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________________ भय ।। अखण्डज्ञानराजस्य तस्य साधोः कुतो भयम् ? ।। प्रत्येक मानव भय की ग्रंथि से पीड़ित होने के कारण न सही सोच सकता है न शांति से जी सकता है। भयाक्रांत की आत्मा काँप जाती है और वाणी लड़खड़ाती है। प्रयासों को खंडित करने वाला, आशाओं को बुझाने वाला और शक्तियों पर विराम लगाने वाला यह भय ही है। भय के अनेक आयाम हैं। वह अतीत की स्मृतियों से तथा भविष्य की आकांक्षाओं से उपजता है। कभी-कभी अंधविश्वास से भी पनपता है। चाहे कारण कोई भी हो लेकिन भय का सृजन व्यक्ति स्वयं ही करता है। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि व्यक्ति स्वयं ही भय को नष्ट कर सकता है। जब तक मन भयभीत रहता है तब तक अच्छा गुरू और संत जनों की संगति मिल जाने पर भी किसी को कोई लाभ नहीं होता। भय से मुक्त होने के लिए अभय की भावना को विकसित करना होगा क्योंकि भय से भय पैदा होता है और अभय से अभय का जन्म होता है अतः ऐसे वातावरण का निर्माण करें कि भय को अवसर ही न मिले तब निर्भयता का जन्म होगा। सेठ सुदर्शन ने इसी अभय की भावना से अर्जुनमाली के भीतर बैठे असुर को स्तंभित कर दिया था। इससे सिद्ध होता है कि अभय की भावना से दिव्यता प्रकट होती है और भय स्वतः ही भाग जाता है। Jain Education inter & Personal Use Only For 137
SR No.003222
Book TitleLife Style
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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