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प्रशंसा एक मीठी मदिरा है जो मुख ।। वदिज्जमाणा न समुक्कसति ।।
से नहीं कानों से पी जाती है। प्रशंसा
के दो शब्द मनुष्य को आत्मविस्मृत कर देते हैं। बड़े से बड़ा विद्वान भी अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठता है। प्रशंसा में फूल जाना और अपनी औकात को भूल जाना यह मनुष्य की पुरानी कमजोरी है। वैसे
तो हर इन्सान प्रशंसा चाहता है चाहे वह
युक्तिपूर्वक मिले या
बलपूर्वक । सत्य यह है
कि प्रशंसा कभी उन्हें नहीं मिलती जो इसकी खोज में रहते हैं । इसको पाने की तीव्र चाह यह सिद्ध कर देती है कि उनमें योग्यता का अभाव है क्योंकि प्रशंसा अज्ञान की बेटी है। विदुर नीति में लिखा है सज्जन पुरूष संग्राम जीत लेने पर शूर की, तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाने पर तपस्वी की तथा अन्न पच जाने पर अन्न की प्रशंसा करते हैं। क्योंकि प्रशंसा को पचाना कठिन है । जब भी अपनी प्रशंसा के गीत गाए जा रहे हों उस क्षण अंतर्मुखी बन कर स्व निरीक्षण करें कि मेरे विषय में जो कहा जा रहा है, जो मेरी ख्याति है और जैसा लोग मुझे मान रहे हैं क्या वाकई में मैं वैसा हूँ ? यदि मैं इस प्रशंसा के काबिल नहीं हूँ तो मुझे अपना आचरण सुधारना चाहिए और यदि वास्तव में मैं ऐसा हूँ तो इसका श्रेय मेरे उपकारी को जाता है। ऐसा कृतार्थता का भाव उत्थान का द्वार खोलता है।
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प्रशंसा
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