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________________ मोह-प्रेम भावनात्मक प्रवाह के दो छोर है - मोह और प्रेम । यद्यपि दोनों का उद्गम स्थान हृदय है। दोनों का बाह्य रूप चाहे एक जैसा नजर आता हो किन्तु परिणाम की दृष्टि से दोनों सर्वथा विपरीत है। जो एक दूसरे से इतने दूर हैं जितने पूर्व और पश्चिम। मोह जीवन के सद्गुणों का विघातक है तो प्रेम विधायक। मोह Hydrogen की भाँति जीवन सत्य का शोषक है तो प्रेम Oxygen की भॉति प्राणों का पोषक है। यही कारण है कि मोह विकार पैदा करता है तो प्रेम शुद्ध संस्कार प्रदान करता है। मोह में स्वार्थ की प्रमुखता होने से वह एक तीक्ष्ण काँटे के समान दूसरों को सदैव कष्ट पहुँचाता है। प्रेम सर्वस्व त्याग करने के लिए तत्पर रहता है क्योंकि वह निष्काम होता है। फलतः प्रेम प्रतिदिन बढ़ता जाता है और मोह समय के साथ घटता जाता है। माता-पिता के प्रेम में स्नेहात्मक उज्ज्व लता है तो बहन-भाई के प्रेम में भावों की पवित्रता है एवं गुरू-शिष्य के प्रेम में आध्यात्मिक विशुद्धता है। प्रेम में आत्म गौरव छलकता है तो मोह मिथ्याभिमान में अंधा बन जाता है। मोह में व्यक्ति जैसा अपने लिए चाहता है वैसा दूसरों के लिए नहीं चाहता और प्रेम में जो हम अपने लिए चाहते हैं वही दूसरों के लिए भी चाहते हैं। ११ मोहममोहेण दुगुंछमाणे - on Education International For Private & Personal Use Only wwwlane
SR No.003222
Book TitleLife Style
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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