर को अपना समझ लेता है। तो संसार की कैद में फंस जाता है और दुःख को बढ़ाता है ।
Abisthis me?
feds like paranoia ¡¡ONIH
IS
found myself in a FO
ERAIN
WALK INTO THE RA
from life itself
Walk away
A million
sound as SoNET Pramate & Persotalcuse Only
ALL
CONNECTED?
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रूप नहीं स्वरूप का चिन्तन करो...
१५.स्वरूपमनुचिन्तयेत् ।।
इस धरती पर मनुष्य थोड़ा-सा रूप क्या पा लेता है आकाश में उड़ने लगता है। 'मेरे जैसा रूप तो किसी का है ही नहीं' यह कहकर इतराने लगता है।
थोड़ा चिन्तन करो, किस रूप पर अभिमान कर रहे हो? अपने जिस रूप पर आज इतना इतरा रहे हो, अपने आगे के पच्चीस साल के रूप को देखोगे तो तुम्हारे चेहरे पर अनेकों झुरियाँ दिखाई देगी। यदि
और थोड़ा आगे जाकर के देखोगे तो हमारा यह सुन्दर सलौना रूप चिता पर सुलगता हुआ दिखाई देगा।
जिस-जिसने भी अपने स्वरूप को भूलकर इस रूप का अभिमान किया है उसकी अन्तिम परिणति यही रही है। किस रूप पर व्यक्ति इतना मुग्ध हो रहा है...? मक्खी के पंख से भी पतली शरीर की एक परत को उतारते ही सुन्दर सलौना दिखाई पड़ने वाला यह शरीर घृणा की चीज बन जाएगा। अतः शरीर के रूप की नहीं स्वरूप की चिन्ता करें। जो स्वरूप का चिन्तन करते हैं वे अजर-अमर हो जाते हैं।
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अच्छा आज...
बुरा कल.
जो अच्छा है वह मैं आज ही कर लूँ और जो बुरा है वह मैं कल पर टाल दूं - यह सूत्र जीवन को गलत दिशाओं में जाने से रोक देगा।
कभी क्रोध आ जाए तो ठहर जाओ, उसे कल पर टाल दो... कभी अप्रिय, कटु वचन कह डालने की तीव्रता भीतर में आ जाए तो उसे कल पर टाल दो...
यदि अपने अपराधों की क्षमा मांगनी है तो आज ही मांग लेना...
प्रार्थना करनी है तो आज ही कर {तं अज्ज चिय करेह तुरमाणा ।
लेना... दान देना है तो आज ही दे देना... व्रत नियम करना हो तो आज ही कर लेना...
धर्म आज ही कर लेना और अधर्म कल पर टाल देना। शुभ कार्य करने में विलम्ब करने से मन के भाव बदल सकते हैं इसलिए उसमें देरी मत करो...
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सत्य की आराधना
ए से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा ।।
सत्य की आराधना भावों से प्राराम्भ होती है। जब सत्य मन में। स्थापित हो जाए तब वाणी से मुखरित होने पर सुशोभित होगा । यूँ भी अनेक बार क्रोध से, अहंकार से, कपट से, लालच से, ईर्ष्या से, मज़ाक से अथवा भय से सत्य के बदले असत्य की भाषा बोली जाती है...
कभी-कभी निन्दा और विकथा करते। हुए भी झूठ बोला जाता है... कभी कभी सत्य वचन ही कर्कशता से युक्त होकर किसी का रहस्य प्रकट करके किसी के दिल को दुखाते हैं। तो वह भी असत्य भाषा जैसा है... ऐसी वाणी से सत्य खण्डित होता है उसके लिए मुझे धिक्कार है...
वह दिन मेरा परम कल्याण का होगा जिस दिन मैं सर्वथा रूप से असत्य का त्याग करके सत्य में प्रवेश करूँगी। 42ain Education International
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आदत क्यों नहीं छूटती? हमारा यह पूरा जीवन मात्र आदतों के प्रभाव और दबाव से चल रहा है। हम भोजन, स्नान, पढ़ना, सोना, जागना, दैनिक क्रियाएं करना आदि सब आदत से करते हैं... कोई भी शुभ कार्य हम आदत वश करें तो अच्छा ही है पर किसी भी अशुभ कार्य करने से अनेक समस्याएं आती हैं। दो कारणों से हम अपनी आदतों को नहीं छोड़ते हैं - हमारा मन उस कार्य को करते रहने से इतना उस साँचे में ढल चुका है। कि वहाँ से उसे हटाना कठिन लगता है और दूसरा उस काम की
व्यर्थता का बोध नहीं हो पाता। जिसका मनोबल और आत्मबल मजबूत है।
वह आदतों की जाल से छूट जाता है।
आदत बुरी सुधार ले बस हो गया भजन। मन की तरंग मोड़ ले बस हो गया भजन ||
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{१ सद्गुरुः शरणं मम ॥
सद्गुरु की शरण यह संसार जन्म, मरण, रोग, शोक, व्याधि और उपाधि के कारण महा दुःखमय है। ऐसे दुःखमय संसार में सार तो कुछ भी नहीं है और सुख भी कहीं नहीं है... इस वास्तविकता का बोध हो जाए तब उन्हें सच्चे सद्गुरु जो आत्मज्ञानी है उसके सान्निध्य की खोज कर लेनी चाहिए। ऐसे सद्गुरु जो कल्याण के मार्ग पर चल रहे हैं उनकी सेवा में मेरे जीवन का शेष समय बीत जाए...
ऐसे सद्गुरु का सत्संग करने से बुद्धि की जड़ता समाप्त होती है... विवेक जागृत होता है... उनकी वाणी सत्य का सिंचन करती है, पाप मिटाती है, प्रसन्नता देती है और मोक्ष रूपी मंजिल प्राप्त कराती है। ऐसे सद्गुरु के चरण-शरण मुझे हर जन्म में प्राप्त हो ।
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रूठे सुजन मनाईये.
बहुत छोटी जिन्दगी है... चंद सांसों का सफर है... ऐसे में क्यों किसी से दुश्मनी रखना
और क्यों मनमुटाव रखकर रूठ जाना... जो हमसे रूठ गया है, नाराज हो गया है, उदास या भयभीत हो गया है उसे मुलायम मन से और दिलावर दिल से मनाएं... हो सकता है रूठने वाला छोटा हो पर मनाने वाला सदा बड़ा ही होता है। जैसे मोती की माला जितनी भी बार टूटे तो हम उन मूल्यवान मोतियों को झुक-झुककर समेटते हैं... बार-बार गिनते हैं कि कोई कम न हो और फिर सावधानी से पिरोते हैं। कहा भी है -
रूठे सुजन मनाईये जो रुठे सौ बार।
रहिमन फिर-फिर पोहिए, टूटे मुक्ताहार।। {{ उपसमियट्वं उवसमावियट्वं {{
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C
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सरल कैसे बनें... सरल होने के लिए जटिलता को छोड़ना होगा....... मन को न बदलकर सिर्फ कपड़ों को बदलना एक धोखा है इससे मन में जटिलता आती है अर्थात् झूठे अभिनय छोड़ने होंगे क्योंकि अभिनय जटिलता लाता है। किसी भी अभिनय में हम स्वयं को छिपाते हैं और जो हम नहीं है वह दिखाना चाहते हैं।
जब मन में उदासी हो और घर में मेहमान आ जाए तो हम मुस्कुरा देते हैं तब हमारा व्यवहार जटिलता से । भरा हुआ होता है। सरलता कहती है कि जब मन में भाव नहीं है तो ऊपर-ऊपर से कैसे भाव प्रकट करो...
सरलता का सूत्र है - जो भीतर में है वही बाहर हो और जो बाहर में है वही मेरे भीतर में होना चाहिए....
भगवान महावीर ने भी कहा है - 'जहा अंतो तहा बाहि अर्थात् जैसे भीतर हो वैसे ही बाहर बने रहो।
{{ चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता {{
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जो तुम्हारे पास है उसे दूसरों को देने में तुम स्वतंत्र हो अतः जब देने का अवसर हो तो मुक्त मन से देना सीखो। यह चिन्तन मेरे मन में सदा रहे कि मेरे पास जो कुछ है वह मैं दूसरों को पहुँचाऊँ प्रकृति ने हमें देने के लिए समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य दिया है उसे दूसरो के हित में लगा देना चाहिए। इसके लिए हम इतने पुण्यशाली बनें कि जो मेरे पास है वह मैं दूसरों को उदारता से दूँ। सृष्टि का एक नियम है जो दिया जाता है वही लौटता है जो हम दे सकते हैं उसे ईमानदारी से देते रहना चाहिए। जीवन में जिसने बाँटा उसी ने पाया और जिसने संभाला
उसी ने गँवाया अतः जब देना ही है तो शत्रु हो या मित्र सभी को समान रूप से दो। कितना भी दे दोगे तो भी खजाने में कुछ कमी नहीं आएगी।
Cot
मुक्त मन से दो...
।। परोपकाराय सतां विभूतयः ।।
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अपनी प्रशंसा जहाँ भी सुनने को मिले आप सावधान हो जाइए... इस मिठास में बड़ी गुदगुदी है जिसमें फिसलने ' की पूर्ण संभावना है। यह तो हमारा Chloroform है जो बेहोश कर देगा। अपनी प्रशंसा अपने आप नहीं करे... अपने गुणों की प्रशंसा करने से इन्द्र भी लघुता को प्राप्त होता है। क्या तुम चाहते हो कि दुनिया तुम को भला कहें ? यदि । चाहते हों तो तुम स्वयं को भला मत कहो । जब भी आत्मप्रशंसा में हम जुड़ जाते हैं तब गुब्बारे में हवा भर दी हो ऐसे फूलकर फैल जाते हैं... तब हमारे सारे विकास के द्वार बन्द हो जाते हैं। ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा ही सच्ची समझ को परिपक्व कर देती है। ऐसे में आत्मप्रशंसा का रस छूट जाता है।
से सावधान !
१६ शक्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।
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विवेकी बनो
{{ तस्माद् भाव्यं विकिना {{
हम अपने जीवन में जो कुछ भी करते हैं वह मन के कहने पर करते हैं और मन जो भी कुछ कहता है वह पुराने संस्कारों के अनुसार ही कहता चला जाता है...
मन का कहा हुआ तभी अच्छा हो सकता है जब हमारे संस्कार भी अच्छे हो... यह संस्कार हमारे पूर्व जन्मों की पूँजी है। अतः विवेकी बनकर अशुभ संस्कारों के प्रभावों से बचना है।
जागृति भीतर में हो तो हम अशुभ संस्कारों में विवेक रख सकते हैं। एक बार आत्मा जागृत हो गई तो फिर उससे भूलें नहीं होती उसकी हालत ऐसी हो जाती है जैसे आँखें खुली हो तो आदमी दीवार से नहीं टकराता अपितु दरवाजे से निकल जाता है...
विवेकी बनकर हमें अशुभ प्रभावों से बचते रहना चाहिए...
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जो वस्तुएं तुम्हारे पास है
उसका सदा सम्मान करो... किसी भी छोटी
वस्तु की उपेक्षा मत करो... एक बीज में वृक्ष समाया हुआ है... क्यों भूलें उस मिट्टी के दीपक को जो भगा सकता है अंधकार को... उस चिथड़े का भी निरादर मत करो क्योंकि उसने भी लज्जा निवारण में सहयोग दिया है। जो व्यक्ति भी सम्मान करो... किसी बच्चे या
छोटा समझना उनकी आत्मा का भी व्यक्ति हमें मिला है चाहे में मिला या नौकर के रूप में, मिला या शत्रु के रूप में, उनका चाहे वह क्रोधी हो या लालची, या नासमझ... परन्तु उनकी करके उनका सम्मान करें....
अच्छाईयाँ भी समझ में आने लगी।
तुम्हारे आस-पास है उसका व्यक्ति को तुच्छ और
अपमान है। जो
वह बेटे के रूप मित्र के रूप में
करें ।
सम्मान करो...
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UNIKEEL
อ้อยไป
1
सम्मान
• समझदार
हो
बुराईयों को गौण धीरे-धीरे उनकी
S
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प्रार्थना में माँग न हो
प्रार्थना का मार्ग समर्पण का मार्ग है। प्रार्थना याचना नहीं अर्पणा है। जिससे हृदय के द्वार स्वयमेव खुलते हैं। सूरज का उदय हो और फूल न खिलें तो समझना कि वह फूल नहीं पत्थर है... परमात्मा की प्रार्थना हो और हमारा हृदय न खिले तो जानना चाहिए वह हृदय नहीं पत्थर है। प्रार्थना में जब माँग आती है तो भक्त उपासक न रहकर याचक बन जाता है। प्रार्थना एक निष्काम कर्म है। जब भक्त तन्मय होकर प्रार्थना में लग जाता है तो उसकी सारी इच्छाएं स्वतः समाप्त हो जाती है। एक भक्त की सच्ची प्रार्थना इस प्रकार होनी चाहिए...
करो रक्षा विपत्ति से न ऐसी प्रार्थना मेरी।
विपत्ति से भय नहीं खाऊँ प्रभु ये प्रार्थना मेरी।। मिले दुःख ताप से शान्ति न ऐसी प्रार्थना मेरी।
सभी दुःखों पर विजय पाऊँ, प्रभु ये प्रार्थना मेरी॥
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भीतर में पवित्रता हो...
प्रत्येक व्यक्ति का अन्तस् शुभ एवं अशुभ लहरों से तरंगित है। जब मन के समुद्र में शुभ लहरें पैदा होती है तो वे बहुत शीघ्र ही समाप्त हो जाती हैं और जब अशुभ लहरें पैदा हो जाती हैं तो वह टिक जाती हैं। इसका एकमात्र कारण है शुभ में अरुचि और अशुभ में रुचि ।
{ भावपावित्र्यमाश्रयेत् ।
जब हम भीतर में उठने वाले अशुभ भावों में अधिक रुचि नहीं लेंगे तो वे भाव टिक नहीं पायेंगे। शुभ भावों में रुचि लेने से वह भाव टिक सकते हैं। उन भावों को तत्क्षण कार्य में ढाल लेना चाहिए।
शुभ भावों के जागृत होने पर प्रतीक्षा नहीं करें, शीघ्र कार्यान्वित कर लेना चाहिए। अशुभ भाव पैदा हो तो २४ घण्टे रुक जाना चाहिए।
इसलिए भारतीय संस्कृति का यह कथन है - 'शुभस्य शीघ्रम्' अर्थात् शुभ कार्य में देरी मत करो।
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इस संसार में जीने के दो ढंग है - एक है लड़ना और दूसरा है सहना । इस
सृष्टि में प्रत्येक व्यक्ति इतना पुण्यशाली नहीं होता कि उसे उचित समय
पर सब कुछ मनचाहा मिल जाए..... चाहे घटना प्रिय हो या अप्रिय.....
चाहे सत्कार मिले या तिरस्कार..... व्याकुलता रहित होकर सहना सीखो।
और यह अमूल्य जीवन तो दूध से भरा हुआ प्याला है । जीवन में जो भी प्रतिकूलता है वह मात्र चुटकी भर राख जितनी है।
यूँ भी इस संसार के समस्त पदार्थ और व्यक्ति अस्थिर और विनाशी हैं।
हर व्यक्ति में गुण भी है और दोष भी है..... परिस्थितियाँ सदा तब्दील
होती ही रहती हैं। ऐसे में सहनशीलता से सब कुछ स्वीकार करें।
२५ जो सहइ तस्स धम्मो ।
सहना सीखो
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यह जीवन कैसा है ?
ज़िन्दगी एक कैलेण्डर है.. एक-एक पन्ना रोज
निकलता है...
जीवन
का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि जीवन किसी भी क्षण । टूटेगा... यद्यपि आत्मा तो अजर-अमर है। किन्तु यह जीवन अमर नहीं है। यह जीवन किसी भी क्षण टूट सकता है जैसे पीला। पत्ता वृक्ष पर कुछ पल के लिए है... पानी का बुलबुला किसी भी क्षण फूटेगा। यह क्षणभंगुरता जीवन की एक सच्चाई है। जिसे जानकर भी हम नहीं जानते....। जिसे समझकर भी हम नहीं समझते।। जीवन का सार इतना ही है कि वस्तु की क्षणिकता........ जीवन की अनित्यता.. मृत्यु की अनिवार्यता....... का चिन्तन करके जीवन को धन्य बनाओ।
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मानव का मन पारे की भाँति है। अशुद्ध पारा खा लेने पर जीवन से हाथ धोने की नौबत आ जाती है किन्तु वही पारा जब शुद्ध और संस्कारित हो जाता है। तो अमूल्य औषधि बनकर जीवन का रक्षक बन जाता है। _संस्कार हीन मन अशुद्ध पारे के समान जीवन को नष्टभ्रष्ट कर देता है जबकि सुसंस्कृत
और विशुद्ध मन जीवन को उन्नत, सुखी, महान, उच्च और पवित्र बना देता है।
मन की शक्तियाँ विलक्षण है। जैसे कीचड़ जल से ही उत्पन्न होता है और उसका प्रक्षालन भी जल से ही किया जाता है। ठीक उसी प्रकार समस्त पाप मन से ही होते हैं और उनका प्रक्षालन भी मन से ही किया जाता है। इसीलिए कहा जाता है मन मनुष्य के जीवन की धुरी है। इसमें जीवन बदलने की शक्ति है। अन्तर्मुखी मन हमारा तारक है और बहिर्मुखी मन आत्मा को भवसागर में भटका देता है।
मन की शक्ति
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समझ बढ़ाईये...
सच्ची समझ हमारी हर समस्या का समाधान है। समझ के अभाव में हमारे भीतर दुःख, द्वन्द्व, उलझनें और शिकायतों का दौर चलता है। प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे से शिकायत है कि यह मानता नहीं है, यह बड़ा जिद्दी है, यह ऐसा अड़ियल है कि इसे हम समझा नहीं सकते.... यह सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही समझ से चलना चाहता है...... सबके अपने गणित है....... यूँ भी सोच विचार का दृष्टिकोण सबका भिन्न-भिन्न है। इस संसार में जीते हुए हमारा दृष्टिकोण कोई समझ ही ले यह कोई जरूरी नहीं है।
{{ आत्मनाऽऽत्मानं बोधयेत् ।।
किसी को समझाने से पहले खुद को समझो....... समझ की गहराई हो तो परिस्थिति को अनुकूल बनाया जा सकता है। सच्ची समझ ही तो सम्यग्दर्शन की पहचान है।
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श्रेष्ठतम
जीवन....
का सूत्र है....
न्यूनतम लेना...
अधिकतम देना.....
और श्रेष्ठतम जीना.....
श्रेष्ठतम जीवन
इस जीवन में यदि कुछ दूसरों से लेना पड़े तो कम से कम लेना, यदि कुछ देने का मौका मिले तो अधिक से अधिक देने का भाव रखना चाहिए.
श्रेष्ठतम जीने का सूत्र है उन लोगों से दूर रहना जिनसे कुछ गलत या अशुभ मिल सकता है और उन लोगों के पास रहना जिनसे कुछ शुभ और श्रेष्ठ मिल सकता हो........
अपना बचाव करने के लिए हर पल सजग रहना क्योंकि अभी हम इतने योग्य नहीं बन पाये हैं कि कोई हमें गलत या अशुभ दें और हम न लें, सच्चे अर्थ में जीने का यही श्रेष्ठतम सूत्र है ।
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का
Welcome RI...
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जिस दिन हम अपने हृदय की दीवार पर दुःख रूपी मेहमान के लिए WELCOME का BOARD लगा देगे तभी हृदय का भार हल्का हो सकेगा.... जीवन में ऐसी समझ होनी जरूरी है।
आने वाले दुःख को मेहमान समझो क्योंकि वह आपके द्वार पर आया है तो जाएगा भी, उसका आदरपूर्वक सत्कार करो।
इस संसार में जीते हुए हर कदम पर दुःख तो मिलेंगे ही परन्तु आते हुए दुःखों को हम सुख में बदले यही हमारी विशेषता है।
दुःख को रोकना मनुष्य के बस में नहीं है किन्तु आये हुए दुःखों को सुख में बदलना हमारी दृष्टि पर आधारित है।
परिस्थिति को नहीं मनःस्थिति को बदलने की साधना करें, तभी समाधि के फूल खिलेंगे ।
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मेरी मलकियत
मेरे पास जितनी चीजें है उतनी चीजों पर मेरी मलकियत है। कोई भी चीज मैं बिना आज्ञा के नहीं ले सकती..... बिना दी हुई वस्तु को लेने की हकदार मैं नहीं हूँ..... चोर की चुराई हुई वस्तु को मैं खरीदना नहीं चाहती और न ही मुझे इन गलत कामों के लिए किसी को सलाह और सहयोग देना है..... ___ अपने कर्त्तव्यों को निभाते हुए मुझे मेरी वस्तुएँ भी सीमित करनी है..... दूसरों की वस्तुओं पर मुझे ध्यान नहीं देना है..... _____ इस संसार में मेरा कुछ भी नहीं है फिर समग्र वस्तुओं पर मलकियत कैसे हो सकती है.....? जो वस्तुएँ मेरे पास हैं उसका सिर्फ मुझे उपयोग कर लेना है.....जीवन में यह सतत स्मरण बना रहे कि इन वस्तुओं को छोड़कर एक दिन मुझे यहाँ से जाना है।
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दुनिया में एक सच है - मृत्यु। सारा जीवन मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। जो बना है वह मिटेगा.... जो सजाया गया है वह एक दिन उजड़ेगा।
। एक ही सच है. जब लग तेल दीये में बाती, जगमग-जगमग होय। चुक गया तेल बिनस गई बाती, ले चल ले चल होय ।।
मृत्यु स्वाभाविक है अतः मौत से छुटकारा नहीं हो सकता लेकिन मृत्यु के भय से छुटकारा हो सकता है। हर व्यक्ति चाहता है कि मेरी मृत्यु ऐसी हो कि दोबारा जन्म ही न लेना पड़े।
जीवन जीते हुए मृत्यु को समझ लिया जाए तो सारी शक्तियाँ कल्याण की दिशा में स्वयमेव लग सकती है।
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अतीत का महत्त्व है इससे इन्कार नहीं है। उसे यूँ ही भुलाकर नहीं रहा जा सकता... परन्तु कदम-कदम पर अतीत की दुहाई देना... उसी से चिपटे रहना स्वयं को खतरे में डालना है। अतीत की स्मृति भले ही रहे परन्तु दृष्टि तो भविष्य की ओर केन्द्रित रहनी चाहिए...। हम क्या थे इसकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण यह देखना है कि अब हमें क्या बनना है? समय के साथ आगे चलना और देखना जरूरी है। पिछले समय से तो मात्र शिक्षा लेनी चाहिए... यदि मनुष्य का पीछे की ओर देखना जरूरी होता तो आँखें आगे की बजाय पीछे होती। कहा जाता है कि भूत के पैर पीछे की ओर उलटे होते हैं... अतः इस बात को याद रखकर आगे बढ़ना।
पीछे नहीं... आगे देखिए.....
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कर्मों से सावधान
हमारी आत्मा प्रत्येक समय नये कर्म बाँध रहा है और प्रत्येक समय पुराने कर्म भोग भी रहा है। भोगना तो निश्चित है, अपने वश में नहीं है परन्तु बंधन की क्रिया अपने हाथ में है उसे अटकाना चाहें तो अटका सकते हैं। जो अच्छा – बुरा भोगने में आता है उसे समत्व भाव से भोगो। अच्छा फल मिलने पर अहंकार के भाव से नहीं जुड़ना है और जब बुरा फल मिले तो निमित्त को कोसना नहीं है, घृणा नहीं करनी है। क्योंकि कर्मों का भोग करते हुए राग-द्वेष नहीं करेंगे तो नए कर्म-बंध नहीं होंगे। इसलिए कहा भी है - तू भोग की चिन्ता मत कर किन्तु जो नया बंध प्रतिक्षण हो रहा है उसे रोकने का प्रयत्न कर... मुक्ति का यही सीधा रास्ता है।
१५ सो तम्मि तम्मि समए सुहासुहं बंधए कम्मं ।
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मौन की गहराई { { पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगानां मौनमुत्तमम् ।।
मौन का अर्थ है नहीं बोलना। यह अर्थ बड़ा सामान्य है परन्तु ज्ञानियों ने इसका गहरा अर्थ समझाने के लिए चार प्रकार से समझाया है...... १) वाणी का मौन :
चुप रहना और पापकारी वचन नहीं बोलना..... २) मन का मौन :
मन में विकल्प न उठना और मन का इधर-उधर न भटकना.... ३) काया का मौन :
कायिक चेष्टाओं को शान्त रखना और पांच इन्द्रियों का संयम रखना..... ४) आत्मा का मौन :
स्वयं की आत्मा को अन्य भावों से हटाकर आत्मभाव में लीन रखना....
विचार, विकार और विभाव जहाँ समाप्त होने के लिए जो पुरुषार्थ किया जाए वही आत्मा का मौन है | यह मौन सर्वश्रेष्ठ है। अपनी मौन साधना ऐसी हो जो आत्मा के मौन तक ले जाने का लक्ष्य स्वती हो ।
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प्रायश्चित्त से शुद्धि
हे गुरुदेव ! मैं अपने सभी अपराधों के लिए क्षमा चाहता हूँ... मेरे द्वारा जीवन के कर्तव्यों को पूरा करते हुए जो अपराध हुआ हो उससे निवृत्त होता हूँ... हे क्षमाशील ! मैंने दुष्ट मन से, दुर्वचन से, दुष्ट शारीरिक चेष्टाओं से, क्रोध, मान माया लोभ से, किसी भी काल में, किसी भी मिथ्या भावना से, धर्म मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाली कोई भी आशातना हुई हो... आपकी तैंतीस आशातनाओं में से मैंने जो भी अशातना की हो तो मुझे क्षमा करें...
इस प्रकार मैंने जो भी अपराध किया हो उससे निवृत्त होता हूँ... अपने पापों की आलोचना करती हूँ... अपनी आत्मा के अपराधकारी रूप का सर्वथा त्याग करता हूँ...
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TEER-0कशा
UFE IS NOT A GAME
tes so beautif
NEMA
destes falls in love wil
जीवन का निर्माण
I life
IFE.LIFE.LIFE.LIFI LIPA LIFE.LIFE.LIFE.LIFE.LIFE.LIFE.LIFE.,
जन्म का प्रारम्भ तो सभी का एक जैसा
होता है लेकिन अन्त एक जैसा नहीं होता। सुबह तो सभी की एक सी है पर
शाम भिन्न-भिन्न है।
स्मरण रहे, जन्म जीवन नहीं है वह
तो मात्र एक सुन्दर सा उपहार है.... जीवन मिल गया तो सब मिल गया ऐसा मत समझो क्योंकि जीवन का उतना ही मूल्य है जितना हम उसमें धर्म करते हैं।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, पाने योग्य है, उसे अर्जित करने के लिए श्रम करना होता है। इससे विपरीत जो व्यर्थ है, कचरा है वह बिना मेहनत किए ही
इकट्ठा हो जाता है।
गुलाब के फूलों को खिलाने के लिए सृजनात्मक श्रम करना पड़ता है हालाँकि Forb घास-पात तो स्वयमेव उग आते हैं।
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मानव-मन की दो धाराएँ हैं - एक है चिन्ता की धारा दूसरी है चिन्तन की धारा... जिसके जीवन में पवित्र विचार नहीं है उसका चिन्तन भी दिव्य नहीं हो सकता। जिसका चिन्तन दिव्य नहीं होता उसी को चिन्ता सताती है। फलतः वह कुंठाग्रस्त होकर हीनता का शिकार बन जाता है। चिन्ता करने से समय, शक्ति और समझ का क्षय होता है। ऐसी चिन्ताएँ इस जीवन में अनेक है जैसे हमें कोई नहीं पूछता, हमें कोई प्रेम नहीं देता, हमारे पास कुछ नहीं है, हमारा कोई मल्य नहीं है. हमारा आदर नहीं होता. रचन्ता नहा. इस तरह की अनगिनत शिकायतों से हम चिन्तन करो... सभी पीड़ित हैं। चिन्तन को गहरा करेंगे तो चिन्ता स्वयमेव कम होती जाएगी। ज्ञानपूर्वक विचार करने का नाम चिन्तन है। सत्श्रवण और सत्वाँचन ही चिन्तन के द्वार खोलता है।
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DREADING AND HOPING ALL:
NOR DREAD NOR HOPE ATTEND A DYING ANIMAL
A MAN AWAITS HIS END
A GREAT MAN IN HIS PRDE CONFRONTINS MURDEROUR ME
MANY TIMES HE DIER, 8 MANY TIME ROBE AGAIN.
मृत्यु का डर DEATH
SURSSION OF BREATHE
HE KNOWS DEATH TO THE BONE MAN HAS CREATED DEATH
हम मृत्यु से क्यों डरते हैं? मृत्यु दुःख रूप नहीं सुख रूप है क्योंकि जिन दुःखों से
लोग नहीं छुड़ा सकते उन दुःखों से मृत्यु
CASTS DORSION UFONO
हमें अपने निकटतम सगे-स्नेही परिवार के
तो वह हमारे असंयम के कारण से ही होता है.... मृत्यु के क्षण में सम्पत्ति और स्वजनों को छोड़ने का जो दुःख है वह भीतर की
छुड़ा देती है। वस्तुतः मृत्यु का दुःख जीवन
का ही दुःख है। जीवन में रोग का दुःख है
ममता के कारण से ही होता है। मृत्यु के बाद मेरा क्या होगा यह भय भी अज्ञान जनित है। ऐसे चार प्रकार के दुःख हैं - (१)
शरीर की वेदना (२) पापों की स्मृति (३)
मृत्यु को कलात्मक ढंग से स्वीकार करो वह सुख का कारण बनेगी।
। मृत्युमित्रप्रसादेन प्राप्यन्ते सुखसम्पदः । सर्वदुःखप्रदं पिण्ड दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः ।।
सुख का मोह (४) भविष्य की चिन्ता...
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o naneseyenergenera }}
शान्ति कैसे
o better future for all
शान्ति का सूत्र है - प्रतिरोध नहीं करना। प्रतिरोध का अर्थ है दीवार पर गेंद न मारो, क्योकि तुम जितने जोर से मारोगे उतनी ही तुमने ऊर्जा गेंद को दे दी। गेंद के पास अपनी कोई ऊर्जा नहीं है, उसे हम ऊर्जा देते हैं। अगर शक्ति फिर भी बची रही टकराने के बाद तो वापिस लौटेगी... अगर गेंद को धीमे से फेंका तो कुछ भी वापिस नहीं लौटता। शायद वह दीवार तक पहुँच ही नहीं पाए। सब तुम पर निर्भर है।
जब हम किसी विचार से लड़ेंगे... प्रतिरोध करेंगे तो वह विचार लौट-लौट कर आएगा। हम उसे शक्ति नहीं दे तो वह लहर समाप्त हो जाएगी।
मन एक मशीन है। मशीन की जिस प्रकार बार-बार सफाई करनी पड़ती है इसी प्रकार सद्विचारों के मनन से मन की Oiling करते रहिये ताकि प्रतिरोध के जंग से बच सकें।
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११ सुहिणो भवंतु जीवा ११
मेरी सद्भावना
हे प्रभु !
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विश्व के सभी प्राणी सुखी हो..... सभी निरोगी बने..... सबका कल्याण हो..... कोई भी आत्मा कभी भी दुःखी न हो..... ऐसी मेरी सद्भावना है....... ऐसी मेरी मंगल कामनाएं आपके चरणों में हैं। सभी आत्माओं को परमात्मा पाने की भक्ति प्राप्त हो। सभी आत्माओं को संकट सहन करने की शक्ति प्राप्त हो। सभी आत्माओं को मानसिक परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्ति प्राप्त हो..... सभी आत्माओं को अमरत्व पाने के लिए गुरु प्रसादी प्राप्त हो..... चाहे वह प्रसाद कण जितना ही क्यों न हो पर वह टन भर जितना आलोक, अमृत और आनन्द का प्रदाता है।
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निमित्त की उपेक्षा करो...
why not take a walk
संसार में दो प्रकार की मनोवृत्तियां है - श्वान वृत्ति और सिंह वृत्ति। श्वान । वृत्ति त्याज्य है और सिंह वृत्ति उपादेय है।।
' जैसे श्वान (कुत्ता) पत्थर या लकड़ी पर झपटता है पत्थर या लकड़ी मारने वालों पर नहीं। ऐसे ही कुछ व्यक्ति कष्टों से परेशान तो होते हैं पर कष्ट के मूल कारण को नष्ट नहीं करते और न ही उस पर चिन्तन करते हैं।
जैसे सिंह बन्दूक की गोली को नहीं देखता गोली मारने वाले पर झपटता है। ऐसे ही कुछ व्यक्ति कष्ट के मूल कारणों को जानकर उसे नष्ट करना चाहते हैं। __यूँ अध्यात्म दृष्टि से चिन्तन किया। जाए तो श्वान वृत्ति निमित्तपरक दृष्टि है और सिंह वृत्ति उपादानपरक दृष्टि है। जीवन में उपादानपरक दृष्टि मुक्ति का द्वार खोलती है।
।। पत्थरेणाहओ कीवो पत्थरं डक्कुमिच्छइ ।। एमिगरिओ सरं एप्प सरुप्पत्तिं विमग्गइ ।
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हम सबके भीतर विवेकशीलता का एक नन्हा सा अंकुर है उसे पानी की आवश्यकता है। जो जितना पानी देगा अंकुर उतना ही पनपेगा। हमारे प्रयत्न और संकल्प उस अंकुर की रक्षा के सजग प्रहरी होने चाहिए। इसलिए भी कि हमारी यात्रा का मार्ग अचानक कहीं अवरुद्ध न हो जाए.......
मुझे ज्ञाता के साथ दृष्टा भी बनना है अकेले ज्ञाता होने से काम नहीं चलेगा, दृष्टि उसका अटूट अंग है। यही दृष्टि हमारा विवेक है।
वास्तव में दृष्टि की पहचान ही सार्थक है। किसी ने व्यर्थ समझकर कूड़ेदान में कुछ फेंका है तो किसी ने उसी कूड़ेदान से कुछ बटोरा भी है इन दोनों में दृष्टियों का ही तो फेर है। इस फेर को जानने वाला जीवन में दृष्टि सम्पन्नता को प्राप्त कर सकता है।
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ज्ञाता-दृष्टा बनो.
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do you really need to get the bus ।। आया मे णाणं आया मे दंसणं चैव ।।
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जीने की विधि
या तो अकेले ही जीने की कला
सीख लेनी चाहिए या फिर सहजीवन
समूहजीवन जीने
का तरीका समझ लेना चाहिए।
परस्पर एक दूसरे को समझे बिना एक दूसरे को सहे बगैर सहजीवन संभावित नहीं हो सकता। अपने आप से प्रश्न कीजिए कि मैं किसी के अनुसार जीवन को ढाल सकता हूँ ? यदि नहीं तो फिर औरों से यह अपेक्षा क्यों रखनी चाहिए... कि वे हमारी इच्छा के मुताबिक जिएं ? मन को निराग्रही बनाकर तो साथ जिया जा सकेगा । दुराग्रही व्यवहार से हम कठोरतम होते जा रहे हैं ऐसे में न किसी की सहानुभूति टिकती है न कोई स्थायी
-मधुर सम्बन्ध बनता है।
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|| पक्षं कञ्चन नाश्रयेत् ।।
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{{ विश्वास्यं रमणीयमेव जगतः {{ of
दिन के उजियाले में ऐसा कोई काम मत करना। कि रात के अँधियारे में नींद ही न आए ||
विश्वसनीय बनो...
इस संसार में किसी के विश्वास को तोड़ना बहुत बड़ा पाप है। आवश्यकता समाप्त हो जाने पर किसी से नाता तोड़ देना या मुँह मोड़ लेना घिनौनी वृत्ति है। जिंदगी में किसी की विश्वसनीयता को सहेजकर रखना... संभाल कर रखना भी बहुत बड़ी तपश्चर्या है और धरोहर भी। अपनी गलतियों को ढकने के लिए औरों की गलतियों को उद्घाटित करना दुर्जनता है । याद रहे... जब तक मनुष्य का पुण्योदय है, तो उसका कोई कुछ. बिगाड़ नहीं सकता और जब पापोदय हो तो
उसको कोई कुछ सुधार nal use नहीं सकता।
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इस संसार में लोग चार प्रकार
के होते हैं।
अंतिम शिक्षा
वह व्यक्ति जो कुछ जानता नहीं और यह नहीं जानता कि वह
जानता नहीं है... ऐसा व्यक्ति मूर्ख है और उसका संग नहीं करें....
वह जो जानता नहीं और यह जानता है कि वह जानता नहीं... ऐसा व्यक्ति सरल है उसे खूब पढ़ाओ... वह जो जानता है और यह नहीं जानता कि वह जानता है... ऐसा व्यक्ति सुप्त है उसे जरा जगाओ.... वह जो जानता है और जो जानता है कि वह जानता है... ऐसा व्यक्ति ज्ञानी है उसका अनुसरण करो ।
ONE Ehe bike today
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प
NU
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accpelascorrect' and 'rua'.
People
{{ सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिस्ति ।
जीवन के किसी भी महनतम पल में जरा स्मरण कीजिए उस रावण का जिसकी चमचमाती स्वर्णलंका आज कहाँ गायब हो गई....? उस सुल्तान महम्मूद गज़नवी का व विराट वैभव कैसे नष्ट हो गया ? सिकन्दर महान् की वह दौलत कहाँ चली गई जिसका संयोजन करने में उसने अपने जीवन की समस्त शक्ति लगा दी थी और वह कारूँ का खजाना..... जिसकी चाबियाँ कहते हैं चालीस ऊँटों पर लदती थीं वह कहाँ खो गईं....? जो आज सुबह तक करोड़पति थे वे शाम को रोड़पति बन गए। कुछ देर अपने भीतर में झांककर शांतभाव से चिन्तन करके देखिए इस जगत् और जीवन की सच्चाई का.... इस चार दिन की जिन्दगी के लिए इतनी दौड़-धूप, दंगेफसाद क्यों कर रहे हो ? ज़रा संभालो, जिंदगी भर मिट्टी के ठीकरों और कागजी टुकड़ों के लिए कितना परिश्रम करोगे....? कितने संघर्ष झेलकर Status को बनाया
और कितनी समस्याओं का समाधान खोजकर उस प्राप्त धन और प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखा.... न जाने कब ये दो आँखें बंद हो जाएँगी और सम्पत्ति के सुन्दर सदन ढह जाएँगे कहा नहीं जा सकता। जीवन का खेल खत्म होने पर बादशाह और प्यादा एक ही डिब्बे में बंद कर दिए जाते हैं। राजा हो या रंक सबका अंत एक सा ही होता है।
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MY BEHAVIOUR WILL BE GOOD & POLITE. ।। सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेण ।।
Obey & Respect
I'll humbly bow to saints.
Show respect and be obedient to them.
I'll learn about satsang from them.
I'll regularly attend the weekly pravachan
I wish to be an Ideal Child.
I'll be there on time and listen attentively
to whatever is taught.
who steal, lie, fight and smoke or chew tobacco.
I'll stay away from those
I'll always keep the company of good friends.
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MAK
N
पर्वग्रह त्याग
अंतराल में उपग्रह छोड़ना तो सरल है... किंतु अंतर का पूर्वग्रह त्यागना जटिल है। एक बार यदि मन में पूर्वग्रह निर्माण होता है... तो उसका त्याग असम्भव बनता है।
पूर्वग्रह प्रवृत्ति के सुगंध को गंध बनाता है... और व्यक्ति का मूल्य हमें समझने नहीं देता । ऊपर से हम उसको अवमूल्यन कर बैठते हैं... और जिससे लाभ उठाना चाहिए या
जिससे लाभ लिया जा सकता है, उसे भी हम समझ नहीं सकते।
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वचनविवेक शब्दों के बिना जीवन जीना मुश्किल है... बोलना तो पड़ेगा ही, मगर संकल्प ऐसा करें कि... द्रौपदी की तरह नहीं, अनुपमा की तरह हम बोलें... जिससे... विनाशी महाभारत नहीं... बल्कि... आबु देलवाड़ा के कलात्मक जिनमंदिरों का निर्माण संभव है।
कवि कहते हैं... बिन बुलाए कभी मेहमान आ जाते हैं घर, ज्वार के संग कभीजलयान भी आजाते हैं घर, घर के राजा मत बोल कड़वे बोल किसी से, भिक्षुक बन कभी भगवान आ जाते हैं घर।
विवेक, विनय एवं विशाल हृदयपूर्वक संवाद करें...
तो वैरभाव का विष कैसे पनपेगा? विचारों को सुंदर बनाएंगे तो उच्चार सुंदरतम ही बनेंगे...
Imerational
For
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गुरुजनों का प्रदेश... अर्थात गुर्जर देश... पिया के घर जाती हुई एक नयी नवेली दुल्हन ने... गरवी गुजरात के राष्ट्रसंत श्री रविशंकर महाराज से चरण स्पर्श कर आशिष माँगा.... एक पल उसकी ओर देखकर व उसके मस्तक पर हाथ रखकर महाराज ने कहा - "बेटा ! नये घर में मंगल प्रवेश करते समय इतना ही सोचो... कि, मैं यहाँ सुख देने आयी हूँ... सुख लेने नहीं...'". नवविवाहिता ने शीष झुकाकर यह बात मान ली। ससुराल ही नहीं, अपितु समूचे संसार को स्वर्ग बनाने का यही सफल मार्ग है... हम सुख देने का प्रयास करे... सुख लेने की दौड़ में केवल चोट व खोट मिलेगी.. आइये, हर चोट हर खोट के लिए मरहम ढूँढते हैं... कहिए... मैं सुख देने आया हूँ... लेने नहीं... सब बदल जाएगा... और यह सात्विकता शाश्वत बने इसके लिए गाइये... यदि पैर में कॉटा चुभे, मुँह से आह न निकले, हार बनूँ या मसला जाऊं, दिल से आह न निकले, रंग रूप और परिमल से, उपवन को महकाऊँ, पुष्प समान जीवन मिले, बस यही अन्तर में चाहूँ।
पुष्प समान जीवन मिले
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HAPPY
Light will be with you
सूर्यास्त हुआ.. हल्का सा अंधेरा होने लगा...
विशाल वन में एक नन्ही सी पगडंडी के समीप वह खड़ा था.. अकेला.. हाथ में टिमटिमाता हुआ दीपक लेकर...
पगडंडी के समीप स्थित कुटिया में रहने वाले ने उससे पूछा.. मित्र.. क्या किसी स्नेही.. किसी स्वजन की प्रतीक्षा कर रहे हो ? उसने कहा
"प्रतीक्षा ? प्रतीक्षा तो किसी की नहीं.. किंतु, दुविधा में पड़ा हूँ...
जाना है दूर.. अपने वतन.. पर इस अंधकार में पथ कैसे ढूँढ़ पाऊँगा ?" किंतु, आपके पास तो दीपक है...
यही समस्या है.. इस टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में मैं केवल दो चार कदम चल पाऊँगा.. और मेरे आगे है.. अंधेरे का अथाह महासागर..
हँसकर कुटिया में रहने वाला बोला- केवल एक वाक्य... भ्राता, तुम बस चलते रहो..
प्रकाश भी चलता रहेगा.. तुम्हारे साथ-साथ..
और दो चार कदमों के लिए पर्याप्त प्रकाश ने समूचा पथ प्रकाशित बनाया। जीवन के संकटों से व क्षतियों से तनिक भी प्रभावित न हों...
आगे बढ़ते रहो.. यह दिसंबर महीना हिना बनकर आपके जीवन को रंग से परिपूर्ण करें...
मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं, ख्वाबों के परदे निगाहों से हटाती हैं, हौसला मत हार गिरकर मुसाफिर, ठोकरें ईन्सान को चलना सिखाती हैं । 80ain Education International
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गंगाजी के तट पर उस दिन असंख्य श्रब्दालुओं का ताँता लगा था... शिशु सहस्ररश्मि की कोमल किरणों ने वातावरण के सौंदर्य में चार चाँद लगाए थे... एक युवक गंगातट पर स्नान कर रहा था... अचानक एक वृध्द वानर ने युवक पर हमला किया... भयभीत युवक दौड़ने लगा... वानर उसके पीछे... युवक ने जल में छलांग लगाई व देखते ही देखते वह नदी के उस पार पहुँचा... उसने विचार किया कि वानर यहाँ पहुँच नहीं पाएगा..... अतः शांतिपूर्वक नहा लूँ... परंतु पुल लाँघकर वानर भी उस पार पहुँचा... एक पल के लिए युवक किंकर्तव्य विमूढ बना, परंतु दूसरे ही पल वह दौड़ने लगा... युवक आगे-आगे व वानर पीछे-पीछे... अचानक युवक मुड़ा... हाथ में लकड़ी लिये उसने वानर पर धावा बोला... वृध्द कपि दुम दबाकर वहाँ से भागा...
नवयुवक विवेकानंद जी ने
उस स्वानुभव के साथसाथ लिखा है... हमें संकट से दूर नहीं भागना चाहिए अपितु उससे डटकर लोहा लेना चाहिए... जीवन में संकट तो आते रहते हैं,
संकट का सामना करो... प्रतिकार जीत का सहोदर है...संकटों से शरणागति न स्वीकारें किंतु प्रतिकार करें...
करो. सकट का सामना
संकटों से शरणागति न स्वीकारें किंतु प्रतिकार करें...
प्रतिकार जीत का सहोदर है...
MammelaVOIg
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शिल्पी वह है, जो जीवनशिल्प का सर्जन करेंगा... एक समान दो शिलाएँ खान में से निकली... एक से मूर्ति बनी व दूसरी सीढ़ी में जड़ी...
एक के दर्शनार्थ देखा भक्त की भीड़ उमड़े, दूसरी के सिर पर जूते व चप्पलों की जोड़ी चढ़े. खान तो.. एक ही... मजदूर भी एक ही था... खान खोदने वाले भी एक ही थे. शिलाएँ भी एक समान प्रचंड थीं... किंतु एक से मूर्ति का शिल्प बना... धूप दीप, आरती, पूष्प का अधिकारी.. भक्ति एवं मोक्ष का साधन... दूसरी केवल जूतों का विश्राम स्थल... क्योंकि, एक शिला को सद्भाव से मिला कोई होनहार शिल्पी... जिसने... जड़ को चेतना में परिवर्तित किया... दूसरी को कोई अनगढ़ मानव... जिसने... उसके मस्तक पर जूते रखवाए...
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सूर्यास्त
के साथ साथ
युद्ध विराम हुआ... एक रात्रि
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के लिए... शूरवीर सेनापति ने घर लौटकर अपनी सहधर्मचारिणी से कहा... इस युद्ध में कल हमारी पराजय निश्चित है... पत्नी ने कहा... "भविष्य की कोख में यदि... आपकी हार है। तो भले ही हो... मुझे उसकी लज्जा नहीं है... मैं लज्जित हूँ आज के लिए” सेनापति ने कहा 'आज लज्जा किस लिए ? पराजय तो कल होगी...' वह वीरांगना बोली, “मेरे स्वामी आज अपना धैर्य खो चुके हैं... यही मेरी लज्जा का कारण है।” दूसरे दिन पति ने शौर्य का ऐसा प्रदर्शन किया कि पराजय जय में परिवर्तित हुई... याद रहे... ज्वार एवं भाटा प्राकृतिक नियम है... प्रशांत सागर भी कभी कभी प्रलयंकारी बन सकता है... उस समय ... धैर्य हारने वाले की मृत्यु निश्चित है...
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वो कौनसी मुसीबत है, जो बने आसान । हिम्मत है तेरे साथ, तो साथ है भगवान ।।
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शहंशाह अकबर के दरबार में...
नवरत्न विराजमान थे....
विविध विषयों पर विवाद हो रहा था...
• और साथ ही साथ...
हँसी-मजाक की फुलझड़ियाँ भी...
अचानक एक चारण ने...
दरबार में प्रवेश किया....
अपने मस्तक से पगड़ी उतारी....
व बादशाह को सलाम किया...
आगबबूला होकर...
बादशाह ने गर्जना की....
हे धृष्ट चारण...
तेरी यह मजाल कि मेरे अपने ही... दरबार-ए खास में मेरी तौहीन...
शमशीर म्यान से निकालकर उसने पूछा.
बोल चारण... यह गुस्ताखी क्यों ?
चारण स्वस्थतापूर्वक बोला...
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कैसे परास्त हो सकता है
चारण बोला - हे बादशाह ! राणा की पगड़ी भी आपके सामने नहीं झुकेगी। तो राणा कैसे झुकेगा ?
राणा को मात देने के आपके मनसूबे खाक है...
चारण वीरता से.. निकल गया ।
अकबर ने सोचा...
बादशाह ! यह पगड़ी राणाप्रताप की है... यह तुम्हारे सामने झुक नहीं सकती है....
और तमतमाये अकबर ठंडे पड़ गये...
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जिस मुल्क की प्रजा में इतना जोश, इतनी मर्दानगी हो..
उस देश का राणा कैसे परास्त हो सकता है ?
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सुप्रभात जीवन को वन से उपवन व उपवन से नंदनवन बनाने के लिए अनिवार्य है.
नीत
नीरव सष्टि
सुप्रभात होते ही... चेतन में नवचेतन आविर्भूत होता है...
पंछियों के के
मानतो
एक मधुपंछियों के कलरव से..स.. भजन के मधुरव से... मानव के पगरव से....
हरीभरी बनती है। आंदोलित बनती है। सुफल संपूर्ण बनती है।
लित बनती है। सुफल संपूर्ण बनत
दोष्ट की दिव्यता प्राप्त होती
महारने के लिए
दृष्टि की दिव्यता प्राप्त होती है... चेतन सृष्टिसौंदर्य निहारने के लिएहोता है।
पण करने वाले पुरुषार्थ को भव्यता प्राप्त होती है...
व्य शिल्प भाग्य शिल्प के निर्माण करने वाले पुरुषार्थ को भव्यता प्राप्त होती है...
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चंदन की भाँति धिसे जाएंगे...
मिट जाएंगे..
परंतु चारों दिशाओं को मनभावन महकायेंगे...
भोर की कोमल किरणो ने धरती को हल्के से थपथपाया...
और पक्षियों ने समूह गान किया... उसी समय एक वयोवृद्ध धरती में गड्ढा बनाकर आम का पौधा लगा रहे थे... सहसा एक युवक बोल उठा, "हे पितामह ! आपके जीवन का शिशिर कब का आरंभ हो चुका है... फिर यह व्यर्थ परिश्रम क्यों ? आप के इस श्रम की क्या फलश्रुति ? इस वृक्ष के प्रथम आम्रफल का स्वाद लेने के लिए क्या आप जीवित रहेंगे ?" वृद्ध ने कहा, “पुत्र.. किसी अज्ञात हाथों द्वारा लगाए गये आम्रवृक्ष के फलों का स्वाद आजीवन चखता आया हूँ... वे चंदन की भाँति घिसते रहे तब जाकर सुगंध से महकते आम्रफल हमें प्राप्त हुए।" गद्गद् युवक ने वृद्ध का चरणस्पर्श कर इतना ही कहा... "स्वार्थपूर्ति के लिए एवं निःस्वार्थ सेवा से पलायन.. यह संदेश देनेवाले वर्तमान युग में... यदि कोई वंदनीय है तो केवल आप ही हैं... मेरा प्रणाम स्वीकार करें।"
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समय की मार से कमजोर टूटते हैं, गाफिल मुसाफिर को ठग लूटते हैं, निराश न होना जीवन की कठोरता से, पहाड़ की छाती से ही निर्झर फूटते हैं।
अयोध्या के युवराज राम को भी राजमहल छोड़कर वीरान वन में जाना पड़ा था। छह माह के कठोर उपवास करने की स्थिति भगवान महावीर की भी आयी थी...
फिर भी...राग, रोष, रुदन का एक कतरा भी राम के मुखारविंद पर न गिरा... और प्रभु वीर की दमक, नूर अथवा शहूर पर आँच नहीं आयी... यह जीवन है...
निराबाधित रहे... | जिससे जिंदगी का आनंद
हम कुछ ऐसा अन्वेषण करें... | परिस्थिति एवं संजोग के अधीन...
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निराशा का बीज है। 40
इत्र के हर कतरे में गुलों को शहीद होते देखा...
नन्हें-नन्हें बीजों में वटवृक्षों को सोते देखा... स्नेहभरी निर्मल आँखों में सुंदरता का मेला देखा... जहरीले शब्दों से टूटते दिल के शीशमहल को देखा... शंकाओं के विषयूंट में दीर्घ प्रम का विलय देखा...
आशा के कच्चे धागों से जीव हजारों बँधे देखा... बिना आश के मस्त फकीरी-अवधूत कोई विरला देखा..
आशा का अस्त, आदमी मस्त, किंतु आदमी तो त्रस्त है, क्योंकि वह आशा से ग्रस्त है... आशा की बाढ़ से बचें... आशा को एक नयी दिशा... नया आयाम प्रदान करें...
आत्म समाधि में निमग्न निरंतर अवधूतावस्था पाने का यह ही एकमात्र उपाय है... आशा निराशा का हंद शांत हो और शेष हो केवल असीम... अक्षय... अक्षत... शांति.... यह शांति हमें प्रदान करे...
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ध्यान हेप्ने अग्नि की तरह कुंदन बनाता है... अग्नि में कुछ भी डालो,
कितना भी कूड़ा-करकट डालो, वह जलकर स्वाहा हो जाता है और यह अग्नि की विशेषता है कि सबको जलाकर भस्म करने के बाद भी वह पवित्र बनी रहती है। अग्नि की दूसरी विशेषता यह है कि वह उष्णता देती है, तीसरी यह है कि अग्नि की लपटे हमेशा ऊपर की ओर जाती है। अग्नि तपाती है, निखारती है, प्रकाश देती है और ऊंचाईयों की ओर अग्रसर होती है। इसी प्रकार से ध्यान भी अग्नि की तरह ही है। ध्यान से जीवन की जितनी भी बुराइयाँ हैं, सब जलकर भस्म हो जाती है। अग्नि से तपकर सोना निखर जाता है, कुंदन बनता है। उसके सारे मल जल जाते हैं। ठीक उसी तरह ध्यान की अग्नि से गुजरने के बाद जीवन भी कुंदन बन जाता है। आप बहुत शांत हो जाएंगे। आपको ज्यादा बात करने का मन भी नहीं होगा। ज्यादा जोर से बोलने का भी मन नहीं होगा। यदि ज्यादा बात करने का मन होता है, व्यर्थ की बातें मन में आती हैं, मन ज्यादा भटकाव की ओर ले जाता है तो इसका मतलब है कि कहीं हम कमजोर हैं। इसका मतलब है भीतर से
ध्यान अभी परिपक्व नहीं हुआ है।
" {{ झाठिगणा कम्ममलं डहेज्जा {{
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अमरता का रहस्य एक युवक था। उसके मन में अमर होने का फितूर सवार हुआ। वह एक महात्मा के पास जा पहुँचा। उसने पूछा, ''हे महात्मन्, मुझ पर कृपा कीजिए । मनुष्य का जीवन भी क्या जीवन हैं ! मैं अमर होना चाहता हूं। क्या आप मुझे अमर होने का रहस्य बता सकते हैं?'' महात्मा ने उसके चेहरे पर दृष्टि डालते हुए कहा, "पहले तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। फिर मैं तुम्हारी समस्या पर विचार करूँगा। क्या तुमने राजा हरिश्चन्द्र का नाम सुना हैं?''
युवक ने कहा, "हाँ वे एक सत्यवादी राजा थे।''
''क्या तुम उनके समय की सबसे सुन्दर स्त्री का नाम बता सकते हो ?" महात्मा का दूसरा प्रश्न था। उसे सुनते ही युवक घबरा गया और बोला, “महात्मा जी, यह कोई कैसे बता सकता है? उस समय कितनी ही सुन्दर स्त्रियाँ रही होगी। उस समय की सर्वो त्तम सुन्दरी का नाम इतिहास की पुस्तकों में भी शायद नहीं है।''
महात्मा ने हँसते हुए अमरता का रहस्य बताया - "अपने अच्छे कर्मो के कारण ही राजा हरिश्चन्द्र हजारों वर्ष बाद भी याद किए जाते हैं - यही है अमर होने का रहस्य ।'
बोध – मनुष्य का शरीर नश्वर है । हम अपने सत्कर्मो से ही अमरता प्राप्त कर सकते हैं।
धर्मेणामरतां व्रजेत् ।।
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कितनी सुन्दर शपथ !
{{न संरोहति वाक्क्षतम्
एक औरत प्रतिदिन एक स्थानीय किसान से दूधदही लिया करती थी। वह किसान बढ़िया दूध-दही के साथ-साथ उनके शीघ्र वितरण के लिए भी प्रसिद्ध था। एक दिन उस औरत के घर कोई आयोजन था। काफी मेहमान आने वाले थे। लेकिन उसी दिन किसान नहीं आया। उस औरत को बहुत क्रोध आया कि इतने - महत्त्वपूर्ण दिन किसान ने उसके साथ ऐसा धोखा किया।
अगले रोज किसान दूध लेकर आया तो उसने काफी भला – बुरा कहा। जब उसके क्रोध पूर्ण शब्द समाप्त हुए तो किसान ने धीरे से कहा, "आपको जो असुविधा हुई उसके लिए क्षमा चाहता हूँ, परन्तु उस दिन मेरी माता जी का देहान्त हो गया था और मुझे उनका दाह-संस्कार करना था।'' अपने तीखे व क्रूर शब्दों पर शर्मिन्दा होते हुए उस औरत ने फिर किसी के साथ कदापि वैसे तीखे शब्दों में न बोलने की शपथ ली। उसने महसूस किया कि हम अक्सर नहीं जानते कि दूसरे व्यक्ति की क्या और कैसी परिस्थिति हो सकती है।
जीवन में हमें प्रतिदिन बेहतर जिन्दगी जीने के लिए प्यार के इस नियम पर ध्यान देने की आवश्यकता है। अन्यथा सत्तर या सौ साल के इस जीवन का कोई महत्व नहीं है। महत्त्व इसका है कि उनमें से कितने दिन आपने प्यारा बाँटा, कितने लोगों के प्रति मन उदार रखा।
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एक बार फारस देश में पक्षियों ने बहुत उत्पात मचाया। वे खेतों खलिहानों पर झुंड के झुंड टूट पड़ते। फसल नष्ट - सी हो गई। खलिहानों में अनाज गायब होने आया। वहाँ के निवासियों ने सोचा अब ये पक्षी देश भर में अकाल की स्थिति पैदा कर देंगे। प्र इन्हें रोका जाए तो कैसे ?
आखिरकार वे अपना दुखड़ा लेकर वहाँ के राजा के पास पहुँचे। राजा ने तुरन्त विचार किया और ऐलान कर दिया "पक्षियों पर दया न की जाए। उन्हें जान से मार दिया जाए। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।'' देशभर में पक्षियों को मार डालने का भयंकर अभियान शुरु हो गया। क्योंकि राजा ने यह भी घोषित किया था कि जो कोई पक्षियों को मारेगा उसे इनाम दिया जाएगा। धीरे-धीरे राज्य के सारे पक्षी समाप्त हो गए। लोगों ने र राहत की सांस ली और देशभर में उत्सव मनाया गया।
एक वर्ष बीत गया। किसानों ने फसल की तैयारी की खेतों में बीज बोया, लेकिन आश्चर्य एक दाना भी नहीं उगा। दाने जमीन में ही नष्ट हो गए। जमीन में कीड़े थे। वे दानों को खा गए। बात यह थी कि हर साल पक्षी उन मिट्टी के कीडों को, असंख्य कीटाणुओं को, खा जाते थे परन्तु इस वर्ष पक्षी थे ही नहीं ! फसल पैदा न होने से राज्य में अकाल पड़ गया, त्राहि-त्राहि मच गई। लोग अपनी नादानी पर पछताने लगे। राजा ने इस समस्या पर गंभीरता से विचार किया और हुक्म दिया - 'परिस्थिति का सामना किया जाए। दूसरे देशों से पक्षी मँगाए जाएँ।" लइस हुक्म का पालन किया गया। पक्षी लाए गए और माहौल बदल गया। लोगों की समझ में आ गया - जीव एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। यह सृष्टि का, प्रकृति का चक्र है।
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परम शिवम्
प्राचीन काल की बात है। एक राजा थे। उनका नाम सत्यदेव था। वे सत्य के उपासक थे। वे सत्य को सबसे बड़ा मानते थे और प्रजा की भलाई में लगे रहते थे। प्रजा सुखी थी। एक दिन उनके जीवन में बड़ी जटिल समस्या पैदा हुई-देवताओं ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। राजा प्रातः उठकर सूर्य को नमस्कार | कर ही रहे थे कि उन्होंने राजमहल से निकल कर | एक अपरिचित सुन्दरी को बाहर जाते देखा।
पका _राजा ने उस सुन्दरी से पूछा - 'आप कौन
उपासक । हैं?" सुन्दरी ने कहा, ''मैं आपके यहाँ राजमहल में कब
से रह रही हूँ और आप नहीं जानते? मैं लक्ष्मी हूँ। राजन्, अब | मैं यहाँ नही रहूँगी इसलिए जा रही हूँ।" उस सुन्दरी के पीछे-पीछे एक पुरुष राजमहल | से बाहर आया। राजा सत्यदेव ने उससे भी पूछा, "आप कौन है?'' उस व्यक्ति ने | कहा, ''मैं दान हूँ। जब लक्ष्मी ही नहीं रहेगी तो मैं भी यहाँ नहीं रहूँगा।"
उस पुरुष के पीछे-पीछे एक तीसरा व्यक्ति निकला और राजा ने फिर वही प्रश्न पूछा। उस व्यक्ति ने कहा, ''मैं सदाचार हूँ। जब लक्ष्मी और दान ही नहीं रहेंगे तों मैं भी नहीं रहूँगा। मैं भी उनके पीछे चला।" सदाचार के पीछे चौथा व्यक्ति राजमहल से बाहर निकला। राजा की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा, "राजन मैं यश हूँ। जब लक्ष्मी, दान और सदाचार जा रहे हैं तो मेरा रहना भी ठीक नहीं।' अन्त में, राजमहल से निकलकर पाँचवाँ व्यक्ति जब जाने लगा तो राजा ने अपना प्रश्न एक बार फिर पूछा, "आपका परिचय?'' उस व्यक्ति ने कहा, ''मैं सत्य हूँ।'' राजा हाथ जोड़कर सत्य के चरणों में लोट गए - ''मैं आपका अनन्य भक्त हूं। मुझे छोड़कर न जाइए। हे भगवान! लौट चलिए आप के बिना यह जीवन कैसा?" राजा की प्रार्थना से सत्य का हृदय पसीज उठा और वे लौट पड़े।
11 आश्चर्य ! उनके पीछे-पीछे लक्ष्मी, दान, सदाचार और यश ने भी अपनी दिशा बदल दी और राजमहल में लौट आए। राजा सत्यदेव की सत्य-निष्ठा और बढ़ गई। धन्य है ऐसे सत्य के उपासक !
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माँ तेरी ।। वज्जिज्जा परोवतावं । या मेरी ?
नयी नवेली घर में आयी बहू सास को दिन भर ताने मार-मार कर परेशान करने लगी। उसकी मुख्य शिकायत यह थी कि बुढ़िया कुछ काम नहीं करती। पति ने उसे एक नौकरानी रखने का आश्वासन दिया। इस पर पत्नी ने कहा कि आप मेरी माँ को ही यहाँ बुलवा लीजिये। हम दोनों मिलकर सारा काम सम्हाल लेंगी।
पति ने वैसा ही किया। अपनी सास को उसने यहाँ बुलवा लिया। अब दोनों मिलकर उस बुढ़िया को सताने लगी, उस बेचारी का दुःख दुगुना हो गया। रोज के इस झगड़े से बचने के लिए एक दिन पति ने अपनी पत्नी से कहा कि यदि मैं रात को
उठकर माँ की खाट कुएँ में डाल दूँ तो कैसा रहेगा। यह सुनते ही पत्नी ने प्रसन्न होकर अपनी सहमति दे दी। फिर पति ने कहा कि आज तुम मेरी माँ के खाट के पाये में काला धागा बाँध देना, जिससे पहचानने में मुझे सुविधा होगी। पत्नी ने पति की बात स्वीकार की ।
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फिर आधी रात के समय पति बिना धागे वाली अपनी सास की खाट दो आदमियों से उठवाकर कुएँ पर ले गया। फिर उसने सास को उठाकर सारी बात सुनाई। सास डर गई और उसने अपनी भूल के लिए क्षमायाचना की। तब उसने सास को उसके घर भेज दिया।
सुबह एक खाट गायब देखकर छाछ बिलोती हुई बहू बोली पति की माँ कुएँ में डाली धमाकधम् ! झबडक झम् झबडक झम् ॥
इस पर पति बोला
तेरी माँ कुएं में डाली धमाकधम् । देखेगी छाती कूटेगी धमाकधम् ||
इस पर पत्नी रोने लगी। फिर पति ने उसे सच्ची बात बताकर शांत कर दिया। उस दिन से सारा झगड़ा मिट गया।
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लालच
बुरी
बलाय
एक महाजन अपना व्यापार चौपट हो जाने के कारण.. गरीब हो गया था; इसलिए बड़ा उदास था। उसकी पत्नी ने उसे ढाढस बँधाते हुए कहा नाथ ! मेरे पास चाँदी के गहने हैं। आप उन्हें बेच कर प्राप्त धन से कुछ सामान खरीदिये और व्यापार कीजिए। उससे जो भी कमाई होगी; उसी में घर का खर्चा चला लूँगी।
पति ने चाँदी के गहने बेचे, तो उसे दस रुपये मिले। उसने दो रुपयों की भाँग खरीदी और बाजार में बेचने गया। वहाँ एक लाला ने उसे फुसलाकर भाँग एक रुपये में खरीद ली। दूसरे दिन फिर चार रुपये का रेशम खरीद कर वह बेचने गया । फिर उसे वही लाला खरीददार मिला। उसने कहा यह तो सूत की गुच्छियाँ हैं। मैं इनकी कीमत दो रुपये दे सकता हूँ। महाजन ने दो रुपयों में वह रेशम बेच दिया इस प्रकार उस बेचारे को तीन रुपयों का घाटा हुआ।
तीसरे दिन उसने सोने का मुलम्मा चढ़ाकर एक लोहे का कड़ा तैयार किया। उसमें छह रुपये खर्च हुए। वह फिर लाला के पास गया। लाला बोला- यह सोना नहीं पितल है, इसकी कीमत पचास रुपये ही आ सकती है। महाजन पचास रुपये लेकर घर चला गया। चौथे दिन फकीर के वेश में वह लाला की गली में गया और गाने लगा
—
फूस भरोसे भाँग ली, सूत बताकर रेशम ।
खबर पड़ेगी बस तभी, कड़ा कटेगा जिस दम ||
लोभ के कारण मनुष्य को अन्त में हानि ही उठानी पड़ती है ।
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अच्छाई
(वृक्ष) {{ उस के घर रोज दिवाली {{
The tree of love
सफल वह नहीं है जिसने असीम दौलत का संचय किया, सफल वह है जिसने लोगों की मदद करके दुआओं की दौलत से मन का खजाना भर लिया। आप जहाँ पर भी हैं वहाँ आपसे जितना बन सके उतना अच्छा काम करने का संकल्प करें। चाहे संसार में भ्रष्टाचार, स्वार्थ और कामनाओं का कितना ही अंधकार क्यों न हो यदि सत्कर्म का एक दीपक जलाया जाए तो हर समस्या का
आंशिक समाधान हो सकेगा। यदि प्रत्येक व्यक्ति सत्कर्म का दीप जलाए तो सब मिलकर एक दीपमाला बनेगी। दीपक स्वयं जलकर भी दूसरों को रोशनी देता है। ऐसी उदारता की देयवृत्ति हो तो प्रत्येक अमावस दिवाली है। इस संसार में फूल अपने लिए नहीं खिलते और न ही फल अपने लिए मीठे होते हैं। पेड़ स्वयं भी गर्मी सह लेता है लेकिन अपनी छाया द्वारा औरों को गर्मी से बचाता है। भलाई जितनी अधिक की जाती है उतनी ही अधिक मिलती है। जो दूसरों की भलाई करता है, वह अपनी भलाई स्वयं कर लेता है क्योंकि अच्छा कर्म करने का भाव ही अच्छा ईनाम है।
अतः अच्छाई के बीज बोते जाना चाहिए | पता नहीं कब ये बीज समय के साथ वृक्ष बनकर तंडी छाया दें।
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गुणानुराग (म्युझिक )
अपने मधुर स्वर संगीत से हजारों को मंत्रमुग्ध कर देना सरल है परन्तु दूसरों का सुर-आलाप सुनने के बाद "वाह वाह' कहकर आनंद लेना कठिन है। अपने ओजस्वी भाषणों से धूम मचा देना आसान है परन्तु दूसरों के वक्तव्य को सुनकर उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करना बहुत मुश्किल है। स्पष्ट है कि गुणी बनना सरल है परन्तु गुणानुरागी बनना दूसरों के गुणों को कहना बड़ा कठिन है । गुणानुराग गुणों का उत्कर्ष है । यदि गुणों को मन्दिर के प्रवेश द्वार की उपमा दी जाए तो गुणानुराग मन्दिर पर चमकने वाला स्वर्णकलश है। धनी बनने की तीव्र रूचि से मेहनत करने पर कोई धनवान बने ही यह कोई जरूरी नहीं है किन्तु गुणी बनने की अल्प रूचि भी व्यक्ति को गुणी बनाने में समर्थ है। चाणक्य नीति में लिखा है एक गुण भी समस्त दोषों को ढक देता है। जैसे एक बालक गुल्लक में प्रतिदिन एक-एक पैसा डालकर गुल्लक को भरता है वैसे ही एक-एक गुण को इकट्ठा करते जाइए। भगवान महावीर ने कहा है
जब तक शरीर में प्राण है तब तक गुणों को ही चाहो, गुणों को ही देखो और गुणों को ही धारण करो ताकि कोई भी व्यक्ति दुर्जन न दिखाई दे, किसी भी वस्तु का दुरूपयोग न हो तथा कोई भी परिस्थिति तनाव न बनें ।
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sona For Farivate & Fersonal Use
{{ गुणानुरागी गुणमूल एषः ||
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।। विचित्रा मनसो गतिः ।।
विचित्रता
HAPPINESS
मन का एक विचित्र नियम है जो जितना दूर है वह उतना सुहावना लगता है और जो पास है उसकी यह मन उपेक्षा करता है। जैसे जो चीज आँख के एकदम नजदीक हो वह दिखाई नहीं देती और जो दूर है वहाँ आँखें फौरन देख लेती है। मन की इस अजीब विचित्रता के कारण आज सम्बन्धों के पुल कमजोर हो गए हैं। जीवन से माधुर्यता का संगीत समाप्त हो रहा है। घर में सुई पटक सन्नाटा छा जाने से घर मकान बन गया है। यह मन अपने दोस्त को खुश करने के लिए तो तड़पता है किन्तु भाई की उदासी का उसे ख्याल नहीं है। दूर से आई हुई मौसी के साथ मन दो-दो घंटे बात करने के लिए बैठ जात है किन्तु अपनी माँ के साथ बात करने के लिए उसे दो मिनट भी नहीं मिलते। स्पष्ट है कि दूर रहे हुए का आकर्षण, प्रेम, खिंचाव तथा निकटवर्ती की उपेक्षा करना यह मन का स्वभाव बन गया है। इस मन के स्वभाव को बदलने के लिए एक सत्य को सतत नज़र के सामने रखना जो अपने नजदीक में रहने वालों को सुखी कर सकता है या उन्हें सम्मान देकर उनकी अनुकूलताओं का ख्याल रखता है तो दूर रहे हुए सुख भी उसके नजदीक आ जाते हैं और जो अपने नजदीक में रहने वालों को दुःखी करता है और उनकी हरदम उपेक्षा करता है तो दूर रहे हुए दुःख भी उसके नजदीक आ जाते हैं।
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आख
नेत्र तथा शीलम् ।
आँख दिल का आईना है। जो बात शब्द नहीं कहते वह आँखें कह देती हैं। जो आपके भीतर है उसे बाहर झलकाने वाली । ये आँखें ही हैं, तभी तो लज्जाजनक बात होते ही आँखे झुक जाती हैं। आनंदित होने पर चमकती हैं। करूणा का भार आते ही बरस पड़ती हैं और क्रोध आते ही जल उठती हैं। आँखों से ग्रहण किए हुए भावों का असर सीधा मन पर होता है क्योंकि आँखों का और मन से का गहरा रिश्ता है तभी तो महापुरूषों के चित्र को देखकर या उनके दर्शन करके मन में पवित्रता जाग जाती है तथा चित्रपट पर रंगीन दृश्य देखकर मन में विकार जाग जाते हैं। शरीर के समस्त अंगो में आँख ही अधिक सक्रिय है क्योंकि उसकी कार्यक्षमता ऐसी है जो कान और मुख का भी कार्य-भार संभाल लेती है। यही कारण है कि जितना देखा जाता है उतना न तो सुना जाता है न बोला जाता है। पाँच इंद्रियों में चक्षु इंद्रिय ही आक्रमक बनकर प्रक्षेपण करती है अतः आँखें सदा कुछ न कुछ खोजती है। भक्त तुकाराम भगवान की प्रार्थना करते हुए यही कहते थे कि -
"हे प्रभु! मेरी आँखों में कभी भी विकार मत पैदा होने देना। यदि तू ऐसा न कर सके तो मेरी आँखें छीन लेना।
प्रभुदर्शन, संतदर्शन, सत्-साहित्य का नित्य पठन तथा दुःखियों के दर्द का संवेदन करना ही आँखों का सदुपयोग करना है।
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अहंकार
मनुष्य की स्थिति बड़ी अजीब है। वह जीते जी कभी शांत नहीं होता। शायद उसने कसम खाई है कि जब तक जीऊँगा, अशांत ही रहूँगा । यह अशांति उसके अहंकार के कारण है। अहंकार को Football की उपमा दी गई है। जैसे लोग Football को तब तक ठोकरें मारते हैं जब तक उसमें हवा भरी रहती है। हवा निकल जाए तो फिर उसे कोई नहीं छेड़ता। मन में भी जब तक झूठी शानशौकत, शौहरत और धन के अहंकार की हवा भरी रहती है तब तक वह फूला नहीं समाता। यह अफीम के नशे से भी ज्यादा खतरनाक है जो हमारी दशा और दिशा को बिगाड़ देता है। भ. महावीर ने कहा है पत्थर के स्तम्भ के समान जीवन में कभी न झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरक की ओर ले जाता है। इस अहंकार से मनुष्य को बड़ा लगाव है तभी तो उसके सिर पर ''बड़ा बनने' का भूत सवार है किन्तु अहंकार नहीं जानता कि बड़ा बनने का राज क्या है। वह तो कहता है कि जिसके पास शक्ति है, सत्ता है या वैभव है वह बड़ा है। संतो ने ऐसे अहंकारी को बड़ा नहीं कहा। बड़ा तो वह है जिसमें बड़प्पन है जो बड़ों , का आदर और छोटों से प्यार करना जानता है। जो हाथ जोड़कर जीना और मुस्कुराकर मरना जानता है वह बड़ा है, उसके जीवन में कभी अहंकार की छाया नहीं पड़ सकती।
{{ अभिमानो विनाशाय १५
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यह एक सत्य है कि वही मनुष्य उपेक्षित होता है जो दूसरों की उपेक्षा करता है। जो दूसरों की अपेक्षाओं का विचार नहीं करता वह दूसरों से अपनी अपेक्षाओं को पूर्ण होने की आशा भी नहीं रख सकता।
पर सापेक्ष जीवन तो दुःखी जीवन है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई भी व्यक्ति आपकी उपेक्षा नहीं कर रहा हो फिर भी लगता ऐसा है कि "अमुक व्यक्ति मेरी उपेक्षा कर रहा है"। ऐसी सोच एक मानसिक रोग है जो मन की विकृति से पैदा होती है जिससे जीवन में उदासी का साम्राज्य छा जाता है। जो व्यक्ति दिन रात अपने कर्त्तव्यों में ही प्रवृत्त रहता है वह कभी सोचता ही नहीं कि मेरी उपेक्षा हो रही है। तभी तो कहा है - जो व्यक्ति दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य का ख्याल रखता है वह न दूसरों की उपेक्षा करता है और न यह सोचता है कि “मैं उपेक्षित हो रहा हूँ।" यदि आप अपनी उपेक्षा नहीं चाहते तो अपने व्यक्तित्व को गुणों से सुवासित बनाने का प्रयत्न कीजिए। आप अपनी योग्यता को इस कदर सिद्ध कर लें कि आपके बिना दूसरों का कार्य स्थगित हो जाए। इसके लिए अपने आस-पास के लोगों की अपेक्षाओं को पूर्ण करने का प्रयत्न करते रहिए ।
उपेक्षा
{{ गौरवाय गुणा एव ।।
जो दूसरों की अपेक्षाओं का ख्याल रखता है वह कभी उपेक्षित नहीं होता ।
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संयोग
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।। संयोगा विप्रयोगान्ताः ।।
संसार एक मेला है। मेले में हजारों लोग इकट्ठे होते हैं। कुछ आपस में मिलते हैं तो कुछ से स्नेह सम्बन्ध जुड़ जाता है। संध्या तक सभी मेले में साथ-साथ रहते हैं, आमोद-प्रमोद में खूब मस्त हो जाते हैं और सांझ ढलने पर मेले के बिखरते ही सभी अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं। घर पहुँचकर सब एकदूसरे को भूल जाते हैं। संसार के सभी संयोग, सारे रिश्ते, नदी-नाव संयोग की तरह है। जैसे महासागर में तिरते हुए एक लकड़ी के टुकड़े को तैरता हुआ दूसरा लकड़ी का टुकड़ा मिल जाए तो क्षण भर दोनों आपस में टकराते हैं। कुछ दूर तक दोनों साथ-साथ भी चलते हैं । इतने में अचानक बड़ी तेजी से एक ऊँची लहर आती है और दोनों को अलग कर देती है। ठीक इसी प्रकार से सभी संयोग वियोग में बदल जाते हैं। इस संसार का एक नियम है हर संयोग का अन्त वियोग में होता है। इस बात को समझते हुए भी मनुष्य का मन एक बहुत बड़ी भूल करता है। जब भी कोई संयोग उपस्थित होता है तो उसके साथ "मेरे-पन'' का धागा जोड़कर उस संयोग को संबंध में बदल देता है । यथासमय उस संयोग का जब वियोग होता है तो अपनी ही ममता के कारण व्यक्ति शोक में डूब जाता है।
—
चेतन रे ! पंखी ना मेला जेवो, देखी ले संसार । छोड़ी जवानुं तन-मन-धन परिवार ||
अतः संयोग के क्षणों में स्मरण रहे कि बहुत बड़ी दावत भी थोड़ी देर की होती है।
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असयैकपद मत्यः
ईर्ष्या एक प्रकार की जलन है जिसका निशाना तो दूसरों की तरफ होता है किन्तु घायल वह स्वयं हो जाती है। यह एक ऐसी अग्नि है जो सभी सुखों को जलाकर भस्म कर देती है। यही कारण है कि आज व्यक्ति की प्रतिष्ठा समाज में तो बहत है किन्तु उसका मन प्रसन्न नहीं है। वह धर्म क्रिया तो खूब कर रहा है पर मन में आनंद नहीं है। जीवन में गति तो हो रही है पर मंजिल नहीं मिलती। भोजन सामग्री तो बहुत है पर शरीर स्वस्थ नहीं है। आराम के साधन तो बहत हैं किन्तु भीतर में चैन नहीं है। विभिन्न व्यक्तियों की सफलताएँ, संपन्नताएँ और प्रसिद्धि ईर्ष्या के जागरण में निमित्त बनते हैं। ईर्ष्या के निमित्तों को हटाना न संभव है न आवश्यक है। आवश्यक है ईर्ष्या से मुक्ति । जब मन ईर्ष्या से जलने लगे तब ऐसा चिन्तन अपेक्षित है-दूसरा व्यक्ति मेरे से ज्यादा इसलिए सुखी है क्योंकि उसका पुण्य अधिक है। मेरे से ज्यादा दूसरा इसलिए गुणवान है क्योंकि उसका पूरूषार्थ मेरे से अधिक है। बहिर्जगत की समस्त सफलताओं में पुण्य की मुख्यता है और आभ्यंतर जगत की सफलता का कारण पुरूषार्थ है। यही कारण है कि दुनिया में दुर्जन भी अरबपति बन सकते हैं और सज्जन भी गरीब हो सकता है। इस बात को अंतःकरण से समझ लिया जाए तो ईर्ष्या से मुक्ति पाना सहज हो जाएगा।
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राना मनुष्य जब कुछ पाता है तो खुशी से गाता है
और जब कुछ खोता है तो दुःखी हो कर रोने लगता है। जीवन में प्राप्त धन, यश, पद एवं अनुकूलताएँ जब उसके हाथ से फिसलती हैं तब वह हजारहजार आँसू बहाने लग जाता है। सच्चाई यह है कि ये दुःख के आँसू नये दुःख को ही जन्म देते हैं। जो जैसा है उससे वैसी ही तो संतति होगी। जौ से जौ एवं चना से चना ही पैदा होता है। अपने दुःखों के लिए व्यक्ति जहाँ भी रहा है रोता ही रहा है। रोना हीन भावना का एवं मानसिक दुर्बलता का सूचक है। दुःख का प्रतिकार करने के लिए आदमी आँसू बहाता है पर वह यह नहीं जानता कि इस तरह से तो दुःख और अधिक गहरा बनेगा। यह आँख रूपी ज्योतिदीप आँसू बहाने के लिए नहीं है। यदि आप मुस्कुराओगे तो ये ज्योतिदीप जगमगा उठेंगे। मुस्कान सुगंध की भाँति मन को आनंदित करने वाली होती है। रोना तो जीवंतता की गति में अवरोध पैदा करता है और मुस्कान जीवन को एक लाभात्मक गति प्रदान करती है। रोने के क्षणों में यह बोधात्मक उद्बोधन स्मरणीय है - "छुप-छुप आंसू बहाने वालों ! एक फूल के मुरझाने से गुलशन नहीं उजड़ा करता और एक चेहरे के रूठ जाने से दर्पण नहीं टूटा करता। एक बगिया उजड़ जाए तो दूसरी बनाइए और जिन्दगी को जिन्दगी की तरह बिताइए।"
११ साक्षिभावं समाचरेत् ।।
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Goodbye Sadness
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प्रशंसा एक मीठी मदिरा है जो मुख ।। वदिज्जमाणा न समुक्कसति ।।
से नहीं कानों से पी जाती है। प्रशंसा
के दो शब्द मनुष्य को आत्मविस्मृत कर देते हैं। बड़े से बड़ा विद्वान भी अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठता है। प्रशंसा में फूल जाना और अपनी औकात को भूल जाना यह मनुष्य की पुरानी कमजोरी है। वैसे
तो हर इन्सान प्रशंसा चाहता है चाहे वह
युक्तिपूर्वक मिले या
बलपूर्वक । सत्य यह है
कि प्रशंसा कभी उन्हें नहीं मिलती जो इसकी खोज में रहते हैं । इसको पाने की तीव्र चाह यह सिद्ध कर देती है कि उनमें योग्यता का अभाव है क्योंकि प्रशंसा अज्ञान की बेटी है। विदुर नीति में लिखा है सज्जन पुरूष संग्राम जीत लेने पर शूर की, तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर तपस्वी की तथा अन्न पच जाने पर अन्न की प्रशंसा करते हैं। क्योंकि प्रशंसा को पचाना कठिन है । जब भी अपनी प्रशंसा के गीत गाए जा रहे हों उस क्षण अंतर्मुखी बन कर स्व निरीक्षण करें कि मेरे विषय में जो कहा जा रहा है, जो मेरी ख्याति है और जैसा लोग मुझे मान रहे हैं क्या वाकई में मैं वैसा हूँ ? यदि मैं इस प्रशंसा के काबिल नहीं हूँ तो मुझे अपना आचरण सुधारना चाहिए और यदि वास्तव में मैं ऐसा हूँ तो इसका श्रेय मेरे उपकारी को जाता है। ऐसा कृतार्थता का भाव उत्थान का द्वार खोलता है।
प्रशंसा
All is full of love
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तुलना (तोलने वाला) {{ चरेज्जऽत्तगवेसए ।
मनुष्य के जीवन की समस्त उलझनों का आधार तुलना है। प्रकृति और पशु पक्षियों में कोई तुलना नहीं होती। एकमात्र मनुष्य ही इस धरातल पर ऐसा है जो स्वयं को दूसरों से तोलता रहता है। छोटा बड़ा व्यक्तित्व करने की कोशिश करना मनुष्य के क्षुद्र मन का लक्षण है। दुनिया के कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वयं को बड़ा नहीं करते किन्तु दूसरों को छोटा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। वे सोचते हैं जब दूसरा छोटा हो जाएगा तो उसकी तुलना में हम बड़े श्रेष्ठ मालूम पड़ेंगे। परिणाम यह निकलता है कि वे न स्वयं को बड़ा बना पाते हैं न दूसरों को छोटा साबित कर पाते हैं। तुलना का मूल कारण शक्ति की आकांक्षा में छिपा है। प्रत्येक मनुष्य यही सोचता है कि कैसे मैं दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली हो जाऊँ ? सच्चाई तो यह है कि मनुष्य दूसरों से महान हो यह आवश्यक नहीं, आवश्यकता तो यह है कि वह अपने से छोटा न हो। भरत राम के समान महान नहीं थे पर उनकी महानता यह थी कि वे अपने आप में महान थे। मनुष्य को अपने आप से छोटा नहीं होना चाहिए। अपने जैसा होने में ही आत्म-गरिमा है क्योंकि दूसरे जैसा होने का यहाँ कोई उपाय नहीं।
अतः दूसरों का सम्मान करो किन्तु होना तो सदा अपने ही जैसा चाहो।
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कुशलता
॥ इदमेव मतिकौशल्यम् ॥
जिन्दगी की बेल पर सभी अंगूर मीठे नहीं होते । कुछ मीठे भी हैं तो कुछ खट्टे भी हैं। गुलाब के पौधे के साथ कुछ काँटे तो मिलेंगे ही। दुःख और सुख जीवन के अविभाज्य अंग हैं। जहाँ सुख होगा वहाँ थोड़ा दुःख भी होगा। थोड़ा दुःख जरूरी भी है क्योंकि उसी के कारण सुख का मूल्य है। मिठाई के साथ नमकीन हो तो मिठाई का महत्त्व और बढ़ जाता है। जिसने घोर अमावस्या की रात्रि का अनुभव किया है, वही सूर्य को धन्यवाद दे सकेगा । जब दुःख अपने ही कृत कर्मों का फल है तो यह तय है कि उसे भोगना ही पड़ेगा तो अच्छा है कि उसका स्वागत किया जाए। दुःखों को हंसते हुए भोगो और परमात्मा से कहो. "हे प्रभु ! जिसमें तेरी रजा उसमें मेरी मजा"। दूसरी बात यह है कि दुनिया का हर दुःख अपने भीतर में एक न एक सुख छिपाए रहता है जैसे ग्रीष्म ऋतु का ताप अपने भीतर वर्षा को छिपाए रहता है। मनुष्य की कुशलता इसी में है कि हर दुःख के भीतर छिपे हुए सुख को पकड़ना है और जीना है। समुद्र-मंथन से मात्र विष ही नहीं निकला था, अमृत भी निकला था। ऐसे ही जीवन का भी मंथन करते रहिए तो दुःख के बाद या दुःख में से ही सुख निकलेगा । प्राप्त शक्तियों और सामग्रियों का भरपूर सदुपयोग भी होगा ।
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समझौता
परिवार के बुजुर्ग सदस्यों के साथ तालमेल बिठाकर जीना अनिवार्य है। उनके साथ सामंजस्य बिठाने के लिए एक बात को ख्याल में रखना जरूरी है कि जो बुजुर्ग होते हैं उनका अतीत लंबा होता है और भविष्य छोटा होता है अतः उन्हें स्वयं को बदलना बड़ा मुश्किल है। उनकी तुलना में जिनका अतीत छोटा है और भविष्य लंबा है उन्हें स्वयं को बदलना आसान है और बुजुर्गों के साथ समझौता करना भी आसान है। जिस प्रकार किसी यात्री को ट्रेन में छत्तीस घंटों का सफर करना हो वह अपने साथ में बैठे हुए चार घंटे की यात्रा करने वाले यात्री को अपनी ओर से सुविधा भी देता है तथा उसकी ओर से होने वाली असुविधा को निभा भी लेता है। सिर्फ यह सोचकर कि थोड़ी-सी देर की बात है। यह गणित समझ में आ जाए तो बुजुर्गों के साथ भी समझौता करना आसान और सहज हो जाएगा। यदि हमारे साथ चलने वालों की गति धीमी हो और हमारी गति तेज हो और हमारे साथ चलने वालों को हम साथ ही रखना चाहते हों तो हमें स्वयं के कदमों को धीमा करना होगा। इसी तरह परिवार के जिन बुजुर्ग सदस्यों के साथ आप रहना चाहते हैं तो स्वयं को उदार तथा धैर्यवान बनाना होगा ताकि समझौता किया जाए। An old man is twice a child.
- Shakespeare
जैसे सूर्य के उदय होने पर अंधकार नष्ट हो जाता है ऐसे ही सामंजस्य बिठाकर चलने से जीवन में सुख शांति बनी रहती है।
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चित्तबालक ! मा त्याक्षीरजस्रं भावनौषधिः ।।
Come back to me
चिकित्सा विज्ञान का यह अनुसंधान है कि शरीर में सामान्यतः पैदा होने वाले रोग मौत का कारण नहीं बनते किन्तु ये रोग लम्बे समय तक शरीर में जम जाएं तो मौत का कारण अवश्य बनते हैं। वैसे कर्जा मनुष्य को बरबाद नहीं करता परंतु अधिक समय तक जब कर्जा नहीं चुकाया जाए तो वह निश्चित रूप से व्यक्ति को बरबाद करता है। जैसे रास्ते का Traffic समस्या रूप नहीं है किन्तु वह ट्राफिक जब जाम हो जाता है तो समस्या बन जाता है। ठीक इसी प्रकार मन में आने वाले नकारात्मक और बुरे विचार मात्र जीवन का पतन नहीं करते किन्तु ये विचार जब मन की गहराई में जड़ें जमा लेते हैं तब जीवन में कुंठा, निराशा और हताशा का साम्राज्य फैल जाता है। ज्ञानियों का कथन है कि जब तक कर्मों की परवशता तथा कुसंस्कारों की आधीनता रहेगी तब तक बुरे विचारों को आने से रोका नहीं जा सकता किन्तु आने वाले अशुभ विचारों का तत्काल उपचार हो जाए तो वे अचेतन मन पर प्रभाव नहीं जमा पाएंगे। इसका सबसे आसान उपचार यह है कि बुरे विचारों का न सम्मान कीजिए न उन्हें
सुविधा दीजिए तो वे स्वतः विलीन हो जाएंगे। स्पष्ट है कि जिस मेहमान Jain Edue का आदर नहीं किया जाता वह अपने आप शीघ्र विदा हो जाता है। 100
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संग
१५ संबंधी कायटयो सज्जणेहिं ।
चार दिन की जिन्दगी में मनुष्य किसी न किसी का संग अवश्य चाहता है। संसर्ग से ही मन में गुण और दोष पैदा होते हैं। यदि काला बर्तन हाथ से पकड़ लिया जाए तो अपने हाथ में कालिख लग ही जाती है। बगीचे में बैठने से सुगंध मिलती है और शोलों के पास बैठने से गरमाहट मिलती है। प्रश्न उठता है कि संग किसका करें? जिसमें सज्जनता हो, सहिष्णुता हो, जिसमें दूसरों का भला करने की भावना हो तथा जो ज्ञान, विचार और कर्म से श्रेष्ठ हो उनका संग करें अथवा जो गुणों में अपने जितना समान हो उनका संग करना चाहिए। अपने से हीन तथा निकृष्ट व्यक्ति के संग से बुद्धि, भावना और संस्कारों में हीनता आ जाती है। अपने से श्रेष्ठ का संग करने से मनुष्य विकसित होता है। यदि अपने से विशिष्ट या तुल्य का संयोग न मिले तो अकेले ही रह जाना भला परन्तु अपने से हीन का संग कभी न करें। महाकवि गेटे ने कहा है - मुझे बताइए आप के संगी साथी कैसे है तब मैं तुम्हें बता दूँगा कि आप कैसे हैं? जन्मश्रेष्ठ, कर्मश्रेष्ठ, जातिश्रेष्ठ और संगश्रेष्ठ - इन चारों में संग श्रेष्ठता ही सर्वश्रेष्ठ है जो शेष श्रेष्ठता का मूलाधार है। कहा भी है - सत्संगति मान बढ़ाती है, पाप मिटाती है, अन्तः करण को प्रसन्न करती है और यश फैलाती है
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{{ किं सक्कणिज्जं न समायरामि? {{
तत्रा
जिस जीवन-किश्ती पर कर्त्तव्य का मल्लाह नहीं हो उसे दरिया में डूब जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं। अपने कर्तव्य का पालन करना परमात्मा की पूजा का श्रेष्ठ तरीका है। अक्सर ऐसा होता है कि कर्तव्य पालन के लिए मन तैयार तो हो जाता है किन्तु वह सामने वाले व्यक्ति से भी कर्त्तव्य पालन की अपेक्षा रखता है। राम बनने को मन तैयार है परन्तु छोटे भाई को भरत जैसा होना चाहिए यह अपेक्षा बनी रहती है। यदि बड़ा भाई दुर्योधन की तरह है तो वह भरत बनने को तैयार नहीं होता। पिता यदि पुत्र के प्रति अपना फर्ज सही ढंग से अदा करता हो तो पिता के प्रति पुत्र को भी कर्तव्य पालन में कोई हर्ज नहीं होता। इस तरह की अपेक्षायें तो बाहरी दुनिया में उचित मानी जा सकती हैं परंतु आत्मीय सम्बन्धों के जगत में तो ये घातक ही साबित होती हैं। फल की अपेक्षा से किया गया कर्त्तव्य संबंधों में ऐसी शुष्कता लाता है जिससे मोहब्बत का दरिया सूखने लगता है। आत्मीय चेहरे अजनबी होने लगते हैं। सहानुभूति खो जाती है, सहृदयता गायब हो जाती है...
अतः समझदारी इसी में है कि भली-भाँति अपने कर्तव्य का पालन करके सन्तुष्ट हो जाना और दूसरों को अपनी इच्छानुसार करने के लिए छोड़ देना।
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Im Sorry
५ न निहविज्ज कचाइ दिए
Apologize भूल का स्वीकार
मनुष्य गलतियों का पुतला है। उससे स्वार्थ, लालच, भय या अज्ञानता के कारण कदम-कदम पर जाने-अनजानें भूलें हो जाती है। भूलों से ही मनुष्य बुद्धिमानी का पाठ पढ़ता है। यह पाठ कड़वा जरूर होता है किन्तु सबसे अधिक विश्वसनीय और तेजस्वी भी होता है। गाँधी जी का कथन है - भूल करना भले ही मानव का स्वभाव है परन्तु भूल को स्वीकार करना समझदारी है और पुनः नहीं दोहराना वीरता है। जो अपनी गलतियों पर गर्व करता है वह तो शैतान है। अज्ञानी भूल करके उसे कभी स्वीकार नहीं करता। जबकि अपनी भूलों को स्वीकार करना ज्ञानी बनने का श्रीगणेश करना है। बड़े-बड़े महात्मा, तपस्वी और विद्वानों से भी भूलें हो जाती हैं किन्तु वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। जो भूल को स्वीकार कर लेते हैं वे अपनी भूल को सुधार भी लेते हैं। इतिहास इसका साक्षी है कि रथनेमि जैसे तपस्वी, गौतम स्वामी जैसे ज्ञानी और आचार्य हरिभद्र जैसे विद्वानों से भी भूल हो गई थी किन्तु उनका बड़प्पन इसमें था कि वे तुरंत अपनी भूल को समझ गए और संभल गए। अपनी गलती मान लेना झाडू लगाने का सा काम है, यह कचरा बुहारकर सतह को साफ कर देता है।
अपनी गलतियों पर पर्दा अपने भविष्य पर पर्दा डालने जैसा है।
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जीवन जीवन एक यात्रा है जिसमें चलना ही चलना है। दिन और रात बिना रूके अनवरत चलते ही जाना है। तभी तो उपनिषद् कहते है - ''चरैवेति-चरैवेति'' अर्थात् चलते रहो-चलते रहो, चलना ही जीवन है। कहते हैं इस जीवन में पौ जन्म है, प्रभात बचपन है, दोपहर जवानी है तो संध्या बुढ़ापा है और रात मृत्यु है। कहा भी है - ''सुबह हुई शाम हुई, एक दिवस बीत गया, जीवन रहट का एक डोल रीत गया।'' जीवन की एक मंजिल होनी चाहिए तभी जिंदगी के कोई मायने हैं। मृत्यु आने से पूर्व यह समझ लेना होगा कि जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्योंकि दुनिया में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो जीते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि वे जीते क्यों हैं ? जीवन का उद्देश्य यदि सिर्फ जीवन का निर्वाह करना ही है तो ऐसा पशु-पक्षी भी कर लेते हैं फिर मनुष्य में और पशु-पक्षियों में अंतर ही क्या रहा ? मनुष्य की जिन्दगी एक अवसर है स्वयं को जानने का
और स्वयं को पाने का किन्तु जीवन में क्या-क्या छिपा है यह पता भी नहीं कर पाते कि जीवन अपनी Boundary को पूरी करने की तैयारी में होता है।
। दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं विधेयं हितमात्मनः ।।
भीतर रही हुई शक्तियों को, संभावनाओं और दिव्यता को पहचानना
और साकार करना ही मनुष्य के जीवन का पवित्र उद्देश्य है।
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IT यह जिंदगी
हँसते-खेलते हुए जीने के लिए है। चिन्ता, भय, शोक, निराशा, ईर्ष्या में बिलखते रहना मूर्खता है। महात्मा गाँधी ने कहा है - हँसी मन की गाँठे खोल देती है सिर्फ मेरे मन की ही नहीं तुम्हारे मन की भी । हँसने की शक्ति कुदरत ने मनुष्य को ही इसलिए प्रदान की है ताकि वह क्षण भर के लिए अपने दुःख और दर्द से मुक्ति पा सकें। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दिल खोलकर हँसना, मुस्कुराते रहना और चित्त प्रफुल्लित रखना एक उत्तम औषधि है। तभी तो कहते हैं मानसिक स्वास्थ्य के लिए किसी तार्किक प्रक्रिया की अपेक्षा खूब जोर से हँसना अधिक हितकारी है। हँसना यह आनंद का विषय है परंतु दूसरों पर हँसना दुःखदायक है। मनुष्य ऐसी हँसी नहीं सह सकता जिस हँसी में ईर्ष्या, उपहास व्यंग्य और तीक्ष्णता होती हो। हँसने का प्रसंग नहीं हो तो हँसना मूर्खता है। अकारण हँसना स्वयं को हँसी का पात्र बनाना है। अभद्र हँसी मित्रता के लिए प्राणघातक विष बन जाती है। हास्य भी एक कला है, जब उसमें विवेक झलकता हो। विवेकपूर्ण हँसी नई प्रेरणा, स्फूर्ति और विचारों का स्रोत है । वनस्पति के लिए जैसे खुली धूप और हवा पोषक होती है ठीक उसी प्रकार हँसना भी मनुष्य के लिए टॉनिक का काम करता है।
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मनुष्य के जीवन की एक बुनियादी जटिलता यह है कि वह जो नहीं है उसे दिखाने की कोशिश में संलग्न हो जाता है। यही कारण है कि उसका जीवन मात्र सजावट, बनावट, मिलावट और दिखावट बन कर रह गया है। एक अमेरिकन आलोचक ने ठीक ही लिखा था कि यह कृत्रिमता का युग है। इस युग में चमक-दमक ही सब कुछ है, अतः जीवन के मूल्य इसके नीचे दब गए हैं। मनुष्य बड़ा आडम्बरप्रिय है। मनुष्य के भीतर जो कुछ वास्तविक है उसे छिपाने के लिए जब वह सभ्यता और शिष्टाचार का चोला पहनता है तब उसे सम्हालने के लिए व्यस्त होकर कभी-कभी अपनी आँखों में ही तुच्छ बनना पड़ता है। इसीलिए कहा है -
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दिखावा
दिखावा एक प्रकार की आत्मवंचना ही है। जो होना चाहिए और जो हैं इसके बीच का द्वन्द ही आत्मवंचना का कारण है। हमारा मन इन्हीं बातों से चिंतित रहता है कि कौन व्यक्ति कैसा दिखाई दे रहा है और मेरी तस्वीर उसकी आँखों में कैसी है.....? दिखाने की प्रवृत्ति कोल्हू के बैल की भांति होने से हम एक अन्तहीन भ्रम में जी रहे हैं। अपनी असलियत को छिपाते जाना आज हमारा संस्कार बन गया है। जीवन की सच्ची शान इसमें है कि सारे नकाब उतारकर सच्चाई से जिएं क्योंकि सोने को मुलम्मे की जरूरत नहीं होती।
{{म करीश माया लगार रे प्राणी... "
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पमा
जैसे बाह्य जीवन का आधार श्वास है वैसे ही आभ्यंतर जीवन का आधार प्रेम है। बिना प्रेम के जिन्दगी मौत है। कहते हैं इस दुनिया में एक भी दरवाजा ऐसा नहीं जो प्रेम की चाबी से खुलता न हो। अक्सर ऐसा होता है कि जो हमें चाहता है उसे प्रेम देने में हमें कोई कठिनाई नहीं होती परंतु जहाँ से हमें तिरस्कार और दुत्कार मिलता हो उन्हें प्रेम देना बड़ा कठिन लगता है। सामने वाले का विचित्र व्यवहार देखकर तिरस्कार जागृत हो ही जाता है। अधिकांशतः हमारे जीवन में प्रेम के बदले में प्रेम पनपता है या उसके सतत सद्व्यवहार के कारण प्रेम स्थिर रहता है। ज्ञानी कहते हैं - जैसे गाय घास खाकर भी बदले में दूध देती है, वैसे ही तिरस्कार के बदले में भी प्रेम देना सीखो। एक साक्षात् उदाहरण से बात सिद्ध हो जाती है कि चंडकौशिक के दुष्ट व्यवहार का जवाब प्रभु महावीर ने प्रेम से दिया था। दिल के द्वार पर बैठा हआ प्रेम का चौकीदार आवेश और तिरस्कार के प्रवेश को रोकने में समर्थ है क्योंकि प्रेम में न वैचारिक मतभेदों के लिए कोई स्थान होता है न प्रेम सहिष्णुता की सीमा को जानता है। प्रेम के देने से चाहे दूसरा सुगंधित हो या न हो पर स्वयं का जीवन तो सुवासित हो ही जाता है।
मित्ति मे सटवभूएसु १५.
• TOWARDS YOU
००
देने से बढ़ने वाली और बाँटने से विकसित होने वाली चीज है - प्रेम ।
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Eternal Beauty
साक्षा
साक्षी अर्थात् तटस्थता। तटस्थ का अर्थ है किनारे पर बैठकर लहरों को देखते रहना। जो भी है उसे जानना एवं देखना किन्तु निर्णय नहीं लेना क्योंकि जैसे ही हमने कुछ निर्णय लिया तो राग-द्वेष की यात्रा प्रारंभ हो जाएगी। जिसे हम बुरा कहेंगे उसे हम सामने लाना न चाहेंगे और जिसे अच्छा कहेंगे उसे सामने से हटाना नहीं चाहेंगे। आत्मा का स्वभाव भी ये ही बताया गया - ज्ञाता और दृष्टा अर्थात् जानो और देखो किन्तु किसी भी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति
से जुड़ो मत। जैसे खेल में खेलने वाले और देखने म वाले में बड़ा फर्क होता है। खेलने वाला तो खेल में
तल्लीन हो रहा है। खेल में उसकी हार होती है तो वह दुःखी होगा और जीत होगी तो खुश होगा। देखने वाला दर्शक चुपचाप देख रहा है। जीवन के खेल में हम २४ घंटे खिलाड़ी बनकर हर घटना से जुड़ते हैं, दर्शक तो हम कभी बनते ही नहीं। ज्ञानी कहते हैं शरीर में कहीं दर्द है तो ऐसा मत मान लेना कि मुझे दर्द हो रहा है, अपितु आँखे बंद करके जहाँ दर्द है उसे दर्शक बनकर देखते जाना। देखते-देखते दर्शक दृश्य से अलग होता जाएगा क्योंकि दृष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते। यदि ऐसा साक्षी भाव सध जाए तो दर्द स्वयमेव विलीन हो जाएगा। 110
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अण्णे पुग्गलभावा अण्णोऽहं ।।
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अनित्यता
{अनित्यं हि जगत् सर्वम् {{ ।
पद, पैसा और प्रतिष्ठा यदि एक साथ मिल जाए तो अधिक मत इतराना वर्ना जब ये खो जाएंगे तब तड़पना पड़ेगा। रूप, बल और जवानी की अवस्था में बहुत ज्यादा खुश मत होना वर्ना बुढ़ापे में रोना पड़ेगा। जीवन में प्राप्त उपलब्धियों का उत्सव जरूर मनाना मगर यह मत भूल जाना कि जो मिला है वह हमेशा के लिए रहेगा। जो आज हे वह कल न भी रहे। यहाँ सब कुछ बीतने के लिए। ही मिलता है। इस संसार में समय का पहिया हर चीज पर घूमता है अतः सुख के क्षणों में प्रभु से प्रार्थना करना - हे प्रभो ! मुझे इन क्षणिक सुखों में आसक्त मत होने देना, मुझे सोने मत देना। मुझे सावधान रखना कहीं मैं फिसल न जाऊँ। संत कबीर ने कहा है - "जो सुख में धर्म को नहीं भूलता उसके जीवन में दुःख भी नहीं आते । यह शरीर, यौवन, परिवार, धन, सत्ता, सुखद संयोग और जीवन सब कुछ अनित्य है। जैसे छोटे बच्चे बड़ी मेहनत और लगन से ताश का घर बनाते हैं और हवा का एक झोका ऐसा आता है कि वह बना-बनाया महल एक पल में गिर जाता है। ऐसे ही यह जीवन-महल एक दिन धराशायी हो जाएगा। यदि यह अनित्यता का बोध बार-बार दोहराने से चेतन मन से अचेतन मन में चला जाए तो सुप्त चेतना जाग सकती है और जो जागकर जीते हैं उनके जीवन में कोई तनाव नहीं रहता।
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इस दुनिया में विद्वानों का, डॉक्टरों का, वकीलों का तथा राजनेताओं का जितना महत्त्व है उससे कई गुना अधिक सद्गुरूओं का महत्त्व है। यदि संसार में विद्वान आदि न रहें तब भी संसार चल सकता है। किन्तु सद्गुरू न रहें तो सन्मार्ग कौन दिखाएगा.....? भारतीय मनीषियों ने सद्गुरू को परमहंस कहा है। क्योंकि वे असार को छोड़कर सार को ग्रहण करते हैं। सद्गुरू जीवन रूपी ट्रेन का स्टेशन है। ट्रेन यदि स्टेशन पर रूकती है तो कोई खतरा नहीं होता बल्कि कोई विकृति हो तो वहां दुरूस्त हो सकती है। स्टेशन पर ही उसे कोयला-पानी मिलता है और कुछ देर के लिए विश्रान्ति भी मिलती है। सद्गुरू की शरण में भी जब कोई पहुंचता है तो उसके जीवन के विकार दूर हो जाते हैं। उसकी अंधी दौड़ को विश्राम मिलता। है एवं उसे जीवन की राह का पाथेय भी प्राप्त होता है। सद्गुरू के सान्निध्य का हर पल ज्ञान की लौ को - प्रज्वलित करने वाला होता है ठीक उसी प्रकार जैसे एक जलता हुआ दीपक दूसरे बुझे दीपकों को प्रज्वलित करने वाला होता है। ऐसे सद्गुरूओं का आदर किया नहीं जाता वह तो अन्तस् की हृदय-सरिता से सहज प्रवाहित होता है। जिसमें न कोई दिखावा है न औपचारिकता और न ही तनाव। ऐसे सद्गुरु नौका । की तरह होते हैं स्वयं भी तिरते हैं औरों को भी तारते हैं।
१५ तस्मै सद्गुरवे नमः ।
सदगुरू
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अवसर
११ खणं जाणाइ पौडए ।
क्या नदी ने कभी यह शिकायत की है कि मुझे मार्ग नहीं मिलता....? वह अपने आप ही मार्ग का निर्माण करती है। यदि कोई घर की चार । दीवारी में बैठकर यह कहें कि उसे 2 प्रकाश और हवा चाहिए तो खड़े होकर मकान के द्वार एवं खिड़कियों को खोलना होगा। तब आप देखेंगे कि प्रकाश और पवन तो आपकी बाहर प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसी तरह अवसर भी हमारी राह देख रहा है। अवसर की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है कि कोई उसे हमारे सम्मुख प्रस्तुत करेगा। जिज्ञासा की उत्कृष्टता ही अवसर बन जाती है। अवसर पर किया गया । थोड़ा सा प्रयास भी परेशानियों से बचाता है। ऐसा एक भी व्यक्ति इस संसार में नहीं है जिसके पास एक बार भी भाग्योदय का अवसर न आया हो। जैसे सोने का प्रत्येक कण मूल्यवान होता है, इसी प्रकार समय का प्रत्येक क्षण भी मूल्यवान होता है। यह कभी मत भूलो कि हर कार्य का अवसर होता है और हर अवसर के लिए कार्य भी होता है अतः 'अवसर की उपेक्षा करना स्वयं की। उपेक्षा है। इस संसार में वक्त और समुद्र की लहरें किसी का इन्तजार नहीं देखती अतः जो हर पल सजग रहता है वही अवसर को पकड़ सकता है। समय पर किया गया थोड़ा-सा प्रयत्न भी उत्थान के शिखर तक पहुंचा सकता है।
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संदपयोग
वस्तु का उपयोग दो दिशाओं में होता है-सदुपयोग और दुरूपयोग। सदुपयोग से जीवन में लाभ होता है और दुरूपयोग से हानि होती है। जिस औषधि को शरीर पर लगाने से आराम मिलता है उसे यदि खा लिया जाए तो वह प्राणघातक बन जाती है। शीतल जल यदि मुख में डाला जाए तो वह प्राणदायक बन जाता है किन्तु वही जल यदि कान में चला जाए तो पीड़ादायक बनता है। तन पर लगाया इत्र अपनी सुवास से मन को प्रफुल्लित कर देता है किन्तु यदि वह मुँह में चला जाए तो मुख कड़वा और कषैला हो जाता है। इन सब उदाहरणों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्तु का सही उपयोग करने पर राख और मिट्टी भी अमृत का काम कर देती है किन्तु गलत उपयोग करने पर गुणकारी औषधि तथा मधुर मिष्ठान भी जहर बन जाता है। जीवन में प्राप्त धनसंपदा का एवं शरीर की शक्ति का समुचित प्रयोग परोपकार के कार्यों से होता है, तो दुरूपयोग से कई अनर्थ भी पैदा हो सकते हैं। अतः महापुरुषों ने कहा है - जीवन रूपी महल को ज्ञान की रोशनी और सद्गुणों की सौरभ से महकाना ही जीवन का सदुपयोग है। जहाँ ज्ञान और सगुण की सुगंध का मणिकांचन सुयोग हो वहाँ जीवन स्वतः सार्थकता को प्राप्त हो जाता है।
अवतार मानवीनो फरीने नही मळे ।।
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मैत्री सम्बन्ध नहीं स्वभाव है। सम्बन्ध का अर्थ है बांधना। - मनुष्य के मन का यह स्वभाव है कि वह दूसरों को अपने से तथा अपने को दूसरों से बांधता हैं। यह निश्चित है कि जो बांधा गया है वह कभी न कभी खुल भी जाएगा। जो स्थापित हुआ है वह कभी विस्थापित भी हो जाएगा। ये सम्बन्धों के बंधन समान रूचियाँ और सामूहिक स्वार्थों पर आधारित होते हैं। मैत्री संबंधों में स्थिरता का रहस्य यह है कि दूसरों के साथ मैत्री को स्थायी आधार तभी मिल सकता है जब हमारी अपने साथ मैत्री सुप्रतिष्ठित हो। जो अपना मित्र है वह हर किसी का मित्र हो सकेगा क्योंकि जो अपना मित्र होगा वह कभी दूसरों का बुरा नहीं कर सकेगा। दूसरों के लिए भी वही चाहेगा जो अपने लिए चाहता है क्योंकि वेदों में मित्र शब्द सूर्य के लिए आया है। सूर्य सबका मित्र है और सबको समान रूप से प्रकाश देता है। इसी प्रकार जिसके अंतःकरण में सबके प्रति सतत मैत्री की धारा प्रवाहित होती हो वही अपना । मित्र हो सकता है। प्रभु महावीर ने कहा है - "सभी प्राणियों के ( साथ मेरी मैत्री है। प्राणी मात्र से प्रेम ही मैत्री के तार को जीवित - रख सकता है।" ये प्रेम की भावना सर्वप्रथम अपने घर से प्रारंभ होनी चाहिए। पहले अपने माता-पिता के साथ प्रेम भाव हो, भाईबहन से प्रेम हो फिर मैत्री संसार के सभी प्राणियों से संभव है।
{{ विनय ! विचिन्तय मित्रतां त्रिजगतीजनतासु
सबसे मैत्रीय भाव कराऊँगा, दीन दुःखी पर करुणा मैं लाऊँगा सुधरे जीवन तस्वीर परम गुरु जगपति प्रभु महावीर
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प्रतिकूलता
जीवन में जब कभी किसी इष्ट वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का वियोग होता है और अनिष्ट का जब संयोग होता है तब मन कल्पनातीत दुःख का अनुभव करता है। मन की इस आदत से मनुष्य हर क्षण दुःखी रहता है। रूस के प्रसिद्ध लेखक Leo Tolstoy ने एक बहुत ही सुंदर बात लिखी है-मनुष्य सबसे अधिक यातना अपने विचारों से ही भोगता है। मन की यह खासियत है कि उसे जो वस्तु पसंद न हो, जो व्यक्ति अप्रिय लगता हो और जो घटनाएँ प्रतिकूल हों, उन क्षणों में नाना प्रकार की संभावनाएं सोच कर उस यातना को वह भयंकर बना लेता है। उससे छूटने के लिए अधीर हो जाता है। ऐसे में पाँच मिनट का समय भी पाँच घंटे जितना लंबा हो जाता है। इससे स्पष्ट हुआ कि प्रतिकूलता को झेलने की मानसिकता तैयार न हो तो मन व्याकुल हो जाता है। किसी भी प्रतिकूलता का प्रतिकार या तिरस्कार करने से वह घटती नहीं अपितु दुगुनी हो जाती है ऐसी चित्तवृत्ति का यही समाधान है कि मन की छत को थोड़ा मजबूत बना लो। मजबूत मन मजबूत छत की भाँति काम करेगा। जैसे छत मजबूत हो तो आँधी-तूफान, सर्दी-गर्मी, वर्षा आदि का उस पर असर नहीं होता। वैसे ही मन मजबूत हो तो उस पर प्रतिकूलता का कोई प्रभाव नहीं होगा ।
॥ वसुंधरा इव सव्वफासविसहे ।।
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मूल्यवान
३१ ज्ञाते ह्यात्मनि नो भूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।
परमात्मा महावीर ने कहा कि जीवन में यदि कुछ मूल्यवान है तो वह है स्वयं को जानना। स्वयं के मूल्य से बढ़कर दुनिया में और कुछ मूल्यवान
हो ही नहीं सकता। जो उसे पा लेता है वह सब म) कुछ पा लेता है और जो उसे खो देता है वह । सब कुछ खो देता है। संपन्न होने की कसौटी है।
स्वयं को पा लेना और कंगाल होने की कसौटी है। स्वयं को खो देना। यूं तो जिंदगी में हम जिसको
भी मूल्यवान समझते हैं अंततः वह सब सारहीन - सिद्ध हो जाता है। जैसे मनुष्य ने सबसे प्रथम नंबर
पर धन को मूल्यवान माना किन्तु मृत्यु आने पर की वह सब यहीं पड़ा रह गया। जो साथ न जा सके। ल वह मूल्यवान कैसे होगा। समाज में यश मिला, • लोगों ने प्रशंसा की, फूल मालाएं पहनाईं और
तालियां बजा दी किन्तु जो आज प्रशंसा करते हैं। वे कल निंदा भी तो करते हैं। यदि किसी ने स्वयं को खो कर जगत के समस्त ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा को पा भी लिया तो समझना उसने बड़ा महंगा सौदा किया। यह एक ऐसा सौदा है कि हीरेमोती देकर बदले में कंकर-पत्थर खरीद लिए।। अपने अतिरिक्त अपना यहाँ कुछ भी नहीं है...।
अतः वही जीवन सार्थक है जिसने स्वयं की मूल्यवत्ता को समझकर
आत्मा को जान लिया।
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क्रोध एक क्षणिक पागलपन है जो सदा अंदर रहता है। लोग कहते हैं - ''मुझे क्रोध आ गया'' किन्तु आया कहीं से नहीं वह तो भीतर ही था। जैसे पानी में कंकर डालने से पानी में रही हई गंदगी बाहर आ जाती है वैसे ही निमित्त पाकर क्रोध भी भीतर से बाहर आ जाता है। जब भी क्रोध उठता है तब समझ को बाहर निकालकर बुद्धि के द्वार पर चटखनी लगा देता है। इस अवस्था में सद्गुण ऐसे खो जाते हैं जैसे समुद्र में नदियाँ । कहा भी है। - क्रोध दिमाग का धुंआ है अतः क्रोधी का सुख कपूर की तरह उड़ जाता है। मन का उथलापन ही क्रोध है। जहाँ नदी गहरी होती है वहाँ शोरगुल बंद हो जाता है और जब घड़ा भर जाता है तो आवाज नहीं आती। ठीक इसी प्रकार जब व्यक्ति में गहराई आ जाती है तब उसके जीवन से क्रोध विलीन हो जाता है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है - क्रोध का बेहतरीन इलाज खामोशी है। इसलिए यह सत्य है कि क्रोध कितना भी कठोर क्यों न हो वह मौन को नहीं सह पाता। मौन तो वह यंत्र है जिसके सामने क्रोध की सारी शक्ति विफल हो जाती है। इसलिए भर्तृहरि कहते हैं - क्रोध को जीतने में मौन जितना सहायक होता है उतनी और कोई भी वस्तु नहीं।
{{ कडवा फल छे क्रोधना {{
क्रोध
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मोह-प्रेम
भावनात्मक प्रवाह के दो छोर है - मोह और प्रेम । यद्यपि दोनों का उद्गम स्थान हृदय है। दोनों का बाह्य रूप चाहे एक जैसा नजर आता हो किन्तु परिणाम की दृष्टि से दोनों सर्वथा विपरीत है। जो एक दूसरे से इतने दूर हैं जितने पूर्व और पश्चिम। मोह जीवन के सद्गुणों का विघातक है तो प्रेम विधायक। मोह Hydrogen की भाँति जीवन सत्य का शोषक है तो प्रेम Oxygen की भॉति प्राणों का पोषक है। यही कारण है कि मोह विकार पैदा करता है तो प्रेम शुद्ध संस्कार प्रदान करता है। मोह में स्वार्थ की प्रमुखता होने से वह एक तीक्ष्ण काँटे के समान दूसरों को सदैव कष्ट पहुँचाता है। प्रेम सर्वस्व त्याग करने के लिए तत्पर रहता है क्योंकि वह निष्काम होता है। फलतः प्रेम प्रतिदिन बढ़ता जाता है और मोह समय के साथ घटता जाता है। माता-पिता के प्रेम में स्नेहात्मक उज्ज्व लता है तो बहन-भाई के प्रेम में भावों की पवित्रता है एवं गुरू-शिष्य के प्रेम में आध्यात्मिक विशुद्धता है। प्रेम में आत्म गौरव छलकता है तो मोह मिथ्याभिमान में अंधा बन जाता है। मोह में व्यक्ति जैसा अपने लिए चाहता है वैसा दूसरों के लिए नहीं चाहता और प्रेम में जो हम अपने लिए चाहते हैं वही दूसरों के लिए भी चाहते हैं। ११ मोहममोहेण दुगुंछमाणे
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मौन
शक्ति को संचित करने का एक अपूर्व साधन है - मौन। मौन से न केवल विकेन्द्रित शक्ति संचित होती है अपितु वाणी में बल एवं तेज भी जागृत होता है। अपने कार्य के लिए व्यक्ति स्वयं बोले इसमें उसकी महानता नहीं होती है। महानता इसमें है कि उसका कार्य ही स्वयं बोले। कवि, चित्रकार, लेखक या कलाकार जब कभी किसी कार्य के निर्माण में तल्लीन होते हैं तब वे बोलते नहीं हैं। जब भी मन में तन्मयता और एकाग्रता जागती है तो वाणी मौन हो जाती है। स्पष्ट है कि वाणी का मौन ही कार्य को सिद्ध करता है। जैसे घोंसला सोती हुई चिड़ियों को आश्रय देता है वैसे ही मौन हमारी वाणी को आश्रय देगा। मौन का महत्व उसके उद्देश्य में निहित है। यदि मौन भय प्रेरित है तो वह पशुता का चिन्ह है। संयम से उत्पन्न मौन साधुता है। एक अरबी कहावत भी है - मौन के वृक्ष पर ही शांति के फल लगते हैं। ज्ञानी की वाणी का प्रवाह नदी की भाँति गहरा होता है अतः वह जहाँ-तहाँ नहीं बिखरता । नदी जहाँ गहरी होती है जलप्रवाह अत्यंत शांत और गंभीर रहता है। बादलों के आने पर कोयल भी खामोश हो जाती है क्योंकि जहाँ मेंढ़क टरतेि हों वहां मौन ही शोभा देता है। मौन के गहनतम पल में साधक स्वयं से सम्बन्ध जोड़ता है।
VELP
AKSKI!
१६ सम्यक्त्वमेव तन्मौनम् ।।
People have big mouths and they love to tall
with or without sense, they just think that they can get the world by their talk
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मस्तिष्क शरीर का उत्तमांग है क्योंकि वह सत्यासत्य की यथार्थ परख करने में सक्षम है। जिसका मस्तिष्क विकृत हो जाए उसका जीवन स्वस्थ-स्वच्छ एवं संतुलित नहीं रह सकता। मस्तिष्क एक अलमारी की भाँति है। जैसे अलमारी में व्यर्थ और रद्दी वस्तुएँ भरी हों तो उसमें उपयोगी और सुन्दर वस्तुएँ नहीं रखी जा सकती। निरर्थक वस्तुओं के साथ यदि बढ़िया वस्तुएँ रख भी दी जाएँ तो उसका मूल्य
और सौन्दर्य कम हो जाता है। इसी प्रकार मस्तिष्क की अलमारी में यदि अशुभ विचार भरे हैं तो अच्छे विचारों को उसमें स्थान नहीं मि लेगा। अशुभ विचारों के साथ यदि अच्छे विचार भी रख दिये जाएँ तो वे वैसे ही लगेंगे जैसे पीतल की {{चित्तरत्नमसक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते ।। अंगूठी में किसी ने बहुमूल्य हीरे को जड़ दिया हो। अच्छे विचार रखना मस्तिष्क की सुन्दरता है। दुष्ट विचार ही मनुष्य को दुष्ट कार्य की ओर ले जाते हैं। मस्तिष्क की भूमि में दुर्विचार रूपी बबूल को पैदा होने में समय नहीं लगता न ही उसके लिए कोई खादपानी या माली की जरूरत होती है किन्तु सद्विचार रूपी आम को फलने में समय लगता है। उसको खाद-पानी और अच्छे माली के द्वारा परवरिश की आवश्यकता है।
मस्तिष्क
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धीरज
धीरे-धीरे से मना, धीरे सब कुछ होय । माली सिंचे सौ घड़ा, ऋतु आवे फल होय ||
।। धीरः साफल्यमाप्नुयात् ।।
घर को सुव्यवस्थित और मन को स्वस्थ रखना है तो धीरज रामबाण औषधि है। जल्दबाजी तो कमजोर और चिंतित दिल की निशानी है। प्रकृति में सारे काम धीरे-धीरे होते हैं। प्रकृति कभी शीघ्रता नहीं करती। कहते भी हैं - क्षण भर का धीरज, दस वर्ष की राहत । धीरज सभ्यता की एकमात्र कसौटी है । जो आप नहीं बदल सकते उसे धीरज जीना सीखाता है। अतः सहिष्णुता को इतना मजबूत कीजिए कि आप आस-पास के वातावरण का निरीक्षण कर सके। लोग समझते हैं कि सहना तो मजबूरी का नाम है किन्तु वास्तविकता यह है कि सहनशील होना मजबूरी का नहीं धैर्य का मापदंड है। जब कोई कटु शब्द या किसी के द्वारा किया गया तीखा व्यवहार मन में चुभन पैदा करने लगे तब वाणी को मौन रखकर थोड़ा वक्त गुजरने दो। हो सकता है सामने वाले को स्वयं पश्चाताप हो जाए या हमें उसके उस वचन या व्यवहार के पीछे रहा हुआ आशय स्पष्ट रूप से समझ में आ जाए। तभी तो महापुरूषों ने कहा है-अपने मन को गमले के पौधे की तरह मत बनाना कि लू का एक झोंका जिसे सुखा दे। मन को जंगल के वृक्ष की तरह बनाना जो धूप, वर्षा, ओले और पाले में भी किसी की परवाह नहीं करता ।
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परिवार एक ऐसा गुलदस्ताँ है जो नाना प्रकार के रंगबिरंगी फूलों से सुसज्जित है। उन खिले हुए फूलों की भीनी-भीनी महक से घर का वातावरण सुवासित रहता है। परिवार में परस्पर आदर, प्रेम, समझ और सद्भाव की महक सुरक्षित रहे उसके लिए कुछ नियमों का पालन जरूरी है। जैसे :
परिवार के प्रत्येक सदस्य के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करना।
हर व्यक्ति की इच्छा को महत्व देकर उसकी संवेदनाओं का आदर करने की तमन्ना रखना।
पूज्यभाव या प्रेमभाव के नाम से किसी का शोषण नहीं करने की प्रामाणिकता रखना।
सभी सदस्यों के अलग-अलग ११ समाधानं महासुखम् ११ हित के बीच में समन्वय और समाधान की दृष्टि रखना।
परस्पर की अपूर्णता को मिठास और धैर्य से सहन करने की क्षमता बढ़ाना।
इस संसार में सभी के विचार भिन्न-भिन्न होते हैं अतः Might is Right नहीं Right is Might को 4 अपनाना ताकि परिवार में संक्लेश की LI. H स्थितियाँ पैदा, ही न हो। HEARLHNE
और समाधान परिवार
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प्रार्थना का अभिप्राय है - हे परमात्मन् ! जिस मार्ग पर चलकर आप समस्त दुःखों से मुक्त बने हो, वह मुझे भी प्राप्त हो जाए। प्रार्थना याचना नहीं है क्योंकि याचना का अर्थ है - हे प्रभु ! जिस मोह माया को छोड़कर आप भगवान बने हैं वह मुझे मिल जाए। प्रार्थना और याचना में यही सूक्ष्म अंतर है कि प्रार्थना करने वाला पुजारी कहलाता है और याचना करने वाला भिखारी । प्रार्थना में मन का तार जब तक आस्था के Power House से नहीं जुड़ जाता तब तक न प्रकाश मिल सकता है न शक्ति । भक्ति से ही शक्ति का जागरण होता है । यदि भक्त की सच्ची प्रार्थना को सुनकर भगवान कहें कि मांग ले तुझे जो भी चाहिए तो हीरे-मोती, धन-दौलत और गाड़ी बंगला मांगने की भूल मत कर लेना । यदि यह सब मांग भी लिया तो इनसे न कभी संतुष्टि मिलेगी न ही शांति प्राप्त होगी अपितु लालसा बढ़ती ही जाएगी।
पार्थना
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परमात्मा से तो सिर्फ इतना ही कहना - जैसे आप हैं वैसा मुझे भी बना दीजिए। जो आपने किया है वैसा ही करने की शक्ति मुझे प्रदान कीजिए | ऐसी कृपा कीजिए कि आप जैसी भगवत्ता मुझमें भी प्रकट हो जाए। प्रभु के चरणों में तो उन जैसा दिव्य आचरण ही मांगना । ऐसे ईश्वरीय आचरण में ही अनन्त सुख और अमिट संपदाओं का निवास हुआ करता है।
तुं मने भगवान एक वरदान आपी दे ।
ज्यां वसे छे तुं मने त्यां स्थान आपी दे ।।
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अंतयात्रा
इन्सान ने दूर-दिगन्त तक हजारों यात्राएँ की, अनेक तीर्थयात्राएँ भी की किन्तु कभी अंतर्यात्रा करने का उसे ख्याल नहीं आया। बाहर की यात्रा करनी हो तो World Map मार्ग दर्शन देता है या जिसने पूरी दुनिया की यात्रा कर ली है वह व्यक्ति भी सहायक बन सकता है। परंतु अंतर्यात्रा के सारे रास्ते uncharted हैं इसलिए आदमी भीतर जितना भटकता है उतना बाहर नहीं भटकता। कोई ऐसा सोचे कि पहले सारी अंतर्यात्रा की जानकारी कर लेंगे और फिर यात्रा करेंगे वह अंतर्यात्रा नहीं कर सकता। वह तो ऐसा आदमी है जो यह कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लॅ तब तक पानी में नहीं उतरूँगा। जो इस तर्क बुद्धि से चलेगा वह पानी में बिना उतरे तैरना कैसे सीखेगा ? इस अज्ञात यात्रा में अंतस् की तीव्र रूचि ही मार्ग दर्शाएगी। भीतर चलना आसान नहीं है। वहाँ न रास्ते हैं न कोई पगडंडी सिर्फ अभीप्सा और प्यास के आधार पर ही चलना है। जहाँ प्यास है वहाँ रास्ते खुल जाते हैं।
जब कोई पहली दफा भीतर प्रवेश करता है तो उसे अंधकार ही मिलेगा। जब GE शांतिपूर्वक धीरे-धीरे उस अंधेरे को देखोगे तो अंधेरा कम होता चला जाएगा 5 और आत्मा का प्रकाश प्रकट होगा।
११ जेने पिपासा अमृत पान
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NLY HUNAUNAN
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UMA NOTAMANHUMANSIMPLY
RUMAH SIMPLY JUST AHIUM NUSTHUMAN HUMAN BOVERY HUMAN JUST AHUMAN
HUMANO
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SUITESIMPLYHUMAN SIMP
SIMPLEMENTE HUMAN HUMANO SIMPLY ONL
SIMPLY A HUMAK HUMAN NOT TOOHU
USTHUMA
UMANA MERE JUST
ONLY A HUMANS
HUMANJUST HUMANIST SUNDLYMEONLY DHEVANA SIMPLYI HUMA
ERELYHUNA JUSTHUNA HUMAN ONLYASIM EVEN MORE HUMAN 40130 HUMAN SIMPLYH TLY SIMPLS
VERY HUMA HUMANO
TUCHAHD JUMANJUST
BIMPLI USTA MEREI YMOSTLYHEN
UPLAIN
AUMAP
SAME MERE
UMANOME
आत्मा के खजाने NOTSOHU
को प्राप्त करने Y HUMAN JUSTMAN SNLY HUONLYONLY HUI
की चाबी है - AN SIMPLY HUMA SIMPJUSTARMAN JUMPLE
शरीर। इस सच्चाई को
हम जन्म जन्मांतर NOT SOHUMI
से भूल गए हैं इसलिए सिर्फ ANYMORE
उसके बाहरी सफाई को महत्व देकर MERE ONLYJUST ME SINPLY HUMANONLY HUMANMAN उसे पुष्ट करने में लगे रहते हैं। इस चाबी UNBELIEVBLY HU IANDTX HUMAN से आत्मसंपदा का अनमोल खजाना प्राप्त हो USTAHUMANJUS
सकता है। हमने शरीर को साधन नहीं साध्य
बना दिया है। तीर्थंकर प्रभु महावीर ने कहा। KAN HUMANOI ONLY HUMANILY - शरीर नौका है, आत्मा नाविक है और यह HUMAN
संसार समुद्र है। बिना नाविक के नौका का
कोई अर्थ नहीं। नौका के बिना नाविक उस MOSTLYHU NOTSO HUI पार नहीं पहुँच सकता। नौका साधन । HUMAN
है, नाविक साधक है अतः साधक की USTM
पहली जरूरत शरीर है। इस शरीर का IMPLVH
JUMAI ONLYAMA
स्वभाव जीर्ण-शीर्ण होने का है। हर SIMPL
क्षण इसका ह्रास हो रहा है। जब तक यह नौका छिद्रों से रहित है तब तक ही सागर पार कर लो अन्यथा ये । नौका मझधार में कभी भी धोखा दे सकती है। कहते हैं वीणा के तार यदि टूट जाए तब भी उसका महत्त्व है क्योंकि दूसरे तार बांधकर पुनः । मधुर स्वर लहरियाँ प्रकट हो सकती हैं। दीपक की ज्योति बुझ जाने पर पुनः तेल भरा जा
सकता है बत्ती भी बदली जा सकती है
और दीपक को प्रज्ज्वलित करने की पूर्ण सुविधा है किन्तु एक
बार शरीरसे आत्मा के
निकल जाने पर इस शरीर का
कोई महत्त्व नहीं अतः शरीर की
शक्ति को
धर्माचरण में {{ सरीरमाहु नाच त्ति जीवो चुच्चइ नाविओ {{
लगा दो।
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ATHUMAN QUES BUTY HUNAN 100
MEREMUM
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challenge
जीवन में जो भी श्रेष्ठ हैं वह बिना मूल्य के नहीं मिलता। सभी चुनौतियाँ पुरूषार्थ से हासिल होती है। विशेषज्ञों का कहना है कि मधु की एक बूंद के लिए मधुमक्खी को लगभग सौ पुष्पों के चरण चूमने पड़ते हैं। सिद्धि के बिना प्रसिद्धि नहीं मिलती, काम के बिना नाम नहीं मिलता । किन्तु आज का मनुष्य साध्य तो पाना चाहता है पर साधना नहीं करता। कुछ करेंगे __तब तक मिलेगा। हाथ से मुँह तक भोजन पहुँचाने पर ही पेट भरेगा। निरंतर चलने वाली चींटी मेरूपर्वत पर पहुँच जाती है किन्तु पाँव नहीं हिलाने वाला गरूड़ पास के वृक्ष पर भी नहीं पहुँच पाता। मिट्टी में सोना, सीप में मोती और कोयले से हीरे बिना श्रम के नहीं मिलते। श्रम से हम इस योग्य बनते हैं कि पात्रता का द्वार खुल जाता है। पात्रता ही सफलता का आधार है। याद रखना इन अंगुलियों से ही भाग्य का लेख लिखा जाता है। यह पुरूषार्थ का देवता भीख माँगने के लिए नहीं है। भाग्य को कोसने में जितना समय लगता है उतना यदि निर्माण में लग जाए तो आप मंदिर के देवता होंगे और भाग्य स्वयं आपका पुजारी बन जायेगा। पुरूषार्थी मनुष्य के लिए सुमेरू पर्वत की चोटी बहुत ऊँची नहीं है, न उसके लिए रसातल बहुत नीचा है और न समुद्र अथाह है।
ORN
उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।। उद्यम से ही कार्य सिद्ध होते है, न केवल इच्छाओं को रखने से, जैसे सोये हुए सिंह के मुख में मृग (पशु) स्वयं प्रवेश नहीं करते | वैसे ही सोया हुआ मानव, महामानव नहीं बन सकता |
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सहयोग
जीवन एक महामन्त्र है इसे संपन्न करने के लिए सहयोग की नितांत आवश्यकता है। जैन दर्शन का यह आदर्श है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'' अर्थात् एक दूसरे के उपग्रह, सहयोग से जीवन चलता है। सहयोग के अभाव में जीवन "मत्स्य न्याय' की तरह है। जैसे बड़ी मछली छोटी को खा लेती है। मनुष्य तो क्या देवता भी एक दूसरे के सहयोग के बिना अपने कार्य में सफल नहीं होते। न एक अंगुली से चुटकी बज सकती है न एक अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है। दूसरों की मदद करना ही अपने आपके लिए मदद प्राप्त करने का मार्ग है। इस दुनिया में ऐसा कोई गरीब नहीं जो दूसरों को सहयोग न दे सके और कोई ऐसा अमीर नहीं जिसे कभी दूसरों की जरूरत ही न पड़े। आज के आदमी की स्थिति ऐसी है जहाँ परस्पर संग तो है पर सहयोग नहीं। जीवन तो द्वीप की भाँति होना चाहिए जो डूबते हुए प्राणियों को सहारा दे। सहयोग के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छुपा है ''सुख देने से सुख मिलता है और दुःख देने से दुःख ।'' इसलिए ज्ञानियों ने कहा है - बुराई के बदले भलाई करो तो बुराई दब जाएगी; बुराई के बदले बुराई करोगे तो बुराई फिर उभर आएगी।
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धर्म
आचार्य कुंदकुंद ने धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा - वस्तु का स्वभाव धर्म है। जैसे पानी का स्वभाव है नीचे की तरफ बहना और अग्नि का स्वभाव है। ऊपर की तरफ जाना। पानी बिना किसी प्रयास के पहाड़ी से घाटी की ओर बहता है तथा अग्नि को जितना मर्जी दबाओ वह कभी नीचे की तरफ नहीं जाती क्योंकि स्वभाव सदा प्रयासातीत होता है, मनुष्य को छोड़कर सभी कुछ इस संसार में स्वभाव के अनुसार ही गति करता है। जैसे पानी बरसेगा, धूप पड़ेगी, पानी भाप बनेगा, बादल बनेंगे सब कुछ अपने - अपने स्वभाव से होता है। स्पष्ट है कि धर्म आत्मा का स्वभाव है। धर्म के अभाव में जीवन में मात्र दुःख ही रह जाएगा। महाभारत में लिखा है - यतो धर्मस्ततो जयः अर्थात् जहाँ धर्म होता है वहीं विजय होती है। धर्म का मूल सम्बन्ध दुःख का निरोध और आनंद की उपलब्धि से है। धर्म विचार नहीं उपचार है क्योंकि वह जीवन का परम विज्ञान है। विज्ञान प्रयोगात्मक होता है। जिस धर्म के साथ प्रयोग नहीं है, कुछ जानने या आचरण करने की भूमिका नहीं है तो वह धर्म रूढ़ हो जाता है और रूके हुए पानी की तरह गंदा हो जाता है। धर्म को जो भी धारण करता है उसी का जीवन परिवर्तित होता है।
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भय
।। अखण्डज्ञानराजस्य तस्य साधोः कुतो भयम् ? ।। प्रत्येक मानव भय की ग्रंथि से पीड़ित होने के कारण न सही सोच सकता है न शांति से जी सकता है। भयाक्रांत की आत्मा काँप जाती है और वाणी लड़खड़ाती है। प्रयासों को खंडित करने वाला, आशाओं को बुझाने वाला और शक्तियों पर विराम लगाने वाला यह भय ही है। भय के अनेक आयाम हैं। वह अतीत की स्मृतियों से तथा भविष्य की आकांक्षाओं से उपजता है। कभी-कभी अंधविश्वास से भी पनपता है। चाहे कारण कोई भी हो लेकिन भय का सृजन व्यक्ति स्वयं ही करता है। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि व्यक्ति स्वयं ही भय को नष्ट कर सकता है। जब तक मन भयभीत रहता है तब तक अच्छा गुरू और संत जनों की संगति मिल जाने पर भी किसी को कोई लाभ नहीं होता। भय से मुक्त होने के लिए अभय की भावना को विकसित करना होगा क्योंकि भय से भय पैदा होता है और अभय से अभय का जन्म होता है अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करें कि भय को अवसर ही न मिले तब निर्भयता का जन्म होगा। सेठ सुदर्शन ने इसी अभय की भावना से अर्जुनमाली के भीतर बैठे असुर को स्तंभित कर दिया था। इससे सिद्ध होता है कि अभय की भावना से दिव्यता प्रकट होती है और भय स्वतः ही भाग जाता है।
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दुर्भावना
।। दुर्ध्यानं सन्निरोधयेत् ।।
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आग की नन्ही सी चिंगारी जब अचानक हवा का झोंका पाकर दावानल बन जाती है तो काबू से बाहर हो जाती है। जैसे गर्मी के दिनों में बाँसों के परस्पर घर्षण से एक स्फुलिंग चमकता है और आग फैलनी शुरू हो जाती है फिर वह दावानल महीनों जलता रहता है। इसी तरह क्रोध, घृणा, द्वेष आदि की साधारण सी घटना से ही कभीकभी दुर्भावना की चिंगारी प्रज्ज्वलित हो जाती है और भविष्य में फैलकर परिवार-समाज को ध्वस्त कर देती है। व्यक्ति की चेतना कब, कैसे और क्या रूप ले ले, कौन सी दिशा पकड़ ले, इस संबंध में बहुत सजग रहने की आवश्यकता है। रामायण काल की महारानी कैकेयी के मन में पुत्र-मोह के कारण एक क्षुद्र स्वार्थ की वृत्ति पैदा हुई और उसने अयोध्या के महान् रघुवंश का चित्र ही बदल कर रख दिया। रावण के मन में सीता के लिए एक ऐसा विष-अंकुर पैदा हुआ कि उसने अपनी जाति को मिट्टी में मिला दिया। विष-वृक्ष का नन्हा सा अंकुर भी उपेक्षणीय नहीं है। वर्तमान में साधारण सी दिखने वाली दुर्भावना भविष्य में न जाने कब भयंकर रूप ले ले और सर्वनाश का कारण बन जाए अतः हर क्षण सजगता अनिवार्य है।
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चलना कोई महत्त्वपूर्ण क्रिया नहीं...... महत्त्वपूर्ण है लक्ष्य की ओर चलना। बाण यदि लक्ष्य को बींधता है, गोली यदि निशाने पर लगती है तो उसका महत्व है अन्यथा बाण का बींधना या गोली का चलना दूसरे अनर्थ भी पैदा कर सकता है। लक्ष्य को प्राप्त करना ऐसा है जैसे एक योद्धा का। सुसज्जित होकर युद्ध में जाना। युद्ध को जीतना ही एकमात्र उसके जीवन का अहम् सवाल होता है। अन्तस् की तीव्र चाह हो और बाहर में सच्ची राह मिल जाए तो लक्ष्य की प्राप्ति सुगम हो जाती है। यदि चाह कुनकुनी हो तो लक्ष्य बदल जाने की अनेक संभावनाएँ बन जाती हैं। चाह में तीव्रता तो आ गई परंतु राह गलत है तो मंजिल दूर हो जाने से भीतर का उत्साह भी ठंडा हो जाता है और ऊर्जा भी मंद पड़ जाती है। जो यात्री लक्ष्य को केन्द्र बनाकर जीवन की परिधि में रहे हए समस्त साधन तथा सूचनाओं को बटोर कर चलता है, वही आँधीतूफानों से लड़ता हुआ मंजिल तक शीघ्र पहुँच जाता है।। यदि कोई यात्री लक्ष्य से भटक कर दो कदम भी गलत दिशा में चल पड़ता है तो वह चाहे सारी जिन्दगी भी। चलता रहे किन्तु मंजिल को नहीं प्राप्त कर सकेगा अतः लक्ष्य के प्रति एकाग्रता भी अनिवार्य है।
प्रणिधानकृतं कर्म भवेत्तीविपाककृत् ।।
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उत्तरदायी
{{ अप्पा मित्तममित्तं च सुपा?अदुपट्ठओ {{
मनुष्य एकाकीरूप से स्वयं का उत्तरदायी है। पाप हो या पुण्य, स्वर्ग हो या नरक, सुख हो या दुःख, अच्छा हो या बुरा सब कुछ उसके अपने कारण ही होता है। लेकिन किसी दूसरे को कारण मानकर मन को सान्त्वना मिलती है। हमने सदा कारण के पीछे स्वयं को छिपाया है। दूसरों को दोषी ठहराकर हम अपने को
सुखी मान रहे हैं ये हमारा भ्रम है। सत्य यह है कि जो दूसरों पर ही दोष नहीं डालता वह सुखी है। जीवन में स्वयं को उत्तरदायी मानना
कठिन है। साधारणतः हमारा मन, व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति को दोषी ठहराना चाहता है अतः परस्पर दोष थोपने का एक अंतहीन सिलसिला चल पड़ता है। इसका अंत तब तक नहीं हो सकता जब तक कि बुनियादी रूप से हम यह न जान लें - ''मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ।" जिस दिन यह मान लिया जाएगा उस दिन जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाएगा, परन्तु मनुष्य यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि मुझ में गलतियाँ हैं। जब तक हम अपने दोषों और दुर्गुणों का उत्तरदायी स्वयं को नहीं मानेंगे तब तक उन्हें जीवन से हटाया नहीं जा सकता क्योंकि जैसे ही हम स्वयं के दोषों की जिम्मेदारी स्वयं पर लेंगे तो दूसरों को दोष देना बंद हो जाएगा और स्वनिरीक्षण से सुधार होगा।
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आत्मविश्वास
जीवन-वृक्ष की जड़ है आत्म विश्वास। वृक्ष का विकास जड़ों की गहराई पर निर्भर करता है। वृक्ष को छोटे पौधों की तरह खाद-पानी की जरूरत नहीं होती उनकी गहरी जड़ें ही उनका आवश्यक पोषण पैदा करती है। ये जड़ें दृढ़ता भी देती हैं जिनके सहारे पेड़ आँधी-तूफानों के बीच तन कर खड़े रहते हैं। भय और शंका रहित जीवन जीने का नाम ही आत्मविश्वास है। हीनता की छोटी सी ग्रंथि आत्मविश्वास को कमजोर कर देती है। हीनता ग्रंथि कहती है - "वह बड़ा मैं छोटा।'' हीन भावना आते ही खून ठंडा पड़ जाता है और दिमाग की सोच सुस्त हो जाती है। दरअसल बात यह है कि आदमी अपनी क्षमताओं के प्रति सजग नहीं होता। दुनिया में शक्ति और साधनों की कमी नहीं है, कमी है प्राप्त सुविधा और शक्ति का विधेयात्मक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने की। हमारा आत्मविश्वास इतना प्रबल और अनन्य बनें कि वह पानी को घी और बालू को चीनी बना सके। प्रोत्साहन, प्यार और प्रशंसा के द्वारा भीतर के आत्मविश्वास को जगाया भी जा सकता है और बढ़ाया भी जा सकता है। एक बार आत्मविश्वास जाग जाए तो आत्मा में रही हुई अनंत शक्ति का परिचय होने लगता है
जो पूर्णता देने वाला है।
11 अप्पदीवो भव ।
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त्याग {{ त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः १४
संसार के दो तट हैं - भोग और त्याग। भोग के तट पर अनगिनत कामनाओं की लहरें दौड़ती हैं। चाहे वह कामना संपत्ति की हो, पद की हो या शक्ति की हो। कामनाएँ मात्र अंतहीन संघर्ष और विरोधों का द्वन्द्व ही पैदा करती हैं। जो त्याग के तट पर खड़े हैं उनकी सारी लहरें समाप्त हो जाती हैं और मन शांति की अनुभूति करता है। जीवन का विकास विलास से नहीं त्याग से होता है। त्याग के बिना गति नहीं हो सकती। जैसे एक आदमी एक कदम भी चलता है तो उसे वह जमीन छोड़ देनी पडती है जिस पर वह खड़ा था तभी वह आगे बढ़ पाता है। स्पष्ट है कि गति तब तक नहीं हो सकेगी जब तक हम उसे छोड़ने को राजी न हों। जिस भोग सामग्री को अंतिम समय विवशता से छोड़ना ही है तो उन्हें पहले ही स्वेच्छा से समझपूर्वक छोड़ देना चाहिए। कहा भी है Expired होने से पहले Retired होने में मजा है। यदि वृक्ष फलों का त्याग न करें, नदी जल देना बंद करे तो सर्वत्र त्राहि-त्राहि हो जाएगी। प्रकृति भी त्याग की प्रेरणा देती है। त्याग के बदले में किसी वस्तु की कामना करना कोरा बनियापन है।
बेबसी या प्रलोभन का नाम त्याग नहीं है,
सामर्थ्य का नाम त्याग है।
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अकेलापन
यह मनुष्य की दुविधा है कि
न वह अकेला रह सकता है और न किसी के साथ रहना उसे अच्छा लगता है। अकेले रहो तो अकेलापन खलता है और किसी के साथ रहो तो झंझट होती है। वस्तुतः गहराई से इस जीवन का निरीक्षण किया जाए तो हर आदमी यहाँ अकेला है। यह मनुष्य की नियति है कि जब तक अकेले होने को स्वीकार नहीं करेगा तब तक उसे बेचैनी रहेगी। महापुरूषों का कथन है-अकेलापन जीवन का वह तथ्य है जो सत्य तक पहुँचाता है। इस अकेलेपन की तन्हाई
ने मनुष्य को दो दिशाओं की यात्रा करवाई है, एक गृहस्थ की और दूसरी है सन्यास की। गृहस्थ साथी बनाकर अकेलेपन को भूलना चाहता है लेकिन भुला नहीं पाता । सन्यास का अर्थ है अकेलेपन में आनंद मानना। सन्यासावस्था का मतलब है - यह पहचानना कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? अकेले में जीना एक साधना है क्योंकि हम अकेलेपन से डरते हैं और यह डर बचपन से ही पकड़ा दिया जाता है। किसी भी बच्चे के माता-पिता उसे अकेला नहीं छोड़ते हालांकि दुनिया में सब अकेले ही हैं। हमने अकेले ही जन्म लिया और अकेले ही मरेंगे किन्तु बीच में संगी-साथी की भ्रान्ति खड़ी कर लेते हैं जब यह भ्रान्ति टूटेगी तभी अकेलापन सहज होगा ।
{{ एगंतमणुपस्सओ ।।
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A SPIRITUAL SAVIOR
Wowo
A SPIRITUAL KILLER
श्रद्धा
श्रद्धा हृदय की आँख है। हृदय की आँख जब खुल जाती है तब बुद्धि तुच्छ हो जाती है तथा जहाँ सोच-विचार और तर्क को कोई स्थान नहीं मिलता उस अवस्था का नाम है श्रद्धा। समुद्र में जब तूफान हो और आपकी नौका डगमगा रही हो तो तब श्रद्धा किनारों की बात करती है। जो नहीं देखा उस पर भी भरोसा, जो नहीं सुना उस पर भी भरोसा करना श्रद्धा सिखाती है। इसलिए कहते हैं कि अगर दिल न माने तो खुदा कोई हकीकत नहीं और दिल मान ले तो पत्थर भी भगवान है। श्रद्धा तो किसान की तरह होनी चाहिए। जैसे किसान बीज बोता है किन्तु उसे नहीं पता कि बीज पनपेंगे या नहीं, बारिश होगी या नहीं क्योंकि बीज सड़ भी सकता है और कभी जल भी सकता है फिर भी किसान बीज बोता है। आम तौर पर लोग श्रद्धालु को कमजोर समझते हैं किन्तु यह बात गलत है क्योंकि श्रद्धा यानी अनजान में उतरने का साहस । समुद्र में गोता लगाने पर भी यदि मोती हाथ न लगे तो यह मत मानो कि समुद्र में मोती नहीं है, बल्कि यह सोचो कि बार-बार गोते लगाने का साहस अपेक्षित है। यह साहस श्रद्धा से ही जागता है।
श्रद्धा स्वादो न खलु रसितो, हारितं तेन जन्मः ।। श्रद्धा का स्वाद जिसने नहीं चखा, उसका जन्म लेना निरर्थक है।
FAITH AND WORRYING IS LIKE WATER AND OIL. THEY DON'T & NEVER WILL GO WELL TOGETHER.
श्रद्धा का सीधा सम्बन्ध हमारी मन की दृढ़ता के साथ है।
अतः श्रद्धालु कभी कमजोर हो ही नहीं सकता।
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विवेक
जीवन का ताना-बाना जनम-जनम से उलझा हुआ है। मनुष्य की सबसे बड़ी उलझन यही है कि वह अपनी नजर से दूसरों को देखता है तथा दूसरों की नजर से स्वयं को निहारता है। उसे सुलझाने के लिए तीर्थंकरों ने एक महत्वपूर्ण दृष्टि दी है जिसका नाम है विवेक। जीवन में विवेक उतना ही महत्वपूर्ण है जितना शरीर के लिए स्वास्थ्य। विवेक का अर्थ है भले-बुरे का ज्ञान कराने वाली निर्मल बुद्धि अर्थात् क्या मेरे लिए हितकारी है इसका बोध देने वाली दृष्टि । शेक्सपीयर ने कहा है-तुम्हारा विवेक ही तुम्हारा गुरू है। मन के हाथी को विवेक के अंकुश की जरूरत होती है। हृदय में विवेक का दीया जलता हो तो वह हृदय मंदिर के तुल्य माना जाता है। कहा भी है - आँख का अन्धा संसार में सुखी हो सकता है पर विवेक का अंधा कभी सुखी नहीं हो सकता। उपयोग शून्य क्रिया का नाम ही अविवेक है। क्रिया करते हुए उसी में उपस्थिति रखना विवेक है और अनुपस्थिति अविवेक है। जैसे गाड़ीवान बैलगाड़ी को चलाते हुए खड्डे में गिरे तो यह गाड़ी का दोष नहीं है। यह तो गाड़ीवान का अविवेक है। विवेकी मनुष्य को पाकर गुण उसी प्रकार सुन्दरता को पाप्त होते हैं, जैसे सोने से जड़ा हआ रत्न अत्यंत सुशोभित होता है।
अतः अपने विवेक को अपना शिक्षक बनाओ।
विवेकपूर्ण जीवन पापों से बचाता है।
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When
There comes a time WALK AWAY Though your heart's stirbeating ing to myswhat i know
have becomw what the bes
कदम
।। पर्याप्तं पदमेव ।।
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एक किरण काफी है सूरज तक जाने को,
एक
गंध काफी है बगियाँ तक जाने को और एक कदम काफी है मंजिल तक पहुँचने को । जो एक कदम उठा सकता है वह हिमालय चढ़ सकता है क्योंकि एक कदम से ज्यादा कोई चलता ही नहीं। एक-एक कदम करके हजारों मील की यात्रा तय की जा सकती है। यदि कोई एक साथ दो कदम उठाना चाहे तो नहीं उठा सकता और एक भी कदम न उठा सके इतना कमजोर कोई नहीं होता। एक छोटी सी चींटी भी निरंतर चलती हुई अपने लक्ष्य तक पहुँच जाती है। महात्मा गांधी ने भी कहा था One step is enough for me अर्थात् एक कदम ही मेरे लिए काफी है क्योंकि पहला कदम ही आधी मंजिल है। जो पहला कदम ही भूल जाए उसके लिए मंजिल तक पहुँचने का कोई उपाय नहीं है। यदि कोई संभल कर कदम उठाए तो मंजिल पास आ जाती है और यदि जरा सी चूक कर दे तो आखिरी कदम में भी मंजिल चूक जाती है अतः जितनी सावधानी पहले कदम पर जरूरी है उससे भी ज्यादा सावधानी आखिरी कदम पर जरूरी है। पहला कदम उठाना ही मुश्किल होता है क्योंकि पहले कदम के लिए संकल्प,
साहस, शक्ति और श्रम की जरूरत है।
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एकाग्रता ।। नासाग्रन्यस्तदृग्द्वन्द्वः ।।
सूर्य की हर किरण दिव्य है, दीप्तिमति है परंतु जब वे केन्द्रित होती हैं तभी वे दहकती ज्वाला बनती हैं। बिखरी हुई किरणें साधारण-सा ताप देकर रह जाती हैं, ज्वाला नहीं बन सकती जबकि उनमें जलाने की शक्ति रही हुई है। यही स्थिति मानव-मन की भी है। कितना ही अच्छा शक्तिशाली मन क्यों न हो परन्तु वह बिखरा हुआ है, इधर उधर उलझा हुआ है और उपस्थित कार्य के साथ केन्द्रित नहीं है तो वह कुछ भी नहीं कर पाएगा। जैसे ही मन केन्द्रित होगा उसमें से वह दिव्य शक्ति प्रस्फुटित होगी जो कर्म को प्राणवान बना देगी। केन्द्रित मन ही सिद्धि का द्वार खोलता है । मन को एकाग्र करने के लिए भगवान महावीर ने नासाग्र दृष्टि का प्रयोग किया था। यदि आँखों की पलकों को पूर्ण बंद न करके दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर किया जाए तो मन एकाग्र हो जाता है क्योंकि मन का
और आँखों का गहरा रिश्ता है। आँखों की पलकें जितनी स्थिर रहेगी मन भी उतना ही स्थिर रहेगा। गौतम बुद्ध ने श्वास के निरीक्षण के माध्यम से मन को एकाग्र किया था। आते-जाते श्वास पर मन को लगाने का अभ्यास किया जाए तो मन एकाग्र हो जाता है। जिस दिन एकाग्रता सध जाएगी उस दिन
भीतर की संपदा नजर आएगी।
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क्षणमपि सज्जन संगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका । क्षण भर की सत्संगति, भव सागर से तिरने के लिए नौका के समान हैं।
सHU
सत्संग अर्थात् सत्य का संग। सत्य का संग प्राप्त करके मनुष्य अन्तस् की बुझी हई ज्योति को प्रज्वलित कर लेता है। सत्संग के अभाव में रोशनी नहीं मिलती। इस दुनिया में केवल अँधेरा ही नहीं है। कुछ प्रकाश की किरणें भी हैं। कुछ दीपक प्रज्वलित भी हैं उनका सान्निध्य खोजना चाहिए ताकि उनके सामीप्य से अपनी बुझी हई ज्योति पुनः प्रज्वलित हो जाए। सान्निध्य खोजे उन किरणों का जो सत्यम्, शिवम् व सुन्दरम् की तरफ ले जाए। सत्संग के मायने हैं अपने बुझे दीपक को लेकर किसी जलते हुए दीप के पास जाकर बैठ जाना। पता नहीं कब हवा का झोंका आ जाए और कोई लपट उस बुझे दीप को छू ले। सत्संग में ऐसी तलस्पर्शी घटना घटती है जैसे एक कमल के पुष्प में और सूर्य के बीच में घटती है। सत्य रूपी सूर्य के उदित होने पर हृदय-कमल विकसित हो जाता है। कहते हैं-बीज को जैसी भूमि, खाद या जलवायु मिलती है उसमें वैसी ही तासीर आती है और आदमी को जैसी सोहबत मिलती है उसमें वैसा ही असर आता है। संत एकनाथ ने कहा है - मनुष्य जिस संगति में रहता है उसकी छाप
उस पर अवश्य पड़ती है। उसका अपना अवगुण छिप ६ जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध ||
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DOUBT IS A SIGN OF WEAKNES वहम
मनोविज्ञान का एक नियम है - जैसी हम आशंका करते हैं। वैसा हो गुजरता है। आशंका मन की कमजोरी का परिणाम है जिससे वहम का जन्म होता है। कभी सोचा है कि वहम करने से मनुष्य जीवन की कितनी संपदा नष्ट कर देता है...... ? कहते हैं-शक- सुबहों के तहखाने में बड़ी सीलन होती है। जो इस तहखाने में रहता है उसके दिल का चिराग बुझ जाता है और दिमाग खोखला हो जाता है। संसार में प्रत्येक वस्तु का उपचार है जैसे अग्नि का उपचार जल है, धूप का छाता, हाथी का अंकुश और रोग का औषधि इसी प्रकार हर वस्तु का दुनिया में ईलाज किया जा सकता है किन्तु वहम ही एकमात्र वहम की दवा लुकमान हकीम के पास ऐसा मानसिक रोग है जिसका कोई ईलाज नहीं होता। इसलिए तो कहावत बनी है भी नहीं है। जैसे मणों दूध को एक खटाई की बूँद फाड़ डालती है, काँच को एक हल्की-सी धचक भी तोड़ डालती है वैसे ही वर्षों के पुराने प्रेम सम्बन्धों को वहम का एक झोंका तोड़ डालता है। अतः वहम करना नासमझी है। जिस मनुष्य के चित्त से विश्वास चला जाता है वह व्यक्ति वहमी बन जाता है और जिसने भी वहम किया उसने अपना जीवन बर्बाद किया। विश्वास करना एक गुण है तो वहम एक दुर्बलता का जनक है।
|| न सुखं संशयात्मनः ।।
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विष और अमृत एक ही समुंद्र में हैं। कंकर
और शंकर एक ही गुफा में हैं इसी प्रकार मन में राम
और रावण की दो शक्तियों का शासन भी एक साथ चल रहा है। आत्मारूपी एक ही रंगमहल में दो प्रकार का संगीत साथ-साथ सुनाई देता है एक सुमति का, दूसरा है कुमति का। सुमति का संगीत त्याग-वैराग्य एवं ज्ञान-ध्यान की भावना को जगाता है तो कुमति का गीत विकारी भावनाओं की अभिवृद्धि करता है। जब जीवन में सुमति का सुमधुर संगीत चलता है तब आत्मा अपूर्व आनंद का अनुभव करती है। आत्मा के इस आनंद को देखकर मन ईर्ष्या से जलने लगता है और वह कुमति को उत्प्रेरित करता है कि तू इस प्रकार का संगीत छेड़ जिससे आत्मा आनंदित न रह सके। अनंत काल से यही द्वन्द्व चला आ रहा है। इस द्वन्द्व युद्ध को मिटाने के लिए कुमति की संगत छोड़कर सुमति की संगत करनी होगी क्योंकि सुमति की विजय ही आत्मा की सच्ची विजय है। संत तुलसीदास जी ने भी लिखा है - 'जहाँ-जहाँ सुमति तहाँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहाँ विपत्ति निदाना।' कुमति ने सारे संसार को दुःखी बना दिया है। सुमति के बिना शक्ति केवल मूर्खता और पागलपन है।
११ सन्मतिः शरणं मम १५ 150
द्धन्द्ध
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हृदय-सागर में अनेक लहरें उठती हैं। कुछ लहरें सज्जनता के तट का स्पर्श करती है तो कुछ दुर्जनता के तट को छूती है। जिनवाणी कहती है जिसका हृदय शुद्ध, सरल और सात्त्विक होगा वही धर्म में स्थिर रहेगा । हृदय को Negative Film की तह स्वच्छ रखें। Negative Film का यह नियम है कि उस पर किसी भी प्रकार की छाप नहीं होनी चाहिए। यदि उसमें तनिक भी दाग हो तो फोटो साफ नहीं आती। उसे एकान्त में तथा अंधकार में सँभालकर रखा जाता है। इसी तरह हृदय भी जब तक शुद्ध-निर्मल नहीं होगा तब तक उस पर धर्म की छवि उतारी नहीं जा सकेगी। ईंट और पत्थरों से बने सभी मंदिरों के ऊपर हृदय का मंदिर है। इस हृदय पर मोह और अज्ञान की इतनी परतें जम गई हैं कि हृदय रूपी दर्पण को उन्होंने दीवार बना दिया है जब तक अंतः करण रजरहित नहीं होगा तब तक सत्य दृष्टि का उदय नहीं होगा । साधना द्वारा इस हृदय - दीवार को तब तक घिसते रहना है जब तक
ये दर्पण न बन जाए। ज्ञानी पुरूष का हृदय दर्पण के सदृश होता है जो वस्तुओं को बिना दूषित किए ही झलका देता है। जैसे मैले शीशे में सूर्य की किरणों का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता उसी प्रकार जब तक दिल साफ न हो तब तक आत्मा के भीतर सत्य का प्रकाश भी नहीं हो सकता ।
FIND IS FEAR NOW IT'S ONE DAY 1 THEN IT'S IS IT Secr TELL ALL
THIS MYSELF ALWAYS
IT'S AND YOUR PATH HAVE GOT WASTE YOUR
THING SODONT GO DON
A CRIME ???????? 2227 27 7722 77
722 77
ALL THE PAIN
WHICH I
HOW IT REMAINED
I SO
1 WAS WHY AM CHAMY
REFRAIN FROM
MQUE LOO
NEVER HADTALL I WANT WHEN
SOMETHING
YOU ARE
MY FIRST
BOUGHT
WAKE UP
YOU. FROM P MY POINT OF VIEW: YOU ARE THE CREAM THE CROE NO MATTER WHAT YOU ARE ATO THIS NIGHT I LOST MY HEAD
50
GOT TO KNOW YOU. ALL I WANT IS YOU. FROM MY
POINT OF VIEW YOU ARE THE CREAM OF THE CROP NO MATTER WHAT YOU ARE ATOP SO CRAZY AND IM LYING HERE SO THIS IS WHERE: ME ING NE THING AWESOME. I THE CREAM OF THE C ALL I WANT IS YOU. ALL THE THINGS I'VE SEE I HAVE BEEN: I DONT C
हृदय
ES WORTE. RE ND IT KILLS ME ALL RATION COMESPACES FROM A REASON
YOU ARE LIKE. NEXT DOOK ALL I ASKED
THING SINCE
ING
WAS A WALK. A NIGHTLY WALK AGAINST THE WILL YOU FOR JUST YOU AND I. AND TIME PASSES BY. SITTIN LENDU THE CLOCK WORLD. MY MIND SO TWIRLED. I FEEL I WILL ON TOP OF THE BEFORE IT'S ABOUT TO START. BUT BEFORE I DEPART. I WANNA TELL YOU FALL APART. JUST THE STORY OF MY HEART. THE TRUTH IS... I LOVE YOU, LOVE YOU THROUGH AND THROUGH. OH. I DO. LOOKING INTO YOUR EYES, I'VE REALIZED YOU'RE THE AND I DON'T KNOW WHY, BUT I DIDN'T EVEN TRY...ALL I ASKED YOU FOR WAS A WALK WANTED TO HAVE A TALK JUST YOU AND L BUT I WAS "WHILE YOUR WORLD'S STILL TURNING. MY HEART IS BURN TOO SHY YOU ARE SO FAST AND I. I'VE ALWAYS BEEN THE LAST. YOU ARE THE ONE YOU ARE MY SUN. YOU ARE MY MOON.MY ALL 1ASKED YOU FOR WAS A WALK. PROTECTED BY THAT YOU AND 1 AND I'M AWAITING YOUR REPLY. WHERE TO PLL SE THERE FOR YOU. CRUISING ALL THE SEA. FOR NEW ESPRIT. BUT WHEREVER I STEER... THE ONLY FROM THE AGE OF FIVE. I'VE BEEN WASTING ABOUT TIME TO DIE. AND I KNOW YOU WONT WANNA REACH THE SKY. AT LEAST I WANT TO TIME TO SAY GOODBYE THATS A FACT WE CANT HARD TO BID FAREWELL? HELL. I WISH YOU MY LIFE IN VAIN. IT'S SUCH A GODDAMN NIGHT I LOST MY MIND. YOU MADE ME BLIND. IN YOUR EYES... LOST MY HEART. LOST MY SOUL HAVE AN OPTION, YOU ALWAYS HAVE A CHANCE TIME TO ADVANCE TO MORE THAN JUST A SMALL AND IF EVERYTHING IS GETTING OUT OF CONTROL TIME. LISTEN TO YOUR SOUL. IT'LL TELL YOU TO GO. WHERE IT ENDS? I DON'T KNOW... POTENTIAL RAIN'S COMING DOWN TORRENTIAL TIME. LIVING WELL IS NOT A CRIME. WHY DOES END. SOMETIME. SOMPLACE? LIFE'S A GODDAMN WASTE YOUR TIME LIVING WELL IS NOT A CRIME
ONLY MOOIN HAWK JUST EVER YOU GO SEARCHING THING I ALL MY LIFE EVEN CRY. TRY. BUT DENYWHY
COULD
PAIN
LOST YOU
???? POTENTIAL RAIN'S COMING DOWN mmmmmm WASTE... 227YOUR TIME ?... LIVING WELL ALL I WANT IS YOU. FROM MY POINT OF VIEW, YOU ARE THE CREAM OF THE CROP. NO MATTER WHAT. YOU ARE ATOP. I WAS LYING IN MY BED. SCREAMING FOR SOMETHING I'VE OVERTOOK BY THIS SHOWED ME SOMETHING WAS OVERDUE. EVERYGOT TO KNOW YOU. HEAD. SO MANY YOU MEAN THE WORLD SEARCHING FOR THE FROM MY POINT OF CREAM OF THE CROP ARE ATOP. ALL I WAS A WALK. A AGAINST THE AND I. AND SITTING ON TOP MY MIND SO WILL FALL BEFORE IT'S START. ALL THE SEEN. ALL THE BEEN. I DON'T SINCE YOU ARE ALL I ASKED YOU WANTED TO HAVE AND L BUT I WAS YOUR WORLD'S MY HEART IS ARE SO FAST. BEEN THE LAST DEPART. I THE STORY OF TRUTH IS I YOU THROUGH YOU ARE THE SUN. AND ALL FROM MY YOU ARE THE CROP. NO YOU ARE YOU MORE ZEASE.
NEVER HAD, WHEN I WAS UNIQUE LOOK. YOU NEW SOMETHING WHICH THING WAS ASKEW TILL THIS NIGHT I LOST MY THINGS UNSAID. TO ME. BUT I'M STILL KEY. ALL I WANT IS YOU VIEW: YOU ARE THE NO MATTER WHAT YOU ASKED YOU FOR NIGHTLY WALK CLOCK JUST YOU TIME PASSES BY. OF THE WORLD. TWIRLED. I FEELI APART. JUST ABOUT TO THINGS I'VE PLACE I HAVE CARE NO MORE. LIKE NEXT DOOR FOR WAS A WALK A TALK JUST YOU TOO SHY. WHILE STILL TURNING. BURNING. YOU AND LIVE ALWAYS BUT BEFORE I WANNA TELL YOU MY HEART. THE LOVE YOU. LOVE AND THROUGH. ONE. YOU ARE MY I WANT IS YOU. POINT OF VIEW: CREAM OF THE MATTER WHAT. ATOP. I LOVE THAN ANYTHING YOU ARE MY SUN MY MOON.
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--- निर्माता
परमात्मा महावीर ने कहा - 'मनुष्य स्वयं अपने जीवन का निर्माता है।' इन्सान चाहे तो अपनी जीवन-बगियाँ में सुन्दर फूल खिला सकता है अन्यथा काँटे भी बिखेर सकता है। मनुष्य का चित्त निर्मल हो जाए तो देवत्व उससे दूर नहीं और चित्त विकृत हो जाए तो पतन निश्चित है। जब कोई साँप संस्कारित हो जाता है तो वह श्रावक बन जाता है और जब कोई श्रावक विकृत हो जाता है तो वह साँप बन जाता है। परमात्मा का अवतरण
मगई साहइ सुप्पउत्तो दुग्गडंग
दवाइं च दुप्पउत्तो ।
{{ अप्पा सुगई साह
किसी आकाश से नहीं होता और शैतान कहीं पाताल में नहीं रहता। सब कुछ आदमी के भीतर ही है। यह मन सत् प्रवृत्तियों में लग जाए तो राम बन जाता है और गलत प्रवृत्तियों में लग जाए तो रावण बन जाता है। इसलिए कहा है - मनवा ! तू ही रावण है और तू ही राम है। जब व्यक्ति का प्रेम उत्तेजित हो जाए तो क्रोध बन जाता है और क्रोध उदार बन जाए तो करूणा बन जाता है और अमृत यदि विकृत हो जाए तो विष बन जाता है। मनुष्य का मलिन चित्त ही अधर्म है और निर्मल चित्त धर्म है। प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग किया जाए तो उत्थान हो जाता है और दुरूपयोग से पतन होता है। स्पष्ट है कि हमारे जीवन के आधार और कर्णाधार हम खुद ____ ही हैं। यही तो मनुष्य की परम स्वतंत्रता है।
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ens
भावनाओं में बहने की प्रवृत्ति भावुकता कहलाती है। भाव विचारों की ऊर्जस्वित अवस्था है अर्थात् विचार जब इतने अधिक प्रभावी हो जाते हैं कि वे शरीर के अंगों द्वारा प्रदर्शित होने लगते हैं तो यह अवस्था भावुकता कहलाती है। स्पष्ट है कि इस स्थिति में व्यक्ति उचितानचित के निर्णय से परे हो जाता है। भावूकता की उत्तेजना हर हालत में घातक है क्योंकि इस अवस्था में कल्पना शक्ति बहत तेजी से कार्य करती है। गुण और दोष के उत्पन्न होने का कारण भाव ही है। भावों का जैसा धरातल होगा गति भी उसी तरफ अधिक होगी। म कड़ी के जाले की तरह काल्पनिक जाल बुनना और फिर उस जाल में फंस जाना कोरी भावुकता है। यदि आप कल्पना शक्ति के साथ अपने विवेक और तर्क शक्ति का भी सजग होकर प्रयोग करें तो यह कल्पना शक्ति भी एक दिन वरदान सिद्ध हो सकती है। अपनी परिस्थिति
और क्षमता को पूरी तरह नापकर बुद्धि कौशल से जो व्यक्ति लक्ष्य निर्धारित करता है और उसे पाने के लिए खूब मेहनत करता है वह भावुकता में नहीं बहता। अतः जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए यथार्थता की ठोस
जमीन पर खड़ा रहना अनिवार्य है। 153
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Vullalli Ullalill DHARMshravan Jharm SHRAVAN dharmSHRAVAN dharmdharmdharm
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hadhar
सोच्चा जाणइ कल्लाणं ५
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धर्मश्रवण
dhe
जीवन में धर्मश्रवण Search Light का कार्य करता है जिससे मार्ग खोजना, चलना और मंजिल तक पहुँचना आसान हो जाता है। सुनने का प्रयोजन मात्र इतना ही है कि भीतर की आँखें खुल जाएँ और स्वयं को देखने की कलाकुशलता आ जाए। सुनने से ही श्रेय और अश्रेय का, हित और अहित का, पुण्य और पाप का बोध होता है। धर्मश्रवण का मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। एक ही शब्द सुनकर धन्ना, शालिभद्र तथा रोहिणेय चोर की आत्मा जागी थी। इसलिए आचार्यों ने गृहस्थ को प्रतिदिन धर्मश्रवण करने की प्रेरणा दी। भारतीय संस्कृति के ऋषि-मुनियों ने कहा है - प्रत्येक गृहस्थ को पहले कानों को भोजन देना चाहिए बाद में जुबान को देना चाहिए। मनोविज्ञान भी कहता है पढ़ने से अधिक लाभ श्रवण का है। सुनते समय मन को समग्र रूप से एकाग्र करना पड़ता है क्योंकि जो बोला जा रहा है वह दोहराया नहीं जाएगा परंतु पढ़ते समय आप दस बार पन्ने पलटकर किताब पढ़ सकते हैं। सुना हुआ याद रहे या न रहे पर वह अंतस् के किसी कोने में सरक जाता है जहाँ उसके निशान जम जाते हैं।
श्रवण किया हुआ ज्ञान समय और परिस्थितियों के साथ आत्मा को जागृत करता है। इसलिए तब तक सुनना चाहिए जब तक सुना हुआ आचरण में न उतरें।
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वचन की चोट इतनी गहरी है कि तन पर कहीं भी उसका प्रहार दिखाई नहीं देता किन्तु मन पर गहरे घाव हो जाते हैं। आश्चर्य तो यह है कि उन घावों की मरहम पट्टी भी उसी वचन के पास है जिसने घाव दिए हैं। वे ही वचन यदि स्निग्ध, मधुर और क्षमा भाव के साथ निकलते तो वे मारक शब्द तारक बन सकते थे, वे प्रहारक वचन उद्धारक बन सकते थे। एक जापानी कहावत है - तीन : इंच की जीभ छः फुट लंबे आदमी का कत्ल कर सकती है। यदि वाणी मेघ बनकर बरसे तो सर्वत्र मिठास बिखेरती है। यदि पवन बनकर चलती है तो शीतलता का अहसास कराती है
और प्रकाश बनकर फैलती है तो यश-कीर्ति का ताज पहना देती है। इसलिए कहा है - जीभ को इतनी तेज मत चलाओ कि वह मन . से आगे निकल जाए। सोच समझकर बोलने वाला व्यक्ति हाथी पर चढ़ता है और बिना विचारे बोलने वाला हाथी के पैरों तले रौंदा जाता P है। सुकरात ने कहा है - ईश्वर ने हमें दो कान दिए हैं और आँखें परन्तु जुबान " केवल एक इसलिए दी कि हम अधिक सुनें और बहुत अधिक देखें लेकिन बोलें बहुत कम । यदि शब्द का दुरुपयोग किया जाए तो वे जीवन को कीचड़ के समान बना देते हैं और सदुपयोग करो तो जीवन को इंद्रधनुष के समान रंग बिरंगी बना देते हैं।
{{ पियं पथ्यं वचस्तथ्यं सुनृतव्रतमुच्यते ।
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Huse
uneudsui
music literature peace war science religion evolution revolution friends foes colleagues rivals hope despair dreams nightmares imagination reality history love hate
महापुरूषों की श्रेष्ठता एवं महानता का राज प्रेरणा में छिपा है। परिणाम स्वरूप उनका जीवन भी प्रेरणास्पद सिद्ध होता है। प्रेरणा वह पानी है जो मन रूपी धरती के भीतर रहे बीजों को पनपने का प्रबल निमित्त बनती है। प्रेरणा ऐसा सिंहनाद है जो चिरकाल से सुप्त चेतना को जगाने में समर्थ है। प्रेरणा को इत्र की उपमा दी गई। जैसे इत्र दो ढंग से लगाया जाता है। चाहे इसे हम स्वयं लगाए या कोई दूसरा हमें लगाए। इसी प्रकार प्रेरणा भी या तो स्वतः स्फूरित होती है या दूसरों से भी प्राप्त हो सकती है। कई बार किसी घटना या प्रकृति को देखकर मन स्वतः प्रेरित हो उठता है तो जीवन में अनेक बार हम किसी व्यक्ति की अच्छाई से उनके श्रेष्ठ कार्यों से या उनकी सफल जिंदगी से प्रभावित हो जाते हैं तब उनसे प्रेरित होकर हम अपने व्यक्तिगत जीवन में भी वैसा ही चाहते हैं। जब मन स्वतः प्रेरित नहीं हो पाता तब उसे हिलाकर, सुनाकर, समझाकर और आदर्श चरित्रों के माध्यम से प्रेरणा दी जाती है। प्रेरक आदर्शों का सान्निध्य पारस पत्थर की भाँति उसके जीवन रूपी लोहे को मूल्यवान स्वर्ण बना देता है। आदर्शजीवन दर्पण के सदृश होता है। दर्पण को देखने के लिए हम दर्पण में नहीं देखते अपितु स्वयं को देखने के लिए देखते हैं। उनसे प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन को निहारते भी हैं तथा संवारते भी हैं।
Il take
FROM hate
life
death
order chaos good evil
fiction
faction
past
puy 11
present future
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inspired by life
www.jahelibral.org
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विपत्ति
।। दुःश्वैरात्मनं भावयेत् ।।
जीवन में
कष्टों की अग्नि जलने दो, उससे घबराओ मत। जैसे एक बीज को पनपने के लिए खाद, हवा, पानी के साथ-साथ सूर्य के ताप की भी उतनी ही जरूरत होती है। ठीक इसी प्रकार जीवन में दुःख की भी अनिवार्यता है। कष्टों की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन की मोमबत्ती प्रज्वलित हो जायेगी, गुणों की अगरबत्ती महक उठेगी और चरित्र का स्वर्ण निखर आयेगा। कहते हैं विपत्ति वह हीरक रज है जिससे ईश्वर अपने रत्नों की POLISH करता है। कष्ट सहन करने से मनुष्य के भीतर तीव्र स्फूर्ति जागती है। जैसे गेंद को नीचे फेंकने से वह अधिक वेग से उछलती है। भाप को दबाने से वह तीव्र वेग के साथ धक्का मारती है और चंदन को घिसने से वह भी सुगंध एवं शीतलता देता है। विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला। विपत्तियाँ तो हमें आत्मज्ञान कराती हैं। वे हमें दिखा देती हैं कि हम किस मिट्टी के बने हैं। धैर्यवान के लिए विपत्ति वरदान है। यदि सीता-हरण न होता तो राम का यश कैसे फैलता....... .? अपने को विपत्तियों से लड़ने के लिए तैयार कर लो। चिन्तनकारों ने लिखा है दुःखों के पत्थरों की यह नदी बह रही है, तनकर खड़े हो जाओ और उस पार पहुँचो।
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o स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - शक्ति ही जीवन है अतः शक्ति का संचय करो, शक्ति की उपासना करो और शक्ति का सही उपयोग करो। सब शक्तियाँ Neutral होती हैं। कोई भी शक्ति भली - बुरी नहीं होती। यदि उसका विनाशात्मक उपयोग हो तो वह बुरी हो जाती है और सृजनात्मक उपयोग हो तो अच्छी हो जाती है। जैसे एक माली जब खाद को लाता है तब उसकी गंध आती है किन्तु जब उसे बगीचे में डालकर बीज बोया जाता है तो प्रतिदिन समय-समय पर पानी देने से वह खाद ही उन बीजों से गुजरकर पौधे के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यह है शक्ति का रूपांतरण जो दुर्गंधमय खाद को भी सुगंधमय फूल में रूपांतरित करता है। यह सत्य है कि शक्ति
निरपेक्ष है उसे जैसा ढांचा दो वैसे ही ढल जाती है। अगर इसे क्रोध का रूप मिलेगा तो वह क्रोध बन जाती है और प्रेम का रूप दो तो प्रेम बन जाती है। यही ऊर्जा संसार की र तरफ भी ले जाती है तो यही ऊर्जा निर्वाण को भी उपलब्ध कराती है। ऊर्जा एक ही है चाहे इसे 'पर' में लगाओ या " 'स्व' में, 'पाप' में लगाओ या 'पुण्य' मैं। कहा भी है - मनुष्य के भीतर जो कुछ सर्वोत्तम है उसका विकास करने । हेतु शक्तियों को निरंतर विधेयात्मक दिशा में लगाना चाहिए।
वीर्यं प्रवन्तयेत् ।
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AND THIS HOUSE IS NOT A HOME
प्रयास
{{ अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह {{
एक पंछी पिंजरे में बंद हो और उसे मुक्त करने के लिए किसी व्यक्ति ने उस पिंजरे का दरवाजा खोल दिया हो, उस समय यदि वह पंछी स्वयं के पंखों को न खोले और उड़ने का प्रयास न करे तो पिंजरे का दरवाजा खुलने पर भी उसे कोई लाभ नहीं हो सकता । अँधेरे में बैठे किसी आदमी के सामने यदि कोई जगमगाता दीपक रख भी दे पर वह खुद की आँखों को ही न खोले तो क्या लाभ? कुँए में गिरे हुए व्यक्ति को निकालने के लिए कोई अपने हाथ का सहारा दे किन्तु वह पतित व्यक्ति उसके हाथ को ही न पकड़े तो सहायता के लिये बढ़ाये गए हाथ से कोई लाभ नहीं होगा। स्पष्ट है कि जब तक स्वयं द्वारा कुछ प्रयास नहीं किया जाएगा तब तक दूसरों का दिया गया सहारा कामयाब नहीं हो सकता। बिना प्रयास के तो मिला हुआ भाग्य भी नहीं खुलता। John Beroze ने कहा है - "मैं समय और भाग्य के विरूद्ध कोई भी शिकायत नहीं करता क्योंकि जो कुछ मैं चाहता हूँ वह मुझे अपने प्रयास से मिल जाया करता है।" जिस काम को आप कर सकते हो या कल्पना करते हो कि आप कर सकोगे उसको आरंभ कर दो। सिर्फ काम में जुट जाओ, मस्तिष्क में वेग आ जाएगा। आरंभ करो, कार्य अवश्य समाप्त होगा ।
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3.
आत्मा
।। आत्मज्ञानं च मुक्तिदम् ।।
भोग रोग जामे नही, कषायादि पोष । सो आत्मा परमात्मा, रहे सदा निर्दोष |
प्रभु महावीर ने कहा है - आत्मा से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है क्योंकि आत्मा को जानने और समझ लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। जैसे कवि से ज्यादा सुंदर उसका काव्य नहीं होता, चित्रकार से बढ़कर उसका चित्र नहीं होता, मूर्तिकार से मूर्ति श्रेष्ठ नहीं होती, कर्त्ता से अधिक उसका कर्म महान नहीं होता और खोजने वाले से बड़ा वह नहीं होता जो खोजा जाएगा। इसलिए आत्मा का मूल्य है। स्वभाव से आत्मा शुद्ध है।
जैसे धुआं अग्नि का स्वभाव नहीं, ईंधन का प्रभाव है। वैसे ही आत्मा शुद्ध है किन्तु कर्म और कषाय के ईंधन ने विकारों का धुआँ इकट्ठा किया है।
जिस प्रकार मिठाई की चर्चा करने से, देखने से या स्मरण करने से मिठाई का स्वाद आ जाता है वैसे ही आत्मा की चर्चा करने से आत्मा को देखने से आत्मा का स्मरण करने से आत्मसुख का स्वाद आ जाता है।
160in Education International
मिश्री की एक छोटी सी डली भी क्षण भर के लिए जुबान पर रहे तो उतनी देर तक मिष्ट स्वाद देती है। इसी तरह अल्प समय के आत्म-ध्यान से भी सहज सुख का स्वाद प्राप्त होता है। दूध बिलोते-बिलोते जैसे मक्खन निकलता है वैसे ही आत्म-भावना करते-करते आत्मध्यान जाता है।
Use
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Timesaving
. समय
समय एक ऐसी गाड़ी है जिसमें न Brake है। न Reverse Gear | समय का चक्र कभी घूमकर । पीछे नहीं लौटता। न कहीं क्षण भर के लिए रूकता है और न किसी की प्रतीक्षा करता है। कौन इससे लाभ उठाता है और कौन इसे गंवा देता है यह भी वह नहीं देखता, सिर्फ गतिमान होना ही इसका कार्य है। कोई ऐसी घड़ी आज तक नहीं बनी जो गुजरे हुए घंटे को फिर से बजा दे। समय की धारा तो निरंतर बह रही है..... आदमी सोचता है कल उपयोग कर लेंगे, परसों कर लेंगे..... लेकिन कल कभी नहीं आता। जब भी हाथ में आता है 'आज' ही आता है। कहते हैं-दस हजार गुजरे हुए कल एक आज की बराबरी नहीं कर सकते। जो समय की उपेक्षा करता है वह अपना सब कुछ खो देता है। लोगों की धारणा है शुभ कार्य को शुभ मुहूर्त में करेंगे। हालाँकि प्रत्येक पल पवित्र और शुभ है सिर्फ करने की तीव्र अभीप्सा चाहिए। शुभ कार्य को कल पर टालने से उसका रस, उत्साह और ऊर्जा कम हो जाती है अतः जीवन-कोष में से 'कल' को निकाल दीजिए। समय और परिस्थितियों का कोई भरोसा नहीं अतः जो भी शुभ करना है। आज कर लो आज ही नहीं अभी कर लो। यदि संकल्पित कर्म शुभ है,
मंगलमय है, स्व-पर हितार्थ है तो फिर विलंब मत कीजिए।
समय बड़ा है कीमती, समय बड़ा बलवान | जयन्तसेन गया समय, मिले न मुश्किल जान ।।
११ ते णं काले णं ते णं समाए णं ।।
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डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने लिखा है - यह जीवन ताश के खेल की तरह है। हमने इस खेल के नियम भी खुद नहीं बनाये और न हम उन ताश के पत्तों के 'बंटवारे पर नियंत्रण रख सकते हैं। जैसी। हमारी किस्मत है वैसे पत्ते हमें बाँट दिये। जाते हैं। चाहे वे अच्छे हो या बुरे उन्हें 'ग्रहण तो करना ही है। इस सीमा तक नियतिवाद का शासन है परंतु इसमें एक स्वतंत्रता है। इस खेल को मनुष्य चाहे तो बढ़िया या घटिया ढंग से खेल सकता है।। हो सकता है कि किसी कुशल खिलाड़ी के पास खराब पत्ते आए हों और वह खेल में जीत जाए, यह भी संभव है कि किसी। नादान खिलाड़ी के पास अच्छे पत्ते आए हों फिर भी वह खेल में पराजित हो जाए। यह। जीवन चाहे नियति, विवशता और चुनाव का मिश्रण क्यों न हो पर इस जीवन को कलात्मक ढंग से जीना हमारी कुशलता है। कला श्रम नहीं बौद्धिकता मांगती है। भारतीय चिंतको ने कहा है - 'सव्वकला धम्मकला जिणाई'। धर्मकला सर्व कला को जीत लेती है। धर्मकला जीना सिखाती है और आत्मा का श्रृंगार करती है।
जीवन का सर्वश्रेष्ठ कलाकार वह है जिसने जीवन के सभी क्षणों को आनन्दमय बनाया। शुक्लपक्ष के चंद्र की भांति प्रतिदिन जीवन में सद्गुणों की वृद्धि करना और कृष्णपक्ष के चंद्र
की तरह प्रतिदिन दुर्गुणों को क्षीण करते Filch
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सत्य हमारा स्वभाव है और झूठ बोलना एक असहज तनाव है। झूठ को याद रखना पड़ता है, सच हमेशा वहीं का वहीं है अतः उसे याद रखने की जरूरत नहीं। झूठ की श्रृंखला होती है क्योंकि एक झूठ को दूसरे झूठ का सहारा चाहिए। उपनिषद में लिखा है - झूठ बोलने वाले को न मित्र मिलता है, न पुण्य और न यश। सच बोलना इतना सहज है कि मुख से सहसा निकल जाता है और झूठ बोलने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। झूठ में अनेक संयोग होते हैं परंतु सत्य का केवल एक ही रूप होता है। सत्य का केन्द्रीय अर्थ है कि ऐसा जीना जिस जीने में बाहर और भीतर का तालमेल हो, जिसमें कोई वंचना न हो। जो सत्य होने पर भी दूसरों को पीड़ा पहुँचाएं ऐसा दुर्भावयुक्त सत्य भी असत्य ही है। सत्य का मूल सरलता है तो असत्य का मूल राग-द्वेष है। मनुष्य के अंतः करण के अतिरिक्त सत्य कहीं भी प्राप्त नहीं होता इसलिए सत्य की ओर बढ़ने का पहला कदम है अन्तःकरण को सरल बनाना। जब तक मन में सत्य नहीं आता या मन सत्य के प्रति दृढ़ नहीं बनता तब तक वाणी का सत्य, सत्य नहीं माना जाता क्योंकि मानसिक सत्य के अभाव में वाचिक सत्य टिक नहीं पाता ।
सत्य
FOR A WHILE
UGLY OR FAIR AS HARD FACTS
GOOD
FEEL
NOTHING IS AS POWERFUL FEARSOME
MAKE YOU BEAUTIFUL
LIES CAN
साँच बराबर तप नही, झूठ बराबर पाप । जाके हृदये साँच है, ताके हृदये आप || साँच को कभी आँच नहीं आती ।
।। सच्चं सोयं ।।
सत्य को अपने जीवन में उतारना ही सत्य का सर्वोच्च सम्मान करना है ।
YOU NEED TO FIND OUT
THE REAL 3DISTURBING 5AND FACTUAL
TRUTH
ONCE YOU KNOW HOW THINGS WORK YOU CAN FINALLY KNOW WHAT DECISION
IS THE RIGHT DECISION
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१५ अणुससिओ ण कुप्पिज्जा !!
अनुशासन DISCIPLINE
अनुशासन में रहने का शाब्दिक अर्थ है आज्ञानुसार चलना। किसी की आज्ञा में रहने से स्वतंत्रता भंग नहीं होती अपितु आज्ञा में रहने से व्यक्ति योग्य बनता है। यही कारण है कि गुरूकुल में भी सर्वप्रथम अनुशासन में रहने की कला सिखाई जाती है। अनुशासन से जीवन का निर्माण और व्यवहार की निर्मलता प्रकट होती है। जिस प्रकार जो पत्थर हथौड़े की चोटें खा सकता है छैनी से तपाशे जाने पर बिखरता नहीं वह प्रतिमा बनता है। ऐसे ही जो अनुशासन में रहता है वही महान बनता है। नदी के तटों में बंधे जल के समान अनुशासन जीवन को मर्यादित बना देता है। इस शब्द में केवल पाँच अक्षर हैं किंतु वे अपने आप में बड़ा महत्त्व छिपाए हए हैं। संसार नीति, राजनीति और धर्मनीति बिना अनुशासन के नहीं चलती। संसार नीति में अगर पुत्र माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता तो वह कुपुत्र कहलाता है। राजनीति में राज या सरकार की आज्ञा का पालन जो नहीं करता वह गद्दार कहलाता है। धर्मनीति में जो सर्वज्ञ की आज्ञा का पालन नहीं करता वह नास्तिक कहलाता है।
अनुशासन का मूल विनय है अतः अहंकारी व्यक्ति अनुशासन में नहीं रह सकता। जैसे धरती कोमल बनती है तो अनाज पैदा करती है। इसी प्रकार कोमल मन ही अनुशासन में रह सकता है। "निज पर शासन, फिर अनुशासन ।"
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शान्ति आज का शोर प्रिय मानव अपने जीवन में कुछ पलों के लिए शान्ति से जीना चाहता है। भारत के ऋषि मुनियों। ने दीर्घकालीन मौन की साधना करके शान्ति से जीने का उपदेश दिया। कहते हैं भारत के गाँवों और आश्रमों में इतनी शान्ति रहती थी कि यदि घास भी उगती तो उसकी आवाज सूनी जा सकती थी। आज इतना शोर है कि चीख-चीख। कर बोलने पर भी कोई किसी को सुन नहीं पा रहा है। जड़ हो या । चेतन सभी शोर मचाने में संलग्न हैं। पानी हो या हवा, वाद्य यंत्र हो या ध्वनि यंत्र, चुनावों के। प्रत्याशी का शोर हो या महंगाई के विरोध में शोर, चारों तरफ शोर ही शोर है। यहाँ तक कि परमात्मा को भी शोर से ही रिझाने में लगे हुए हैं। शोर को ही सफलता का शास्त्र मान लिया है। शोर चाहे बाहर का हो या भीतर का हमारे मनोमस्तिष्क और स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है। बाहर के शोर से मुक्ति फिर भी संभव है। किन्तु भीतर का शोरगुल दूर किए बिना शान्ति नहीं मिल सकती। संगत-असंगत विचारों की भीड़ से तभी शान्ति मिल सकती है जब आदमी अंतर में झांकने का निरंतर अभ्यास करें।
जैसे स्थिरता से रखे गए कदम पर्वत के शिखर तक पहुँचा देते हैं। इसी प्रकार भीतर झांकने वाला मन शान्ति तक पहुँचा देता है।।
शान्तिं दिशतु मे गुरुः ।।
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My cantonion
प्रायश्चित् मनुष्य के द्वारा पापों का किया जाना तो बुरा है ही। किन्तु उससे भी अधिक बुरा है उन पापों का पश्चात्ताप
न करना। पश्चात्ताप हृदय में प्रज्वलित हुई वह अग्नि ____है जिसमें पाप जल जाते हैं और मन नये पापों का सृजन नहीं करता। पश्चात्ताप प्रायश्चित्त की पूर्वभूमिका
है। कुछ लोगों का मानना है कि जो पाप किया जा चुका है उसके लिए पश्चात्ताप करने से कोई लाभ नहीं बल्कि इससे तो आत्मा कमजोर बन जाती है। ऐसा
सोचना उनकी दूषित दृष्टि को दर्शाता है।।
पापियों में भी ज्ञान का वह प्रकाश है जो पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त द्वारा प्रकाशित हो सकता है। तभी तो आप्त पुरुषों ने कहा - पापी
से नहीं पाप से घृणा करो। जहाँ पश्चात्ताप का 'भाव है वहाँ आँखें छलक जाती हैं और आत्मनिंदा
के भाव प्रकट होते हैं। प्रतिदिन एकांत में बैठकर स्वयं के द्वारा स्वयं के पापों को प्रकट करना चाहिए। स्वयं के दोषों की मीमांसा
करने से भावों की विशुद्धि होती है। मनुष्य अक्सर अपने पापों को असत्य के आवरण में छिपाना चाहता है। उसे पश्चात्ताप के द्वारा मिटाना या हल्का करना नहीं चाहता। पाप छिपाने से उसमें भीतर ही भीतर वृद्धि होती है। अतः कहा है - पाप के शोलों को प्रायश्चित्त के जल से बुझाओ उस पर राख मत डालो। न जाने कब हवा का कोई झोंका राख को
उड़ाकर आग को भड़का दें।
१५ परितप्पेज्ज पौडए ।
गुरु के पास आलोचना लेकर प्रायश्चित्त वहन करने से पापो का प्रक्षालन होता है।
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ताश का यह खेल निराला
जीवन क्या है ? जीवन ताश के खेल की तरह है। पत्ते हमें बाँट दिए जाते हैं, चाहे वे अच्छे हो या बुरे। उस सीमा तक नियतिवाद का शासन हैं, परंतु खेल को बढ़िया या खराब खेलना हम पर निर्भर करता है। हो सकता हैं आपके पास बहुत अच्छे पत्ते आए हो फिर भी आप बाजी हार जाएं, खेल का नाश कर दें। यह भी हो सकता है कि आपके पास बहुत ही खराब पत्ते आए हों, लेकिन फिर भी आप खेल जीत जाएं। यही संभावना हमारे जीवन पर भी लागू होती है, जीवन को अच्छे या बुरे ढंग से जीना स्वयं पर निर्भर करता है। याद रखिए हमारा जीवन परवशता और स्वतंत्रता का, दैवयोग और चुनाव या चुनौती का मिश्रण है।
अप्पा कत्ता विकत्ता य ।
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११ वितर स्मितोज्ज्वलं दृशम् १६
हास्य
बर्नाड शॉ ने लिखा है, हँसी की सुंदर पृष्ठभूमि पर ही जवानी के प्रसून खिलते हैं। आज के तनाव भरे वातावरण और जीवन में बढ़ती जटिलताओं ने व्यक्ति से उसकी हँसी छीन ली है। रोज – रोज पैदा होती दुशवारियों में वह हँसना भूल गया है। इससे तनाव व परेशानियां कम होने के स्थान पर बढ़ी है, क्योंकि हँसी व्यक्ति के मस्तिष्क पर छाई तनाव की चादर को दूर हटाती है और उसमें जीने का उमंग तथा उत्साह पैदा होता है।
महात्मा गाँधी तनाव के क्षणों में भी मजाक करने से नहीं चूकते थे। उनका कहना था यदि वे हँसना नहीं जानते तो कब के पागल हो जाते। प्रसन्नता परमात्मा की दी हुई औषधि है, एक ऐसी औषधि, जिससे हरेक मनुष्य को स्नान करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक चिंता जीवन का कूड़ा है। इसे धोने के लिए प्रसन्नता की नितांत आवश्यकता है। प्रसन्नता जीवन का प्रभात है। यह शीतकाल की मधुर धूप है तो ग्रीष्म की तपती दुपहरी में सघन छाया। इससे आत्मा खिल उठती है, इससे आप तो आनंद पाते ही है, दूसरों को भी आनंद प्रदान करते हैं। प्रसन्नता पीड़ा का शत्रु हैं, निराशा और चिंता का इलाज और दुःख के लिए रामबाण है।
इसलिए खूब प्रसन्न रहे और दूसरों को भी प्रसन्न करे।
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Life
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Success
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________________ EFFORTE ARISRAISAINMEMORIES SURPRISE KS AINSLNETV CENOSTALGIA TJENEURS OBSESSIONE INTE SVT ECOMER RESINTMENTE COURAGE PRUDING EXBIBLE300, REOINTELLIGENT 2 ERING NOOD RELIGION IONSCHARMERS NON VECINODESIRETHRILL SON S ETERNITY SCARED FRIENDSCA V HOPE Siva HAPPINESS.ININOWEND CADISILLUSIONHOSTILE