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उत्तरदायी
{{ अप्पा मित्तममित्तं च सुपा?अदुपट्ठओ {{
मनुष्य एकाकीरूप से स्वयं का उत्तरदायी है। पाप हो या पुण्य, स्वर्ग हो या नरक, सुख हो या दुःख, अच्छा हो या बुरा सब कुछ उसके अपने कारण ही होता है। लेकिन किसी दूसरे को कारण मानकर मन को सान्त्वना मिलती है। हमने सदा कारण के पीछे स्वयं को छिपाया है। दूसरों को दोषी ठहराकर हम अपने को
सुखी मान रहे हैं ये हमारा भ्रम है। सत्य यह है कि जो दूसरों पर ही दोष नहीं डालता वह सुखी है। जीवन में स्वयं को उत्तरदायी मानना
कठिन है। साधारणतः हमारा मन, व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति को दोषी ठहराना चाहता है अतः परस्पर दोष थोपने का एक अंतहीन सिलसिला चल पड़ता है। इसका अंत तब तक नहीं हो सकता जब तक कि बुनियादी रूप से हम यह न जान लें - ''मैं स्वयं उत्तरदायी हूँ।" जिस दिन यह मान लिया जाएगा उस दिन जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाएगा, परन्तु मनुष्य यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि मुझ में गलतियाँ हैं। जब तक हम अपने दोषों और दुर्गुणों का उत्तरदायी स्वयं को नहीं मानेंगे तब तक उन्हें जीवन से हटाया नहीं जा सकता क्योंकि जैसे ही हम स्वयं के दोषों की जिम्मेदारी स्वयं पर लेंगे तो दूसरों को दोष देना बंद हो जाएगा और स्वनिरीक्षण से सुधार होगा।
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