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संयोग
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।। संयोगा विप्रयोगान्ताः ।।
संसार एक मेला है। मेले में हजारों लोग इकट्ठे होते हैं। कुछ आपस में मिलते हैं तो कुछ से स्नेह सम्बन्ध जुड़ जाता है। संध्या तक सभी मेले में साथ-साथ रहते हैं, आमोद-प्रमोद में खूब मस्त हो जाते हैं और सांझ ढलने पर मेले के बिखरते ही सभी अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं। घर पहुँचकर सब एकदूसरे को भूल जाते हैं। संसार के सभी संयोग, सारे रिश्ते, नदी-नाव संयोग की तरह है। जैसे महासागर में तिरते हुए एक लकड़ी के टुकड़े को तैरता हुआ दूसरा लकड़ी का टुकड़ा मिल जाए तो क्षण भर दोनों आपस में टकराते हैं। कुछ दूर तक दोनों साथ-साथ भी चलते हैं । इतने में अचानक बड़ी तेजी से एक ऊँची लहर आती है और दोनों को अलग कर देती है। ठीक इसी प्रकार से सभी संयोग वियोग में बदल जाते हैं। इस संसार का एक नियम है हर संयोग का अन्त वियोग में होता है। इस बात को समझते हुए भी मनुष्य का मन एक बहुत बड़ी भूल करता है। जब भी कोई संयोग उपस्थित होता है तो उसके साथ "मेरे-पन'' का धागा जोड़कर उस संयोग को संबंध में बदल देता है । यथासमय उस संयोग का जब वियोग होता है तो अपनी ही ममता के कारण व्यक्ति शोक में डूब जाता है।
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चेतन रे ! पंखी ना मेला जेवो, देखी ले संसार । छोड़ी जवानुं तन-मन-धन परिवार ||
अतः संयोग के क्षणों में स्मरण रहे कि बहुत बड़ी दावत भी थोड़ी देर की होती है।
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