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दुर्भावना
।। दुर्ध्यानं सन्निरोधयेत् ।।
138 ducation International
आग की नन्ही सी चिंगारी जब अचानक हवा का झोंका पाकर दावानल बन जाती है तो काबू से बाहर हो जाती है। जैसे गर्मी के दिनों में बाँसों के परस्पर घर्षण से एक स्फुलिंग चमकता है और आग फैलनी शुरू हो जाती है फिर वह दावानल महीनों जलता रहता है। इसी तरह क्रोध, घृणा, द्वेष आदि की साधारण सी घटना से ही कभीकभी दुर्भावना की चिंगारी प्रज्ज्वलित हो जाती है और भविष्य में फैलकर परिवार-समाज को ध्वस्त कर देती है। व्यक्ति की चेतना कब, कैसे और क्या रूप ले ले, कौन सी दिशा पकड़ ले, इस संबंध में बहुत सजग रहने की आवश्यकता है। रामायण काल की महारानी कैकेयी के मन में पुत्र-मोह के कारण एक क्षुद्र स्वार्थ की वृत्ति पैदा हुई और उसने अयोध्या के महान् रघुवंश का चित्र ही बदल कर रख दिया। रावण के मन में सीता के लिए एक ऐसा विष-अंकुर पैदा हुआ कि उसने अपनी जाति को मिट्टी में मिला दिया। विष-वृक्ष का नन्हा सा अंकुर भी उपेक्षणीय नहीं है। वर्तमान में साधारण सी दिखने वाली दुर्भावना भविष्य में न जाने कब भयंकर रूप ले ले और सर्वनाश का कारण बन जाए अतः हर क्षण सजगता अनिवार्य है।
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