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________________ Jain Education International कुशलता ॥ इदमेव मतिकौशल्यम् ॥ जिन्दगी की बेल पर सभी अंगूर मीठे नहीं होते । कुछ मीठे भी हैं तो कुछ खट्टे भी हैं। गुलाब के पौधे के साथ कुछ काँटे तो मिलेंगे ही। दुःख और सुख जीवन के अविभाज्य अंग हैं। जहाँ सुख होगा वहाँ थोड़ा दुःख भी होगा। थोड़ा दुःख जरूरी भी है क्योंकि उसी के कारण सुख का मूल्य है। मिठाई के साथ नमकीन हो तो मिठाई का महत्त्व और बढ़ जाता है। जिसने घोर अमावस्या की रात्रि का अनुभव किया है, वही सूर्य को धन्यवाद दे सकेगा । जब दुःख अपने ही कृत कर्मों का फल है तो यह तय है कि उसे भोगना ही पड़ेगा तो अच्छा है कि उसका स्वागत किया जाए। दुःखों को हंसते हुए भोगो और परमात्मा से कहो. "हे प्रभु ! जिसमें तेरी रजा उसमें मेरी मजा"। दूसरी बात यह है कि दुनिया का हर दुःख अपने भीतर में एक न एक सुख छिपाए रहता है जैसे ग्रीष्म ऋतु का ताप अपने भीतर वर्षा को छिपाए रहता है। मनुष्य की कुशलता इसी में है कि हर दुःख के भीतर छिपे हुए सुख को पकड़ना है और जीना है। समुद्र-मंथन से मात्र विष ही नहीं निकला था, अमृत भी निकला था। ऐसे ही जीवन का भी मंथन करते रहिए तो दुःख के बाद या दुःख में से ही सुख निकलेगा । प्राप्त शक्तियों और सामग्रियों का भरपूर सदुपयोग भी होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 107
SR No.003222
Book TitleLife Style
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherK P Sanghvi Group
Publication Year2011
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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