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कर्मों से सावधान
हमारी आत्मा प्रत्येक समय नये कर्म बाँध रहा है और प्रत्येक समय पुराने कर्म भोग भी रहा है। भोगना तो निश्चित है, अपने वश में नहीं है परन्तु बंधन की क्रिया अपने हाथ में है उसे अटकाना चाहें तो अटका सकते हैं। जो अच्छा – बुरा भोगने में आता है उसे समत्व भाव से भोगो। अच्छा फल मिलने पर अहंकार के भाव से नहीं जुड़ना है और जब बुरा फल मिले तो निमित्त को कोसना नहीं है, घृणा नहीं करनी है। क्योंकि कर्मों का भोग करते हुए राग-द्वेष नहीं करेंगे तो नए कर्म-बंध नहीं होंगे। इसलिए कहा भी है - तू भोग की चिन्ता मत कर किन्तु जो नया बंध प्रतिक्षण हो रहा है उसे रोकने का प्रयत्न कर... मुक्ति का यही सीधा रास्ता है।
१५ सो तम्मि तम्मि समए सुहासुहं बंधए कम्मं ।
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