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अकेलापन
यह मनुष्य की दुविधा है कि
न वह अकेला रह सकता है और न किसी के साथ रहना उसे अच्छा लगता है। अकेले रहो तो अकेलापन खलता है और किसी के साथ रहो तो झंझट होती है। वस्तुतः गहराई से इस जीवन का निरीक्षण किया जाए तो हर आदमी यहाँ अकेला है। यह मनुष्य की नियति है कि जब तक अकेले होने को स्वीकार नहीं करेगा तब तक उसे बेचैनी रहेगी। महापुरूषों का कथन है-अकेलापन जीवन का वह तथ्य है जो सत्य तक पहुँचाता है। इस अकेलेपन की तन्हाई
ने मनुष्य को दो दिशाओं की यात्रा करवाई है, एक गृहस्थ की और दूसरी है सन्यास की। गृहस्थ साथी बनाकर अकेलेपन को भूलना चाहता है लेकिन भुला नहीं पाता । सन्यास का अर्थ है अकेलेपन में आनंद मानना। सन्यासावस्था का मतलब है - यह पहचानना कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? अकेले में जीना एक साधना है क्योंकि हम अकेलेपन से डरते हैं और यह डर बचपन से ही पकड़ा दिया जाता है। किसी भी बच्चे के माता-पिता उसे अकेला नहीं छोड़ते हालांकि दुनिया में सब अकेले ही हैं। हमने अकेले ही जन्म लिया और अकेले ही मरेंगे किन्तु बीच में संगी-साथी की भ्रान्ति खड़ी कर लेते हैं जब यह भ्रान्ति टूटेगी तभी अकेलापन सहज होगा ।
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