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मनुष्य के जीवन की एक बुनियादी जटिलता यह है कि वह जो नहीं है उसे दिखाने की कोशिश में संलग्न हो जाता है। यही कारण है कि उसका जीवन मात्र सजावट, बनावट, मिलावट और दिखावट बन कर रह गया है। एक अमेरिकन आलोचक ने ठीक ही लिखा था कि यह कृत्रिमता का युग है। इस युग में चमक-दमक ही सब कुछ है, अतः जीवन के मूल्य इसके नीचे दब गए हैं। मनुष्य बड़ा आडम्बरप्रिय है। मनुष्य के भीतर जो कुछ वास्तविक है उसे छिपाने के लिए जब वह सभ्यता और शिष्टाचार का चोला पहनता है तब उसे सम्हालने के लिए व्यस्त होकर कभी-कभी अपनी आँखों में ही तुच्छ बनना पड़ता है। इसीलिए कहा है -
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दिखावा
दिखावा एक प्रकार की आत्मवंचना ही है। जो होना चाहिए और जो हैं इसके बीच का द्वन्द ही आत्मवंचना का कारण है। हमारा मन इन्हीं बातों से चिंतित रहता है कि कौन व्यक्ति कैसा दिखाई दे रहा है और मेरी तस्वीर उसकी आँखों में कैसी है.....? दिखाने की प्रवृत्ति कोल्हू के बैल की भांति होने से हम एक अन्तहीन भ्रम में जी रहे हैं। अपनी असलियत को छिपाते जाना आज हमारा संस्कार बन गया है। जीवन की सच्ची शान इसमें है कि सारे नकाब उतारकर सच्चाई से जिएं क्योंकि सोने को मुलम्मे की जरूरत नहीं होती।
{{म करीश माया लगार रे प्राणी... "
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