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आत्मा
।। आत्मज्ञानं च मुक्तिदम् ।।
भोग रोग जामे नही, कषायादि पोष । सो आत्मा परमात्मा, रहे सदा निर्दोष |
प्रभु महावीर ने कहा है - आत्मा से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है क्योंकि आत्मा को जानने और समझ लेने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। जैसे कवि से ज्यादा सुंदर उसका काव्य नहीं होता, चित्रकार से बढ़कर उसका चित्र नहीं होता, मूर्तिकार से मूर्ति श्रेष्ठ नहीं होती, कर्त्ता से अधिक उसका कर्म महान नहीं होता और खोजने वाले से बड़ा वह नहीं होता जो खोजा जाएगा। इसलिए आत्मा का मूल्य है। स्वभाव से आत्मा शुद्ध है।
जैसे धुआं अग्नि का स्वभाव नहीं, ईंधन का प्रभाव है। वैसे ही आत्मा शुद्ध है किन्तु कर्म और कषाय के ईंधन ने विकारों का धुआँ इकट्ठा किया है।
जिस प्रकार मिठाई की चर्चा करने से, देखने से या स्मरण करने से मिठाई का स्वाद आ जाता है वैसे ही आत्मा की चर्चा करने से आत्मा को देखने से आत्मा का स्मरण करने से आत्मसुख का स्वाद आ जाता है।
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मिश्री की एक छोटी सी डली भी क्षण भर के लिए जुबान पर रहे तो उतनी देर तक मिष्ट स्वाद देती है। इसी तरह अल्प समय के आत्म-ध्यान से भी सहज सुख का स्वाद प्राप्त होता है। दूध बिलोते-बिलोते जैसे मक्खन निकलता है वैसे ही आत्म-भावना करते-करते आत्मध्यान जाता है।
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