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________________ असयैकपद मत्यः ईर्ष्या एक प्रकार की जलन है जिसका निशाना तो दूसरों की तरफ होता है किन्तु घायल वह स्वयं हो जाती है। यह एक ऐसी अग्नि है जो सभी सुखों को जलाकर भस्म कर देती है। यही कारण है कि आज व्यक्ति की प्रतिष्ठा समाज में तो बहत है किन्तु उसका मन प्रसन्न नहीं है। वह धर्म क्रिया तो खूब कर रहा है पर मन में आनंद नहीं है। जीवन में गति तो हो रही है पर मंजिल नहीं मिलती। भोजन सामग्री तो बहुत है पर शरीर स्वस्थ नहीं है। आराम के साधन तो बहत हैं किन्तु भीतर में चैन नहीं है। विभिन्न व्यक्तियों की सफलताएँ, संपन्नताएँ और प्रसिद्धि ईर्ष्या के जागरण में निमित्त बनते हैं। ईर्ष्या के निमित्तों को हटाना न संभव है न आवश्यक है। आवश्यक है ईर्ष्या से मुक्ति । जब मन ईर्ष्या से जलने लगे तब ऐसा चिन्तन अपेक्षित है-दूसरा व्यक्ति मेरे से ज्यादा इसलिए सुखी है क्योंकि उसका पुण्य अधिक है। मेरे से ज्यादा दूसरा इसलिए गुणवान है क्योंकि उसका पूरूषार्थ मेरे से अधिक है। बहिर्जगत की समस्त सफलताओं में पुण्य की मुख्यता है और आभ्यंतर जगत की सफलता का कारण पुरूषार्थ है। यही कारण है कि दुनिया में दुर्जन भी अरबपति बन सकते हैं और सज्जन भी गरीब हो सकता है। इस बात को अंतःकरण से समझ लिया जाए तो ईर्ष्या से मुक्ति पाना सहज हो जाएगा। 103
SR No.003222
Book TitleLife Style
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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