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शिल्पी वह है, जो जीवनशिल्प का सर्जन करेंगा... एक समान दो शिलाएँ खान में से निकली... एक से मूर्ति बनी व दूसरी सीढ़ी में जड़ी...
एक के दर्शनार्थ देखा भक्त की भीड़ उमड़े, दूसरी के सिर पर जूते व चप्पलों की जोड़ी चढ़े. खान तो.. एक ही... मजदूर भी एक ही था... खान खोदने वाले भी एक ही थे. शिलाएँ भी एक समान प्रचंड थीं... किंतु एक से मूर्ति का शिल्प बना... धूप दीप, आरती, पूष्प का अधिकारी.. भक्ति एवं मोक्ष का साधन... दूसरी केवल जूतों का विश्राम स्थल... क्योंकि, एक शिला को सद्भाव से मिला कोई होनहार शिल्पी... जिसने... जड़ को चेतना में परिवर्तित किया... दूसरी को कोई अनगढ़ मानव... जिसने... उसके मस्तक पर जूते रखवाए...
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