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________________ क्षणमपि सज्जन संगतिरेका, भवति भवार्णवतरणे नौका । क्षण भर की सत्संगति, भव सागर से तिरने के लिए नौका के समान हैं। सHU सत्संग अर्थात् सत्य का संग। सत्य का संग प्राप्त करके मनुष्य अन्तस् की बुझी हई ज्योति को प्रज्वलित कर लेता है। सत्संग के अभाव में रोशनी नहीं मिलती। इस दुनिया में केवल अँधेरा ही नहीं है। कुछ प्रकाश की किरणें भी हैं। कुछ दीपक प्रज्वलित भी हैं उनका सान्निध्य खोजना चाहिए ताकि उनके सामीप्य से अपनी बुझी हई ज्योति पुनः प्रज्वलित हो जाए। सान्निध्य खोजे उन किरणों का जो सत्यम्, शिवम् व सुन्दरम् की तरफ ले जाए। सत्संग के मायने हैं अपने बुझे दीपक को लेकर किसी जलते हुए दीप के पास जाकर बैठ जाना। पता नहीं कब हवा का झोंका आ जाए और कोई लपट उस बुझे दीप को छू ले। सत्संग में ऐसी तलस्पर्शी घटना घटती है जैसे एक कमल के पुष्प में और सूर्य के बीच में घटती है। सत्य रूपी सूर्य के उदित होने पर हृदय-कमल विकसित हो जाता है। कहते हैं-बीज को जैसी भूमि, खाद या जलवायु मिलती है उसमें वैसी ही तासीर आती है और आदमी को जैसी सोहबत मिलती है उसमें वैसा ही असर आता है। संत एकनाथ ने कहा है - मनुष्य जिस संगति में रहता है उसकी छाप उस पर अवश्य पड़ती है। उसका अपना अवगुण छिप ६ जाता है और वह संगति का गुण प्राप्त कर लेता है। एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध । तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध || ucation International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003222
Book TitleLife Style
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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