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मानव-मन की दो धाराएँ हैं - एक है चिन्ता की धारा दूसरी है चिन्तन की धारा... जिसके जीवन में पवित्र विचार नहीं है उसका चिन्तन भी दिव्य नहीं हो सकता। जिसका चिन्तन दिव्य नहीं होता उसी को चिन्ता सताती है। फलतः वह कुंठाग्रस्त होकर हीनता का शिकार बन जाता है। चिन्ता करने से समय, शक्ति और समझ का क्षय होता है। ऐसी चिन्ताएँ इस जीवन में अनेक है जैसे हमें कोई नहीं पूछता, हमें कोई प्रेम नहीं देता, हमारे पास कुछ नहीं है, हमारा कोई मल्य नहीं है. हमारा आदर नहीं होता. रचन्ता नहा. इस तरह की अनगिनत शिकायतों से हम चिन्तन करो... सभी पीड़ित हैं। चिन्तन को गहरा करेंगे तो चिन्ता स्वयमेव कम होती जाएगी। ज्ञानपूर्वक विचार करने का नाम चिन्तन है। सत्श्रवण और सत्वाँचन ही चिन्तन के द्वार खोलता है।
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