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गंगाजी के तट पर उस दिन असंख्य श्रब्दालुओं का ताँता लगा था... शिशु सहस्ररश्मि की कोमल किरणों ने वातावरण के सौंदर्य में चार चाँद लगाए थे... एक युवक गंगातट पर स्नान कर रहा था... अचानक एक वृध्द वानर ने युवक पर हमला किया... भयभीत युवक दौड़ने लगा... वानर उसके पीछे... युवक ने जल में छलांग लगाई व देखते ही देखते वह नदी के उस पार पहुँचा... उसने विचार किया कि वानर यहाँ पहुँच नहीं पाएगा..... अतः शांतिपूर्वक नहा लूँ... परंतु पुल लाँघकर वानर भी उस पार पहुँचा... एक पल के लिए युवक किंकर्तव्य विमूढ बना, परंतु दूसरे ही पल वह दौड़ने लगा... युवक आगे-आगे व वानर पीछे-पीछे... अचानक युवक मुड़ा... हाथ में लकड़ी लिये उसने वानर पर धावा बोला... वृध्द कपि दुम दबाकर वहाँ से भागा...
नवयुवक विवेकानंद जी ने
उस स्वानुभव के साथसाथ लिखा है... हमें संकट से दूर नहीं भागना चाहिए अपितु उससे डटकर लोहा लेना चाहिए... जीवन में संकट तो आते रहते हैं,
संकट का सामना करो... प्रतिकार जीत का सहोदर है...संकटों से शरणागति न स्वीकारें किंतु प्रतिकार करें...
करो. सकट का सामना
संकटों से शरणागति न स्वीकारें किंतु प्रतिकार करें...
प्रतिकार जीत का सहोदर है...
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