Book Title: Jainism Course Part 03
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं जैनिज़म... खण्ड -3 खण्ड - 9 खण्ड - 8 खण्ड - 7 खण्ड - 6 खण्ड - 5 Call खण्ड - 4 खण्ड - 3 खण्ड - 1 खण्ड - 2 विश्व विश्वतारक रत्नत्रयी सर्वे जीवो मोक्ष जाओ विद्या जैनिज़म कोर्स लेखिका : सा. मणिप्रभा श्री राजितं मंगल Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्याराजितं युवति संस्कार शिविर की झलकियाँ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला. 9503 ॥ श्री मोहनखेडा तीर्थ मण्डन आदिनाथाय नमः ।। ।। श्री राजेन्द्र-धनचन्द्र-भूपेन्द्र-यतीन्द्र-विद्याचन्द्र सूरि गुरुभ्यो नमः ।। श्री विश्वतारक रत्नायी विद्या राजितं त्रिवर्षीय जैनिज़म कोर्स खंड -3 नत्रयी OCIDOARJO सर्व जीवो मोरजामओ DI जैनिज़म कोर्स - आशीर्वाद दाताप.पू. राष्ट्रसंत शिरोमणि गच्छाधिपति वर्तमानाचार्य देवेश . श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. स्व. महत्तरिका पू.सा. श्री ललितश्रीजी म.सा. स्व. प्रवर्तिनी पू.सा. श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. वात्सल्य वारिधि सेवाभावी सा.श्री संघवणश्रीजी म.सा. --लेखिका - सा. मणिप्रभाश्रीजी के अधीन है। --प्रोत्साहक.कुमारपाल वी. शाह रकार लेखक तथा पद्म नंदी प्रकाशक-- श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढी श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ (धार) म.प्र. इस पुस्तक कासव Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. प्रकाशन वर्ष : सं 2068 प्रथम आवृत्ति : 3000 नकल मूल्य : 100/- रू. प्रकाशक : श्री मोहनखेडा तीर्थ आधार ग्रन्थ * श्राद्ध विधि * धर्म संग्रह * अष्टान्हिका व्याख्यान * बृहत्संग्रहणी * लोक-प्रकाश * लघु संग्रहणी चित्र निम्न पुस्तक में से . साभार लिये गए है। * बालपोथी * प्रतिक्रमण * कल्पसूत्र * सचित्र श्रावक व्रत दर्शन * आवश्यक क्रिया सूत्र *त्रिलोकतीर्थ वंदना जैनाचार प्रकरण पेज में जो नंबर लिखे है वह इस कोर्स से पहले के पुस्तक के प्रकरण के अनुसंधान में है। इस तरह कुल तीन साल के पूरे कोर्स में एक प्रकरण के नौ-नौ भाग होंगे। इस पुस्तक का सर्वाधिकार लेखक तथा प्रकाशक के अधीन है ।। -- मुख्य कार्यालय - श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं समिति 20/21 साईबाबा शॉपींग सेन्टर, के. के. मार्ग, नवजीवन पोस्ट ऑफिस के सामने, मुंबई सेन्ट्रल, मुंबई-8 (महाराष्ट्र) फोन: 022-65500387 मुद्रक : जैनम ग्राफिक्स सी-208/210, पहला माला, बी. जी. टावर्स दिल्ही दरवाजा बाहर, शाहीबाग रोड, अहमदाबाद. फोन : 079-25630133 फेक्स: 079-25627469 मो.: 9825851730, 94264 26510 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।। तव चरणं शरणं मम जिनकी कृपा, करुणा, भाशिष, वरदान एवं वात्सल्य धारा इस कोर्स पर सतत बरस रही है। जिनके पुण्य प्रभाव से यह कोर्स प्रभावित है, ऐसे विश्व मंगल के मूलाधार प्राणेश्वर, हृदयेश्वर, सर्वेश्वर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में ...... . जिनकी क्षायिक प्रीति भक्ति ने इस कोर्स को प्रभु से अभेद बनाया है, ऐसे सिद्धगिरि मंडन ऋषभदेव भगवान के चरणों में.... इस कोर्स को पढ़कर निर्मल भाराधना कर आने वाले भव में महाविदेह क्षेत्र में जिनके पास जाकर यारित्र ग्रहण कर मोक्ष को प्राप्त करना है, ऐसे मोक्ष दातारी सीमंधर स्वामी के चरणों में .... जिनकी अनंत लब्धि से यह कोर्स मोक्षदायी लब्धि सम्पन्न बना है ऐसे परम श्रद्धेय समर्पण के सागर गौतम स्वामी के चरणों में.... जो समवसरण में प्रभु मुख कमल में विराजित है, जो जिनवाणी के रूप में प्रकाशित बनती है, जो सर्व अक्षर, सर्व वर्ण एवं स्वर माला की भगवती माता है, जो इस कोर्स के प्रत्येक अक्षर को सम्यग् ज्ञान में परिणमन कर रही है ऐसी तीर्थेश्वरी सिद्धेश्वरी माता के चरण कमलों में ...... शताब्दि वर्ष में जिनकी अपार कृपा से जिनके सानिध्य में इस कोर्स रचना के सुंदर मनोरथ पैदा हुए एवं जिनके अविरत आशिष से इस कोर्स का निर्माण हुआ। जो जन-जन के आस्था के केन्द्र है, जो इस कोर्स को विश्व व्यापी बना रहे हैं। जो पू.धनचन्द्रसूरि, पू.भूपेन्द्रसूरि, पू.यतीन्द्रसूरि, पू.विद्याचन्द्रसूरि आदि परिवार से शोभित है ऐसे समर्पित परिवार के तात विश्व पूज्य प्रातः स्मरणीय पू. दादा गुरुदेव राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के चरण कमलों में..... जिनकी कृपावारिसे सतत मुझे इस कोर्स के लिए प्रोत्साहित किया ऐरी वर्तमान श्राचार्यदेवेश श्रीमद् विजय हेमेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा., पू. गुरुणीजी विद्याश्रीजी म.सा, पू. प्रवर्तिनी मानश्रीजी म.सा., पू. महत्तरिका ललितश्रीजी म.सा., पू प्रवर्तिनी मुक्ति श्रीजी म.सा., सेवाभावी गुरुमैय्या संघवणश्रीजी म.सा. के चरण कमलों में.... इस कोर्स का प्रत्येक खंड, प्रत्येक येप्टर, प्रत्येक क्षर आपका श्रापश्री के चरणों में सादर समर्पणम् सा. मणिप्रभाश्री 5/4/2010, सोमवार भीनमाल Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन साध्वीजी श्री मणीप्रभाश्रीजी आदि ठाणा -शातापृच्छा! 'विशेष- यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि "श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या शजितं जेमिमकोर्स का प्रकाशन हो रछ है। ___कम्प्युटर, इंटरनेट के इस आधुनिक एवं जातिशिल युग में जैन संस्कृति एवं इस संस्कृति से जुड़े युवाओं के लिये जैनिज्म कोर्स संजीवनी है जो कि किड़ी हुई दशा एवं दिशा दौगो को नवजीवन प्रदान करेगी। संस्कृतिमाआचार-विचार सुधर तण सम्यक श्रुतज्ञान के लिये आपका कसाव अनुमोदनीय है। जैन जागृति के लिये किया गया आपका शंखनाद प्रशंसनीय है आपके प्रया पुरुषार्थ एवं परिश्रम की में अनुमोदनी करता । यह कोर्स विश्वव्यापिनले सया पाठकगण मोवामी बने। इस भागिरथ शुभकार्य के लिये शुभाशिर्वाद प्रदान करता तथा परमात्मा से कामना करता कि भविष्य में भी ऐसे नवीन एवं रचनात्मक कार्य करके समान भनीय है आपकाया के विर शुभकार्य न करता को लाभान्वित करती रहें! जैनधर्म मन मनका धर्महै। चितमेधारणकरें श्रद्धा से स्वीकार करे और आचरण में अनुभव करें,उसे इस धर्म की गहनता एवं अंभीरता का ज्ञान हो सकता है। शश-द्वेष से मुक्त,सर्व जीव समत्वदृष्टिधारी से अरिहंत परमात्मा द्वारा प्ररुपित एवं स्थापित यह धर्माशचना का सुंदर घय है। के 'अ' से लेकर 'ज्ञ' तक की सारी पिघाएं इस धर्मशियो से प्राप्त होती है। शून्य से सृजन तक का नहशज्ञान मैन दनि में उपलब्ध है। उसी गहन शान सागर मे से चुन चुन कर अनेक मोतीयों को माला में रुपान्तरित कर जेमिम्मकोर्स' नामक पुस्तकको तैयार किया है विदूषीसावीनी श्री मणिप्रभाश्रीजीने! जो प्रकाशित होकर पाठकोंसन्मश्व है। इस पुस्तक के अध्ययन हाश आबालवृद्ध सभी स्वयं को स्वशु सेमबुद्ध कर सकते है। ज्ञान प्रकाश मे अपने जीवन विकास के कदम आगे रवाकर वस्तु स्वरुपको संप्राप्त कर सकते है। काधीजी का प्रयास त्वं श्रम की अनुमोदना कर मैं उनके नीपन में रे साहित्य जगत में अजामी बने,यह शुभकामना करताछू -G ram বিরয়া ) 15/10/2010 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन માતા- સિદ્ધીચિ પરિપૂઝિય઼ શ્રમનામને નમ: श्री विजय प्रेम-भुवनभानु-जय- धर्मजिव-जयशेखरसूरीश्वरेभ्यो नमः विदुषी साध्यश्री मणिप्रभाश्रीजी ! सादर अनुवन्दना सुखशालापृच्छा.... तीन साल - ९ विभाग में प्याप्त जैनिज़्म कोर्स पाठकों के जीवन में सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्रिया को वर्धमान बनाने में सुसफल रहो ऐसी परमकृपालु परमात्मा से प्रार्थना पाठकों से भी अनुरोध कि वे इस कोर्स के अध्ययन में, पुनरावर्तन में तथा परीक्षा में नियमित बने रहे. प्रमाद को परवा न बने.. प्रभु ने ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षा कहा है. इस कोर्स से प्राप्त ज्ञान को जीवन सक्रिय बनाकर सफल बनाये. - आचार्य अभयशेखरसूरि. विनयवती विदुषी साध्वीजी श्री मणिप्रभाश्रीजी आदि द्वाणा सुखशाता पृच्छा. आपके द्वारा संस्कार युद्धक जैनिज्म का जो कोर्स प्रकाशित किया जा रहा है। उसके प्रति हमारी हार्दिक शुभ कामनाये हैं। में बाल युवा वर्ग अयोग्य वर्तमान युग आचरणाओं को अपना कर मानव भव को हार रहा है। ऐसे समय में संस्कार वर्द्धक साहित्य की आवश्यकता है। यह साहित्य बाल युवा वर्ग को मार्ग दर्शक बनें। यही शुभाभिलाषा जयानंद धावा. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः । सिरमावदे महकाएं। हे नमा सिद्धम विजय प्रेम-भुवनभानु जयघोष - धनजेत-जलेसर शेखर सूरिभ्यो श्रीशंखेश्वर तीर्थधाम- धरना। नमः आ. अजितसेखर सूर की ओर से जो खुद - पू. सं. २०६६ सप्तविंशति गुणधारिका सा.श्री. मणिप्रभाश्रीजी म. आदि योग्य सादर अनुबंदन | विशेष में आपने शासनरत्न श्री कुमारपाल भाई के सूचन से जेनिइम कोर्स के सात भाग संशोधन हेतु मुझे भेजे थे। ● आपने जैन-जैनेसर वर्ग जैन धर्म के आत्मनिकर सर्वज्ञ कथित सिद्धांत अच्छी तरह से समझ सके इस हेतु से स्तुत्य प्रयास किया है। मुझे उम्मीद है कि जिज्ञासुवर्ग अवश्य इस कोर्स का अध्ययन करके से प्रकाशित अपनी आत्मा को भी ज्ञान के प्रकाश करेंगे। आशा है कि संशोधन करते करने जो सूचन किये हैं आप उन पर ध्यान देंगे। आप का यह प्रयत्न तब सही रूप से सफल होगा जब लोग इन बातों का ध्यान से अध्ययन कर के भावित होंगे। [ आप का प्रयत्न - आप का सर्जन इस ढंग से कामयाबी को हांसल करे यही शुभेच्छा। आचार्य अजितशेखरसूरि का सादर अनुबंदन। जं बिक्रम गुरुबर abiin ગુરૂ બી નથી પહોંચી તાકતા आहे ग्रथनु सर्वन हुरे छे..... निश्रय परंपरा स्वहस्ते लाला या राजसंसदीय वैलवथी सौंधी જૈન સ ધ ના अधुना विद्यासिका सा. श्री शि आशीर्वचन વિનાદિ જીભેદતા વિદુષિની ૨૧-૦થી અભિપ્રભારી જ દિશ્રમણીભૃણ મનુવંદના સુપ્તાના પૂર્વક લખાજીને शुरुपये . राजनेक ग्रंथों दुर्बल ने मोदी जी ने सो बहु समृद्ध छे स्खे संघसमक्ष भुडी या हे. से बहुत खुज प्रसन्नता थ વિશ્વતરક દિશાના મુન ના રામ ને સર સોંધ દા૫ક ોલી - સુંદર સંસ્કાર વર્જક શેલીમાં રજૂ કરીને નાળુઓ માટે જરુરી લઇ સ્ત્રીને આવી કે રાસનથી સેવાનું અનુમોદનીય કાર્ય કરેલ છે. साधी सरल भाषा मे ज्ञान नीलापना. सेवा साहिला ते पूरा रेल छ शतामा साहित्य सर्वान दुश्य हितलाभने सहा प्रतल धाय सेवा नाव 8: यहा तपस्वी तो हेच सांधे गैंडा उपख्यासु हो। नेक विषयों ने साँवरी लेतो के हा ने अगर करतो या विधाता रत्नलयी विद्याशक्ति नामक ग्रंथ निःस्वार्थ लावे स्वामनीवाल ने कनता समके ते लाभामा भाषा रहने छौली नो सोनाम सुगंध केवो संयोग स्थीरनुसरयानो सोमको प्रयास चूल उपकारख जने कम हुनुबंधु ग्रंथो सेना द्वारा जैन संघ के अस्ति सोना खाक्षा अपने खार्थीह सभार्य यसोधर्मसार हा नगर १४.१.२०१० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतभर में चल रहे जैनिज़म कोर्स के सेन्टर एवं प्रतिनिधिओं की सूचि गं शहर-राज्य नाम फोन- मोबाईल —N ON∞ 0=== 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 1. 2. 3. 4.. 5. 6. 7. 8. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 1. 2. 3. 4. 5. राजस्थान आहोर आबूरोड भीनमाल ब्यावर बाडमेर डुंगरपुर जालोर जोधपुर पाली सायला उदयपुर विजयनगर कर्नाटक बेंगलोर बल्लारी बेलगांव बेलगंज बीजापुर चित्रदुर्गा होस्पेट • A . आन्ध्र प्रदेश एलुरु कोईम्बतूर ईरोड मदुराई मदुराई पांडिचेरी गुजरात अहमदाबाद नवसारी सुरत सुरत सुर वापी वापी ऊंझा आसाम मोहल (बोकारो) मध्यप्रदेश झाबुआ झाबुआ आगर वडतावर बाजना श्री दिनेशचंद्रजी श्री भंवरलालजी कोठारी श्री हकमराजजी महेता श्री दिलीप गेलडा श्री मगराज श्रीश्रीमाल श्री पवन दोशी श्री विकास बोहरा श्री ललीत पोरवाल श्री बाबुलालजी सोलंकी श्री करीट गुरुजी श्री प्रकाश बोलीया श्री अमरचंदजी लोधा श्री रमेशजी हरन श्री संदीप गुरुजी श्री शांतिलालजी दांतेवाडीया श्री अनिलभाई गुरुजी श्रीमती भाविका महेशजी शाह श्री हिमतभाई गुरुजी श्री मनोहरमलजी श्रीमती अनीता (राज ट्रेडर्स) श्री मुकेश लक्ष्मीबाई सी. जैन श्री मुकेशकुमार संघवी श्री गुडीया श्री खीमराज जैन श्री श्री गुरुजी किशोरभाई जैन एन्ड को श्री के. संगीता श्रीमती नीमार्बन आर. शाह श्री रमेशजी शेठ विकास पेपर मार्ट श्रीमती विभुवाबेन आर. शाद श्रीमती दर्शना एम. शाह श्री प्रविणभाई के संघवी श्री देवेंद्रजी पी. जैन हीनार्बन श्री हितेशजी शेठ श्री राजुभाई ए. सार्क श्री संतोष जैन श्री संजय जैन श्री अजय जैन श्री पंकज नाहर श्री मनिष कावडिया 09414588347 09772092007 09460785111 09414009402 09828167478 09414685307 09414375275 09414827696 09351012207 07568430708 09414166123 0921416565 09845061920 09844540737 09448921450 08095849080 08095849080 09035068149 09448278171 09449838659 09342115050 09848338543 09443475806 09944510477 09443065530 09443065530 09443057071 09328941703 09825786190 09427127347 09909111389 09376279371 09825456980 09825129111 09825129111 09825532082 09835315784 09425102275 09425033596 09926589444 09300804765 09425990962 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. 7. 8. 9. 10. 11 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 2222222 21. 23. 24. 25. 26. 1. 1. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. FFFPRE222 16. 17. 18. 19. 20. 21. 23. 24. बडनगर देवारा घोसलढावला धार हाटपीपलीया लाबरिया घाट मंदसौर नलखेडा पेटलावड रतलाम सेलाना सावेर शाजरपुर इन्दौर इन्दौर तराना जावरा उज्जैन उन्हेल झारडा झांवरा पंजाब लुधियाना महाराष्ट्र लुनावाला मुंबई शहर अंधेरी भायखला बोरीवली डॉबीवली डॉबीवली डोंबीवली डॉबीवली डॉबीवली डॉबीवली घाटकोपर घाटकोपर कांदीवली कांदीवली कांदीवली कल्याण मुंबई सेन्ट्रल ग्रान्ट रोड मलाड मुलुंड नालासोपारा नालासोपारा मीरा रोड वालकेश्वर विरार . श्री सुनिल गोलेच्छा श्रीमती विमला जैन श्री देवेन्द्रजी जैन श्री आशुतोष चत्तर श्री विनोद नावेल श्रीमती ममता कोठारी श्री विवेक खाबिया श्री कुशल होत श्री मनोज ओरा श्री राजेन्द्र दरडा श्री संजय जैन श्री विपीन जैन श्री मनोज जैन श्री नरेश जैन श्री भरत कोठारी श्री शैलेन्द्रजी जैन श्री संजीव जैन श्री राजेन्द्र दरडा श्री महावीर जैन श्री नरेन्द्र जैन श्री विनोदजी जावरा श्री नवनीत जैन श्रीमती पायल जैन श्री मुकेशजी एस. शाह श्री जागृति मुकेश कोठारी श्रीमती ज्योत्सनाथेन एम. शाह श्रीमती मीना पंकज वसा श्रीमती शिल्पा दिपकभाई संघवी श्रीमती दक्षाबेन पी. धोलकीया श्रीमती नीताबेन दिपकभाई लाख श्रीमती भावनाबेन धिरेनकुमार शाह श्रीमती हंसाबेन बी. शाह/ हंसाबेन एम. पारेख श्रीमती उषाबेन जयेशभाई शाह मीनाबेन वसा श्रीमती दीपा पी. भेमाणी श्रीमती कल्पना एस. भंडारी नीताबेन श्री धर्मेन्द्रजी महेता श्री दिनेशकुमार महेता श्री राजुभाई संघवी श्री हीरालालजी जैन श्रीमती रेखाबेन शाह श्रीमती होनाबेन पी. धोलकीया श्रीमती प्रतिभा कोठारी श्रीमती नीताबेन जे, बोरा श्री कमलजी शाह श्रीमती ईला मेहता 09300612380 09425048060 09826698695 09755555592 09406855055 09826636973 09425949470 09425935156 09425487114 09425104906 09685285333 09425725555 09425492016 09827028711 09827023454 09425917608 09827288826 09425104906 09893945474 09977772100 09425490549 09417774391 09326513922 09819889126 09820844180 09321069700 09221209194 09322753645 09867000906 09221487466 09821840403 09820633304 09076076065 09004883651 09320681060 09224699635 09869184692 09821232818 09892789929 09975939229 09270094225 09221885641 09967888708 09076076065 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ८क जैनाचार - IV पाठशाला ज्ञान भव आलोचना. साधर्मिक भक्ति Art of Living - IV सासु बनी माँ. संस्कारों की नींव . सूत्र तथा अर्थ विभाग - IV वंदित्तु सूत्र . आयरिय उवज्झाय सूत्र : `श्रुत देवता की स्तुति अड्ढाईज्जेसु सूत्र . नमोऽस्तु वर्धमानाय. चउक्साय सूत्र देवसिअ प्रतिक्रमण विधि उपवास का पच्चक्खाण. काव्य विभाग प्रभु सन्मुख बोलने की स्तुति चैत्यवंदन स्तुति.. स्तवन सज्झाय जैन इतिहास - IV ज्ञान की आशातना से बचिए. वरदत्त और गुणमंजरी की कथा. माषतुष मुनि अशोक राजा अनुक्रमणिका साधर्मिक भक्ति के दृष्टांत महाराजा कुमारपाल की साधर्मिक भक्ति वदवाण श्रावक 1 6 10 15 343 23 44 55 67 67 68 68 70 71 72 73 73/78 74/79 75/81 77/82 83 83 85 86 87 87 88 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........." ......... 105 106 मंत्रीश्वर पेथड़ सदासोम. पुणिया श्रावक... जगडुशाह .... माणेकलाल सेठ. साधर्मिक भक्ति से मिले उदयनमंत्री, कुमारपाल और हेमचन्द्राचार्य.. झांझण सेठ सांतनु और जिनदास पश्चाताप करो भव से तरो .............. रुक्मिराजा ... अर्जुनमाली ....... खंधक ऋषि लक्ष्मणा राजकुमारी तत्त्वज्ञान - IV लवण समुद्र ...... ढ़ाईद्वीप. मनुष्यलोक तथा सूर्यचंद्र पंक्ति. नंदीश्वर द्वीप के बावन जिनालय .. मोक्ष गमन की प्रक्रिया परभव में जाने वाले जीव की गति स्नात्रपूजा भावार्थ जैनाचार - V देववंदन ...... गुरुवंदन ................ सुपात्रदान .. श्रावक का श्रृंगार जयणा .. जीवों की जयणा के सूत्र... Art of Living - V टूटा सपनों का महल ............. No Competition But Solution ओपन बुक परीक्षा प्रश्न पत्र ...... उत्तर पत्र....... ... 106 109 .... 111 .......... 114 127 135 .......... 138 ..... 143 154 ....... 181 ..... 188 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार पाठशाला ज्ञान के उपकरण CHETACOLORMATRAMImeine साधर्मिक भक्ति साधर्मिक भक्ति । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मने आवतो भव एवो आपजो....! शाश्वत तीर्थाधिराज सिद्धगिरिराज के पावन ___ धन्य साधु जीवन ! समग्र जीवन में प्रभु की चरणों में मेरी समाधि मृत्यु हुई है एवं महाविदेह में शरणागति, दर्शन तो प्रभु का, स्तवना तो प्रभु की, जन्म हुआ है । माता के साथ मैं भी रोज कान में श्रवण तो प्रभु का, वांचन प्रभु का, लेखन समवसरण में प्रभु की देशना सुनता हूँ | 8 वर्ष की प्रभु का, मन में स्मरण तो प्रभु का, रोम-रोम में आयु होते ही परमात्मा की क्षायिक प्रीति ऐसी स्पंदन तो प्रभु का, बस प्रत्येक कर्म प्रभु के लिए | होती है कि परमात्मा के मुख के दर्शन बिना कैसे प्रत्येक कर्म के कर्ता प्रभु, सभी प्रभु का, सभी जीया जाये ? कैसे रहा जाये ? फिर देशना पूर्ण जगह प्रभु, सभी में प्रभु, एक क्षण भी प्रभु का होते ही परमात्मा के पास जाकर सर्व विरति देने वियोग नहीं और सतत, सरल एवं सहज रीत से के लिए विनंती करता हूँ | इच्छकारी भगवन् प्रभु निश्रा, प्रभु के सानिध्य का सहज योग । स्व के पसाय करी सर्व विरति दंडक उच्चरावोजी... अस्तित्व का सर्वथा विलय और पूर्ण रुप से प्रभु ____प्रभु कहते है, "अहो ! यह कितने सुंदर छोटे की शरणागति । संसार के सर्व संबंध का पूर्ण बालक है। यह सर्व विरति के लिए प्रार्थना कर रहे विश्राम और परमात्मा के सर्व संबंधों का है" और तब परमात्मा रजोहरण प्रदान करके शरणागति भाव से बिनशरती स्वीकार और सर्वविरति दंडक का उच्चारण करते है । करेमि परमात्मा में ही पूर्ण विश्राम । भंते... और जैसे ही रजोहरण मेरे हाथ में आया मेरे हृदय का आनंद शब्द के रुप में व्यक्त हुआ। अहो ! अहो ! प्रभु धन्य घड़ी ! धन्य दिन ! धन्य भाग्य ! महा पुण्योदय से, महा सद्भाग्य से आपने अपार करुणा करके मुझे महा कल्याणकारी मोक्ष प्राप्त करने के राजमार्ग रुप सर्वविरति धर्म प्रदान किया । प्रभु मुझ जैसे बालक पर आपकी कैसी दया ? कैसी करुणा ? आपका कितना प्रेम कि इतना सुंदर जीवन दिया । कैसी निर्दोषता कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं । छ:काय के जीवों को अभयदान । कैसी निष्पापता के जीवन में 18 पापस्थानक का नाम ही नहीं । कैसी निष्कामता कि मोक्ष के सिवाय दूसरी कोई इच्छा ही नहीं । जगत के सर्व ऋणानुबंध का सर्वथा त्याग एवं एक मात्र प्रभु के ऋणानुबंध में रहने का अमूल्य कोटि-कोटि नमस्कार हो साधु जीवन को...! अवसर। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O XYYYYY CEO पाठशाला पाठशाला अर्थात् संस्कार मंदिर। जैन कुल में जन्म लेने से आप जैन तो बन गए, लेकिन जैन कैसे होने चाहिए? उसका सही शिक्षण पाठशाला से ही प्राप्त होता है। व्यक्ति के जीवन में जितनी जरुरत व्यवहारिक शिक्षण की है, उससे कई गुणा अधिक आवश्यकता संस्कारों के बीजारोपण करनेवाली धार्मिक शिक्षा की है। पाठशाला यानि क्या? (1) जो हमें सम्यग् ज्ञान देती है उसका नाम है पाठशाला। (2) जो बच्चों में शील रक्षा के संस्कारों का रोपण करती है, उसका नाम है पाठशाला। (3) जो शासन रक्षा का बल देती है उसका नाम है पाठशाला। (4) जो हमें खुमारी, धैर्य, सत्त्व, शौर्य,साहस से जीना सिखाती है, उसका नाम है पाठशाला। (5) जो दुःख के समय में समाधि एवं समाधान की राह दिखाती है, उसका नाम है पाठशाला। पाठशाला का महत्त्व : वर्तमान की शिक्षण पद्धति से विकृत बनते बच्चों के दिमाग को सुसंस्कृत बनाने के लिए पाठशाला एक संजीवनी औषधि के समान है। माँ बच्चों के जीवन निर्वाह की चिंता करती है, जबकि पाठशाला वह है जो बच्चों के जीवन निर्माण की चिंता करती हैं। प्रत्येक गाँव-शहर में साधु-साध्वी का योग प्राप्त होना नामुमकिन है और यदि प्राप्त हो भी जाए तो मात्र चातुर्मास के चार महिने के लिए। इतने कम समय में ज्ञान की संपूर्ण शिक्षा प्राप्त करना संभव नहीं हैं। ऐसे में पाठशाला ही एक ऐसा स्थान है जहाँ जाकर व्यक्ति हर दिन ज्ञान प्राप्त कर सकता है। दीपक को ज्वलंत रखने के लिए जिस प्रकार तेल या घी की जरुरत होती हैं आज उतनी ही जरुरत सम्यग् ज्ञान देने वाली पाठशाला की है। क्योंकि बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं। उस कच्चे घड़े को कुंभार जैसा आकार देना चाहे वैसा आकार दे सकता है। लेकिन घड़ा पक्का बनने के बाद यदि कुंभार उसका आकार बदलना चाहे तो वह घड़ा टूट जायेगा, लेकिन उसका आकार परिवर्तित नहीं होगा। ठीक उसी प्रकार बच्चों की छोटी उम्र संस्कार ग्रहण करने की होती है। उस समय उन्हें जैसे संस्कार दिए जाते हैं, उन्हीं संस्कारों में बच्चों का जीवन ढल जाता है। बड़े होने के बाद उनमें संस्कारों का रोपण करने जाएँगे तो उनकी वही हालत होगी जो पक्के घड़े की होती है। छोटी उम्र में बच्चों की स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। ऐसे समय में उन्हें पाठशाला भेजने से बच्चे स्वयं के, परिवार के एवं शासन के भविष्य को उज्जवल बना सकते हैं। (D Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग् ज्ञान के अभाव में छोडने लायक क्या है? अपनाने लायक क्या है? यह समझ ही नहीं पाते। जबकि सम्यग् ज्ञान के प्रकाश में व्यक्ति अपने कार्य के परिणाम को जान सकता है। गुरुदेव के पास जाये तब शरम न आए कि गुरुवंदन कैसे करें? प्रभु के पास जाये तब यह संकोच न रहे कि विधि सहित दर्शन-पूजन एवं चैत्यवंदन कैसे करें? महान कर्म निर्जरा कराने वाली प्रतिक्रमण की क्रिया करें तब यह समस्या न आए कि सामायिक किस तरह लेनी? और प्रतिक्रमण किस तरह करना? इन सारी दुविधाओं का एक ही समाधान है पाठशाला। पाठशाला ही एक ऐसी संस्था है जहाँ छोटी से छोटी विधि से लेकर बड़ी से बड़ी क्रियाएँ एवं अनुष्ठान सम्यग् रीति से सिखाएँ जाते हैं। पाठशाला में समान वय के बच्चे होने से एक-दूसरे को पढ़ते देख, रात्रिभोजन, कंदमूल टी.वी., अभक्ष्य आदि त्याग करते देख बच्चों में भी त्याग का उत्साह सहजता से आ जाता है। साथ ही पाठशाला से मिलनेवाले इनाम से बच्चों के अंदर धर्म करने का विशेष उत्साह बढ़ता है। घर पर बच्चों को चाहे कितने भी इनाम दे पर बच्चे खुश नहीं होते, जितने पाठशाला या बाहर से मिलनेवाले एक छोटे से इनाम से बच्चे खुश हो जाते हैं। इससे बच्चे निरंतर पाठशाला जाने के आदी बन जाते हैं। परिणाम स्वरुप जीवन में रही हुई विकृति- संस्कृति में एवं वासना भावना में परिवर्तित हो जाती है। पूर्वकाल में संस्कारी एवं शिक्षित माँ ही बच्चों की पाठशाला कहलाती थी। वह अपने बच्चों को गाथा देती, धार्मिक बातें करती, महापुरुषों के चरित्र सुनाती। इस प्रकार अपने बच्चों को वह अपूर्व संस्कारित बनाती थी। लेकिन दुःख की बात है कि वर्तमान की माताओं में ही यह संस्कार व शिक्षण नहीं रहे तो वे भला अपने बच्चों को क्या संस्कार देगी? खैर, बच्चों को संस्कारित करने के लिए ही यह पाठशालाएँ शुरु हुई हैं। आज हमारा जैन समाज सभी पहलू से हर क्षेत्र में अग्रसर हो गया है किन्तु अध्ययन के क्षेत्र में वह उतना ही पीछे जा रहा है। आज मासक्षमण करने वाले तपस्वी का सोने की चैन से बहुमान किया जाता है, लेकिन कोई अतिचार याद करें तो उसे किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। छःरी पालित संघ, तीर्थयात्रा, स्वामीवात्सल्य, उपधान आदि में श्रीसंघ उन्हें अच्छी रकम देकर खूब प्रोत्साहन दे रहे हैं। श्रीसंघ को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि यदि वर्तमान में पाठशाला पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुछ ही वर्षों बाद समाज से सुसंस्कृत युवा वर्ग ही लुप्त हो जाएंगे। इसलिए श्रीमंत वर्ग से मेरा यह निवेदन है कि दूसरे क्षेत्र की तरह पाठशाला में भी अपने रुपयों का ज्यादा दान करते रहें क्योंकि प्रभावना व इनाम के आकर्षण बिना पाठशाला नहीं चल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती। श्रीसंघ के अग्रगण्य व्यक्ति पाठशाला में प्रतिदिन प्रभावना, लक्की ड्रो, परीक्षा के इनाम, कार्ड भरने का इनाम, तीर्थ यात्रा आदि के रुप में नई-नई ऐसी योजना बनाएँ। जिससे बच्चे टी.वी., विडियो गेम, खेल-कूद आदि सभी की ऐसी-तैसी करके भी पाठशाला आने के लिए मजबूर बन जाए। इसके साथ ही पाठशाला में पढ़ने वाले बच्चों को स्कूल के लिए बारह महीने की पुस्तकें, स्कूल बेग, टिफीन बॉक्स, पानी की बोतल, पेन, पेन्सिल, कलर बॉक्स आदि मुफ्त में बाँटे। जिससे उनमें पाठशाला आने का आकर्षण बना रहें और वे सम्यग् ज्ञान प्राप्त कर सके। सार इतना ही है कि श्रीसंघ के अग्रगण्य मुख्य व्यक्तियों को. पाठशाला का महत्त्व समझकर अपने-अपने संघों में पाठशाला का निर्माण करवाना चाहिए। यदि पाठशाला है तो उसे और सुचारु रुप से चलाने के लिए नीचे बताई गई योजना एवं गतिविधियों को अमल में लाए। साथ ही अपने बच्चों को पाठशाला में भेजकर सुसंस्कृत बनाएँ। पाठशाला की स्थापना एवं योजना : ___ पाठशाला के महत्त्व को समझकर पाठशाला की स्थापना एवं उसे सुचारु रुप से चलाने के लिए निम्न योजना की जा सकती है। सर्वप्रथम संघ के सन्मुख पाठशाला के महत्त्व को बताकर आर्थिक व्यवस्था की जाए। इसलिए मानो जहाँ 500 घर की बस्ती है वहाँ 11,001 रु. प्रतिमास के लाभार्थी के रुप में बारह मास के लाभार्थी तैयार करें। इन लाभार्थियों के नाम जहाँ पाठशाला चलती हो उस स्थान पर अच्छे बेनर पर लिखवाकर (जिस प्रकार मंदिर में अष्ट प्रकारी पूजा के वार्षिक लाभार्थी के नाम लिखे जाते है वैसे) लगाएँ। इन 11,001 रु. का व्यय पाठशाला के गुरुजी के वेतन में एक महिने के नियम कार्ड भरने पर दिए जाने वाले इनाम में, मासिक मौखिक परीक्षा के इनाम में खर्च कर सकते हैं। साथ ही 360 दिन की 501 रु. की तिथि लिखवाएँ। ये तिथि कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों के जन्मदिन पर, अपने माता-पिता की पुण्यतिथि पर, अपनी शादी की सालगिरा आदि किसी भी सुअवसर के निमित्त लिखवा सकते हैं। साथ ही जिनका जन्मदिन अथवा सालगिरा हो उनके हाथों बच्चों को प्रभावना दिलाएँ। एवं उस वक्त पाठशाला के बच्चे उनके आराधनामय जीवन के लिए शुभकामना व्यक्त करें। ___ इस प्रकार से बच्चों का जन्मदिन मनाने पर बच्चों में ज्ञान की विशेष वृद्धि होती है। इन तिथियों के रुपयों का व्यय बच्चों को प्रभावना देने में तथा पाठशाला का वार्षिक महोत्सव मनाने में कर सकते हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठशाला की गतिविधियाँ : जहाँ पाठशाला न हो वहाँ बताई गई पद्धति से नई पाठशाला खोले। पाठशाला में रत्नत्रयी की आराधना होती है एवं उस आराधना से विश्व के जीव मुक्ति सुख को पाएँ ऐसी भावना होने से पाठशाला 'श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं - जैन पाठशाला' अथवा दूसरा कोई उचित नाम भी रख सकते हैं। * पाठशाला का समय दोपहर 3 से 5 या शाम 6 से 8 बजे का रखें। * पाठशाला में आते ही सर्वप्रथम अपने विद्यागुरु को प्रणाम करें। फिर ज्ञान के पाँच खमा. देकर आसन बिछाकर बैठ जाये। पुस्तक को ठवणी पर ही रखें। * पाठशाला में पूर्णतया मौन रखें। * पाठशाला में सोमवार से शुक्रवार तक गाथा याद कराये एवं शनिवार को जनरल क्लास, रविवार को स्नात्रपूजा आदि रखें। * सुद पांचम, वद आठम, आदि पर्वतिथि के दिन प्रतिक्रमण का आयोजन रखें। . * प्रतिक्रमण में सूत्र बोलने वालों को ईनाम द्वारा प्रोत्साहित करें। * हर महिने एक मौखिक परीक्षा रखें। ताकि जितना पढ़ा हो वह पुनः स्वाध्याय हो जाएँ। * नियम कार्ड नित्य भराएँ एवं एक महिने के अंत में विशेष नियम पालन करनेवालों का बहुमान करें। * 4 महिने में एक लिखित परीक्षा रखें। * 4-6 महिने में एक बार विद्यार्थिओं को तीर्थयात्रा पर ले जाए। . । होली के दिन प्रातः 6-00 से दोपहर 3-00 बजे तक का विशेष आयोजन रखें। ताकि कोई होली न खेले। आयोजन के अन्तर्गत प्रातः 6 बजे स्नात्रपूजा, 8 से 8-30 अल्पाहार, 8-30 से 9-30 सामायिक जिसमें पढ़ाई कराएँ। 9-30 से 11 परीक्षा, 11 से 12 में कोई भी छोटी प्रतियोगिता, 12 से 1-30 तक भोजन, 1-30 से 2-30 तक खेल या अन्य प्रतियोगिता 2 30 से 3-00 बजे इनाम वितरण कर फिर घर भेजे। * दीपावली के समय फटाखे नहीं फोडने के नियम पत्रक बनाएँ और फटाखे नहीं फोडने वालों का विशेष बहुमान करें। * पर्युषण पर्व में पाठशाला का प्रतिक्रमण अलग ही आयोजित करें। * पर्युषण पर्व के चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन आदि एक महिने पहले से ही सिखा दे। इसी तरह अन्य पर्यों में भी कर सकते हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पाठशाला के ट्रस्टिओं को प्रतिदिन एक बार पाठशाला में आकर पाठशाला की गतिविधियों का निरीक्षण करना चाहिए। ताकि कोई त्रुटि हो तो उसे शीघ्र सुधार सके। * ट्रस्टी महोदयों का जितना उल्लास व प्रोत्साहन होगा पाठशाला उतनी ही आगे बढ़ेगी। * ज्ञान की भक्ति का लाभ लेने का यह एक अनमोल अवसर है। * सभी विद्यार्थियों को एक समान राग में स्नात्रपूजा सिखायें तथा प्रति रविवार स्नात्र-पूजा पढ़ाये एवं तीर्थस्थल पर जाएँ तो सामुहिक स्नात्र पूजा पढ़ाये। जिससे देखने वाले अन्य यात्रालुओं को भी अपने बच्चों को पाठशाला भेजने का मन हो। साथ ही बच्चों को ढोलक, हार्मोनियम आदि संगीत कला सिखायें। * पाठशाला में सूत्र का उच्चारण सही तरीके से सिखायें। * एक साल पूर्ण होने पर वार्षिकोत्सव रखें। जिसमें पाठशाला के विद्यार्थियों के द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन रखा जाये तथा बच्चों को विशिष्ट पुरस्कार दिया जाएँ। पर्युषण पर्व का अलग से नियम -कार्ड बनाएँ। जिसमें एकासणा-बियासणा, चप्पल त्याग, अष्टप्रकारी पूजा, पौषध आदि विशेष नियम रखें। * पाठशाला में प्रतिदिन वन-डे-मैच गेम रखें। यानि किसी भी नियम का एक दिन पालन करना। वह नियम पहले दिन ही बोर्ड पर लिख ले ताकि विद्यार्थी दूसरे दिन उस नियम का पालन कर सके। . यदि आपके गाँव में ही कोई पढ़ा-लिखा होशियार व्यक्ति हो। जिसका धार्मिक अध्ययन अच्छा हुआ हो और जो पाठशाला चला सके तो उसे ही वेतन देकर पाठशाला के लिए नियुक्त कर सकते हैं। * स्थानिक व्यक्ति यदि पाठशाला चलाएँ और वेतन न ले, तो भी ट्रस्टियों को वार्षिकोत्सव के दिन उनका अच्छा बहुमान अवश्य करना चाहिए। * स्थानिक व्यक्ति पाठशाला चलाएँ तब ट्रस्टी ध्यान रखें कि सारी जिम्मेदारियाँ उन पर ही न आ जाएँ। अर्थात् इनाम आदि की सुंदर व्यवस्था करके दे। * सामायिक, प्रतिक्रमण के जैसे ही पाठशाला में श्रुतदान करना (बच्चों को पढ़ाना) भी लाभ ही है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान यानि क्या? ज्ञान यह आत्मा का विशेष गुण है। किसी भी पदार्थ की जानकारी प्राप्त होना, उसे ज्ञान कहते है। ज्ञान के कितने प्रकार है? ज्ञान के दो प्रकार है। (1) सम्यग ज्ञान - विवेक सहित यथार्थ वस्तु को जानना। (2) मिथ्या ज्ञान - मोह, राग, द्वेष, अविवेक द्वारा वस्तु की जानकारी। ज्ञान के कितने भेद है? ज्ञान के पाँच भेद हैं। (1) मतिज्ञान - मन एवं इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान। (2) श्रुतज्ञान - जो सुनने से होता है, अर्थात् शास्त्र वचन से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान। (3) अवधिज्ञान - इन्द्रियों की सहायता के बिना मर्यादित द्रव्यादि को जिससे जाना जाता है। वह अवधिज्ञान है। यह ज्ञान देव-नारकी को जन्म से होता है एवं मनुष्य, तिर्यंच को लब्धि हो तो ही होता है। यहाँ तक के तीन ज्ञान सम्यक्त्वी को ज्ञान रुप में और मिथ्यात्वी को अज्ञान रुप में परिणमन होते हैं। (4) मनः पर्यवज्ञान - जिस ज्ञान से अढ़ी द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के भावों को जान सकते हैं। (5) केवल ज्ञान -जिस ज्ञान से तीनों काल के सर्व जीवों के सर्व पर्यायों को एक साथ हाथ में रहे हुए आँवले की तरह एक ही समय में जान सकते हैं यानि कि जिसमें जगत की एक भी वस्तु अज्ञात नहीं रहती है, वह केवलज्ञान है। ज्ञानप्राप्ति का क्रम : 1. वाचना : निर्जरा के लिए यथोचित सूत्र को देना अथवा ग्रहण करना। इससे ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा होती है। 2. पृच्छना - गुरु के पास सीखे गये विषय का चिंतन करना एवं उसमें उत्पन्न हुई शंकाओं को जिज्ञासा पूर्वक पूछना। इससे आकांक्षा मोहनीय कर्म का क्षय होता है। 3. परावर्तना - गुरु से प्राप्त समाधान से जो विषय शुद्ध बना है, उसे याद करना व उसका बार-बार स्वाध्याय करना। इससे व्यंजन (अक्षर) की लब्धि प्राप्त होती है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अनुप्रेक्षा शुद्ध विषय का चिंतन करना एवं चिंतन द्वारा अनुभव ज्ञान प्राप्त करना। इससे सात कर्म शिथिल (दीले) बनते हैं। 5. धर्मकथा सिद्ध ज्ञान को अन्य लोगों को सिखाकर स्व-पर आत्मा को प्रतिबोध करना । - - इससे शासन की प्रभावना होती है। ज्ञान कब पढ़ना ? प्रातः 4 बजे वातावरण शांत होता है एवं रात्रि विश्राम से मस्तिष्क भी स्फूर्तिवाला बन जाता है। इसलिए उस समय (ब्रह्म मुहूर्त ) में पढ़ने पर जल्दी याद होता है, एवं सुबह में पढ़ने से उसे भूलते भी नहीं है । ज्ञान कब नहीं पढ़ना ? आवश्यक सूत्र जो गणधर भगवतों द्वारा रचित सूत्र है उन्हें कालवेला में नहीं पढ़ना चाहिए। कालवेला कब-कब आती है ? कालवेला दिन में चार बार आती है। सुबह सूर्योदय से 48 मिनिट पहले, दोपहर जब पुरिमुइद आता है, उसके 24 मिनिट पहले एवं 24 मिनिट बाद में (यानि लगभग 12 से 1 बजे तक) शाम को सूर्यास्त के बाद 48 मिनिट तक तथा मध्य रात्रि में 12 से 1 बजे तक कालवेला होती है। विशेषः निम्न दिनों में ज्ञान की असज्झाय होती है * चौदस का पक्खी प्रतिक्रमण करने के बाद से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक । * चौमासी प्रतिक्रमण करने के बाद ढाई दिन तक यानि चौमासी चौदस के मध्याह्न से लेकर वद बीज के सूर्योदय तक । * आसोज एवं चैत्र मास की ओली में सुद पांचम के मध्याह्न से वद बीज के सूर्योदय तक यानि कि 12 दिन, तक। ये दिन अस्वाध्याय के दिन कहलाते हैं। * इन दिनों में स्तवन, स्तुति, सज्झाय आदि याद कर सकते हैं। ज्ञान पढ़ते समय कैसे बैठना ? उभड़क आसन यानि दो घुटनों के बीच में दोनों हाथ डालकर बैठना चाहिए। इसे विनय मुद्रा या यथाजात मुद्रा भी कहते हैं। इस मुद्रा में अथवा पलाठी लगाकर बायें पैर के अंगूठे को दायें हाथ से पकड़ना और दायें पैर के अंगूठे को बायें हाथ से पकड़कर सीधे बैठकर गुनगुनाते हुए पढ़ना चाहिए। इससे नींद नहीं आती तथा मन भी स्थिर रहता है। साथ ही Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान को उच्च स्थान पर रखकर पढ़ना चाहिए, जिससे ज्ञान की आशातना न हो। पूर्व, ईशान एवं उत्तर दिशाएँ ज्ञानवर्धक होने से इन दिशाओं की तरफ मुख रखकर पढ़ना चाहिए एवं मुख दीवार की ओर रखकर पढ़ने से भी मन यहाँ वहाँ नहीं भटकता। ज्ञान के कितने आचार है एवं कौन कौन से है ? ज्ञान के 8 आचार है। (1) काले - जो समय पढ़ने के लिए बताया है उस समय में ही ज्ञान पढ़ना। (2) विनय - ज्ञान एवं ज्ञानी का विनय करके पढ़ना। यानि गुरु हो तो उन्हें वंदनादि करना एवं ज्ञान को पाँच खमासमणा देकर पढ़ना। (3) बहुमान - ज्ञान एवं ज्ञानी के प्रति हृदय में बहुमान अहोभाव रखना। (4) उपधान - उपधान तप करके पढ़ना। (5) अनिद्वव - जिनके पास अध्ययन किया हो उनका नाम छुपाकर दूसरों का नाम नहीं बताना। (6) व्यंजन - सूत्रों का शुद्ध उच्चारण करना यानि कि कम या अधिक अक्षर नहीं बोलना। (7) अर्थ - जिस सूत्र का जैसा अर्थ है वैसा ही समझना एवं कहना। (8) तदुभय - सूत्र शुद्ध एवं अर्थ सहित उपयोग पूर्वक बोलना। इन आठ आचारों का जो पालन करते हैं वे ज्ञानाचार के आराधक कहलाते हैं। इनमें जो भी दोष लगते हैं जैसे अकाल वेला में पढ़ना, ज्ञान की आशातना करना आदि अतिचार कहलाते हैं। यानि कि ये ही ज्ञान के आठ अतिचार भी होते हैं। ज्ञान की आराधना कैसे करना? * ज्ञान पांचम (कार्तिक सुद पांचम) के दिन उपवास करके 51 खमासमणा, 51 लोगस्स का काउस्सग्ग, 51 साथियाँ एवं ॐ ह्रीं नमो नाणस्स पद की 20 माला गिनना। हर महिने की सुद पंचमी के दिन तप के साथ यह क्रिया करनी चाहिए। इस प्रकार 5 वर्ष 5 महिने तक करने पर ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने के साथ ज्ञान की आराधना होती है। उपवास की तपस्या करने से कर्म की विशेष निर्जरा होती है, लेकिन यदि उपवास करने की शक्ति न हो तो आयंबिल या एकासणे से भी यह तप करके उपरोक्त बताई गई आराधना करनी चाहिए। * इसके अतिरिक्त भी ज्ञान की आराधना के लिए 51 न हो सके तो कम से कम 5 खमासमणा, 5 लोगस्स का काउस्सग्ग तथा पाँच साथिया एवं पाँच माला नित्य गिनें। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ज्ञान एवं ज्ञानी का, पाठ का, पुस्तक, ठवणी, माला, पेन, पेंसिल आदि ज्ञान के उपकरणों का बहुमान करना। नये नये ज्ञानोपार्जन में समय का सदुपयोग करना । पाठशाला में बच्चों को इनाम से प्रोत्साहित करना। गुरुजी का बहुमान करना। बच्चें पाठशाला में जुडे इस हेतु सांस्कृतिक प्रोग्राम रखना। जैनिज़म कोर्स के विद्यार्थी या प्रतिनिधि बनकर इसका प्रचार करना यह सब भी ज्ञान की आराधना के अन्तर्गत आता है। ज्ञान की आशातना से बचें - * शासन के किसी भी कार्यक्रम के प्रचार का मुख्य साधन है पत्रिका । इसके माध्यम से लोग ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम में जुड़ते हैं। तथा इससे शासन की प्रभावना होती है। परंतु आजकल पत्रिका का यह मुख्य उद्देश्य लुप्त होकर लोकरंजन का नया उद्देश्य आ गया है। सामान्य से जो समाचार 10 रु. की पत्रिका में प्रसारित हो सकता । आजकल वही समाचार 100 रु. की पत्रिका के माध्यम से प्रसारित हो रहा है। यह बात अत्यंत विचारणीय है कि हम परमात्मा की आज्ञा को कुचलकर लोगों को खुश करने जैसा अकार्य कर रहे हैं। इससे कई नुकसान उठाने पड़ते हैं। ज्ञान की आशातना भी होती है क्योंकि सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने घर में पत्रिका का भार रखने के लिए तैयार नहीं होते। अतः वे पत्रिकाओं को जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं। इससे ज्ञान की आशातना होती है एवं परमात्मा की आज्ञा भंग का पाप भी लगता है। यदि यही राशि पाठशाला में लगाई जाए तो कितने ही बालकों के ज्ञानोपार्जन का लाभ हम ले सकते हैं। जिससे अपने ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता है। * हो सके वहाँ तक पत्रिका में फोटो न छपवाएँ । * पत्रिकाओं या अखबारों को परठते समय उसमें रहे हुए पंचेन्द्रिय जीव के फोटो को अलग से फाड़कर फिर परठना चाहिए । फोटो आदि हो सके तो उसके टुकडे टुकडे न करके फोटो अलग से परठे । अन्यथा ज्ञान की आशातना के साथ पंचेन्द्रिय जीव की हत्या का पाप भी लगता है। * पत्रिकाओं या पेपर्स को निर्जीव स्थान तथा जहाँ किसी के पैर न लगे ऐसे स्थान पर, खड्डे में परठकर ( डालकर) उस पर धूल डाल देनी चाहिए। जिससे अन्य कोई उस पर चलकर या अशुचि कर आशातना न करें। * आचार्य आदि ज्ञानी का अविनय, आशातना करने से, अकाल में (असमय में) पढ़ने से तथा काल में (पढ़ने के लिए निर्धारित समय में) नहीं पढ़ने से ज्ञान की आशातना होती है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुस्तक के पेज पलटने के लिए, नोट आदि गिनने के लिए तथा टिकट आदि चिपकाने में थूक का उपयोग न करें। * पुस्तक को यहाँ-वहाँ एवं नीचे नहीं रखें। पुस्तक का तकिया नहीं बनाये तथा उसका टेका नहीं ले । पुस्तक को पास में रखकर पेशाब आदि नहीं करें। * झूठे मुँह अथवा अशुचि अवस्था में नहीं बोले। एम.सी. में तीन दिन पुस्तकादि ज्ञान के उपकरणों का स्पर्श न करें। पुस्तक न पढ़े, न कुछ लिखे तथा 3 दिन संपूर्णतया मौन रखें। * अखबार पत्र आदि से अशुचि साफ करने से, पेपर में खाने से, चप्पल बाँधने से, चिवडा, मिठाई आदि के पैकेट बांधने से तथा फटाखे फोड़ते समय अक्षर वाले कागज़ को जलाने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। पाप करने का स्वभाव जीव का अनादि काल से है और इसी कारण से 84 लाख योनि में जीव ने बहुधा दुःख ही पाया है। पूर्व भव के कुछ पुण्य कर्म के कारण हमें यह मानव भव तथा जैन धर्म मिला है। जिस प्रकार किसी के शरीर में कैंसर की गाँठ हो जाये और यदि योग्य चिकित्सा करने में आए तो वह मरीज़ उस रोग से मुक्त बन सकता है। इसके विपरीत यदि किसी के शरीर में एक छोटा सा काँटा चुभ जाए और उस काँटे को निकालने में न आए तो उस छोटे से काँटे की पीडा कुछ दिनों में शरीर में इतनी बढ़ जाती है कि इंसान मर भी जाता है। यानि कि कैंसर जैसा बड़ा रोग भी सही इलाज़ से ठीक हो जाता है और एक छोटा सा काँटा भी जीव को मार डालता है। ठीक वैसे ही जीवन में बडे-बडे पाप हो गये हो, फिर भी शुद्ध आलोचना द्वारा जीव उन पापों से मुक्त बन सकता है। लेकिन एक छोटा सा पाप भी यदि मन में छुपा रह जाए तो वह आत्मा के एक-दो भव नहीं परन्तु भवो भव बिगाड़ देता है। इस भव में हम जैसा कार्य करते है वैसा फल कर्मसत्ता हमें अगले भव में देती है। यानि कि इस भव में किया हुआ कार्य अगले भव में उदय में आता है। यदि आपने इस भव में पुण्य कर्म किये है, तो आने वाले भव में आपको सुख उदय में आयेगा और यदि आपने इस भव में पाप कर्म किए है तो आने वाले भव में आपको दुःख ही उदय में आएगा। यदि आपने अब तक अपने जीवन में पाप कर्म ही किये है, लेकिन आपको आने वाले भव में उस पाप के उदय में दुःख नहीं चाहिए तो उस दुःख को निर्मूलन करने का एक ही उपाय है आलोचना । 100 - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि आपने आलोचना के द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित नहीं किया तो कर्म अगले भव में इतने भयंकर रुप में उदय में आयेंगे कि उस समय आप बचाओ...बचाओ...की पुकार करेंगे या रोएँगे, तो भी आपका वह दुःख कम नहीं होगा। अतः आपको यदि अपना परभव सुधारना है तो इसी भव में अपने पापों की आलोचना कर लेनी चाहिए। ___ अनादिकाल से जीव पाप करने की वृत्ति में प्रवृत्त होने से उसके द्वारा पाप सहजता से हो जाता है। पाप होने के बाद उसे स्वीकार कर गुरु के समक्ष यथावत् पश्चाताप पूर्वक कहना अतिदुष्कर है। अभी गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए आँखों में पश्चाताप के आँसू आ जाए तो परभव में दुःख के आँसू नहीं रोना पडेगा। * दुःख में रोना, यह आर्त्तध्यान-रौद्रध्यान यानि अशुभध्यान है। * पाप के पश्चाताप में रोना, यह शुभ ध्यान है। * दुःख में रोने से नये पापों का आगमन होता है। *. पाप के पश्चाताप में रोने से अनेक पापों का निकंदन होता है। पसंदगी आपके हाथ में है। पाप दुःख में परिवर्तित हो जाये तब रोना या पहले ? पहले रोना यानि कि पश्चाताप पूर्वक पाप की आलोचना कर लेना। जिससे दुःख आए ही नहीं। कुदरत ने हम पर इतनी महेरबानी की है कि पाप तुरंत दुःख में नहीं पलटता। इसलिए हमें उसे नाबूद करने का एक चान्स मिल जाता है। * श्रीपाल राजा ने पूर्व भव में एक मुनि को कोढ़ी कहा। लेकिन उसकी शुद्ध आलोचना नहीं - करने से श्रीपाल राजा के भव में बचपन से ही उन्हें कोढ़ का रोगी बनना पड़ा। * एक किसान ने सूई में जूं को पिरोया और उसका प्रायश्चित नहीं लिया। जिसके कारण उसे 7 भव तक सूली पर चढ़ाया गया। * भगवान महावीर स्वामी ने त्रिपुष्ठ वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में गरमागरम सीसा डलवाया एवं उसकी आलोचना नहीं ली। वह भव पूर्ण कर नरक में 33 सागरोपम तक महाभयंकर दुःखों को सहन किया। फिर भी उस पाप से मुक्त नहीं हुए। वहाँ से कई भवों तक भटकते-भटकते 25 वें नंदनमुनि के भव में 11,80,645 मासक्षमण किए। फिर भी उस पाप का प्रायश्चित नहीं हुआ। अंत में महावीर स्वामी के भव में उस कर्म का उदय होने पर गोपालक के द्वारा कान में खीले ठोके गये। पाप तो कान में सीसा डालने जितना किया था। जिसके बदले में नरक की घोर यातना सहन की, कठिन तपस्या आदि की। फिर भी उस पाप से मुक्त नहीं हुए। कोई जीव अति आवेश में आकर रसपूर्वक कोई कर्म बांध ले और आलोचना किए बिना मर जाएँ तो उस कर्म को भुगते बिना दूसरा कोई चारा नहीं हैं। भ * * Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एक दिन बच्चा स्कूल से घर आया। उसे जोरो की भूख लगी थी। माँ रसोई बनाकर पानी भरने गई थी। जैसे ही माँ घर आई पुत्र ने क्रोध में आकर कहा,“क्या सूली पर चढ़ने गई थी जो इतनी देर हो गई?" माँ को भी गुस्सा आया और उसने भी कहा “क्या तेरे हाथ कट गये थे? जो तू खाना लेकर नहीं खा सका” दोनों ने आलोचना नहीं की जिसके कारण आगामी भव में माँ के हाथ कटे एवं पुत्र को निर्दोष होते हुए भी सूली चढ़ना पड़ा। * पूर्व भव में आलोचना नहीं करने से महासती सीता पर असतीत्व का कलंक आया। * राजा हरिश्चन्द्र को बारह वर्ष तक चंडाल के घर नौकरी करनी पड़ी। तारा रानी पर राक्षसी होने का आरोप आया और पुत्र का विरह सहना पड़ा। * महासती अंजनासुंदरी ने पूर्व भव में 22 घड़ी तक प्रभु की प्रतिमा को कचरे के डिब्बे में छिपाकर रखी और उसका प्रायश्चित नहीं किया। जिसके फल स्वरुप उन्हें 22 वर्ष तक पति का विरह सहना पड़ा। साथ ही कुल्टा होने का कलंक आया और जंगल में भटकना पड़ा। इसके विपरीत अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र जैसे खूनी पाप का स्वीकार कर एवं आलोचना करके उसी भव में मोक्ष गये। कुबेरसेना-कुबेरदत्त एवं कुबेरदत्ता ने संसार की वासना को खत्म करके शुद्ध प्रायश्चित लेकर उसी भव में सिद्धगति प्राप्त की। इस प्रकार आलोचना नहीं करने पर छोटे पाप भी बहुत बड़े हो जाते हैं और आलोचना करने वाले खूनी एवं महापापी भी उसी भव में पार हो जाते हैं। अतः आलोचना करनी ही चाहिए। प्रायश्चित करते वक्त प्रस्तुत पाप के साथ-साथ अन्य भवों-भव के पाप भी धुल जाते हैं। आज तक कई आत्माएँ आलोचना लेने के भाव करते-करते, कई आलोचना लेने के लिए गुरु के समीप जाते-जाते, कई आलोचना करते-करते और कई आत्माएँ आलोचना को वहन करतेकरते मोक्ष में गई हैं। अतः जिस भव में पाप कर्म किया हो, उसी भव में यदि आलोचना हो जाये तो सर्वथा निर्मूलन हो सकता है। अन्यथा अगले भव में उसे मात्र भोगने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं रहता। __शास्त्रकार महर्षि बताते है कि जंबूद्वीप में मेरु आदि जितने भी पर्वत है, वे सभी सोने के बन जाएँ तथा जंबूद्वीप में जितनी मिट्टी है वह रत्न बन जाएँ तथा इन सोने एवं रत्नों को कोई पापी जीव सात क्षेत्रों में दान दे तो भी वह इतना शुद्ध नहीं बन सकता, जितना वह आलोचना द्वारा प्रायश्चित लेकर शुद्ध बनता है। इतना ही नहीं यदि कोई आत्मा शुद्ध आलोचना करने के लिए प्रयत्न करें और वह प्रायश्चित लेने के पूर्व ही मर जाए तो भी वह आराधक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनता है। इसके विपरीत अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है। इसलिए आलोचना शुद्ध करनी चाहिए। भव आलोचना करने से होने वाले लाभ : जिस प्रकार भार वाहक व्यक्ति शरीर पर से भार उतारने के बाद हल्का हो जाता है। उसी प्रकार आलोचना द्वारा पाप का भार उतरने से आत्मा हल्केपन का अनुभव करती है। आत्मा में से पापशल्य दूर हो जाने से हृदय आनंद विभोर हो जाता है। सरलता, प्रसन्नता, आदि गुण उसकी आत्मा में विकसित होते हैं। अतिचार रुपी मेल, धुल जाने से आत्म-शुद्धि होती है। इसलिए सम्यग् आलोचना अभ्यंतर तप के अंतर्गत आती है। अतः जीव तप युक्त बनता है, एवं तीर्थंकर भगवान की आज्ञा का पालन होता है। आलोचना किस प्रकार करनी चाहिए? ___ सर्वप्रथम मन में पापों के प्रति घृणा उत्पन्न करके किये हुए पापों को याद करें। हृदय को पश्चाताप से गद्-गद् करके एक भी पाप छुपाए बिना आलोचना लिखना शुरु करें। मात्र पापों को लिखं देना इतना ही नहीं परंतु जो पाप स्वयं ने अज्ञानता से, जान-बुझकर, प्रमाद से, अभिमान से या अश्रद्धा से जैसे किये है वैसे एवं जितनी बार किये है उसे विस्तार से निःसंकोच पूर्वक लिखें। इसके साथ-साथ गुप्त पापों की (जो पाप अपनी आत्मा के सिवाय और कोई न जानता हो) ऐसे पापों की विशेष रुप से आलोचना करें। . इसमें भी कितनी बार पाप किया है वह फिक्स याद न आए तो अंदाज से लिखे। वह भी याद न आए तो उस पाप का समय लिखें। जैसे कि 15 वर्ष की उम्र तक ज्ञान होने के बावजूद भी या अज्ञानता से कंदमूल खाएँ ...आदि। इन पापों का तथा इसके सिवाय और कोई पाप आपको याद हो लेकिन उसकी आलोचना आपके पुस्तक में नहीं दी गई हो, तो उन सब पापों को एक पेपर पर लिखकर आपकी भव-आलोचना की पुस्तक के साथ स्टेप्लर कर लें। अंत में पुस्तक को लिफाफे में बंद करके भेजें ताकि हम गीतार्थ आचार्य श्री को भेजकर आपकी आलोचना मंगवा सके। कोई भी व्यक्ति एक भी पाप छुपाए बिना आलोचना लिखता है और एकाध पाप उसे याद नहीं आए तथा वह लिखना रह जाएँ तो भी उसके मन में सभी पापों के प्रति पश्चाताप एवं शुद्ध आलोचना लेने के परिणाम होने से उसका भी प्रायश्चित हो जाता है। आलोचक को आलोचना लिखते समय ऐसा कोई गम्भीर पाप लिखने में शरम आए कि गुरु भगवंत मेरे बारे में क्या सोचेंगे? उनकी दृष्टि में मैं गिर जाऊँगा? उनको मेरे धार्मिक होने पर अविश्वास हो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाएँगा ? आदि कुविचार कभी न करें। क्योंकि आलोचना दाता गुरु भगवंत की यह विशेषता होती है कि हल्के से हल्का पाप करने वाले के लिए भी उनके दिल में करुणा बहती है। वे जानते है कि पाप होना सहज है। परंतु पाप की आलोचना करनेवाला महान होता है। अतः हम एक भी बात छुपाए बिना जितनी सूक्ष्मता से आलोचना लिखते हैं उतनी अधिक गुरु भगवंत की कृपा दृष्टि हम पर बरसती है। अतः गुरु भगवंत से कुछ भी न छुपाएँ । गुरु भगवंत से पाप को छुपाकर सामान्य पापों की आलोचना करने पर हमें गुरु भगवंत पर विश्वास न होने का महापाप लगता है। नोट : सरलता से भव आलोचना हो सके इसलिए इस पुस्तक के साथ छोटी भव आलोचना पुस्तक दी गई है। उसे उपरोक्त भावों के साथ भरकर ओपन-बुक परीक्षा के उत्तरपत्र के साथ भेजें। " पुस्तक के आगे अपना नाम, पता एवं उम्र स्पष्ट अक्षरों में लिखें। यदि पहले "भव आलोचना” ली हो तो वह कब और किसके पास ली ? एवं उसका प्रायश्चित पूर्ण हुआ या · नहीं ? आदि भी लिखें। पहले ली हुई भव आलोचना में याद नहीं आने से या फिर याद आने पर शरम आदि से उस पाप की आलोचना नहीं की हो या अब याद आया हो, तो इस प्रकार बताकर आलोचना करें। तपस्या कितनी कर सकते हो तथा दानादि की कितनी शक्यता है वह भी बताएँ । आलोचना देने के पश्चात् आलोचक नीचे की गाथा बोलकर मिच्छामि दुक्कड़ दें अथवा गुरु भगवंत गाथा सुनाकर मिच्छामि दुक्कडं दिलाएँ । छउमत्थो मूढमणो कित्तियामित्तं च संभरइ जीवो। जं जं न संभरामि, मिच्छामि दुक्कई तस्स । १ । जं जं मणेण बद्धं जं जं वाएण भासियं पावं । जं जं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कई तस्स ।।२।। अर्थ : अज्ञानता से छद्मस्थ जीव कितना याद कर सकता है? जो-जो मुझे याद नहीं आ रहे हैं, उन सबका भी मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ। जो पाप मन से किये हैं, जो पाप वचन से किये हैं, तथा जो पाप शरीर से किये हैं उन सबका मैं अंतर हृदय से मिच्छामि दुक्कड़ देता हूँ। (यदि आलोचना लिखित में हो तो आलोचना लिखने के बाद स्वयं अर्थ पूर्वक ये गाथा बोलें।) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधर्मिक भक्ति जिस प्रकार कन्या की सगाई मात्र होने से उसके पति के सारे रिश्तेदारों के साथ कन्या का संबंध स्वतः ही जुड़ जाता है। फिर उसे पति के माता-पिता, भाई-बहन, काका-काकी, मामा-मामी आदि के साथ अलग से संबंध जोड़ने की जरुरत नहीं रहती। चतुर कन्या इन सारे रिश्तों को सहर्ष स्वीकार कर अपनी सेवा भक्ति से सभी के दिल को जीतकर अपने पति के हृदय में अद्भूत स्थान प्राप्त कर लेती है। इसके विपरीत जो कन्या अपने पति के रिश्तेदारों को पराया मानती है। वह जीवनभर अथक प्रयासों के बाद भी पति के दिल में वैसा उच्च स्थान नहीं पा सकती। ___ उसी प्रकार अनादि काल से भव अटवी में भटकते हुए हमें वीतराग प्रभु “स्वामी” के रुप में प्राप्त हुए हैं। प्रभु को अपने भर्तार के रुप में स्वीकारने मात्र से ही प्रभु से जुड़े हुए शासन के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका आदि के साथ हमारा संबंध स्वतः ही जुड़ जाता है। इसलिए हमें साधर्मिक के साथ कैसे प्रेम करना यह अलग सिखने की जरुरत नहीं रहती। जो व्यक्ति साधर्मिक के प्रति पुत्रवत् प्रेम नहीं ला सकता वह व्यक्ति लाख प्रयास करने के बाद भी प्रभु को खुश नहीं कर सकता। “समानः धर्मः येषां ते इति साधर्मिकाः” अर्थात् अपने समान धर्म वाले को साधर्मिक कहते है। साधु-साध्वी के लिए अन्य साधु-साध्वी साधर्मिक है तथा श्रावक-श्राविकाओं के लिए अन्य श्रावक-श्राविकाएँ साधर्मिक है। जिस प्रकार परमात्मा ने मोक्ष मार्ग दिखाकर हम पर उपकार किया है, उसी प्रकार श्रावक-श्राविकाओं ने उस मार्ग पर चलकर हम पर उपकार किया है। वह इस प्रकार है____ आज हजारों लोग संघ में आयंबिल करते हैं तो हमें भी आयंबिल करने की इच्छा होती है और जिसे पशु भी न खाए ऐसे रुखे-सुके आहार को बड़े से बड़ा श्रीमंत भी प्रसन्नता पूर्वक खा लेता है। जहाँ व्यक्ति को एक दिन भी आहार के बिना रहना दुष्कर है, वहाँ श्रावकश्राविकाएँ मासक्षमण जैसे कई भीष्म तप सहजता से कर लेते हैं। इसका कारण क्या है? यहीं कि अनेकों को करते देख अपने मन में भी हिम्मत बढ़ती है और उत्साहं पैदा होता है जो हमें यह दुष्कर कार्य करने में सफल बनाता है। इस प्रकार पूजा सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, उपधान, नव्वाणु, छःरी पालित संघ एवं दीक्षा लेना आदि सर्व धर्मानुष्ठान की सुविशुद्ध परम्परा को टिकाए रखने का श्रेय धर्म करने वाले साधर्मिकों को ही जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः यह सिद्ध होता है कि आज हम जो भी धर्म कर रहे हैं वह साधर्मिक बंधुओं के आलम्बन से ही हो रहा है। ऐसे उपकारी साधर्मिक बंधुओं की जितनी भक्ति करें उतनी कम है। पर्युषण के पाँच कर्तव्य, वार्षिक 11 कर्तव्य तथा श्रावक के 36 कर्तव्य आदि में साधर्मिक भक्ति का विधान कर ज्ञानियों ने इसका महत्त्व खूब बढ़ाया है। पू. लक्ष्मीसूरीजी म.सा. ने तो यहाँ तक कहा है कि तराजू के एक पलड़े में हमारी सारी धर्म आराधना रखें और दूसरे पलड़े में मात्र साधर्मिक की एक बार की गई भक्ति रखें तो उसमें साधर्मिक भक्ति का पलड़ा ही भारी होगा। यह बात जानने के बाद साधर्मिक-भक्ति किए बिना श्रावक को चैन की नींद कैसे आ सकती है? ___ सच्चा प्रभु भक्त तो वही होता है जो प्रभु के भक्त का भी भक्त हो। उसके हृदय में ऐसे साधर्मिक की भक्ति करने के लिए हमेशा आदर-बहुमान भाव उछलते हो। यदि उसे एक दिन भी साधर्मिक भक्ति करने का अवसर न मिले तो वह दिन निष्फल लगने लगे। खास ध्यान रहे कि साधर्मिक चाहे आर्थिक स्थिति से कमज़ोर हो और आप उसे आर्थिक सहयोग कर रहे हो, फिर भी आपके दिल में उनके प्रति प्रेम तथा वात्सल्य के ही भाव होने चाहिए। प्रभु का भक्त कभी बेचारा नहीं होता। उस पर दया नहीं अपितु प्रेम ही होना चाहिए। कोई बाप अपने पुत्र को पैसे देता है तो वहाँ बेचारेपन के भाव नहीं अपितु वात्सल्य ही छलकता है। ऐसे ही भाव साधर्मिक के लिए भी होने चाहिए। प्रः आपकी यह बात तो सही है कि साधर्मिक ही धर्म को टिकाए रखता है इसलिए उनकी अहोभाव से भक्ति करनी चाहिए। परंतु हर जैन-व्यक्ति धर्म नहीं करता तो फिर उसकी भक्ति करनी चाहिए या नहीं? उ .: गुणवान साधर्मिक की भक्ति करने से हमारे अंदर भी गुण आते हैं। लेकिन मानो कि कोई साधर्मिक जैन होने के बावजूद भी यदि किसी कुकर्म के उदय से उनका जीवन खराब हो गया हो, वह व्यक्ति सातों व्यसन में डूब गया हो। फिर भी उसने जन्म से वीतराग परमात्मा, पंच महाव्रतधारी गुरु भगवंत एवं जैन-कुल को प्राप्त किया है, अतः वह महान है। व्यक्ति का जैन कुल में उत्पन्न होना ही उसकी योग्यता का सूचक है। इसलिए धर्म-विहीन साधर्मिक को धिक्कारने के बदले उसे प्रेम से सत्कारना ही हितावह है। ___एक बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी को धिक्कार से जीतने के बजाए प्रेम एवं वात्सल्य से हार जाना हजार गुना अच्छा है। दुराचारी बने हुए जैन साधर्मिक को आप प्रेम, आदर सहित प्रोत्साहन देंगे तो उसके अंदर रहे हुए दोष एक दिन आपके प्रेम के कारण गुण में परिवर्तित हो जाएंगे। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सत्य घटना - अपने धंधे के काम से राजकोट जा रहे जैन युवक को एक गुरु भक्त ने वहाँ बिराजमान आचार्य म.सा. को देने के लिए एक पत्र दिया। धर्म से अनभिज्ञ युवक ने राजकोट पहुँचकर वहाँ चातुर्मास हेतु बिराजमान आचार्य भगवंत को वंदन कर पत्र दिया। उस समय बाहर गाँव से आए साधर्मिक को देखकर वहाँ के स्थानिक श्रावक के दिल में साधर्मिक के प्रति वात्सल्य उभर आया। उन्होंने युवक को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रण दिया। आगंतुक युवक किसी भी प्रकार से आमंत्रण को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था। दोनों के बीच काफी समय तक आना-कानी चली। अंत में आगंतुक युवक ने कहा कि आप जैसा समझते हो वैसा मैं नहीं हूँ। मेरे जीवन में धर्म का कोई ठिकाना नहीं है। आप मेहरबानी कर घर ले जाने का आग्रह छोड़ दें। . परंतु श्रावक ने एक ही बात कही - आप कौन हो? कैसा जीवन जीते हो? क्या करते हो? उससे मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु आपने मेरे गुरु महाराज को वंदन किए है। अंतः आप मेरे साधर्मिक हो। इससे ज्यादा महत्व की बात मेरे लिए क्या हो सकती है। बस, अब आपको आना ही पड़ेगा। अंत में सेठ के अति आग्रह के आगे हारकर आगंतुक युवक उनके साथ जाने के लिए तैयार हुआ। घर . पहुँचते ही उस श्रावक ने अपनी धर्मपत्नी से कहा-मूंग की दाल का सीरा, भजियाँ आदि भोजन तैयार करो। महापुण्योदय से साधर्मिक भाई हमारे आँगन में पधारें हैं। इतना सुनते ही आगंतुक भाई ने कहा - "अरे भाई ! तुम्हारी धारणा गलत है। तुम मुझे छोड़ दो, मैं तो पापी हूँ। मात्र जन्म का जैन हूँ।" पर उसकी बात को अनसुना करके उस श्रावक ने युवक को भोजन करने के लिए बैठाया। तत्पश्चात् श्रावक और उसकी पत्नी भाव-विभोर होकर गरमा-गरम सीरा परोसने लगे तथा पुण्योदय से मिले साधर्मिक भाई का पूरा लाभ लेने लगे। यह देख आगंतुक युवक की आँखें छलक आई, वह जोर-जोर से रोने लगा। युवक को इस तरह रोता देख वह श्रावक विचार में पड़ गए। उन्होंने उस युक्क को रोने का कारण पूछा? तब वह बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे बोलने लगा - “भाई ! मुझे माफ कर दो। मैं सातों व्यसन में डूबा हूँ। पाप नाम से जाना जानेवाला हर कार्य, मैंने अपने जीवन में किया है। मेरी इस परिस्थिति की जानकारी आपको होने के बावजूद मुझे धिक्कारने या तिरस्कारने के बदले आप भाव-विभोर होकर मुझे खाना खिला रहे हो। पर आप ही बताईये कि मैं यह खाना कैसे खा सकता हूँ? आफ्के वात्सल्य के प्रभाव से मेरे दोष आज काँप उठे है। अब सर्वप्रथम आप मुझे सातों व्यसन की जिंदगी भर के लिए प्रतिज्ञा दीजीए। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर ही मैं यह निवाला खा सकूँगा।” सचमुच सातों व्यसन का जिंदगीभर तक त्याग करने के बाद ही उस युवक ने भोजन किया। कल्पना कीजिए कि यदि उस श्रावक ने उस युवक के पापों को धिक्कारा होता तो क्या यह हृदय परिवर्तन संभव था? साधर्मिक भक्ति ने एक महादुराचारी जीव को भी सच्चे मार्ग पर चढ़ा दिया, मात्र उसका ही नहीं परंतु पूरे कुटुंब का कल्याण कर दिया। इस प्रसंग से आप समझ गए होंगे कि मात्र जन्म से ही जैन ऐसे व्यक्ति की भी की गई साधर्मिक-भक्ति कितनी लाभप्रद बनती है। अर्थात् समझने की बात तो यह है कि साधर्मिक भक्ति यानि मात्र तिलक करना या पैसे देना, इतना ही नहीं है बल्कि अपने वात्सल्य एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार से साधर्मिक को धर्म में जोड़ना या उससे पाप छुड़वाना यह भी एक विशिष्ट प्रकार की साधर्मिक भक्ति है। क्योंकि यह जिनशासन साधर्मिकों से ही चल रहा है तथा चलेगा। फिर चाहे साधर्मिक जैसा भी हो अमीर हो या गरीब, धर्मी हो या अधर्मी, व्रतधारी हो या सातों व्यसन से चकचूर, हमें उनकी उपेक्षा नहीं करके बहुमान भाव से उनकी भक्ति करनी चाहिए। ____ यदि हम किसी भी साधर्मिक के दोषों एवं कुकर्मों को देखकर उसके प्रति तिरस्कार भाव पैदा करे तो उनकी आशातना करने से निम्न दोषों की संभावना होती है - 1. यदि हम अधिक धर्म करते हैं और सामनेवाला व्यक्ति धर्मी नहीं है। तथा हम उसे तिरस्कार भाव से देखे तो इससे यह साफ जाहिर हो जाता है कि हमें धर्म करने का अहंकार है अभिमान है। 2. इससे प्रभु के शासन का गूढ मर्म हाथ से चला जाएँगा। 3. अहंकार के कारण, धर्म क्रिया में दिखावा बढ़ेगा। 4. भारी पाप कर्म का बंध होगा। 5. साधर्मिक की अवहेलना करने से उनके धर्म विरोधी बनने का पाप हमारे सिर चढ़ेगा। इन दोषों को टालने के लिए हृदय को विशाल बनाकर साधर्मिकों को भी यदि हम प्रेम पूर्वक हृदय में स्थान देंगे, तो उनमें भी शासन के प्रति अहोभाव जगेगा एवं आप और वे दोनों सुलभ बोधि बनेंगे। अन्यथा भवांतर में दोनों को जैन धर्म मिलने की संभावना नहीं रहेगी। अतः साधर्मिक के गुणों तथा अवगुणों को अनदेखा कर मात्र उनके जैन होने की बात को गाँठ बाँधकर उनकी भक्ति करनी चाहिए। साधर्मिक भक्ति कैसे करें? * प्रत्येक साधर्मिक व्यक्ति की दिल से अनुमोदना करें। उनका उत्साह बढाएँ। * जिन साधर्मिकों को धर्म करने की अनुकूलता न हो उन्हें अनुकूलता करके दें। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जिनकी स्थिति कमजोर है उनका बहुमान पूर्वक तिलक कर उनकी आर्थिक स्थिति का समाधान हो जाए इतना पर्याप्त धन दें अथवा इतनी शक्ति न हो तो यथाशक्ति भक्ति करें। * हो सके तो वहाँ साधर्मिक को गुप्त रीत से, उनके कहने से पहले ही उनकी माँग पूर्ण कर लें। इस प्रकार करने से देने वाले को अहंकार नहीं आयेगा एवं लेनेवाले को भी शर्म नहीं आयेगी। * प्रत्येक धनाढ्य व्यक्ति यदि अपने फिजूल के खर्च बंद करके वह पैसे साधर्मिक भक्ति में लगा दें, तो कितने ही साधर्मिकों का उद्धार हो जाएँगा। अर्थात् दूसरा कुछ नहीं परंतु मात्र अपने मौज-शौक की दस प्रतिशत रकम भी अपने साधर्मिकों की जरुरते पूरी करने के लिए पर्याप्त है। * प्रत्येक संघ में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि संघ का एक धनाढ्य श्रावक कम से कम एक साधर्मिक के घर को संभालने की जवाबदारी लें। जिससे साधर्मिकों की देखरेख के प्रश्न का समाधान हो जाएँगा तथा जिन शासन की प्रभावना का पुण्य भी प्राप्त होगा। * साधर्मिकों का लाभ लेने के लिए सदैव पुरुषार्थ करें। हमेशा लाभ न मिलता हो तो कम से कम वर्ष में एक बार तो अवश्य ही शक्ति अनुसार स्वामीवात्सल्य या तपस्वियों के पारणे का लाभ या बाहर गाँव से आनेवाले साधर्मिकों का लाभ या फिर कोई गुरु भगवंतों के साथ आनेवाले का लाभ लें। * यह भी न हो सके तो स्वामीवात्सल्य में यथाशक्ति पैसे लिखवाएँ। जिससे सरलता पूर्वक कई साधर्मिकों की भक्ति का लाभ मिल सके। * स्वामीवात्सल्य में स्वयं के हाथों से संघ के श्रावकों के पैर दूध से धोकर तिलक करें। तथा हाथ जोड़कर बहुमान पूर्वक बैठाकर भोजन करवाएँ। * लाभ देनेवाले श्रावक-श्राविकाएँ भी निम्न बातों का ध्यान रखें। जिससे लाभार्थी के साथ वे भी पुण्य का उपार्जन कर सके। 1. स्वामीवात्सल्य करनेवालों की दिल खोलकर प्रशंसा करें। 2. भोजन में किसी प्रकार की कमी हो तो उसकी निंदा न करें। 3. जिस प्रसंग को लेकर स्वामीवात्सल्य का आयोजन किया गया हो उस प्रसंग में भाग लें, जैसे कि सिद्धचक्र पूजन का प्रसंग हो तो पूजन में अवश्य भाग लें। * पोष वदि 10 या कार्तिक पूनम के स्वामीवात्सल्य का प्रसंग हो तो उस दिन की आराधना करें। तथा घर में रसोई बनाने में जितना समय लगता है कम से कम उतना समय तो परमात्मा भक्ति या किसी भी धार्मिक कार्य में व्यतीत करें। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सामनेवाला व्यक्ति गुणवान समझकर हमारी भक्ति कर रहा है, तो हम भी गुणानुरागी बनने का तथा गुणों को आत्मसात् करने का प्रयास करें। * विशेष में स्वामीवात्सल्य में भोजन करने का अधिकार मात्र साधर्मिक (श्रावक-श्राविकाओं) को ही है। इसलिए जो भी जैन हो वे भोजन का एक दाना भी नीचे गिराएँ बिना थाली धोकर पीयें। वर्ना 48 मिनिट के पश्चात् असंख्य समूर्च्छिम पंचेन्द्रिय जीवों की घोर हिंसा का पाप लगता है। साधर्मिक भक्ति में विवेक स्वामीवात्सल्य के नाम पर आजकल होड़, दिखावा ज्यादा होने लगा है। ऐसे साधर्मिक भक्ति में प्रायः परमात्मा की आज्ञा गौण हो जाती है तथा लोक-संज्ञा की प्रधानता होती है अर्थात् लोगों को खुश करने तथा अपना नाम करने के भाव ज्यादा होते हैं। हम जिस उद्देश्य से स्वामीवात्सल्य करवाते हैं वस्तुतः हमारे भावों के परमाणु भोजन के माध्यम से सामनेवाले तक पहुँचते हैं। जिससे सामने वाले व्यक्ति को भी उसी के अनुसार भाव आते हैं। यदि हम परमात्मा की आज्ञा को नज़र के सामने रखकर जयणापूर्वक गुणवान श्रावकों की भक्ति के उद्देश्य से साधर्मिक वात्सल्य करवाते हैं तो सामने वालों को भी परमात्मा के शासन के प्रति अहोभाव प्रगट होते हैं। तथा यदि हम स्वयं की कीर्ति, प्रशंसा या नाम के लिए प्रभु आज्ञा से निरपेक्ष बनकर मात्र स्वाद की प्रधानता रखते है तो लोग भी उसी के अनुरुप अपनी स्वाद वृत्ति का पोषण कर प्रशंसा करते है। जिससे स्वामीवात्सल्य करवाने वाले के अहं का पोषण होता है, तथा खाने वाले की स्वाद वृत्ति सें आहार संज्ञा का पोषण होता है यानि कि दोनों को ही नुकसान होता है। यह तो हमारे जिनशासन की बलिहारी है कि शासन में की जानेवाली छोटी से छोटी क्रिया स्वयं के लिए ही नहीं अपितु दूसरों के पुण्योपार्जन में भी निमित्त बनती है। ऐसे में आजकल साधर्मिक भक्ति जैसे बड़े अनुष्ठान में पुण्य के बदले पाप कर्म का बंध होने की संभावना ज्यादा हो गई है। आजकल स्वामीवात्सल्य में बफे - सिस्टम आदि के रुप में यह अजयणा धीरे-धीरे आने लगी है। ऐसे सिस्टम लोगों को झूठा छोड़ने, खाते-खाते बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। शादी के समारोह में जिस प्रकार रात्रिभोजन, कंदमूल, अभक्ष्य, अजयणा ने घर कर लिया है। उसी प्रकार हमारी बेदरकारी के कारण वैसी ही हालत स्वामीवात्सल्य की हो गई है। यानि कि मोक्ष में ले जाने वाली क्रिया ही दुर्गति के राह पर ले जानेवाली बन गई है। इसके बदले यदि श्रीसंघ में 20 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी व्यवस्था हो कि बैठाकर, काँसी की थाली में आदर-बहुमान भाव पूर्वक साधर्मिक भक्ति करवाएँ तो सामनेवाले का शासन के प्रति अहोभाव तो बढ़ेगा ही, साथ ही वह व्यक्ति थाली धोकर पीने, झूठा नहीं छोड़ने तथा बातें नहीं करने के लिए सहजता से प्रेरित हो जाएँगा। अन्यथा पैसा खर्च ज्यादा और लाभ कम जैसी बात हो जाएँगी। यदि हम विवेकपूर्वक, जयणा पूर्वक कम पैसों में सादगी से कोई भी महोत्सव करवाएँ तो पैसों की बहुत ज्यादा बचत होगी। साथ ही बची हुई राशि को यथायोग्य सातों क्षेत्र में खर्च करने से दुगुना फायदा होगा, अन्यथा हम मूल फायदे से भी वंचित रह जायेंगे। आजकल श्रीसंघ के पास पैसों की कमी नहीं है परंतु उसके सदुपयोग के लिए विवेक की कमी है। जरुरत है उस विवेक को जागृत करने की, जिससे हम सही लाभ को प्राप्त कर शीघ्र ही मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर पायेंगे। जरा सोचिए आपके पास जितने रुपये हे या तो उतने नवकार गिन लीजिए। यदि उसके लिए आप तैयार न हो तो आपने जितने नवकार गिने हो उतने रुपये रखकर बाकि के रुपयों को सन्मार्ग पर सद्व्यय कर दीजिए। दोनों में से एक भी विकल्प स्वीकारने की आपकी तैयारी है? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * * प्रस्थान का स्टेशन पहुँचने का स्टेशन स्टेशन का नाप * * ट्रेन की टिकट ट्रेन का नाम ट्रेन के ड्राईवर ट्रेन के गार्ड * मुख्य जंक्शन * प्लेटफार्म नंबर * साथ क्या ले जाओगे? * कब शुरु होती है? मोक्ष की टूर समकित संयम एक्सप्रेस अरिहंत भगवान * टूर कहाँ तक की? टाईमपास * * साथीदार * सीट नंबर * तैयारी किसकी? * सावधानी ? * रास्ते में रुकना ? लोकान तक स्वाध्याय निग्रंथ गुरु अढीद्वीप क्षेत्र सिद्धक्षेत्र 45 लाख योजन मनुष्यभव 15 कर्मभूमि * 1 समय पहुँचने का समय ? केवलज्ञान, केवलदर्शन * वहाँ कितना रुकोंगे ? हमेशा, अनंतकाल तीसरे चौथे आरे में 22 अष्ट प्रवचनमाता गुणस्थान 6 से 14 (11 वा वर्ज्य) रत्नत्रयी आराधना कर्मबंध से बचनेकी नॉन स्टोप Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7000000 Art of Living 4 सासु बनी 3044 み संस्कारों की नींव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र महिमा * रिद्धि-सिद्धिदायक मंत्र ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं मम ऋद्धिं वृद्धिं समीहितं कुरु कुरु स्वाहा परिणाम : शुद्ध वस्त्र पहनकर सुबह एवं शाम 32 बार इस मंत्र का जाप करने से सभी प्रकार की ऋद्धि एवं सिद्धि प्राप्त होती है। * लक्ष्मी प्राप्ति का मंत्र ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं, सिद्धाणं, सूरिणं, आयरियाणं, उवज्झायाणं, साहूणं मम ऋद्धिं वृद्धिं समीहितं कुरु कुरु स्वाहा परिणाम : इस मंत्र का रोज सुबह, दोपहर एवं शाम को 32-32 बार जाप करने से सभी प्रकार की ऋद्धि एवं लक्ष्मी प्राप्त होती है। * रोग निवारक मंत्र ॐ नमो अमोसहिपत्ताणं, ॐ नमो खेलोसहिपत्ताणं, ॐ नमो जल्लोसहिपत्ताणं, ॐ नमो विप्पोसहिपत्ताणं, ॐ नमो सव्वोसहिपत्ताणं, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं क्लौं अर्हम् नमः परिणाम : प्रतिदिन इस मंत्र की एक माला गिनने से रोग दूर होते है | बिमारी के वक्त इस मंत्र का खास प्रयोग करें। * चोर का भय दूर करने का मंत्र ॐ ह्रीं नमो सिद्धाणं, ॐ ह्रीं नमो सिद्धदेव नमः परिणाम : इस मंत्र को सात बार बोल कर वस्त्र के बड़े छोर पर गांठ बांधने से कैसे भी प्रवास में चोर का भय नहीं रहता। * सिरदर्द की चिकित्सा ॐ नमो परमोहिजिणाणं हाँ ह्रीं परिणाम : जिसे सिरदर्द होता है वह इस मंत्र की हर रोज एक माला गिनें, माला गिनते समय साथ में पानी रखें उसे अभिमंत्रित करके पीएँ । किसी दूसरे रोगी को भी यह अभिमंत्रित जल पीला सकते हैं। * कान चिकित्सा ॐ नमो अणंतोहिजिणाणं हाँ ह्रीं परिणाम : प्रतिदिन एक माला गिनने से कान का दर्द दूर होता है। * नेत्र चिकित्सा ॐ नमो सव्वोहि जिणाणं हाँ ही परिणाम : प्रतिदिन एक माला गिनने से नेत्र पीड़ा दूर होती है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासु बनी माँ जैनिज़म के पिछले खण्ड में आपने देखा कि अपने माता-पिता से मदद लेने की अपेक्षा से डॉली ने अपने घर पर फोन करना चाहा और इस तरफ डॉली के भाग जाने के बाद सुषमा का घर से बाहर आना-जाना बंद हो गया था । उनकी इज्जत मिट्टी में मिल चुकी थी। सुषमा का बेटा (डॉली का भाई) प्रिंस अब शादी के लायक हो चुका था । परंतु डॉली के भाग जाने के कारण कोई अपनी लड़की उस घर में देने के लिए तैयार नहीं था । तब आखिर सुषमा ने पैसों के बल पर एक मध्यम लेकिन अच्छे खानदान की लड़की खुशबू के साथ प्रिंस की सगाई तय कर दी। सगाई करते ही सुषमा ने अरमानों के महल बनाने शुरु कर दिए। उसने सोचा कि जो सुख मुझे डॉली से नहीं मिला वह सुख खुशबू मुझे देगी। डॉली के लिए तो मुझे सुबह उठकर चाय बनानी पड़ती थी लेकिन अब बहू के आ जाने के बाद मैं आराम से उदूंगी और उठते ही गरमा-गरम चाय मेरे लिए तैयार रहेगी। 25 साल खाना बनाते-बनाते ये हाथ थक गए है। अब इन हाथों को आराम मिलेगा । आदित्य और प्रिंस तो सुबह 9 बजे ही ऑफिस चले जाते है और रात को 9 बजे आते हैं। मैं अकेली घर पर बैठे-बैठे बोर हो जाती हूँ। लेकिन अब बहू के आने से मेरा समय भी अच्छी तरह व्यतीत हो जाएँगा । आजकल के नौकर वैसे भी ज्यादा नहीं टिकते और आए दिन मुझे घर का सारा काम करना पड़ता है। अब बहू के आने के बाद नौकरों की झंझट ही मिट जाएँगी। इस तरफ सुषमा के ख्वाबों से अनजान खुशबू ने भी अपने कुछ सपने संजोये थे कि ससुराल जाने के बाद इतने पैसे वाले घर में मैं रानी की तरह राज करूँगी। अपने अच्छे बर्ताव से सभी का दिल जीत लूँगी। सास-ससुर-पति सभी को अपने वश में कर लूँगी। मेरे ससुराल में किसी को डॉली की याद भी न आए इसलिए सबके साथ बेटी के जैसा व्यवहार करुँगी । इस प्रकार अपने-अपने अरमानों को संजोते - संजोते शादी का दिन भी नज़दीक आ गया। और शुभ दिन शुभ मुहूर्त में प्रिन्स और खुशबू की शादी धूम-धाम से हुई । खुशबू जैसी सुंदर और खानदानी पत्नी को पाकर प्रिन्स भी अपनी किस्मत को सराहने लगा। शादी के एक सप्ताह के बाद जिस दिन प्रिंस की भुआ, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि विदाई ले रहे थे उस रात खुशबू को सोते-सोते एक बज गया। इसलिए दूसरे दिन खुशबू को उठने में देरी हो गई। परंतु उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं थी क्योंकि वह तो यही सोच रही थी कि मम्मीजी को तो पता ही है कि कल मैं कितनी लेट सोई थी। इसलिए देर से उठना तो स्वाभाविक है। और यहाँ सुषमा यह सोचकर नहीं उठी कि अब तो बहू आ गई है, वह 23 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदित्य और प्रिन्स को चाय बनाकर दे देगी। परंतु ऑफिस का समय होते ही आदित्य चाय के लिए सुषमा को उठाने आया। खुशबू अब तक सो रही है यह बात जानकर सुषमा को आश्चर्य हुआ और साथ ही गुस्सा भी आया तब - सुषमा : क्या बहू के आने के बाद भी घर का काम मुझे ही करना पड़ेगा? आदित्य : सुषमा यह तो तुम जानो और वो जाने। मुझे तो अपनी चाय से मतलब है। अनिच्छा से सुषमा ने उठकर दोनों को चाय बनाकर दी। जैसे ही आदित्य और प्रिन्स ऑफिस के लिए निकले। वैसे ही खुशबू नहा-धोकर बाहर आई, उसके आते हीसुषमा : खुशबू, अब तुम पियर में नहीं ससुराल में हो। इसलिए उठने के समय का ध्यान रखा करो। खुशबू : मम्मीजी कल लेट सोई थी। इसलिए आज आँख ही नहीं खुली। सुषमा : यह तो अब रोज की बात होगी। शादी होने के बाद ससुराल के सभी सदस्यों को संभालने का कर्तव्य तुम्हारा है। तुम्हारी जिम्मेदारियाँ अब बढ़ गई है। तुम्हारे ससुरजी और प्रिंस 8 बजे ऑफिस चले जाते हैं उनके जाने से पहले उनके चाय-नाश्ते आदि सभी काम का ध्यान तुम्हें ही रखना है। इसलिए कल से उठने का ख्याल रखना। सुषमा के इन शब्दों से खुशबू के दिल को गहरा आघात पहुँचा। वह किसी और ही सपने में थी परंतु सुषमा के शब्दों ने उसके सपनों को चूर-चूर कर दिया। उस वक्त तो वह चुप रही। परंतु उसके हृदय में सुषमा के प्रति असद्भाव के बीज का रोपण हो गया। इस प्रकार स्वभाववश सुषमा आए दिन खुशबू को छोटी-छोटी बातों पर टोकने लगी। और एक दिन - खुशबू : प्रिन्स ! शादी के बाद हम हनीमून मनाने नहीं गए। चलो ना थोड़े दिन कहीं घूमकर आते हैं। (प्रिन्स यह बात अपनी मॉम से पूछने गया) प्रिन्स : मॉम, मैं और खुशबू थोड़े दिनों के लिए कहीं घूमने जाना चाहते हैं। सुषमा : नहीं बेटा ! तुम्हारे पापा की तबियत इतनी खराब रहती हैं। तुम्हारे जाने के बाद ऑफिस का सारा लोड उन पर आ जाएँगा। एक काम करो, तुम थोड़े दिनों के बाद चले जाना। प्रिन्स : ठीक है मॉम। __प्रिन्स ने जाकर सारी बात खुशबू को बताई। बात सुनकर खुशबू का मूड ऑफ हो गया। उसे लगा कि सासुमाँ को मेरी खुशी पसंद नहीं है। इसलिए उन्होंने ऐसा किया है। खुशबू के इन विचारों को Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल मिल गया, जब एक दिन खुशबू के घर से फोन आया और खुशबू उस समय रसोई घर में थी। फोन सुषमा ने उठाया। सुषमा : हेलो, कौन? ललिता : सम्धनजी ! मैं खुशबू की मॉम बोल रही हूँ। सुषमा : सम्धनजी ! कैसी है आप? (सुषमा को इस प्रकार बातें करते देख खुशबू को पता चल गया कि फोन उसकी माँ का है। बहुत दिनों के बाद माँ से बात करने को मिलेगी ऐसा सोचकर खुशबू बहुत खुश हुई परंतु हुआ कुछ और ही) सुषमा : क्या? आपका भतीजा आया है इसलिए खुशबू को भेजूं। नहीं सम्धनजी, मैं अब उसे नहीं भेज सकती। मेहमान के कारण घर पर बहुत काम है। कोई विशिष्ट प्रसंग होता तो मैं मना नहीं करती। ललिता : ठीक है, एक बार मेरी खुशबू से बात करवा दीजिए। सुषमा : वो क्या है ना खुशबू पड्रेस में गई हुई है। वह आयेगी तब फोन करवा दूंगी। ललिता : ठीक है ! सुषमा ने फोन रख दिया परन्तु वह यह नहीं जानती थी कि यह बात खुशबू ने सुन ली है। वहाँ से सुषमा सीधे अपने कमरे में चली गई। उसने इस बात का जिक्र भी खुशबू से नहीं किया। अपनी सासु का यह व्यवहार देखकर खुशबू स्तब्ध रह गई। ऐसे ही एक दिनसुषमा : क्या बात है खुशबू ! आज बाज़ार में इतनी देर हो गई? खुशबू : मम्मीजी ! पड़ोस के आंटी मिल गए थे। उनके साथ बात करने रुक गई थी। सुषमा : खुशबू ! इस प्रकार रास्ते पर लोगों से बात करना अच्छी बात नहीं है। मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं है। खुशबू : पर मम्मीजी वे मुझे रास्ते पर नहीं बल्कि अपनी बिल्डिंग के नीचे ही मिले थे। सुषमा : (गुस्से में आकर) जबान मत चलाओ। मैंने एक बार कह दिया कि बात नहीं करना मतलब नहीं करना समझी। (अपनी गलती नहीं होने पर भी बार-बार अपनी सासु के टोकने से खुशबू का मन धीरे-धीरे अपनी सासु पर से उतरने लगा। धीरे-धीरे सुषमा ने अपने अधिकारों के बल पर खुशबू को तंग करने Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की सारी हदें पार कर दी। उसने खुशबू को कहीं भी बाहर भेजना बंद कर दिया। इतना ही नहीं जब सुषमा बाहर जाती तब घर के फोन को लॉक करके जाती ताकि खुशबू किसी से बात न करें। खुशबू केपियर से भी कभी फोन आता तो सुषमा पास ही खड़े रहकर सारी बातें सुनती। उसे कुछ भी पर्सनल बात करने नहीं देती और ना ही उसे अपने पियर भेजती । आजकल की बहुओं की तरह खुशबू ने कुछ दिन तो सब कुछ सहन किया। लेकिन धीरे-धीरे उसने भी अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया। पहले तो वह सुषमा से डर-डर कर रहती थी। लेकिन रोज रोज सुषमा की टोक-टोक से उसने भी जवाब देना सीख लिया। उसने सोचा कि यदि मुझे इस घर में खुशी से रहना है तो मुझे सब से पहले प्रिन्स को अपने हाथ में लेना पड़ेगा। ऐसा सोचकर उसने अपने प्यार भरे व्यवहार से धीरे-धीरे प्रिन्स का दिल जीत लिया। एक दिन आदित्य - सुषमा किसी करीबी रिश्तेदार की शादी में गए हुए थे। उसी दिन खुशबू को थकान के कारण बुखार आ गया। रात में जब प्रिन्स ऑफिस से घर आया तब खुशबू को ओढ़कर सोया हुआ देख उसके पास गया प्रिन्स: अरे खुशबू ! तुम्हें तो तेज बुखार है, मॉम - डेड शादी से आए नहीं ? - खुशबू : नहीं। अभी तक नहीं आए है और कुछ कहकर भी नहीं गए कि कब तक आएँगे। प्रिन्स: खुशबू, मॉम-डेड घर पर नहीं थे और तुम्हें इतना तेज बुखार था तो मुझे एक फोन कर दिया होता। मैं ही डॉ. को लेकर घर आ जाता। खुशबू : (गुस्से में ) क्या खाक फोन करूँ ? आपकी मॉम बाहर जाती है, तो फोन को लॉक देकर जाती ताकि मैं किसी से बात न कर सकूँ । प्रिन्स: यह क्या कह रही हो तुम? क्या मॉम ऐसा करती है ? इम्पॉसिबल । खुशबू : तो क्या मैं झूठ बोल रही हूँ ? विश्वास नहीं होता तो जाकर देख लो। इतना ही नहीं मॉम घर पर हो और मेरे लिए कोई फोन आ जाए तब भी मुझे फोन नहीं देती और दे भी दे तो पास ही खड़ी रहती है। ताकि मैं कोई पर्सनल बात न करूँ। मेरा बाहर आना जाना बंद कर दिया है, यहाँ तक कि मैं पियर भी नहीं जा सकती ( इतना कहकर खुशबू रोने लगी । ) प्रिन्स : खुशबू ! इतनी सारी बात हो गई और तुमने मुझे बताया तक नहीं ? मॉम इतने जुल्म करती रही और तुम चुपचाप सहन करती रही ? बस, खुशबू ! अब मैं तुम्हारी आँखों में और आँसू नहीं देख सकता। यह लो मेरा मोबाईल | तुम जब चाहो, जिससे चाहो बात कर लेना । और हाँ ? अब से तुम्हें मॉम से डरने की जरुरत नहीं है। तुम्हें यदि कहीं जाना हो या कुछ भी चाहिए तो मुझे कहना । मैं अपने आप मॉम से बात करूँगा । 26 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रिन्स की बात सुनकर खुशबू के चेहरे पर खुशी आ गई ) खुशबू : प्रिन्स ! पता है, मैं सुबह छः बजे उठती हूँ तो सीधे रात को 11 बजे आराम करने की बात आती है। प्रिन्स : इतनी जल्दी तुम्हें क्या काम है? आराम से उठा करो । खुशबू : पर प्रिन्स यदि मैं नहीं उठूंगी तो आप को चाय कौन बनाकर देगा ? एक काम करो ना, आप चाय ऑफिस में पी लो तो ? प्रिन्स : ठीक है। मुझे तो कोई प्रोब्लम नहीं है। मुझे तो चाय पीने से मतलब है। फिर मैं घर पर पीऊँ के ऑफिस में। इस प्रकार खुशबू प्रिन्स को अपनी माँ के विरुद्ध भड़काने के प्रयास में सफल हो गई। देखने जाएँ तो यहाँ खुशबू की कोई गलती नहीं थी । मूल में तो सुषमा के टोकने की आदतों ने तथा उसकी शंकित दृष्टि ने ही खुशबू को यह कदम उठाने के लिए मजबूर किया था। सुषमा की यही आदतें उसके भविष्य को खतरे में डालने का काम कर रही थी, परंतु अपने अधिकार के मद में सुषमा यह नहीं जान पाई। दूसरे दिन आदित्य ने चाय के लिए सुषमा को उठाया। डायबिटीज तथा हार्ट प्रोब्लम के कारण आदित्य बाहर की चाय भी नहीं पी सकता था। गुस्से में सुषमा उठ तो गई, परंतु खुशबू के बाहर आते ही वह उस पर बरस पड़ी। सुषमा : (गुस्से में ) खुशबू, तुम्हें कितनी बार समझाना पड़ेगा कि अब तुम किसी के घर की बहू हो ? खुशबू : क्यों मम्मीजी ऐसा मैंने क्या कर दिया ? सुषमा : क्या कर दिया ? लो मैं ही बता देती हूँ। क्या यह तुम्हारे उठने का टाईम है या फिर रुम की घड़ी बंद हो गई थी ? ऑफिस जाने वालों को चाय न मिलने पर लेट हो जाता है। इसलिए अब से समय पर उठने का ध्यान रखो। खुशबू : सॉरी मम्मीजी, रोज 5-5 बजे उठकर मैं थक गई हूँ और वैसे भी प्रिन्स तो चाय ऑफिस में ही पीते हैं। तो मैं बिना वजह इतनी जल्दी उठकर क्या करूँ ? सुषमा : खुशबू, भले ही प्रिन्स ऑफिस में चाय पीता हो लेकिन तुम्हारे ससुरजी का क्या? हार्ट प्रोब्लम होने से वे बाहर की चाय नहीं पी सकते । खुशबू : यह मेरी प्रोब्लम नहीं है मम्मीजी ! यह तो आप जानो और पापा जाने । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (खुशबू का ऐसा जवाब सुनकर सुषमा चौकन्नी रह गई । वह आगे कुछ बोल नहीं पाई। सुषमा को इस प्रकार खामोश देखकर खुशबू ने मौके का फायदा उठाते हुए कहा खुशबू : और हाँ मम्मीजी ! प्रिन्स लेट आने के कारण हम अधिकतर रात को लेट ही खाना खाते हैं या फिर बाहर जाते हैं। इसलिए शाम को खाली आप और पापा का ही खाना बनता है । मुझसे दोदो बार खाना नहीं बनाया जाएँगा । इसलिए बेहतर यही होगा कि आप, आपके और पापा के लिए स्वयं ही खाना बना दें। सुषमा : (डाँटते हुए ) खुशबू ! तुम इस घर की बहू हो, बहू की हदों में ही रहो। महारानी बनने की कोशिश मत करो। खुशबू : आवाज़ धीमी रखिए मम्मीजी ! मैं कोई आपकी नौकरानी नहीं हूँ जो आपकी अँगुलिओं पर नाचती रहूँ। मेरी अपनी जिंदगी है, वह मैं जैसे चाहूँ जी सकती हूँ समझी आप। (इतना कहकर खुशबू अपने कमरे में चली गई। खुशबू को पहली बार इतना बोलते देख सुषमा के आश्चर्य का पार नहीं रहा। उसके बाद तो आए दिन सासु- बहू के बीच बोलचाल होने लगी। पियर में कभी पैसे नहीं देखने के कारण करोड़पति ससुराल में खुशबू के खर्चे सातवें आसमान को छूने लगे और एक दिन-) सुषमा : इतनी तैयार होकर कहाँ जा रही हो ? खुशबू : मैंने मॉम को फोन किया था। उनकी तबियत ठीक नहीं है इसलिए मैं उनसे मिलने जा रही हूँ। सुषमा : कहाँ से किया अपनी मॉम को फोन ? खुशबू : टेन्शन मत लीजिए। आपके फोन से नहीं किया। प्रिन्स ने मुझे अब पर्सनल मोबाईल दे दिया है। (सुषमा कुछ बोले उसके पहले प्रिन्स वहाँ आया) प्रिन्स: अरे खुशबू ! तुम अब तक तैयार नहीं हुई। जल्दी करो । लेट हो जाएगा । सुषमा पर प्रिन्स घर में इतना काम है। आज जाना जरुरी थोड़े ही है। कल परसो चले जाना। : प्रिन्स: मॉम! घर का काम तो जिंदगी भर चलता रहेगा । तो क्या यह कभी पियर नहीं जाएँगी ? चलो खुशबू । (इतना कहकर प्रिन्स और खुशबू वहाँ से चले गये। सुषमा तो बस उन्हें देखती ही रह गई । प्रिन्स शब्दों पर तो उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। प्रिन्स और खुशबू बाज़ार से कई गए 28 द्वारा बोले Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चीज़े लेकर खुशबू के पियर गए। वहाँ से दोनों सीधे शॉपिंग करने गये। ढेर सारी शॉपिंग कर शाम को दोनों घर पर आये। घंटी बजने पर सुषमा ने खुद दरवाज़ा खोला) सुषमा : इतना सब क्या लेकर आए हो? खुशबू : आते समय शो-रुम में अच्छी साड़ियाँ दिखी तो दो-चार खरीद ली। सुषमा : पर खुशबू, अंभी शादी हुए छः महिनें भी नहीं हुए और अभी से शॉपिंग शुरु हो गई। प्रिन्स : क्या मॉम तुम भी? इसके पास ढंग की कोई साड़ी नहीं थी। इसलिए मैंने ही दिलवाई है। सुषमा : पर बेटा ! अभी शादी के मौके पर ही मैंने इसे इतनी सारी साड़ियाँ दी थी। प्रिन्स : मॉम, वे सब पुरानी हो गई है। फेशन के हिसाब से चलना पड़ता है। (अपने बेटे को भी अपने खिलाफ सुनकर सुषमा को गुस्सा आ गया) सुषमा : अपने घर से तो एक फूटी कोड़ी भी लेकर नहीं आई और यहाँ आते ही पैसे उड़ाने शुरु कर दिए। पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं ? खुशबू : मम्मीजी ! मेरे पियर को बीच में लाने की कोई जरुरत नहीं है। आपसे तो पैसे नहीं माँगे ना। मेरा पति कमाता है और मैं खर्च करती हूँ। जिस दिन ये कमाना बंद कर देंगे। मैं आपके पास फूटी कोड़ी भी नहीं माँगूगी। सुषमा ने सोचा था कि खुशबू के ऐसे जवाब पर प्रिन्स जरुर उसे डाँटेगा। परंतु प्रिन्स बिना कुछ बोले खुशबू के साथ अपने कमरे में चला गया। यह देखकर सुषमा को गहरा झटका लगा। उसे अपना बेटा अपने हाथों से जाता नज़र आया, और दूसरे दिन तो घर में तहलका मच गया। हुआ यूँ कि प्रिन्स और खुशबू दोनों दूसरे दिन फिर खुशबू के पियर गये तथा वहीं से दोनों घूमने चले गए। शौक से खुशबू पियर से जिन्स पहनकर गई। संयोगवश सुषमा अपनी कुछ सहेलियों के साथ उसी स्थान पर आई और उसने खुशबू को देख लिया। घूम-फिरकर खुशबू वापस पियर जाकर कपड़े बदलकर ससुराल आई। खुशबू के आते हीसुषमा : खुशबू ! घर की मर्यादा का ख्याल भी है या नहीं? प्रिन्स : क्यों मॉम ! आज फिर क्या हो गया? सुषमा : शादी के बाद ऐसे कपड़े पहनकर बाहर जाना हमारी खानदानी मर्यादाओं के खिलाफ है। खुशबू : मर्यादा ! किस मर्यादा की बात कर रही है आप? आपको यह खानदानी मर्यादा उस वक्त याद नहीं आई जब आपकी बेटी डॉली घर से भागकर गई थी? यदि उसे भी मेरी तरह मर्यादा सिखाई होती तो आज आपको यह दिन देखना नहीं पड़ता। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आवाज़ सुनते ही आदित्य भी अपने कमरे से हॉल में आ गया। खुशबू की बात सुनकर सुषमा रोने लगी।) आदित्य : यह क्या हो रहा है? खुशबू : मैं आपकी बेटी की तरह आवारा लड़कों के साथ गुलछर्रे उड़ाने नहीं गई थी। अपने पति के साथ ही घूमने गई थी, समझी। आदित्य : प्रिन्स ! इसे चुप रखो। प्रिन्स : सही तो बोल रही है। क्या गलत कह दिया इसने? सुषमा : प्रिन्स ! शर्म आनी चाहिए तुम्हें ऐसी बात बोलते हुए। क्या तुम भूल गये कि डॉली तुम्हारी सगी बहन है? बरसों तक जिस बहन के साथ तू खेला-कूदा आज इसके आने पर तू उस बहन को भूल गया। कल की आई हुई ये, तेरी बहन के बारे में ऐसी बात करें और तुम चुपचाप सुन रहे हो। प्रिन्स : नहीं सुनूँ तो और क्या करूँ? काम ही उसने कुछ ऐसे किए है। खुशबू : कितना भी करो मम्मीजी ! सच्चाई कडवी ही होती है। किस-किस का मुंह बंद करवाओगी आप? सुषमा : खबरदार ! यदि इसके आगे किसी ने डॉली के बारे में कुछ भी कहा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। वह मेरी बेटी है। उसे जैसे जीना है वह जी रही है। तुम्हें उसमें बीच में बोलने की कोई जरुरत नहीं है। खुशब : वो यदि आपकी बेटी है तो मैं भी किसी की बेटी हूँ। जब वो अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जी सकती है तो मैं भी अपनी जिंदगी भली-भाँति जीना जानती हूँ। प्रिन्स : हाँ मॉम ! खुशबू बिल्कुल ठीक कह रही है। यही तो हमारे घूमने फिरने की उम्र है, आज तो खुशबू ने बाहर ही जिन्स पहना है। कल को शायद इसकी इच्छा हो तो घर पर भी पहन सकती है। इसलिए बेहतर यही होगा कि आप लोग आपके यह पुराने ख्यालात छोड़ दे या फिर अपने लिए अलग घर ढूँढ लें। अन्यथा मैं आप लोगों की वृद्धाश्रम में व्यवस्था करवा देता हूँ। यदि आपको इस घर में खुशी से रहना है तो आप अपनी जीभ को अब आराम दीजिए। यह मेरी लास्ट वॉर्निंग है। प्रिन्स की बात सुनकर आदित्य और सुषमा सन्न रह गए। सुषमा के अरमानों का महल एक झटके में टूट गया। वृद्धाश्रम का नाम सुनते ही सुषमा की आँखों के सामने स्वयं के दुःखद भविष्य के चित्र तैरते नज़र आने लगे। सुषमा के हृदय में यह डर बैठ गया कि यदि सचमुच प्रिन्स ने उसे घर से बाहर Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकालकर वृद्धाश्रम में भेज दिया तो उसका क्या हाल होगा ? वह द्वंद में फँस गई। वह न तो अपनी बहू को इतना स्वतंत्र देख सकती थी और ना ही अपने बेटे को छोड़कर वृद्धाश्रम में रह सकती थी। डॉली के जाने के बाद तो सुषमा के जीने का एक मात्र सहारा प्रिन्स ही था। हर माँ की तरह वह भी प्रिन्स से बुढ़ापे में सहारे की अपेक्षा रखती थी, परंतु अपने बेटे को इस तरह अपनी पत्नी के पीछे पागल देख उसकी सारी आशा निराशा में बदल गई। यदि हम खुशबू की बात करें तो भूतकाल में शादी से पहले उसने ऐसे अरमान सजाए थे कि उस घर में वह इतने प्रेम से रहेगी कि घरवालों को कभी डॉली की याद तक नहीं आएँगी। अतः वह तो इस घर में बेटी बनकर रहने की इच्छा से ही आई थी। परंतु सुषमा के बर्ताव ने आज उसे जानबुझकर डॉली का जिक्र करने तथा उसके विरुद्ध बोलने के लिए मजबूर कर दिया। यहाँ सुषमा को अब एक ऐसे सहारे की जरुरत थी जो उसे सही राह बता सके। जो उसकी बहू को समझाकर उसे वृद्धाश्रम जाने से बचा सके। ऐसे में उसे अपनी पुरानी सहेली जयणा की याद आई और वह तुरंत जयणा के घर पहुँच गई। बहुत दिनों के बाद सुषमा को देखकर जयणा आश्चर्य में पड़ गई जयणा : अरे सुषमा तुम ! आओ-आओ बहुत दिनों के बाद आना हुआ ? कैसी हो ? सुषमा : एकदम ठीक हूँ जयणा । तुम कैसी हो ? जगणा : देव-गुरु की कृपा से एकदम शाता में हूँ। आओ बैठो। - सुषमा जब जयणा के घर आ रही थी तब एक पल के लिए तो उसे बहुत संकोच हो रहा था कि वह जयणा से कैसे बात करेगी? परंतु जयणा के प्रेम भरे व्यवहार को देखकर सुषमा का दिल थोड़ा हल्का हो गया। इतने में जयणा की बहू दिव्या वहाँ आई दिव्या : प्रणाम आन्टीजी ! कैसी हो आप ? (दिव्या अंदर से पानी लेकर आई ) दिव्या : यह लीजिए आन्टीजी । अब पहले आप यह बताईये कि आप क्या लोगी चाय या शरबत ? सुषमा : नहीं बेटा, कुछ नहीं । दिव्या : नहीं आन्टीजी, ऐसा कैसे हो सकता है? आप इतने दिनों बाद हमारे घर आई हो। आपको मेरे हाथों से कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ेगा। सुषमा : ठीक है बेटा ! तुम इतना ही कह रही हो तो आधी कप चाय बना लो। ( थोड़ी देर बाद दिव्या चाय और नाश्ता बनाकर ले आई और सुषमा के आगे टेबल पर रख दिया और खुद जहाँ जयणा सोफे पर बैठी थी, वहाँ उसके पास जमीन पर जाकर बैठ गई। जैसे ही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्या नीचे बैठी वैसे ही सुषमा की आँखों से धड़-धड़ आँसू बहने लगे। तब दिव्या यह सोचकर अंदर चली गई कि जरुर आन्टीजी अपने मन की कोई बात मम्मीजी को कहने आई होगी। अतः मेरा यहाँ बैठना उचित नहीं है।) जयणा : अरे सुषमा ! क्यों रो रही हो ? क्या बात है? क्या हुआ सुषमा ? क्या डॉली की याद आ गई? सुषमा : (बड़ी मुश्किल से अपने आप को रोकते हुए) जयणा । मैं अब तक दो बार तुम्हारे घर समाधान लेने आई और दोनों ही बार तुम्हारे घर के वातावरण को देख अपनी आँखों से आँसुओं को रोक नहीं पाई। जयणा : क्यों सुषमा, ऐसा क्या हो गया ? सुषमा : जयणा, पहली बार मैं डॉली के लिए आई थी। तब मोक्षा के विनय ने मेरी आँखों में आँसू लाएँ और आज दिव्या के विनय को देख मुझे रोना आ गया। जयणा : सुषमा ! तुम बहुत ही टेन्शन में दिख रही हो। दिल खोलकर बताओ क्या हुआ? सुषमा : जयणा, डॉली के जाने के बाद मेरा एक मात्र सहारा था मेरा बेटा प्रिन्स। कई अरमान सजाकर बड़ी धूम-धाम से उसकी शादी करवाकर बहू को घर लाई थी। परंतु आज मेरे बेटे और बहू ही मुझे घर से बाहर निकालने के षड़यंत्र रच रहे हैं। (इतना कहकर सुषमा ने शुरुआत से लेकर प्रिन्स की धमकी तक की सारी बात जयणा को बता दी। ) सुषमा : जयणा ! तुम ही बताओ क्या कमी रखी मैंने प्रिन्स को प्यार देने में? प्रिन्स की गलती होने पर भी हमेशा डॉली को डाँटा। प्रिन्स के लिए कभी उसके पापा के साथ तो कभी डॉली के साथ झगड़ा किया। पर कभी प्रिन्स पर आँच भी नहीं आने दी। वही प्रिन्स जो मेरी हर बात मानता था, कभी मेरे सामने भी बोलना नहीं जानता था। वह आज अपनी पत्नी के बहकावे में आकर मुझे वृद्धाश्रम में भेजने की बात कर रहा है। तो सोचो वह खुशबू कैसी होगी? सोचा था कि खुशबू के आने के बाद मैं घर की जवाबदारियों से निवृत्त हो जाऊँगी, पर वह खुशबू तो मुझे घर से ही निवृत्त करने की ताक में है। मात्र सात दिनों में उसने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया। अब तुम ही खुशबू को कुछ समझाओ जयणा। जयणा : सुषमा ! यदि उसकी कोई गलती हो, तो मैं उसे कुछ समझाऊँ ना ? जब उसकी कोई गलती - ही नहीं है तो उसे कहकर क्या फायदा? सुषमा : क्या? यह क्या कह रही हो जयणा? इतना सब सुनने के बाद भी तुम यह कह रही हो कि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुशबू निर्दोष है? जयणा डॉली के मामले में तो मैं मानती हूँ कि मेरे ही संस्कारों में कमी थी, जिससे मुझे ऐसे दिन देखने पड़े। पर जयणा, खुशबू तो किसी और घर से संस्कारित होकर आई है तो क्या मेरे घर आने के बाद उसके सारे संस्कार चले गए। उसकी गलतियाँ तो छोड़ो जयणा, उसने मुझे वृद्धाश्रम भेजने तक का कह दिया और उसके बाद भी तुम यह कह रही हो कि गलती उसकी नही है तो क्या मैं गलत हूँ? जयणा : हाँ सुषमा, तुम गलत हो। माना कि उसने भी कुछ गलतियाँ की है, परन्तु उन सबके मूल में तो तुम ही हो। तुमने उसे ऐसी गलतियाँ करने पर मजबूर कर दिया। देखो मैं समझाती हूँ। सबसे पहली गलती तो तुमने खुशबू से तरह-तरह की अपेक्षा रखकर की है। तुमने मुझे बताया कि तुमने कई अरमान सजाए थे जैसे कि खुशबू के आते ही मैं घर से निवृत्त हो जाऊँगी सारा काम बहू कर लेगी। और जब तुम्हारे अरमानों को खुशबू पूरे नहीं कर पाई तब तुमने उसके साथ गलत व्यवहार किया। पर तुमने कभी इस बात पर गौर किया कि इस घर में आने से पहले वो क्या-क्या अरमान सजाकर आई थी? क्या तुमने उसके सपनों को पूरा करने की कोशिश की? पूरा करना तो छोड़ो तुमने तो उन्हें जानना भी जरुरी नहीं समझा। सुषमा : जयणा, तुम किन सपनों की बात कर रही हो? मैं कुछ समझी नहीं। जयणा : तुम उस दिन की बात ही देख लो। जिस तरह तुमने बहू से चाय बनाने की अपेक्षा रखी तो क्या वह लेट उठने पर भी तुम्हारे प्रेम की अपेक्षा नहीं रख सकती? उसने तुमसे कहा भी था कि कल मैं बहुत लेट सोई थी इसलिए उठने में देरी हो गई। उसने तुम्हें अपना मानकर सोचा होगा कि अब तो मैं नयी-नयी आई हूँ, मॉम मुझे कुछ नहीं कहेगी। परंतु तुमने तो आते ही उस पर कर्तव्यों का बोझ डाल दिया। सुषमा : जयणा मैंने उसे उसके कर्तव्य बताकर क्या गलत किया? जयणा : गलत तो नहीं किया। परंतु तुमने बहुत जल्दी कर दी। यही यदि कुछ समय तक तुमने उसे मात्र प्रेम दिया होता तो तुम्हें उसे यह सारी बात बताने की जरुरत ही नहीं पड़ती। तुम्हारे प्रेम से वह सारी बातें अपने आप सीख लेती। सुषमा, नई बहू को तो नवजात शिशु की उपमा दी है। क्या तुम नवजात शिशु से तुरंत ही चलने की, बोलने की, काम करने की अपेक्षा रख सकती हो ? नहीं ना। तुम उसे सिखाओगी, उसका ध्यान रखोगी, उसे प्रेम दोगी। यदि फिर भी न सीखे तो तुम उस पर गुस्सा न करके उससे और ज्यादा प्रेम करोगी। बस, यही बात बहू पर भी लागू होती है। 20-20 वर्ष तक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने माता-पिता तथा परिवार जनों के प्रेम में पली बड़ी लड़की, अपने पूरे परिवार को छोड़कर पराये घर आती है। माता-पिता के घर को छोड़कर अनजाने घर में रहना कितना कठिन है। फिर भी लड़की इतना बड़ा त्याग कर अपने ससुराल आती है। तब तो उसे संतान से भी अधिक प्रेम देना चाहिए। क्योंकि ससुराल में जाना तो उसके लिए नया जन्म लेने जैसा है। शुरुआत में तो वात्सल्य निधि बनकर वात्सल्य से पुत्रवधू का निर्माण करना चाहिए। बहू के पियर में रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन सब कुछ अलग होता है और अब नए परिवार में रहने में नए रीति-रिवाजों को समझने में, उसके अनुसार चलने में समय तो लगता ही है और उसके साथ जरुरत होती है सासु के प्रेम की। सुषमा तुमने उसे तो उसके कर्तव्यों से अवगत कराया पर क्या कभी अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान दिया ? सुषमा : जयणा, मेरे क्या कर्तव्य है? बहू के आने पर तो सास कर्तव्यों से मुक्त हो जाती है। तुम अपने आपको ही देख लो, तुम कितनी फ्री हो क्योंकि तुम्हारी बहू भली-भाँति अपने कर्तव्यों का पालन करती है। उसके लिए तुमने कौन से कर्तव्य निभाये? जयणा : मैं तुम्हें मेरे उदाहरण से ही समझाती हूँ कि -आज बहू को इतना योग्य बनाने में मैंने अपने कर्तव्यों का किस तरह पालन किया? इससे तुम्हें तुम्हारे सारे प्रश्नों का समाधान मिल जाएँगा। दिव्या नयी-नयी थी तब उसके अनुकूल वातावरण बनाने के लिए मैं अधिक से अधिक समय उसके साथ रहती। उसे काम-काज सिखाती। घर के रीति-रिवाजों से परिचित करवाती। शुरुआत में तो जो उसकी प्रिय वस्तु थी वही घर में बनती, पर साथ ही घर के लोगों की प्रिय वस्तुओं की जानकारी भी उसे देती। कपड़ों में उसके चोईस को हमेशा बढ़ावा दिया और घर के लोगों की पसंद से भी उसे अवगत करवाया। अड़ोस-पड़ोस के लोगों से उसका परिचय करवाया। उनके स्वभाव की जानकारी तथा उनसे काम कैसे लेना, इस विषय में उसे समझाया। उसकी सहेलियाँ या पियर से कोई भी आता तो उनके साथ बैठने के लिए उसे पूरा समय देती। जिससे सभी खुश होकर जाते। इतना ही नहीं शादी के बाद कुछ महिनों तक तो मैं समय-समय पर उसे पियर भेजती। ताकि पियर से जब वह ससुराल आए तो खुश ही रहे। उसकी पसंद के अनुकूल माहौल खड़ा किया। मेरा इतना प्रेम मिलने पर बहू ने भी अब अपने कर्तव्यों को, अपनी जवाबदारियों को अपना समझा। अपनी कार्य कुशलता से घर के सभी लोगों का दिल जीत लिया। अब अपने आपको वह इस परिवार का महत्त्वपूर्ण अंग समझती है। मैंने छः महिनें अपने अरमानों को छोड़कर उसके अरमानों को मुख्यता दी, परिणाम स्वरुप आज मैं आराम से जहाँ चाहुँ जा सकती हूँ जो चाहुँ वह कर सकती हूँ। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषमा : जयणा ! तुम मेरी बात ठीक तरह से समझी नहीं। लड़की 20-20 साल तक पियर रहकर आती है। यह तो सभी को पता ही है कि बेटियाँ पराया धन होती है, और इसी के अनुसार माँ अपनी बेटी को संस्कार देती है। बेटी ससुराल जाएँगी ऐसा सोचकर माँ उसे घर-गृहस्थी का सारा काम सिखाती है। उसे कैसे रहना, कैसे बोलना सब कुछ सिखाती है। यानि कि लड़की पूरी तरह संस्कारित होकर ही ससुराल आती है तो फिर उसके पीछे वापस इतना समय बर्बाद क्यों करना। शुरुआत के छ: महिने दिव्या के साथ बिताकर तुम कितनी ही धर्माराधना नहीं कर पाई होगी। अपने कितने ही कार्यों को गौण किया होगा? अतः मेरा प्रश्न तो यही है कि जब बहू पियर से ही सब कुछ सीखकर आती है तो वापस अपनी सासु से वही सब सीखने की अपेक्षा क्यों रखती है? जयणा : नहीं सुषमा ! तुम जो सोच रही हो वैसा नहीं है। नई-नई बहू नए घर में आती है तब वह अंदर ही अंदर बहुत डरकर रहती है। एक तो नया वातावरण, नए लोग और उस पर गलती होने पर डाँटे जाने का, अपनी प्रेस्टिज कम होने का या फिर पियर का नाम खराब होने का भय। ऐसी स्थिति में सासु को प्रेम द्वारा उसे सहानुभूति देकर उसे अपना बनाना चाहिए। सुषमा, बहू चाहे तो खाना बनाने में कितनी भी होशियार क्यों न हो, ससुराल में आने के बाद उसके मन में इतना डर होता है कि वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर ही बैठती है। या तो नमक ही नहीं डालती या फिर डबल डाल देती है। ऐसा होना स्वाभाविक है। . तुम अपने भूतकाल को ही देख लो। ससुराल आने पर तुम्हारी भी कुछ ऐसी ही दशा थी। ऐसे में काम तो उसे सब आता ही है यानि कि बहू को काम सिखाना यह सासु का कर्तव्य नहीं हैं। परंतु प्रेम देकर उसके भय को दूर कर अपनापन महसूस करवाना यह सासु का कर्तव्य है। इसके बदले तुमने उसे प्रेम देना तो दूर पर उसकी मेहंदी का रंग उड़ने से पहले ही सारे घर का भार उसके नाजुक कंधों पर डाल दिया। क्या तुमने उसे कभी प्रेम से बिठाकर पूछा कि, बेटा ! कहीं तुम्हें अपनी माँ की याद तो नहीं आती है ना? ऐसा पूछना तो दूर तुमने तो उसे अपनी मॉम से बात भी नहीं करने दी। अब तक तो वह अपने माता-पिता को भूली नहीं थी और तुमने तो हमेशा-हमेशा के लिए पियर से उसका संबंध तोड़ने की कोशिश की। सुषमा ! माना कि उसने जिन्स पहना, लेकिन उसे इतनी तो शर्म थी कि वह तुम्हारे सामने पहनकर नहीं आई। तुम चाहती तो यही बात उसे प्रेम से समझा सकती थी। पर तुमने प्रेम देने के बदले उसे डाँटा और उसे नीचा दिखाने के लिए तुमने गलत राह अपनाई। अपनी बेटी डॉली का पक्ष लिया, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो फिर वह बिचारी चुप कैसे रह सकती थी ? उसके अरमान तो यही रहे होंगे कि मैं सबको अपना बना लूँगी, परंतु तुम्हारा व्यवहार हमेशा उसे परायेपन का एहसास दिलाता रहा । तुम्हारे बर्ताव ने उसके मन में फिट बैठा दिया कि यहाँ सब पराये हैं। सब मेरे दुश्मन हैं। तुमने व्यवहार परायों जैसा रखा और अपेक्षा अपनों से भी अधिक रखी। डॉली तुम्हारे साथ 20 साल तक रही, पर उसने कभी तुम्हें चाय बनाकर देना तो दूर पानी का ग्लास भी भरकर दिया था ? नहीं ना । जब तुम्हारी बेटी से तुम्हें अपेक्षा नहीं थी तो घर में आई अपनी नई बहू से तुम इससे बड़ी अपेक्षाएँ कैसे रख सकती हो ? और उसे बेटी की तरह प्रेम देने के बदले सदैव उसे टोका, उसके साथ खराब व्यवहार किया। उस पर नियंत्रण रखे। यह कहाँ का न्याय है ? सुषमा : जयणा, डॉली के जाने के बाद मुझे डर था कि आनेवाली बहू कहीं प्रिन्स को बहकाकर मुझसे दूर न कर दे। डॉली को मैंने खूब प्रेम दिया। नतीजा, वह मुझे ही धोखा देकर चली गई। मुझे बहू के संबंध में भी यही डर था। इसलिए मैं उसे कहीं बाहर नहीं भेजती थी। मैं उसे पियर इस डर से नहीं भेजती थी कि कहीं अपनी माँ के बहकावे में आकर वह मेरे बेटे को मुझसे दूर न कर दे। डॉली पर नियंत्रण न रखा, इसलिए अंत में मुझे पछताना पड़ा। अतः सावधान बनकर मैंने पहले से ही खुशबू पर नियंत्रण रखना शुरु किया तो मैंने क्या गलत कर दिया ? जयणा: सुषमा ! तुमने बेटी की तरह उस पर नियंत्रण रखा, पर क्या बेटी की तरह उसे वात्सल्य दिया? बेटी जैसा प्रेम दिया ? बेटी मानकर उसकी भूलों को माफ करने की कोशिश की? नहीं, मात्र अपने अधिकारों का उपयोग किया परंतु कभी अपने कर्तव्यों का पालन किया ? तुम कह रही हो कि नियंत्रण रखकर तुमने कोई गलती ही नहीं की। अरे ! यही तो तुम्हारी सबसे बड़ी गलती थी। सुषमा ! नियंत्रण बच्चों पर लगा सकते है बहूओं पर नहीं। उन्हें तो स्वतंत्र ही रखना चाहिए। साथ ही वे कहीं स्वच्छंद न बन जाए। इसका पूरा-पूरा ध्यान भी रखना चाहिए। तुम ही बताओ, प्रिन्स जब छोटा था। वह तुम्हारी अँगुली छोड़कर जब पहली बार चला तब तुम्हें कितनी खुशी हुई थी। जब पहली बार उसने तुम्हें मॉम कहकर पुकारा तब तुम्हारी खुशी का कोई पार नहीं था। धीरे - धीरे वह बड़ा हुआ । अपने आप स्कूल जाने लगा, कॉलेज गया और आज अपने पैरों पर खड़ा हो गया है। इस प्रकार जीवन की प्रत्येक सीढ़ी में वह जितना स्वतंत्र होता गया उतनी ही तुम्हें खुशी होने लगी। लेकिन साथ ही वह स्वच्छंदी न बन जाएँ इसका तुमने पूरा ख्याल रखा। उसे चलना सिखाया? परंतु वह चलकर कहीं गलत रास्ते पर न जाएँ इसका तुमने ध्यान रखा। वह अपने आप Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कूल जाने लगा। तब तुम्हें खुशी हुई परंतु वह स्कूल का नाम लेकर कहीं और तो नहीं जाता? इसकी तुमने सावधानी रखी। बस इसी प्रकार तुम्हें बहू के विषय में करना था। तुम्हें उसे बाहर भेजना था पर बाहर वह खराब लोगों के संबंध में तो नहीं जा रही, इसका ध्यान तुम्हें रखना चाहिए था। तभी तुम सच्चे अर्थ में सासु से माँ बन सकती थी। परंतु तुमने तो उस पर पूरा ही नियंत्रण रख दिया। तुम्हारा आशय अच्छा था परंतु पद्धति बिलकुल गलत थी। फलस्वरुप तुम्हारा बेटा भी तुम्हारे हाथ से चला गया। (कुछ समय के लिए सुषमा सोच में पड़ गई।) जयणा : क्या सोच रही हो सुषमा ? क्या मैंने जो कहा उसे तुम स्वीकार करती हो? सुषमा : सचमुच, अब मुझे अपनी गलतियों का एहसास होने लगा है। अब मुझे ऐसा लग रहा है कि गलती खुशबू की नहीं मेरी है। अब मैं क्या करूँ ? खुशबू के दिल में मेरे प्रति जो परायेपन की भावना बैठ गई है उसे कैसे दूर करूँ? जयणा सगाई के बाद एक बार खुशबू ने मुझे कहा भी था कि मम्मीजी मैं आपके घर में आपकी बेटी बनकर रहना चाहती हूँ। मेरी कोशिश तो यही रहेगी कि मेरे आने के बाद आपको कभी भी डॉली की याद न आए। परंतु मेरे नियंत्रणों ने उसके सारे अरमानों को चूर-चूर कर दिया। जयणा : सुषमा तुम्हें अपनी गलती का एहसास हो गया यही बहुत बड़ी बात है। सुषमा, जिस व्यक्ति से हमें अपेक्षा नहीं होती वह यदि हमें थोड़ा भी प्रेम दे तो हमें ज्यादा आनंद मिलता है। भाई, बहन, माँ, सहेली यहाँ तक की पति का ढेर सारा प्यार पाने के बाद भी यदि बहू को सासु का थोडा भी प्यार मिल जाए तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। फिर तो वह जहाँ जाती है। अपनी सासुमाँ की ही प्रशंसा करती है। ऐसी स्थिति में बेटा भी माँ के चरणों में ही रहता है। ससुराल में बहू के लिए पति से भी ज्यादा सासु उपयोगी बनती है। लेकिन यह बात समझने में आजकल की सासुएँ मार खा जाती है, सासुएँ बेटी से तो दिल से व्यवहार करती है और बहू के साथ व्यवहार करने में दिमाग का उपयोग करती है। सासुएँ यह नहीं सोचती कि बेटी तो एक दिन हमें छोड़कर ससुराल चली जाएँगी और हमें अपनी पूरी जिंदगी बहू के साथ ही गुजारनी है। अतः यदि वे बहू के साथ भी दिल से व्यवहार करें तो उनका घर खुशियों से भर जाएंगा। सुषमा : जयणा ! यह दिल और दिमाग का व्यवहार में कुछ समझी नहीं। जयणा : सुषमा ! मैं तुम्हें एक दृष्टांत से समझाती हूँ, तुम्हें जल्दी समझ में आ जाएँगा। दो सहेलियाँ मिली। तब एक ने पूछा, “बेटे की नयी-नयी शादी हुई है बहू कैसी हैं?" बहु का नाम सुनते ही चेहरा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिगाड़ते हुए दूसरी सहेली ने अपनी बात शुरु की, “हे भगवान ! न जाने कैसे कर्म किए है जो ऐसी बहू गले पड़ी है। माँ बाप ने संस्कार तो दिए ही नहीं है, सात बजे तो महारानीजी उठती है और आठ बजे तक नीचे आती है। भगवान जाने कमरे में क्या करती है? फिर आठ बजे नीचे आकर सीधे भगवान के दर्शन कर रसोई घर में नाश्ता करने जाती है। केसर-बादाम वाला दूध और इलायची वाली कड़क चाय और नाश्ते में भी तरह-तरह की आईटम के बिना तो उसे चलता ही नहीं है। वहाँ से वह धर्म की पूछड़ी नहा-धोकर सीधे पूजा करने जाती है। कोई म.सा. हो तो व्याख्यान में जाएँ बिना तो वह रह ही नहीं सकती। तीन-चार घंटे बाद पूजारिन घर आती है और फिर बर्तन बजा-बजाकर बताने की कोशिश करती है कि मैं काम कर रही हूँ। फिर थाली लेकर बैठ जाती है, मिठाई और नमकीन के साथ भर पेट खाना खाने के बाद किसे नींद न आए ? खाने के बाद एक घंटा सो जाती है और उठते ही कड़क चाय पीकर काम करना न पड़े इसलिए सामायिक करने बैठ जाती है। उठकर बाज़ार में जाती है। और आते ही फिर खाना खाने बैठ जाती है। फिर शाम को मुझे मस्का मारने आ जाती. है। कहती है, कैसी हो मॉम ? तबीयत तो ठीक है ना? कोई भी काम हो तो मुझे जरुर कहना और फिर पहुँच जाती है मेरे बेटे के पास। पता नहीं क्या जादू कर दिया है मेरे बेटे पर कि वह भी उसकी ही तारीफ करता है।" तब पहली सहेली ने जले पर नमक छिड़कते हुए कहा, “अरे रे ! यह तो बहुत बुरा हुआ। आजकल तो जमाना ही खराब है, अच्छा यह बताओ तुम्हारी बेटी कैसी है? ससुराल में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है ना?" बेटी का नाम सुनते ही उसके चेहरे पर चार चाँद खिल गये, वह कहने लगी - “अरे ! क्या कहुँ तुझसे, भवो-भव के पुण्य के फल के रुप में ऐसा ससुराल मिला है। खानदानी परिवार है, पैसेवाले है अतः नौकरों की कोई भी कमी नहीं हैं। मेरी बेटी आराम से आठ बजे तक उठती है और फिर भगवान के दर्शन कर सीधे नाश्ता करने जाती है। पैसे वाले है और बड़ा परिवार है। इसलिए इलायची वाली चाय, केसर बादाम वाला दूध और दो चार नाश्ते तो रोज ही बनते हैं। फिर वह नहाधोकर मंदिर जाती है। मैंने उसे कितने सुंदर संस्कार दिए है कि मंदिर गए बिना और गुरु महाराज के प्रवचन सुने बिना तो उसे चैन ही नहीं पड़ता। अतः तीन चार घंटे तो मंदिर में हो ही जाते हैं। वहाँ से रसोई में थोड़ी बहुत मदद करवाकर सब खाना खाने बैठते हैं। इतना बड़ा परिवार हैं, सब हिलमिल कर खाना खाते हैं। उसकी सासु तो उस पर इतनी खुश है कि कई बार तो अपने हाथों से खिलाती है। पैसे वाले है इसलिए रोज नए-नए मिष्टान्न बनते हैं। फिर दोपहर को कुछ भी काम नहीं होने से एक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डेढ़ घंटे सो जाती है। मेरी बेटी के संस्कारों के बारे में तो क्या कहुँ ? नित्य एक सामायिक तो उसका ।। नियम है और ससुराल में जाकर भी उसने इस नियम को कायम रखा है। सोकर उठने के बाद वह एक सामायिक कर लेती है। सामायिक करके मार्केट चली जाती है सब्जी खरीदने। वहाँ से आकर रसोई में काम करवाकर वापस सब खाना-खाने बैठ जाते हैं। रात्री भोजन तो उसने जिंदगी में कभी किया ही नहीं। फिर शाम को अपनी सासु के पैर दबाने बैठ जाती है। उसकी सासु तो उसकी प्रशंसा करते नहीं थकती।” बोलो सुषमा मेरा दृष्टांत सुनकर तुम्हें क्या महसूस हुआ। बेटी-बहू दोनों की दैनिक क्रिया एक जैसी। लेकिन बेटी होने से वह जो भी करे अच्छा लगता है और बहू होने से वही काम पसंद नहीं आया। सुषमा : हाँ ! जयणा तुम्हारी बात बिल्कुल सही है। मुझे पता था कि डॉली ने जो किया वह गलत था फिर भी मैंने उसी का पक्ष लिया और बहू बिचारी निर्दोष होने पर भी मैंने उससे गलत व्यवहार किया। मैंने बेटी के साथ दिल का और बहू के साथ दिमाग का प्रयोग किया। जयणा अब मैं अपनी यह भूल सुधारना चाहती हूँ। तुम मुझे मार्गदर्शन दो कि मुझे अब क्या करना होगा? जयणा : सुषमा ! आज तक तुमने उसके साथ सासु जैसा व्यवहार किया। बस, अब तुम उसकी सासुमाँ बन जाओ। देखना तुम्हारा व्यवहार तुम्हारी बहू को भी बेटी बना देगा। तुम उसे अपनी बेटी से भी अधिक प्रेम दो, उसे समय-समय पर पियर भेजो, घूमने भेजो। वह काम करने आए तब कहा करो, "बेटी अब तो तुम्हारे घूमने-फिरने के दिन है। काम तो तुम्हें जिंदगी भर करना ही है।" बेटे के सामने अपनी बहू की, उसके काम की ,उसके खाने की प्रशंसा करो। हाथ खर्चे के लिए उसे आगे से पैसे दो, उसके पियर वालों से भी अच्छे संबंध रखो। देखना सुषमा, तुम उसे प्रेम दो और बदले में वह तुम्हें प्रेम न दे, यह तो हो ही नहीं सकता। सुषमा, “जे पडावे बहूनी आँखमां आँसू अनु नाम सासु" इस कहावत को अपने जीवन में सार्थक मत होने देना। सुषमा : जयणा ! मैं तुम्हारी कही हुई सारी बातों को अमल करने की पूरी कोशिश करूँगी। जयणा : सुषमा ! एक मुख्य बात तुम तुम्हारी बहू को इतना प्रेम दोगी तो वह निश्चित ही तुम्हें घर की सारी जिम्मेदारियों से निवृत्त कर देगी। परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि तुम फिर से किटी पार्टियों में तथा शॉपिंग में लग जाओ। सुषमा अब भी सम्भल जाओ। इस प्रकार एशो आराम की जिंदगी का नतीजा तुमने साक्षात् देख लिया है। कही ऐसा न हो कि डॉली की तरह भविष्य में तुम्हारे बेटे और बहू भी तुम्हारे हाथों में न रहे। तुम सुखी बनने की इच्छा रखती हो परंतु सुखी बनने के लिए पुण्य चाहिए Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुण्य प्राप्ति के लिए धर्म करना आवश्यक है। यह अनमोल मानव भव मिला है। अब भी समय है जीवन को धर्म मार्ग में लगाकर सार्थक करो। वर्ना कहीं ऐसा न हो कि आनेवाले भव में तुम्हें मनुष्य शरीर ही न मिले। अतः अब धर्ममय वातावरण में अपना जीवन व्यतीत कर अपनी बहू को भी धर्म में जोड़ो। सुषमा : सचमुच जयणा, आज तक तुमने मेरे हित के लिए जो कुछ भी कहा मैंने हमेशा उसकी अवगणना ही की थी। पंरतु आज मुझे ऐसा लग रहा है कि यदि मैंने तुम्हारी बात मानकर धार्मिक जीवन व्यतीत किया होता और डॉली को भी संस्कार दिए होते तो मुझे कभी भी दुःखी नहीं होना पड़ता। आज से तुम्हारी हर एक हितशिक्षा को जीवन में उतारकर अपने जीवन को सुधारने की पूरी कोशिश करूँगी। जयणा पता नहीं चल रहा कि किन शब्दों में तुम्हारा आभार व्यक्त करूँ। जयणा : सुषमा ! मुझे तुम्हारे आभार की कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे कहे अनुसार यदि तुम धर्म से जुड़ जाओ तो मैं मानूँगी की मेरा कहना सार्थक हुआ। (इस प्रकार हितशिक्षा लेकर सुषमा अपने घर आई। आज उसके चेहरे पर एक अलग ही प्रसन्नता थी तथा हृदय में एक अनोखा आनंद था। यह आनंद हजारों किटी-पार्टियाँ एटेन्ड करने पर भी उसे कभी महसूस नहीं हुआ। घर आकर सुषमा हॉल में बैठकर सोच रही थी कि मैं खुशबू से बात करने की शुरुआत कैसे करूँ? और अचानक मिक्सी में चटनी बनाते समय खुशबू का हाथ मिक्सी की ब्लेड से कट जाने के कारण खून निकलने लगा। दर्द के कारण खुशबू जोर से रोने लगी। एक ओर हाथ कटने का दर्द और दूसरी ओर अभी मॉम आकर चिल्लाएँगी कि देख कर काम नहीं कर सकती थी, इस बात का डर खुशबू के चेहरे पर साफ झलक रहा था। खुशबू के रोने की आवाज़ सुनकर सुषमा तुरंत वहाँ आई।) सुषमा : अरे बेटा ! तुझे तो इतनी लगी है, इतना खून आ रहा है। उठो बाहर चलो। __ (इतना कहकर सुषमा हाथ पकड़कर उसे हॉल में ले गई और डेटॉल के द्वारा उसके हाथ का घाव साफ करने लगी।) सुषमा : बेटा ! बहुत दर्द कर रहा होगा ना? तुम रोओ मत। मैं अभी डॉ. को फोन करती हूँ। (सुषमा ने डॉ. को फोन करके बुलाया तथा जब तक डॉ. न आए तब तक खुशबू के पास ही बैठी रही तथा उसे धीरज देती रही। इतने में डॉ. आ गया और खुशबू के घाव की ड्रेसिंग करने लगाडॉ. : देखिए, घाव ज्यादा होने के कारण तथा खून बहुत बह जाने के कारण इन्हें दस दिनों तक पानी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में हाथ मत डालने दीजिएगा। वर्ना सेप्टीक होने की पूरी संभावना है और यदि सेप्टीक बढ़ गया तो हाथ कटवाना भी पड़ सकता है (इतना कहकर डॉ. वहाँ से चला गया। इतने में खुशबू भी उठकर किचन में जाने लगी। तब) सुषमा : खुशबू बेटा ! कहाँ जा रही हो? खुशबू : मम्मीजी वो चटनी....? सुषमा : अरे चटनी तो मैं अपने आप साफ कर लूँगी। तुम जाओ आराम करो। (खुशबू वहाँ से चली गई। वह तो सोच रही थी कि सासुमाँ ने आज डाँटा क्यों नहीं। डाँटने के बदले आज उनके मुँह से ऐसे मीठे शब्द कैसे निकल रहे है? अचानक अपने सासु के बदले व्यवहार से उसके आश्चर्य का कोई पार नहीं रहा। चार दिन तक तो सुषमा ने खुशबू को थोड़ा भी काम नहीं करने दिया। यदि खुशबू किचन में आ भी जाती तो सुषमा उसे प्रेम से वापस आराम करने भेज देती। यहाँ तक कि शाम का खाना अपने लिए अलग बनाकर फिर रात को जब प्रिन्स घर आता तब प्रिन्स और खुशबू के लिए अलग से जो खुशबू को पसंद होता वैसा गरमा गरम खाना बनाकर देती।) (एक दिन अचानक खुशबू का भाई केतन उसे मिलने आया) खुशबू : अरे, भैया आप यहाँ कैसे? केतन : खुशबू ! पहले यह बताओ तुम्हारी तबियत कैसी है, घाव भर गया या नहीं? खुशबू : तुम्हें कैसे पता चला? .. केतन : तुम्हारी सासुमाँ ने ही बताया और उन्हीं के कहने पर मैं तुम्हे लेने आया हूँ। (केतन की बात सुनते ही खुशबू सोच में पड़ गई। इतने में सुषमा वहाँ आई।) सुषमा : अरे केतन बेटा ! तुम कब आए? आओ बैठो। (इतना कहकर सुषमा केतन के लिए पानी लेकर आई। खुशबू तो मात्र आँखे फाड़कर सब देखती ही रह गई।) केतन : आन्टीजी ! मैं खुशबू को लेने आया हूँ। सुषमा : अरे, हाँ बेटा ! खुशी से ले जाओ (खुशबू की ओर) जाओ बेटा दो-चार दिन रहकर आओ। खुशबू : मम्मीजी ! क्या आपने भैया को फोन करके बुलाया है ? सुषमा : हाँ बेटा, मैंने सोचा कि तुम ससुराल रहोगी तो छोटा-बड़ा कोई ना कोई काम करती ही रहोगी। रेस्ट मिल पाना मुश्किल है। चार दिन पियर जाओगी तो आराम मिलेगा और जल्दी ठीक हो Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाओगी। अब ज्यादा मत सोचो, जाओ अपनी पैकिंग करो। मैं केतन को चाय देकर तुम्हारी हेल्प करवाने आती हूँ। (इतना कहकर सुषमा किचन में गई और चाय-नाश्ता ले आई) सुषमा : केतन ! तुम चाय-नाश्ता करो। मैं अभी आती हूँ (सुषमा खुशबू के पास गई। ) सुषमा : खुशबू ! यह लो तुम्हारे पियर के लिए कुछ चॉकलेट्स और यह 5 हज़ार रुपये तुम्हारे पास रखो। खुशबू : पर मम्मीजी इन पैसों की क्या जरुरत है? सुषमा : बेटा ! अपने पास रखो, कहीं बाहर जाओ और कुछ पसंद आ जाये तो खरीद लेना। इस प्रकार सुषमा ने खुशबू को पियर भेजकर धीरे-धीरे खुशबू के मन में अपने लिए सद्भाव जगाने की कोशिश करने लगी। वह समय-समय पर खुशबू की तबियत के बारे में पूछने के लिए उसे फोन किया करती। प्रिन्स को भी रोज खुशबू से मिलने के लिए भेजती। इस प्रकार चार दिन बाद खुशबू संपूर्ण स्वस्थ होकर वापस ससुराल आई और आते ही - प्रिन्स : खुशबू तुम्हारे लिए एक बहुत बड़ी खुशखबरी है। . . खुशबू : क्या प्रिन्स? प्रिन्स : यह देखो। (इतना कहकर प्रिन्स ने खुशबू के हाथ में कुछ दिया।) खुशबू : Wow ! हम दोनों के मलेशिया जाने के टिकट्स वो भी पूरे 10 दिनों के लिए। (कुछ देर बाद) पर क्या प्रिन्स आपने मॉम से पूछा? प्रिन्स : अरे खुशबू मैं तो हनीमून की बात ही भूल गया था। यह तो मॉम ने ही मुझे याद दिलाया और मलेशिया जाने की आईडिया दी। (यह सुन खुशबू के आश्चर्य का पार न रहा। प्रिन्स और खुशबू दोनों घूमने गये। अब धीरे-धीरे खुशबू के मन में भी अपनी सासुमाँ के लिए प्रेम जगने लगा। हनीमून से घर आने के बाद अब खुशबू भी एकदम बदल गई। अब वह सुषमा को कुछ भी काम नहीं करने देती थी और अब दोनों के बीच के संबंध भी अच्छे हो गए। इतने में एक और घटना घट गई। जिसके बाद सुषमा और खुशबू के बीच माँ-बेटी जैसे संबंध हो गए। एक दिन -) प्रिन्स : खुशबू । क्या हुआ? क्या ढूँढ रही हो? इतनी टेन्शन में क्यों दिख रही हो? खुशबू : प्रिन्स हमारी शादी में मम्मीजी ने मुझे जो सात हज़ार की नथनी दी थी। वह मिल नहीं रही है। सुबह से ढूँढ रही हूँ। मम्मीजी पूछेगी तो क्या जवाब दूंगी। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रिन्स भी उसके साथ ढूँढने लगा और इतने में सुषमा वहाँ आई।) सुषमा : अरे ! तुम दोनों मिलकर क्या ढूँढ रहे हो? खुशबू : मम्मीजी वो.....वो.. प्रिन्स : मॉम आपने जो शादी में सात हज़ार की हीरे की नथनी दी थी वह मिल नहीं रही है, लगता है खो गई। सुषमा : प्रिन्स गाड़ी निकालो। (ऐसा कहकर सुषमा, प्रिन्स और खुशबू को लेकर ज्वेलर्स शॉप में गई और खुशबू को 16 हज़ार की हीरे की नई नथनी दिलायी। घर आते ही खुशबू ने सीधे अपनी माँ को फोन किया) खुशबू : हेलो माँ, मुझे आपसे भी सवायी माँ मिल गई है। अब आप मेरी चिंता मत करना। इस प्रकार सुषमा के बदलते व्यवहार से खुशबू का भी व्यवहार बदल गया। अपने घर की परिस्थिति को साक्षात् बदलते देख अब सुषमा समय-समय पर जयणा से मिलती तथा उससे सुझाव लेती। वह खुशबू को भी जयणा के यहाँ अकसर ले जाया करती। एक-दूसरे के घर इस तरह आनेजाने से जयणा और सुषमा के साथ-साथ दिव्या और खुशबू भी अच्छी सहेलियाँ बन गई। जयणा और दिव्या समय समय पर सुषमा और खुशबू को धर्म में जोड़ने लगी। इस प्रकार दोनों परिवारों के संबंध अच्छे हो गये। अब सुषमा के घर में नित्य जिनपूजा, आठम-चौदस रात्री भोजन का त्याग, कंदमूल त्याग, सामायिक आदि नियमों का पालन शुरु हो गया। डॉली के जाने के बाद एक लंबे काल के बाद गम के वातावरण में रहने के बाद सुषमा के जीवन में फिर से खुशियाँ आ गई। सचमुच अब सुषमा डॉली को पूरी तरह भूल गई थी। और इन खुशियों को तब बढ़ावा मिला जब खुशबू ने गर्भ धारण किया। अब सुषमा खुशबू के गर्भ के विषय में थोड़ी भी लापरवाही नहीं रखती थी। जयणा को पूछकर उसी अनुसार खुशबू से गर्भ का पालन करवाती थी तथा खुशबू भी अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए अपनी सासुमाँ की हर आज्ञा का खुशी से पालन करती। प्रथम बार गर्भ धारण करने के कारण नौवे महिने में खुशबू के पियर वाले उसे ले गए। अब तो सुषमा हमेशा फोन के इंतजार में रहती थी कि कब फोन आए और उसे दादी बनने की खुशखबरी मिले। इस तरफ जिंदगी के सुख रुपी पहलु देखने के बाद अब डॉली के दुःखी जीवन की शुरुआत हो गई थी। समीर के साथ मिलकर उसने जो सपने संजोए थे, शुरुआत के दिनों में समीर ने वह सपने साकार कर दिखाए। परंतु आखिर सच्चाई नहीं छुपती। धीरे-धीरे समीर की सारी सच्चाई डॉली की नज़रो Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आने लगी और उसी के साथ उसके सपनों का महल गड़बड़ाने लगा। अब क्या होता है डॉली के साथ? क्या वह अपने महल को सम्हाल पाएगी या फिर कोई हवा का झोंका आएगा जो उसके महल को तहस-नहस कर देगा? अपने महल को आधार देने के लिए डॉली ने अपनी माँ से सहायता की अपेक्षा से उन्हें फोन करने के लिए रिसिवर उठाया और खुशखबरी जानने के लिए उत्सुक बनी सुषमा के घर भी फोन की घंटी बज उठी। पर क्या यह फोन खुशबू के पियर से ही है या कहीं ओर से? कहीं यह फोन डॉली का तो नहीं? क्या यह सुषमा के चेहरे पर खुशी लाता है या आँखों में आँसू? क्या यह फोन सुषमा के भूतकाल के दुःखों को फिर से ताज़ा कर देता है या उसके भविष्य को खुशियों से भर देता है? क्या इस फोन से सुषमा के सपनों का महल टूट जाता है या फिर डॉली के। आईये देखते है जैनिज़म के अगले खंड 'टूटा सपनों का महल' में ...... के संस्कारों की नींव RREARSA जैनिज़मके पिछले खंड में आपने देखा कि जयणा द्वारा विरासत में मिली संस्कारों की धरोहर मोक्षा की जिंदगी में कितनी मददगार साबित हुई। इन्हीं संस्कारों के आधार पर मोक्षा ने अपनी सासुमाँ का दिल जीतकर पूरे परिवार में प्रसन्नता के साथ-साथ धर्ममय वातावरण खड़ा कर दिया। इस तरफ मोक्षा के पियर में उसकी माँ जयणा ने अपने प्रेम और वात्सल्य के बल पर दिव्या को बहू से बेटी बना दिया था। जयणा के हँसते-खेलते परिवार में खुशियाँ और भी बढ़ गई जब परिवारजनों को पता चला कि दिव्या माँ बनने वाली है। ___ ससुराल में आने के बाद धर्ममय वातावरण में जुड़ जाने के कारण दिव्या यह जानती थी कि गर्भस्थ शिशु को पूर्ण रुप से संस्कारित करने के लिए गर्भावस्था से ही संस्कार देने चाहिए। अब गर्भ धारण करने के बाद दिव्या के मन में यह जिज्ञासा हुई कि यदि बच्चा सामने हो तो हम उसे संस्कार दे सकते है परंतु गर्भस्थ शिशु को संस्कार किस प्रकार देना? साथ ही अपनी ननंद मोक्षा के जीवन को देखकर दिव्या के मन में भी यही इच्छा थी कि उसकी सन्तान भी मोक्षा की तरह सुसंस्कारित बनकर स्व-पर का कल्याण करें। अपनी इन्हीं शंकाओं और जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने के लिए एक दिन -) दिव्या : मम्मीजी ! यदि आपके पास समय हो तो मुझे आपसे कुछ बात करनी है। जयणा : अरे बेटा ! इसमें समय की क्या बात है? बैठो और बोलो क्या बात है? दिव्या : मम्मीजी ! मोक्षा दीदी के जीवन को देखकर ऐसा विचार आता है कि आपने उन्हें कैसे : Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कार दिए होंगे कि आज ससुराल में भी वे सबकी प्रिय है । मम्मी मेरी भी यह इच्छा है कि भविष्य में मेरी सन्तान भी ऐसी बनें। इसलिए मेरे मन में यह जिज्ञासा है कि गर्भस्थ शिशु को संस्कार किस प्रकार देना ? जयणा : बेटा ! तुम्हारी जिज्ञासा बहुत ही अच्छी है। आज कल तो जन्म के बाद भी माता-पिता को संस्कार देने के विचार नहीं आते और तुम तो गर्भ में रहे हुए बालक को संस्कार देने की बात कर रही हो। तुमने एकदम सही समय पर प्रश्न किया है, क्योंकि गर्भ रुप में रहे हुए जीव पर नौ मास के दरम्यान माता की छोटी से छोटी हलचल का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इसी के आधार पर कोई भगवान बनता है तो कोई शैतान । कोई स्थूलिभद्र या मयणासुंदरी बनते है तो कोई शाहरुख या ऐश्वर्या । यानि कि यह बात माता पर ही निर्भर है कि भविष्य में उसका पुत्र क्या बनें ? दिव्या : मम्मीजी ! यदि ऐसी बात है तो मेरी भी इच्छा है कि मेरे गर्भ में पल रहा बालक संस्कारित बने। इसके लिए मुझे क्या करना होगा ? मुझे किन-किन बातों का ध्यान देना होगा ? यह सब आप मुझे बताईए? जयणा : गर्भ में पल रहे बालक को संस्कारित बनाने के लिए माता के आचार, विचार, व्यवहार आदि सब अच्छे होने चाहिए क्योंकि इन सब बातों का असर माता के गर्भ में रहे जीव पर अव्यक्त रुप से पड़ता है । इसलिए कहते है माता बनने वाली हर स्त्री को, जिसे उसकी संतान बहुत ही प्रिय हो उसे गर्भावस्था के नौ महिनों में कुछ धार्मिक एवं प्राकृतिक बातों का ध्यान रखना चाहिए । दिव्या : मम्मीजी ! वे धार्मिक बातें कौन-सी हैं ? जयणा : बेटा ! नौ मास को धर्ममय वातावरण में व्यतीत करने के लिए तुम्हें निम्न नियमों का पालन करने की कोशिश करनी होगी। जैसे कि 1. तुम सवा लाख या जितने हो सके उतने नमस्कार महामंत्र का जाप करो । 2. नित्य परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा करो एवं त्रिकाल भक्ति करो। 3. समय मिलने पर धार्मिक स्वाध्याय करो या महापुरुषों के चरित्र पढ़ो। इससे तुम्हारा बच्चा महापुरुषों की तरह संस्कारित होगा । 4. साथ ही साथ गरीबों को दान दो, अतिथियों का सत्कार करो । 5. तुम गुरुजनों का तथा बड़ों का पूजन - बहुमान इत्यादि कार्य करती रहो। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. वैसे तो तुम रात्रि भोजन आदि नहीं करती हो पर फिर भी इन नौ मास में तो सगर्भा स्त्रियों को रात्रि में भोजन एवं कंदमूल का सर्वथा त्याग करना ही चाहिए। 7. तुम अपना स्वभाव गंभीर, प्रसन्नचित्त, उदार, सहिष्णु, प्रमोद आदि गुणों से ओतप्रोत बनाओ। ___इन सब के पीछे तुम्हारे मन में यह दृढ संकल्प होना चाहिए कि इन सब सुकृतों के प्रभाव से मेरी संतान परमात्मा एवं गुरुजनों की भक्त बनें, जीवमात्र की मित्र बनें, उसका जीवन पवित्र (अकलंकित) रहें। होने वाली संतान बालिका हो तो वह लज्जा गुण से सुशोभित बने और यदि वह बालक हो तो सर्व लक्षणों से युक्त वीर पुरुष बनें। ___ऐसे संकल्प पूर्वक की गई प्रत्येक क्रियाओं की इतनी तीव्र और गहरी असर बालक की आत्मा पर होती है कि वह बालक प्रायः महान ही पैदा होता है। वह गुणों का भंडार बनता है। जिसमें अवगुण ढूंढने पर भी नहीं मिलते। दिव्या : मम्मीजी ! जैसा आपने बताया है वैसे धर्ममय वातावरण में मैं अपने नौ मास बिताने की पूरी कोशिश करूँगी। लेकिन इसके अलावा किन प्राकृतिक बातों का मुझे ध्यान रखना होगा। क्या बाहरी प्रकृति का असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है ? जयणा : हाँ बेटा ! बाहरी प्रकृति का असर भी गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है। प्राकृतिक बातों को ध्यान में रखकर प्राचीन काल में सगर्भा स्त्री को : 1. विभिन्न पुष्पों से भरे बगीचे में बिठाया जाता था, ताकि उसका मन प्रसन्न रहे एवं निरंतर हरियाली को देखते रहने से उसकी संतान की आँखें तेजस्वी बनें। 2. उसे ध्रुवतारे के दर्शन करवाए जाते थे ताकि उसके स्थैर्य के दर्शन से बालक धैर्यवान बनें। 3. समुद्र की गंभीरता को निहारने वाली स्त्री का बालक समुद्र जैसा गंभीर बनता है। . 4. पूनम के चाँद को निहारने वाली माता का बालक स्वभाव से सौम्य बनता है। 5. सिंह की गर्जना सुनने वाली माता का बालक सिंह जैसा पराक्रमी और शूरवीर बनता है। इस प्रकार बाहरी प्रकृति का असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है। इसके अलावा और एक बात का तुम विशेष ध्यान रखना। दिव्या : क्या मम्मीजी? जयणा : इन नौ मास के दौरान तुम भूलकर भी अब्रह्म का सेवन मत करना। दिव्या : मम्मीजी ! अन्य बातें तो बराबर है पर अब्रह्म से गर्भस्थ शिशु का क्या लेन-देन? जयणा : बेटा ! यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है पर आजकल की मॉडर्न स्त्रियों पर मॉडर्निटि का ऐसा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूत सवार हो गया है कि वे इस बात को इतनी गंभीरता पूर्वक नहीं सोचती। दिव्या ! गर्भस्थ स्त्री जबजब भी पति के साथ अब्रह्म का सेवन करती है, तब-तब गर्भ में रहे हुए बालक को हथौड़े की मार जितनी पीड़ा सहन करनी पड़ती है। इसलिए तो प्राचीन काल से प्रथम प्रसूति पर पियर भेजने की प्रथा आज भी चली आ रही है। जिससे सहजता से ब्रह्मचर्य का पालन हो जाता है। जब बहुत दिनों बाद पति पियर में मिलने आए तब पति को देखकर पत्नी को जो आनंद और ताज़गी का ऐहसास होता है, वह सीधे गर्भस्थ शिशु में स्थानांतरित हो जाता है। कभी मान लो कि सगर्भा स्त्री ससुराल में ही रहकर अपने मातृत्व से गर्भ में पल रहे संतान के पोषण के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा रही हो, तब उसके पति को भी अब्रह्म का सेवन कर अपनी पत्नी की शक्ति नाश करने का अकार्य कदापि नहीं करना चाहिए। साथ ही उन्हें देह संबंध करते समय भी पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए वर्ना उसका असर भी गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। दिव्या : मम्मीजी ! मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा अकार्य करने से मेरे बच्चे को इतनी पीड़ा होगी। सचमुच पुरानी प्रथाओं का कितना बड़ा महत्त्व होता है। आपने मुझे सही समय पर योग्य हितशिक्षा दी है। मैं और मोहित इस बात का पूर्णतया पालन करेंगे। (जयणा ने दिव्या को कितना वात्सल्य दिया होगा कि जीवन के इस अहम् मोड़ में दिव्या ने किसी डॉक्टर के पास न जाकर अपनी सासुमाँ के पास से सुझाव लेना ज्यादा लाभदायक समझा। साथ ही दिव्या ने भी अपनी सासुमाँ से कितना समर्पण भरा व्यवहार किया होगा कि निजी जिंदगी से जुड़े ऐसे सवालों का जवाब देते हुए भी जयणा को हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई।) दिव्या : लेकिन मम्मीजी ! आपने जो देह संबंध करते समय सावधानी की बात कही है। आपकी उस बात पर मुझे तो विश्वास हो गया है, लेकिन लोग इस बात को माने यह बहुत मुश्किल है। इसलिए कोई प्रमाण हो तो बताइये? जयणा : दिव्या ! पति के साथ देह संबंध के क्षणों में की हुई भूल का कितना गहरा असर गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता है। वह प्राचीन एवं वर्तमान की कई घटनाओं द्वारा हम देख सकते हैं। जिससे तय होता है कि सगर्भा स्त्री की छोटी-सी भूल का भी गर्भ पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ___ 1. रुप और गुणों की अंबार द्रौपदी स्वभाव से क्रोधी क्यों थी? वह क्रोध के भयानक आवेश में आकर आग जैसी क्यों बन जाती थी? अपने पति युधिष्ठिर को बार-बार अपशब्द क्यों सुनाती थी? इसका एक मात्र कारण उसके पिता द्रुपद थे। क्योंकि उन्होंने अपने बदन से क्रोधाग्नि की ज्वाला को ठंडी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये बिना ही अपनी पत्नी के साथ देह संबंध कर लिया एवं उसी वक्त उनकी पत्नी सगर्भा बनी। बाद में उन्होंने द्रौपदी को जन्म दिया। वीर्य में व्याप्त पिता का क्रोध उनकी लाड़ली द्रौपदी की रोम-रोम में व्याप्त हो गया। 2. राजा कर्णदेव ने रानी मीनलदेवी के साथ देह संबंध के क्षणों में परस्त्री के साथ कामवासना की कल्पना की। रानी को गर्भ ठहरा, उन्होंने पुत्र को जन्म दिया। वही पुत्र आगे चलकर महापराक्रमी सिद्धराज जयसिंह बना। उसके पराक्रम की गाथाएँ इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी गई । परंतु वह राणकदेवी पर अति कामुक था। पिता की एक भूल के कारण उसके स्वर्णाक्षरों में लिखे इतिहास पर पानी फिर गया। अब तुम ही बताओ दिव्या इसमें दोष किसका ? पुत्र का या पिता का ? 3. रक्त एवं वीर्य के साथ माँ-बाप के संस्कार बच्चों में उतरते हैं। इस बात पर औरंगजेब को भी विश्वास था। इसी आधार पर एक दिन राजसभा में एक आठ साल की लड़की के पिता होने का दो व्यक्तियों ने दावा किया। उसमें एक लेखक और दूसरा सैनिक था। फैसला करने के लिए बादशाह ने पहले . उस लड़की को तलवार उठाने के लिए कहा। वह कोशिश ही करती रही लेकिन उठा न सकी और जैसे ही उसे बोतल से कलम में स्याही भरने के लिए कहा गया। उसने वह काम सहजता से कुशलता पूर्वक कर दिखाया। यह देखकर औरंगजेब ने यह लड़की लेखक की है, ऐसा फैसला सुनाया। 4. वर्तमान काल में यूरोप में घटित एक घटना के अनुसार देह संबंध की क्षणों में दीवार पर टंगी काले हब्शी व्यक्ति का चित्र देख रही, गोरी यूरोपियन स्त्री की संतान भी काली हब्शी जैसी पैदा हुई। बालक के जन्म पर पति-पत्नी दोनों को आश्चर्य हुआ क्योंकि वे दोनों यूरोपियन वं गोरी चमड़ी वाले थे। पति ने पत्नी पर संदेह किया और उस पर दुराचारिणी होने का आरोप लगाया। मामला कोर्ट तक पहुँचा। जज ने दोनों पक्षों की बातों को ध्यान से सुना । उन दोनों के शयनकक्ष की जाँच की। दोनों से विस्तार से बातचीत की। बातचीत के समय पत्नी ने कहा कि हर रात सोने से पहले वह दीवार पर टंगी तस्वीर ही उसकी आँखों के सामने होती थी और सहवास के समय भी उसकी नज़रें उस तस्वीर पर ही थी। इससे जज समझ गया कि बच्चा हब्शी जैसा काला कैसे पैदा हुआ तथा स्त्री निर्दोष साबित हो गई। कहने का तात्पर्य यह है कि माता जो सोचती है, देखती है, उसका असर गर्भ पर पड़े बिना नहीं रहता । दिव्याः मम्मीजी ! आपके इन दृष्टांतों से मेरी ही नहीं बल्कि सभी लोगों के मन में रही शंकाओं का समाधान हो जाएगा। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयणाः बेटा! यह तो हुई देह संबंधी बातें पर इसके अलावा भी गर्भकाल में माता जो भी कार्य करती है उसका बालक पर गहरा असर पड़ता है। जानती हो... 1.एक महिला सगर्भा बनी। उसके घर के सामने एक कसाई की दुकान थी। वह कसाई प्रतिदिन जिस समय बकरों को काटता उस समय वह महिला उसे देखती। समय पूरा होने के बाद उसने एक बालक को जन्म दिया। आठ वर्ष की उम्र में उसने अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ झगड़े में पाँच बच्चों को छूरी भोंककर मार डाला। जज के सामने उसे आरोपी बनाकर हाज़िर किया गया। जज को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने बच्चे के बारे में सर्वांगीण छानबीन शुरु की। तब पता चला कि गर्भकाल में माता द्वारा देखे गये पशुओं के कत्ल के संस्कार गर्भ में पल रहे बालक पर भी पड़े और नतीजा यह क्रूर घटना घटी। ___2.विदेश में एक किस्सा बना। सगर्भा पुत्रवधू के पास उसके ससुर ने पिछले वर्षों के घर खर्चे का हिसाब माँगा। बहू ने ऐसा कोई व्यवस्थित हिसाब-किताब नहीं रखा था। वह असमंजस में पड़ गई। उसने अपने गर्भावस्था के उन नौ महिनों को हिसाब-किताब करने में लगा दिये। परिणाम स्वरुप उसने जिस बालक को जन्म दिया। वह उस देश का सर्वोत्कृष्ट गणित शास्त्री बना। . दिव्या : मम्मीजी! आपकी बात से यह तो साफ साबित होता है कि बच्चों के जीवन को बिगाड़ने या संवारने का पूरा श्रेय माता-पिता को जाता है। गर्भकाल के दौरान माता यदि अपने स्वभाव को अच्छा रखें तथा पिता भी उसमें अपना सहयोग दे तो भविष्य में बच्चा महान ही बनेगा इसमें कोई शंका नहीं। जयणा : तुमने बिल्कुल ठीक कहा बेटा! और अपने स्वभाव को अच्छा रखने के लिए तुमने सुना ही होगा "जैसा खाए अन्न वैसा हो मन”। इसलिए गर्भवती को अपने भोजन पर सदैव ध्यान रखना चाहिए। 1. वात-वायु कारक चनें, सेमी का बीज, चौला, मठ, टमाटर आदि तथा ठण्डे पदार्थ खाने से प्रायः बच्चे कुबडे, बामन, ठींगने पैदा होते हैं। ____ 2. पित्त कारक तीखे-खारे, खट्टे पदार्थों के सेवन से बच्चों के नेत्र शरीरादि पीले पड़ जाने की संभावना रहती है। . ___ 3. कफ कारक दही, गुड़, आईस्क्रीम आदि पदार्थों के सेवन से प्रायः बच्चे चितकबरे और पांडुरोग वाले पैदा होते हैं। भविष्य में उन्हें सफेद कोढ़ होने की संभावना रहती है। 4. गर्भवती स्त्री यदि अधिक नमक वाले खारे पदार्थ खाती है तथा आँखों में विशेष काजल Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगाती है तो प्रायः उसके बच्चें अंधे, नेत्र रोगी होते हैं। साथ में शीत आहार करती है तो वायु का प्रकोप होता है। 5. गर्भवती स्त्री के अति गरम पदार्थों का सेवन करने से प्रायः बच्चें निर्बल पैदा होते हैं। दिव्या : तभी मम्मीजी ! आप मुझे खाने की हर बात पर कुछ न कुछ हिदायत देती ही रहती है। खानेपीने की इन बातों के पीछे इतना बड़ा रहस्य होगा। यह तो मुझे आज ही पता चला। जयणा : दिव्या ! इन खाने-पीने की बातों के अतिरिक्त गर्भवती स्त्री को निम्न बातों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। 1. गर्भवती स्त्री अधिक रुदन न करें। रोने से प्रायः बच्चें की आँखे चपटी, अधिक फिल्मी गीत गान करने से प्रायः बच्चें बहरे (बधिर), अधिक बोलने से प्रायः बच्चें वाचाल तथा अधिक गालियों की - बौछार करने से प्रायः बच्चें दुराचारी पैदा होते हैं। 2. गर्भवती स्त्रियों के अधिक हँसने से प्रायः बच्चों के होंठ एवं दांत काले हो जाते हैं। गर्भवती स्त्री के चाँदनी (खुले स्थान ) पर सोने से प्रायः बच्चें बाड़े (रावणखंडे) पैदा होते हैं। 3. घर वालों को भी गर्भवती स्त्रियों को सदा प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें बात-बात पर अपमानित कर चिढ़ाना, अथवा उन्हें भयानक, चिन्ताजनक शोक समाचार नहीं सुनाने चाहिए। 4. गर्भवती स्त्री को कुछ परिश्रम एवं विश्राम भी अवश्य करना चाहिए । 5. गर्भवती का यदि स्वास्थ्य ठीक न हो तो उसे डॉक्टर की सम्मति के बिना कोई दवाई नहीं देनी चाहिए। 6. गर्भवती स्त्री को प्रतिदिन आँवले का मुरब्बा खाना चाहिए। उसमें प्रवाल, वंशलोचन और गलोसत्व आदि मिलाकर खाने से भावि संतान की मस्तिष्क शक्ति बड़ी तेज़ होती है। 7. गर्भवती को सूर्य या चंद्र ग्रहण के समय घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। साथ ही ग्रहण के समय सुई, कैंची, चाकू जैसे शस्त्रों का उपयोग नहीं करना चाहिए। बाल नहीं संवारना और झाडू भी नहीं निकालना चाहिए। क्योंकि इससे गर्भ पर बहुत बुरा असर होता है। 8. विशेष - गर्भवती स्त्रियों को अपनी इच्छाएँ अतृप्त नहीं रखनी चाहिए। परिवार वाले भी गर्भिणी के मनोभावों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से समझकर उसे पूर्ण करने का प्रयत्न करें। इसी इच्छा का दूसरा नाम है - दोहद । इच्छा के अपूर्ण रह जाने से सन्तान दुर्बल हृदयी व लालची पैदा होती है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्या : मम्मीजी ! आपका आभार में किन शब्दों में व्यक्त करूँ? मेरे तथा मेरे बच्चें के लिए जो हितकर और कल्याणकारी मार्ग आपने बताया है उसके लिए मैं सदा आपकी ऋणी रहूँगी । जयणा: बेटा ! तुम कुछ महिनों में पियर चली जाओगी। इसलिए यह सब तुम्हें आज ही बता देती हूँ कि बालक का जन्म होते ही उसके कानों में नमस्कार महामंत्र सुनाना मत भूलना। दिव्या : क्या मम्मीजी नवकार ? आशातना नहीं होगी ? जयणा : नहीं दिव्या, एक बार नवकार मंत्र बोलने के बाद तुम यदि दूसरी बार पुनः बोलो तो वह आशातना होगी। बेटा एक बात का ध्यान रखना कि बालक का कल्याण चाहने वाली ही वास्तविक माता होती है शेष तो स्वार्थ साधक है। स्वार्थ से प्रेरित ऐसी माताएँ बालक के चरित्र निर्माण में एवं मुक्ति में बाधक बनती है। दिव्या : मम्मीजी ! मैं एक माँ होकर अपने बच्चें के कल्याण में बाधक नहीं बनना चाहती। इसलिए आपकी बताई हुई हर एक हितशिक्षा को स्वीकार करती हूँ। मम्मीजी, आप मुझे ऐसे आशीर्वाद दीजिए की मैं, मेरा और मेरे बच्चे का भविष्य सुंदर बना सकूँ। (जयणा से आशीर्वाद पाकर दिव्या अपने कमरें में चली गई ।) (अपनी सासुमाँ से मिली हितशिक्षा के अनुसार गर्भ के व्यवस्थित परिपालन हेतु दिव्या अब मेग्ज़ीन, नॉवल आदि नहीं पढ़ती, ना ही टी.वी. देखती, न राग वर्धक गीतगान का श्रवण करती और ना ही आवेश में आती । न पति का संग करती और न ही कफकारक - पित्तकारक आहार लेती । ना ज्यादा हँसती, ना ज्यादा बोलती और ना ही किसी की निंदा करती यानि कि दिव्या ने सभी अशुभ कार्यों का त्याग कर दिया था। इसके साथ वह नित्य देव- गुरु को वंदन एवं पूजन करती, महापुरुषों के साहित्य का वांचन करती, पाँच प्रकार के यथा अवसर दान देती, व्याख्यान श्रवण करती, 16 प्रकार की भावनाओं का मनन करती, अच्छे-अच्छे मनोरथ करती जैसे कि मैं चारित्र लूँगी, दान दूँगी, मन्दिर बनवाऊँगी, छःरी पालित संघ निकालूंगी, उपधान करवाऊँगी। जयणा तथा मोहित ने भी दिव्या के गर्भपालन में पूर्णतया सहयोग दिया। दिव्या के हर एक दोहद को मोहित पूर्ण करता। साथ ही परिवार के सभी सदस्य दिव्या को हमेशा प्रसन्न रखते। सातवें मास में दिव्या के पियर वाले उसे लेने आये । शुभ मुहूर्त में आशीर्वाद देकर जयणा ने उसे पियर भेजा। देखते ही देखते नौ मास भी पूरे हो गये और दिव्या ने एक लड़की को जन्म दिया। जन्म होते ही दिव्या ने अपनी बेटी को सर्वप्रथम नवकार मंत्र का श्रवण कराया। दिव्या जानती थी कि नवजात शिशु को जन्म के चार घंटों के भीतर छाती से लगाकर अपार प्यार दिया जाए तो भविष्य Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उस बच्चे के आरोग्य संबंधी चिंता करने की जरुरत नहीं पड़ती। इसलिए उसने अपनी बेटी को छाती से लगाकर उसे भरपूर प्यार दिया। पुत्री के जन्म की खबर दिव्या के ससुराल में दी गई। तुरंत जयणा अपने पति और पुत्र के साथ दिव्या को मिलने हॉस्पीटल पहुँच गये। ___ जयणा ने दिव्या को माता के दूध की महत्ता बताते हुए कहा - माता के आधे लीटर दूध जितनी ताकत डेरी के सौ लीटर दूध में भी नहीं होती। स्तनपान कराने वाली माता यदि उस वक्त प्रसन्न हो तो बालक के तन और मन का विकास अच्छा होता है और स्तनपान कराते वक्त माँ यदि भयंकर क्रोध में हो तो वह दूध भी ज़हर बन जाता है। ___ माँ के दूध का कितना महत्त्व है सुनो - मित्र देश की रानी ने युद्ध में राजकुमार के पास सेना की मदद मांगी। राजकुमार राजमाता से इस बारे में पूछने आया। राजमाता ने कहा - तुम मुझे पूछने ही कैसे आये? तुम्हें तो तुरंत उनकी मदद के लिए दौड़ना चाहिए था। ऐसे विचार वाली राजमाता ने उदासी भरे स्वर में कहा “जब तू छोटा था तब एक बार तुझे दासी को सौंपकर मैं हौज में स्नान करने गई। एकाएक तू रोने लगा, तो दासी ने तूझे भूख लगी है, यह समझकर अपना स्तनपान कराया। अचानक मेरी नज़र उस तरफ गई। मैं हौज में से बाहर दौड़कर आई। मैंने तुझे उल्टा कर तेरे मुँह में ऊँगली डाली और दध की उल्टी करवाई। परंतु अब तेरी यह बुझदिल क्रिया देखकर मुझे ऐसा लगता है कि कम से कम आठदस बूंद दासी का दूध तेरे पेट में रह गया होगा। वर्ना तू ऐसी बात कभी न करता। आर्यदेश की सन्नारी माता अपनी संतान को कभी भी स्तनपान के सिवाय दूसरा दूध न देती और न ही दासी आदि का दूध पीने देती। क्योंकि ऐसा करने से बालक तन से दुर्बल और मन से कंगाल बन सकता है। इसलिए वर्तमान में पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में दौड़ रही सर्व माताओं ! अपनी दूध की कीमत जानकर अपनी संतान को स्तनपान करवाने से वंचित मत रहना। अपनी सासुमाँ से मिली सीख के अनुसार दिव्या प्रसन्न मन से अपनी बेटी को समय-समय पर स्तनपान कराती लेकिन बोतल का दूध कभी नहीं पिलाती थी। मोक्षा भी विवेक के साथ दिव्या एवं उसकी पुत्री को मिलने आई। नामकरण के दिन मोक्षा ने अपनी भत्रीजी का नाम 'क्षमा' रखा। साथ ही जैसे-जैसे क्षमा बड़ी हुई दिव्या उसे संस्कारी बनाने के लिए विशेष सावधान रहने लगी। अपनी पुत्री को संस्कारी बनाने के लिए उसने कई महान संस्कार दात्री माताओं को अपना आदर्श बनाया था। जिन्होंने अपने पुत्र को संस्कार देने में कोई कमी नहीं रखी थी। (52) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अतिमुक्तक (अईमुत्ता मुनि) की माता। जिसने छ: वर्ष की उम्र में बेटे को दीक्षा दिलाई। जिससे नौ वर्ष की उम्र में बेटे को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। * देवकी - जिसने अपने गजसुकुमाल जैसे पुत्र के पास से प्रण लिया कि उसे (देवकी को) संसार की अंतिम माँ बनाना (अर्थात् इसी भव में मोक्ष प्राप्त करें।) * आर्यरक्षित की माता ने बड़ी चालाकी से अपने दोनों बेटों को साधु बनाया। फिर अंत में अपने ____ पति के साथ स्वयं ने भी दीक्षा ली। * अरणिक की माता-साध्वीने साधु जीवन से भटके हुए बेटे को पुनः दीक्षा दिलवाई। कठोर साधु जीवन का पालन दीर्घकाल के लिए न कर सके तो तुरंत अनशन करने की भी सहमति दे दी। मदालसा, अनुसूया, ऐसी कितनी माताएँ है। (ओ.... सर्व माता-पिताओं जयणा एवं दिव्यां की तरह यदि आपकी सर्व प्रिय वस्तु इस जगत में आपकी संतान है, तो उसकी आत्मा पर रहे हुए सुसंस्कारों के आप हत्यारे मत बनना। गर्भ से लगाकर जब तक उनमें सही समझ न आए, अपने पैरों पर खड़े न हो जाए तब तक आप पूरी सावधानी बरतना। जब तक ये नादान है, इनमें समझ की दाढ़ नहीं आती, तब तक उन्हें आप अपने अधीन में रखें। वे आपके आश्रित है। उन्होंने अपना मस्तक आपके अधिकार की सीमा में सुरक्षित रखने के लिए आपको सौंपा है। क्या आप उनके जीवन निर्माण के सम्बन्ध में उपेक्षा करेंगे? क्या आप अमर्यादित जीवन में उन्हें कहीं पटक देंगे? क्या आप उन्हें अति लाड प्यार कर उनके जीवन को उन्नत होने से रोकेंगे? आपकी गोद में रहे उनके मस्तक पर क्या आप कॉन्वेन्ट की घातक छूरी से वार करेंगे? यदि आपका जवाब हाँ हैं तो सुन लीजिए कि आप संस्कारों के हत्यारे कहलायेंगे। आपकी तुलना में उस पशु की हत्या करने वाले कसाई की कोई गिनती नहीं, क्योंकि पशु हत्या करने वाले व्यक्ति से भी महापुण्य से साधना करने के लिए आपके घर में जन्म लेने वाले संतानों के सुसंस्कार की हत्या अति भीषण और भयानक गिनी जायेगी। शिक्षा आदमी को डॉक्टर, वकील या मिनिस्टर आदि बना सकती है, जबकि संस्कार व्यक्ति को इन्सान बनाते हैं। आपकी संतान स्वामी विवेकानंद, शिवाजी, भगतसिंह, धर्मात्मा कुमारपाल, वस्तुपाल, मयणा, सुलसा, मीराबाई या अनुपमा बने, हेमचंद्राचार्य या हीरसूरिजी बने, ऐसी आपकी कोई महत्त्वकांक्षा है तो आज ही अपने बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण करना शुरु कर दे।) ___समय पूर्ण होते ही जयणा ने दिव्या को वापस ससुराल बुला लिया। दिव्या ने समय-समय पर मोक्षा और जयणा से सुझाव लेकर अपनी बेटी का अच्छी तरह पालन-पोषण किया। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरफ अपनी सास और ननंद के साथ बेटी और बहन जैसा संबंध स्थापित करने में कामयाब बनी मोक्षा के ससुराल का वातावरण विधि की शादी के प्रसंग पर जगमगा उठा। अग्नि की साक्षी में लिए गए सात फेरों के पवित्र बंधन में बँधे विधि और दक्ष के सुखमय जीवन की शुरुआत हुई और उनके सुख में बढ़ोत्तरी तब हुई जब विधि ने गर्भ धारण किया। परंतु उनकी खुशी को शायद किसी की नज़र लग गई। कई प्रकार की गलतफहमियों और गलत धारणाओं से ग्रस्त बने उन दोनों के मन में संघर्ष छिड़ गया है और ऐसी स्थिति में तलाक और गर्भपात का निर्णय कर विधि अपने पियर आ गई है। अब क्या उनके बीच रहे Competition का कोई Solution निकल पाएँगा या फिर कुछ अनहोनी घट जाएंगी। देखते है जैनिज़म के अगले खंड No Competition But Solution में।) आत्मा को बचाने त्याग और करने के लिए मन तैयार हैं ? अचानक तबियत बिगड़ती है और व्यक्ति नज़दीकी अस्पताल में पहुँचकर अनजान ऐसे डॉक्टर को अपनी तबियत दिखाकर वह माँगे उतने रुपये दे देता है। अचानक ऑफिस में रेड पड़ती है और व्यक्ति अनजान ऐसे अफसर के हाथ में दो-पाँच लाख रुपये रख देने को तैयार हो जाता है। प्रश्न मन में यह उठता हैं कि तबियत बचाने के लिए अनजान डाक्टर और पैसे बचाने के लिए अनजान अफसर को दो-पाँच लाख रुपये देने को तैयार हो जानेवाला व्यक्ति अपनी आत्मा को बचाने, अपने हृदय के कोमल भावों को बचाने किसी गरीब आदमी या भिखारी को दो-पाँच रुपये देने को तैयार क्यों नहीं होता? अंतःकरण के पास से इस प्रश्न का उत्तर अवश्य जान लेना। 64) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र (मुझे याद करने से आपको शिव सुख मिलेगा) अर्थ (मेरा बराबर उपयोग कीजिए) काव्य विभाग (मुझे याद करके भूल न जाना) जावत केवि साहू... अड्ढाईज्जेसु... Sures TEEEEEEE Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बातें छोटी पर बड़े काम की... आँखों का दर्द : • चार ग्रेन ( दो रति) फिटकरी को बारीक पीस कर 30 ग्राम गुलाबजल में मिला कर उसकी दो-दो बूंद दो-तीन बार आँख में ड़ालने से आँख का दर्द दूर होता है। • बदामगिरि, सौंफ, चीनी को समान भाग में लेकर, पीस कर बारीक चूर्ण बनाकर कांच की बोतल में रखें। 40 दिन तक रोज 10 ग्राम की मात्रा में 250 ग्राम दूध के साथ लेने से आँखों का तेज एवं स्मरणशक्ति बढ़ती है । • त्रिफला का चूर्ण 100 ग्राम एवं सौंफ 100 ग्राम मिक्स करके सुबह-शाम 1 चम्मच पानी या घी के साथ लेने से आँखों का तेज बढ़ता है । इमली के बीज को पत्थर पर घिसकर आँख के फोड़े पर लगाने से फोड़ा दूर होता है। घटने का दर्द: • मेथी के दाने का बारीक चूर्ण करके एक-दो चम्मच की मात्रा में पानी या दूध के साथ एक-दो महिनें तक लेने से घूंटने का दर्द दूर होता है। • कार्तिक पूर्णिमा से फागुन सुद-14 तक सुबह खाली पेट 3-4 अखरोट खाने से घूटने का दर्द दूर होता है। सर्दी : अजवाइन को पीस कर, गरम करके एक कपड़े में बांधकर सूंघने से सर्दी दूर होती है । दूध में काली मिर्च का पाउडर एवं चीनी मिलाकर पीने से सर्दी दूर होती है । पानी में सूंठ मिलाकर गरम करके पानी पीने से सर्दी दूर होती है । काली मिर्च एवं भूनी हुई हल्दी के पाउडर को गरम दूध के साथ लेने से सर्दी दूर होती है। ● C Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र विभाग वंदित्तु-सूत्र (सावग - पडिक्कमण-सुत्तं ) भावार्थ : इस सूत्र में सम्यक्त्व सहित श्रावक के बारह व्रत के अतिचार बताकर दिन अथवा रात्री में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण-निंदा-गर्दा बताई गई है। पापों के प्रति पश्चाताप पूर्वक यह सूत्र बोलना चाहिए। नोट : इस सूत्र में A, B, C... आदि लिखे गए है वे उन उन व्रत के अतिचार हैं। वंदित्तु सव्वसिद्धे, 'धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ। 'इच्छामि 'पडिक्कमिउं, 'सावग 'धम्माइआरस्स ।।1।। 'सर्व सिद्ध भगवान को तथा 'धर्माचार्यों को और 'सर्व साधुओं को 'वन्दन करके "श्रावक 'धर्म सम्बन्धी अतिचारों से मैं "निवृत्त होना चाहता हूँ।। 1|| दूसरी-तीसरी-चौथी - पाँचवी गाथा में सामान्य आलोचना की गई है। 'जो मेरे व्रत के अतिचार में और 'जो मे 'वयाइआरो, "नाणे तह दंसणे चरित्ते 'अ . #सुमो अ 'बायरो वा, "तं "निंदे तं च ”गरिहामि ।।2।। आत्मसाक्षी से "निन्दा और गुरुसाक्षी से "गर्हा करता हूँ ||2|| 'दुविहे परिग्गहम्मी, 'नौकर, स्त्री आदि सचित्त और सोना, वस्त्र आदि अचित्त इन दो प्रकार के 'परिग्रह के कारण और 'पापकारी 'अनेक प्रकार के 'आरम्भ 'दूसरों के पास कराने एवं 'स्वयं करने में (जो अतिचार लगे हो ) दिन में लगे हुए उन अतिचारों का "मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।। 3 ।। 'अप्रशस्त 'इन्द्रियों के द्वारा मैंने 'जो 'कर्म बांधा, 2 वीर्य एवं "ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं च शब्द से तप, संलेखना के विषय में, छोटा अथवा 'बड़ा दोष लगा हो "उसकी मैं 'सावजे 'बहुविहे अ 'आरंभे । 'कारावणे अ 'करणे, "पडिक्कमे 'देसिअं सव्वं।।31 'जं 'बद्धमिंदिएहिं,' 'चउहिं 'कसाएहिं 'अप्पसत्थेहिं । 'क्रोधादि चार 'कषायों के द्वारा जो कर्म बांधा, 55 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागेण व दोसेण व, और 'राग एवं द्वेष के द्वारा जो कर्म बांधा तं "निंदे तं च "गरिहामि || 4 || 'उसकी " मैं निन्दा और "गर्हा करता हूँ || 4 || 'आगमणे 'निग्गमणे, 'अनजानपन (उपयोग नहीं रहने) से 'ठाणे 'चंकमणे 'अणाभोगे । 'किसी के बलात्कार (दबाव) से और 'नौकरी आदि की पराधीनता से “आने में, 'जाने में, "ठहरने में, 'घूमने में, 'अभिओगे अनिओगे 10 "पडिक्कमे "देसिअं सव्वं । 1511 दिन में लगे हुए 'सब अतिचारों का मैं "प्रतिक्रमण करता हूँ || 5 || सम्यक्त्व के अतिचार ^जिन वचन में सन्देह, " अन्य मत की चाहना मलमलिन गात्र, 'संका "कंख विगिच्छा, वस्त्र वाले साधुओं पर अभाव होना, D "अन्य धर्म की प्रशंसा करना तथा उनका परिचय रखना ये पाँच 'सम्यक्त्व के 'अतिचार है। 'दिन में लगे हुए 'सब अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।।6।। छःकाय विराधना 'छक्काय समारंभे 'पृथ्वी आदि छः काय के 'आरम्भ में "अत्तट्ठा य 'परट्ठा 'पयणे अ 'पयावणे अ 'जे 'दोसा । 'अपने लिए एवं 'दूसरों के लिए और 'स्वपर दोनों के लिए 'आहारादि को पकाने और 'दूसरों के पास पकवानों से 'उभयट्ठा चेव "तं "निंदे || 7 || ' जो दोष लगा हो "उसकी "मैं निन्दा करता हूँ।।7।। "पसंस " तह संथवो कुलिंगीसु 'सम्मत्तस्स 'इआरे, 'पडिक्कमे देसिअं 'सव्वं ।।6।। बारह व्रत 'पंचण्ह 'मणुव्वयाणं, 'पाँच 'अणुव्रतों के 'गुणव्वयाणं च 'तिह 'मइआरे । और 'तीन गुणव्रतों के 'सिक्खाणं च 'चउण्हं तथा 'चार शिक्षाव्रतों के 'अतिचार में जो दोष लगा हो, "पडिक्कमे देसिअं 'सव्वं ॥ | 8 || दिन में लगे हुए सब अतिचारों का " मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।।8।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदित्तु सबसिद्ध सिद्ध प्राचार्य जोमेवयाइयारो अरिहंत ज्ञान चारित्र दर्शन साधु उपाध्याय वंदित्तु दुविहे परियहम्मि आगमणे निग्गमणे THI चंकमणे सचित्त परिग्रह ठाणे अचित्त परिग्रह आगमणे निग्गमणे सावज्जे बहुविहे अ आरंभे अभिओगे निओगे। पडिक्कमे TAURCHUNT सकाकख विगिच्छा मोक्ष साधु प्रति द्वेषभाव विचिकित्सा शड्का अन्य धर्म की इच्छा-काक्षा अन्य दर्शनियों का परिचय-प्रशंसा देवलोक नरक NAME Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयावणे अइभारे छविच्छेए भत्तपाणवुच्छए एयण LiN कूटसाक्षी छक्कायसमारंभे र पढमे अणुव्वयम्मि बीए अणुव्वयम्मि कल्या-गौ-भूम्यलिक न्यासापहार तड़ए अणुव्वयम्मि तेना हड-प्पओगे मोसुवएसे कूडलेहे सहसा-रहस्सदारे कूडतुल कूडमाणे चउत्थे अणुव्वयम्मि, IRAT तिब्ब-अणुरागे - विवाह अपरिग्गहिआ अणंग इत्तर इत्ती अणुचाएपंचमम्मिन रुप्प-सुवने दुपए चउप्पयम्मी य वत्यु अ कुविअपरिमाणे BAH धण Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पढमे 'अणुव्वयम्मि, 'प्रथम 'अणुव्रत में 'थूलग 'पाणाइवाय 'विरईओ। 'स्थूल 'प्राणातिपात 'विरमण = स्थूल हिंसा से अटकने रुप "आयरिय 'मप्पसत्थे, इस पहले व्रत में 'अशुभ भाव एवं प्रमाद के निमित्त से 'इत्थ पमाय 'प्पसंगेणं।।।। जो कुछ विपरीत "आचरण किया हो।।9।। (वह इस प्रकार है-) प्रथम अणुव्रत के पाँच अतिचार 'वह 'बंध 'छविच्छेए, मनुष्य, पशु आदि को चाबुक आदि से पीटना सांकल आदि से बांधना, नाक, कान, पूंछ आदि शरीर के अवयवों को छेदना। 'अइभारे भत्त-पाण-वुच्छेए पशु,नौकर आदि पर अधिक बोझा (भार) डालना, समय पर खाने पीने को नहीं देना या कम देना। 'पढम वयस्सइआरे 'प्रथम व्रत के इन पाँच अतिचारों में से 'पडिक्कमे देसि सव्वं ।।10।। दिन में लगे सब अतिचारों का 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।10।। 'बीए 'अणुव्वयम्मि, 'द्वितीय अणुव्रत में परिथूलग 'अलिय वयणविरईओ। 'स्थूल मृषावाद की विरति=बड़े झूठ से अटकने रुप "आयरिय 'मप्पसत्थे, इस व्रत में 'अशुभ भाव एवं प्रमाद के निमित्त से 'इत्थ पमाय 'प्पसंगेणं।।11।। जो कुछ विपरीत "आचरण किया हो।।11।। (वह इस प्रकार है) द्वितीय अणुव्रत के पांच अतिचार 'सहसा रहस्स दारे. "बिना विचारे किसी पर कलंकारोपण करना किसी की गुप्त बातें प्रगट करना, अपनी स्त्री की गुप्त बात प्रगट करना, Pमोसुवएसे अ 'कूडलेहे ॥ "झूठी सलाह देना और झूठा लेख लिखना 'बीयवयस्स 'इआरे, दूसरे व्रत के इन पाँच अतिचारों में से पडिक्कमे 'देसिअं 'सव्वं||12|| 'दिन में लगे 'सब अतिचारों का 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।12।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तइए 'अणुव्वयम्मि 'तृतीय अणुव्रत (अदत्तादान विरमण व्रत) 'थूलग 'परदव्व-हरण 'विरईओ। 'स्थूल 'परद्रव्य हरण की विरति= बड़ी चोरी से अटकने रुप इस "आयरिय 'मप्पसत्थे, तीसरे व्रत में 'अशुभ भाव एवं प्रमाद के निमित्त से जो कुछ 'इत्थ 'पमाय 'प्पसंगेणं।।13।। विपरीत "आचरण किया हो।।13।। (वह इस प्रकार है) तीसरे अणुव्रत के अतिचार 'तेनाहड-प्पओगे, 'चोर को चोरी करने की प्रेरणा देना और उसको सहयोग देना, 'तप्पडिरुवे विरुद्ध-गमणे । "असली चीज़ दिखाकर नकली (खराब) चीज़ देना, 'राजा के नियमों के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, "कूडतुल कूडमाणे, "झूठे तोल और झूठे प्रमाण द्वारा लोगों को ठगना। पडिक्कमे 'देसिअं 'सव्वं।।14।। 'दिन में लगे सब अतिचारों का 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।14।। 'चउत्थे 'अणुव्वयम्मि, 'चतुर्थ 'अणुव्रत में 'निच्चं 'परदार गमण विरईओ। 'हमेशा के लिए पराई स्त्री के साथ भोगविलास करने की विरति रुप "आयरिय 'मप्पसत्थे, 'इस व्रत में 'अशुभ भाव एवं प्रमाद के "निमित्त जो कुछ 'इत्थ 'पमाय "प्पसंगेणं।।15।। विपरीत "आचरण किया हो।।15।। (वह इस प्रकार है ) चतुर्थ अणुव्रत के अतिचार *अपरिग्गहिआ 'इत्तर, "कुँवारी कन्या, विधवा अथवा वेश्या के साथ भोग करना, 'कुछ समय के लिए खरीदी हुई स्त्री के साथ भोग भोगना, 'अणंग विवाह तिव्व अणुरागे सृष्टि विरुद्ध कामक्रीड़ा करना, दूसरों का विवाह करवाना, 'काम भोग की तीव्र इच्छा करना। 'चउत्थवयस्स 'इआरे, चौथे व्रत के इन पाँच अतिचारों में से 'पडिक्कमे 'देसिअं 'सव्वं ।।16।। दिन में लगे सब अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।16।। इत्तो 'अणुव्वए 'पंचमम्मि, पाँचवें अणुव्रत में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आयरिमप्पसत्थम्मि, 'परिग्रह के प्रमाण का उल्लंघन न करने के रुप इस व्रत में परिमाण परिच्छेए, 'अशुभ भाव एवं 'प्रमाद के निमित्त से जो कुछ विपरीत आचरण 'इत्थ 'पमाय 'प्पसंगेणं।।17|| किया हो।।17।। (वह इस प्रकार है ) पाँचवें व्रत के अतिचार 'धण धन्न खित्त-वत्थु, धन, धान्य-अनाज, 'क्षेत्र, घर, दुकान, नोरा आदि वस्तु 'रुप्प-सुवन्ने अ 'कुविअ-परिमाणे। चाँदी, सोना और तांबा, पीतल, लोहा आदि के प्रमाण का, दुपए चउप्पयम्मि य, दो पैर वाले नौकर आदि, चार पैर वाले गाय, बैल आदि के प्रमाण का उल्लंघन किया हो। पडिक्कमे 'देसि सव्वं ।।18।। 'दिन में लगे सब अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।18।। . छट्टे व्रत (पहला गुणव्रत दिग्परिमाण व्रत) के अतिचार गमणस्स उ 'परिमाणे ऊर्ध्वदिशा 'अधो दिशा और तिर्की दिशा के दिसासु उद्धं 'अहे अतिरिअं च। 'प्रमाण में गमन का उल्लंघन करने से 'वुड्ढि 'सइ-अंतरता क्षेत्र का प्रमाण बढ़ा देने से क्षेत्र का प्रमाण भूल जाने से पढमम्मि गुणव्वए निदे।।19।। 'प्रथम 'गुणव्रत में लगे दोषों की मैं निंदा करता हूँ।।19।। सातवें व्रत (दूसरा गुणव्रत भोगोपभोग विरमण व्रत) के अतिचार 'मजम्मि अ 'मंसम्मिअ, मदिरा और मांस आदि अभक्ष्य वस्तुओं के भक्षण से 'पुप्फे अ फले अ 'गंध मल्ले । तथा फूल-फल, "सुगंधी पदार्थ और पुष्पमाला आदि के 'उवभोग परिभोगे, · 'उपभोग, परिभोग करने से दूसरे 'गुणव्रत में 'बीअम्मि 'गुणव्वए 'निंदे।।20।। लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।20।। (उपभोग : एक ही बार उपयोग में आने वाली वस्तुएँ, परिभोग : कई बार उपयोग में आने वाली वस्तुएँ ) सातवें व्रत के अतिचार सच्चित्ते पडिबढे, *प्रमाणाधिक सचित्त एवं सचित्त-मिश्र वस्तु वापरने से, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अप्पोल "दुप्पोलिअं च आहारे । 'अपक्व और अर्द्धपक्व वस्तु खाने से, "तुच्छोसहि-भक्खणया, "तुच्छ वनस्पति, फल के भक्षण करने से 'पडिक्कमे 'देसिअं 'सव्वं ॥ | 21 || 'दिन में लगे हुए 'सब अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।21।। श्रावक के लिए मान्य पंद्रह कर्मादान (पाप) वाले धंधे त्याज्य है। ^इंगाली "वण "साडी, "अङ्गारकर्म - अग्नि संबंधी कुम्हार, सुनार आदि का कामधंधा, # वनकर्म - जंगल के ठेके लेने, उसको काटने, कटवाने का धंधा, शकट कर्म - गाड़ी, ऊँट, मोटर, आदि का धंधा, "भाडी फोडी 'सुवज्जए 'कम्मं । " भाटक कर्म - घोड़ा, ऊँट आदि किराये पर चलाने का धंधा, "विस्फोटक कर्म - कुआँ, तालाब, खान आदि खोदने - खुदवाने का धंधा ये 'पाँच कर्म श्रावक के 'त्याग करने योग्य है। "वाणिज्य कर्म - हाथीदाँत, छीप, मोती प्रमुख का धंधा करना, G "लाख, गोंद आदि का धंधा, वाणिज्जं चेव दंत "ख" 'विस विसयं ||22|| धंधा, श्रावक को त्याग करना चाहिए।।22।। 'इसी प्रकार यन्त्रपीलन कर्मः चक्की, चरखा, घाणी, घट्टी, झीण, मील, आदि का धंधा, कम्मं 'निल्लंछणं च "दव - दाणं । "निलांछन कर्म : बैल आदि पशुओं के नाक, कान आदि अवयवों को छेदना, "दवदान कर्म : घर, जंगल, गाँव आदि में 'एवं खु "जंतपिल्लण "सर - दह-तलाय-स "गुड़, तेल, घी, दूध आदि रस का धंधा, 'पशु, मनुष्य, तोता, हंस आदि के केश एवं पंख आदि का धंधा. 'सोमल, अफीम, विष आदि जहरीले पदार्थों एवं शस्त्र आदि का य-सोसं, आग लगाने का धंधा | N " शोषण कर्म : सरोवर, द्रह, बड़े तालाब और जलाशयों को सूकाना, 60 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड गमणरस उपरिमाणे तिरिअंच अहे अ . मज्जग्मि अगसग्मि अ / सचित्ते पडिबद्ध फल आईसक्रीम मद्य मांस पुष्प मध रात्रिभोजन बैंगन कंदमूळ मक्खन पंदरकदिान अंगार कर्म माटक कम स्फोटक कर्म 'दंत वाणिज्य रस वाणिज्य केस वाणिज्य लक्ख वाणिज्य INDI H विष वाणिज्य जतपिल्लण कम्म निल्लंछण कम्म सर-दह-तलाय सोस दवग्गिदाण असइपोस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइअम्मि गुणव्वए निंदे सत्थ अग्गि मुसल जतग पहाणुबट्टण ००० तण-कट्ठ मंत-मूल-भेसज्जे वन्नग रुव-रस-गधे । रुव रस गंध वत्था आभरणे कुक्कुइए अहिगरणभोग-अइरित्ते आसण फदप शिक्षाबत 1-सामायिक Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असइ-पोसं च वज्जिज्जा।।23।। °असती पोषण : हिंसक पशुओं का, व्यभिचारी पुरुषों का, कुल्टा एवं वेश्या जैसी स्त्रियों का पालन करना, इन सब का श्रावक को त्याग करना चाहिए।।23।। (आठवें व्रत (तीसरा गुणव्रत अनर्थदंड विरमण व्रत) के अतिचार सत्थग्गि 'मुसल 'जंतग 'शस्त्र, अग्नि, 'मुसल, चक्की आदि यंत्र 'तण कट्टे मंत 'मूल भेसज्जे। 'तृण (झाडू आदि), 'काष्ठ , मंत्र, 'मूलकर्म और औषधियाँ, 'दिने "दवाविए वा, ये हिंसा के साधन, दूसरों को देने में और "दिलाने में "पडिक्कमे "देसिअं "सव्वं ।।24।। "दिन में लगे हुए "सब अतिचारों का "मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।24।। 'हाणुव्वट्टण 'वन्नग 'अयतना से स्नान करने से, शरीर का मैल उतारने से, 'विलेवणे सद्द 'रुव 'रस 'गंधे।। 'वस्त्रादि रंगने से, 'चंदनादि का विलेपन, शब्द, रुप, रस एवं 'गंध में आसक्ति द्वारा द्वेष करने से। 'वत्थासण 'आभरणे 'वस्त्र, आसन और आभूषणों में आसक्त होने आदि में "पडिक्कमे देसिअं "सव्वं।।25।। दिन में लगे हुए "सब अतिचारों का "मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।25।। 'कंदप्पे 'कुक्कुइए . कामवासना जनक बातें करने से विजातीय के साथ कुचेष्टा करने से 'मोहरि अहिगरण भोग-अइरित्ते; निरर्थक वचन बोलने से हथियार, औज़ार तैयार करने, करवाने से, भोगने की वस्तुओं को जरुरत से अधिक रखने से दंडम्मि अणट्ठाए, 'अनर्थदंड नाम के 'तइअम्मि गुणव्वए 'निंदे।।26।। 'तीसरे गुणव्रत में लगे इन अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।26।। नवमें व्रत (प्रथम शिक्षाव्रत सामायिक) के अतिचार "तिविहे दुप्पणिहाणे, सामायिक में मन वचन एवं काया के दुष्प्रणिधान से "अणवट्ठाणे 'तहा सइ-विहूणे; अनादर से सामायिक करने से सामायिक करना भूल जाने से। 'सामाइय 'वितह-कए 'सामायिक व्रत विधि पूर्वक नहीं करने से, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पढमे 'सिक्खावए निदे।।27।। 'प्रथम शिक्षा व्रत में लगे इन अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।27।। दसमें व्रत (दूसरा शिक्षा व्रत देशावगासिक) के अतिचार "आणवणे पेसवणे, नियमित भूमि के बाहर की कोई वस्तु मंगवाने से बाहर भेजने से सिद्दे "रुवे अ पुग्गल-खेवे; शब्द के द्वारा उपस्थिति बताने में रुप दिखाने से और कंकरादि 'देसावगासिअम्मि, फेंककर अपने कार्य के लिए किसी को बुलाने से 'देशावगासिक नामक 'बीए 'सिक्खावए 'निंदे।।28।। 'दूसरे 'शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की 'मैं निंदा करता हूँ।।28।। ग्यारहवें व्रत (तीसरा शिक्षा व्रत पौषध) के अतिचार 'संथारू 'च्चारविहि, 'संथारा और स्थंडिल, मात्रा आदि की भूमि का विधि पूर्वक पडिलेहन, प्रमार्जन नहीं करने से ‘पमाय तह चेव भोअणाभोए, प्रमाद करने से तथा भोजन की चिन्ता करने से पोसह विहि-विवरीए, और पौषध की विधि में विपरीत आचरण करने से 'तइए 'सिक्खावए निदे।।29।। 'तीसरे शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।29।। बारहवें व्रत (चौथा शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग) के अतिचार सच्चित्ते निक्खिवणे, देने योग्य वस्तु को सचित्त पर रखने से "पिहिणे ववएस मच्छरे चेव; 'अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंक देने से परायी वस्तु को अपनी या अपनी वस्तु को परायी कहने से ईर्ष्यादि कषाय पूर्वक आहारादि दान देने से और कालाइक्कम-दाणे, गोचरी का समय बीत जाने पर गोचरी के लिए आमंत्रण देने से 'चउत्थे 'सिक्खावए 'निंदे।।30।। 'चौथे 'शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की 'मैं निंदा करता हूँ।।30।। 'सुहिएसु अ 'दुहिएसु अ, 'संयमगुण और वस्त्रादि उपधि संपन्न सुविहित मुनिवरों की तथा व्याधि पीड़ित, तपस्या से खिन्न और वस्त्र, पात्रादि उपधि से रहित दुःखी सुविहित साधुओं की Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणवणे पेसवणे आणवणे पेसवणे संधारुच्चारविही+ www अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय सिज्जा अतिथि संविभाग स अप्पडिलेहिय- दुप्पडिलेहिय संथारए इहलोगा पुग्गलक्खेवे पओगे अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय उच्चार- पासवणभूमि इहलीए परलोए जीवि आससापास गाससप्प न कामभोगा AAAAAV मरणासंसप्पओम प्पओगे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं पिहु सपडिक्कमणं चिरसंचिये पाव-पणासणीइ, भवसयसहस्समहणी ओ चउव्वीसजिणविणिग्गयकहाइ मममंगलमरिहता सुअं च धम्मो अ बोह वोलंतु मे दिअहा सिद्धा दितु समाहिं च साहू • सम्मदिट्ठी देवा देव. मनुष्य नरक पृथ्वी जहा तिसं कुरुनाये एवं अनुविहं कम्म खामेभि सवजीव तिर्यंच तियच विकलेन्द्रिय 6 Atti -वाउ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा मे 'अस्संजएसु 'अणुकंपा, 'रागेण व 'दोसेण व, 'तं 'निंदे तं च 'गरिहामि | | 31|| 'उनकी मैं निंदा और 'गर्हा करता हूँ ।। 31 ।। 'साहूसु 'संविभागो, 'तपस्वी, 'चारित्रशील और क्रियापात्र 'साधुओं को 'न कओ 'तव चरण 'करण- जुत्तेसु, 'दान देने योग्य 'वस्तुएँ, 'उपस्थित होते हुए भी 'उनमें से एक भाग नहीं दिया हो, तो 'संते 'फासुअ 'दाणे, "तं "निंदे तं च ”गरिहामि||32|| "इह लोए "परलोए 'जीविअ पार्श्वस्थादि असंयतियों (पतित साधु) की भक्ति 'राग या द्वेष के वश होकर की हो, " अपने उस दुष्कृत्य की मैं "निंदा करता हूँ और "गर्हा करता हूँ||32|| संलेखना व्रत के अतिचार ^ धर्म के प्रभाव से इस लोक में सुख की इच्छा "परलोक में देवेन्द्रादि के वैभव मिलने की वांछा मान-सन्मान मिलने पर जीने की इच्छा, "अपमान से घबराकर मरने की इच्छा # और कामभोग की तीव्र इच्छा। 'संलेखना व्रत के ये पाँच 'अतिचार D "मरणे अ "आसंस पओगे, 'पंचविहो 'अइआरो, ' मा 'मज्झ 'हुज्ज 'मरणंते ।। 33 || मरण के अन्तिम समय तक मुझे 'न' हो । 33 'काएण 'काइअस्स 'पडिक्कमे 'वाइअस्स 'वायाए, 'मणसा 'माणसिअस्स, गुत्ती अ 'समिसु अ, 'काया से लगे हुए अतिचार ( दोषों) को 'काया के शुभ योग से वचन से लगे हुए अतिचार ( दोषों) को 'वचन के शुभ योग से 'मन से लगे हुए अतिचार (दोषों) को 'मन के शुभ योग से 'सब 'व्रतों के अतिचारों का 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। | 34।। 'सव्वस्स 'वयाइआरस्स । 134 ।। 'वंदण 'वय 'सिक्खा 'वंदन, 'बारह व्रत ग्रहण, और आसेवन रुप दो प्रकार की शिक्षा में 'गारवेसु 'सन्ना 'कसाय 'दंडेसु : रस ऋद्धि एवं शाता गारव,' ," आहारादि चार संज्ञा, "क्रोधादि चार कषाय और 'मन, वचन, काया रुप तीन दंड़ों के वश से, * तीन गुप्तियों में और 'पाँच समितियों में 63 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जो "अइआरो अ "तं "निंद।।35|| "जो "अतिचार लगे हो "उनकी मैं "निंदा करता हूँ।।35।। 'सम्मदिट्ठि 'जीवो, 'समकितवंत जीव-स्त्री या पुरुष 'जइ वि हु पावं समायरे 'किंचिः 'अपने निर्वाह के निमित्त से जो भी कुछ पाप व्यापार करता है। अप्पो 'सि होइ 'बंधो, तो भी 'उसे कर्म बंध अल्प ही होता है, क्योंकि वह "जेण "न "नदंघसं "कुणइ।।36|| "निर्दय भाव से अतिपाप व्यापार को "नहीं करता।।36।। 'तं पि हु सपडिक्कमणं, जैसे 'कुशल वैद्य 'व्याधि (रोग) को नाश करता है 'सप्परिआवं 'सउत्तरगुणं च; वैसे ही प्रतिक्रमण क्रिया के द्वारा 'अल्प कर्मबंधक कार्य को भी 'खिप्पं 'उवसामेइ, श्रावक पश्चाताप और 'उत्तरगुण के सदाचरण से 'वाहिव्व 'सुसिक्खिओ विजो।।37|| शीघ्र शान्त (नाश) करता है।।37।। 'जहा 'विसं कुट्ठ-गयं 'जिस प्रकार कोष्ठगत (पेट में गये हुए ) विष (ज़हर) को मंत मूल विसारया मंत्र और जड़ी-बूटी के जानकार 'विज्जा हणंति मंतेहिं, 'वैद्य लोग मंत्रों से उतार देते हैं। तो "तं "हवइ "निव्विसं।।38।। "उससे पेट "विषरहित "हो जाता है।।38।। एवं अट्ठविहं कम्म 'उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मरुपी ज़हर को राग 'दोस समज्जिअं; 'राग द्वेष से उपार्जित पाप को 'आलोअंतो अ निंदतो, 'सुश्रावक गुरुदेव के समीप 'आलोचना और निंदा करता हुआ ""खिप्पं "हणइ 'सुसावओ।।39|| "जल्दी से "नाश कर देता है।।3।। कय 'पावो वि मणुस्सो, 'पाप करने वाला मनुष्य भी 'आलोइअ निदिअ 'गुरु-सगासे; 'गुरुमहाराज के पास 'पापों की आलोचना और निंदा करके "होइ 'अरेग "लहुओ, 'भार उतारे हुए मजदूर की तरह । 'ओहरिअ-भरुव्व भारवहो।।40।। 'कर्म भार से अतिशय "हल्का "हो जाता है।।40।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आवस्सएण एएण, 'यद्यपि 'श्रावक 'अनेक आरंभ, समारंभ और अपरिग्रह आश्रव सावओ 'जइ वि 'बहुरओ होइ; वाला होता है तथापि इस आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया द्वारा 'दुक्खाण मंतकिरिअं वह 'दुःखों का अन्त (नाश) "काही अचिरेण "कालेण।।41।। 'स्वल्प "काल में ही "कर लेता है।।41 ।। 'आलोयणा बहुविहा, 'पाँच अणुव्रत रुप मूलगुण और सात व्रत रुप उत्तरगुण के विषय में न य 'संभरिआ पडिक्कमण काले; आलोचना 'बहुत प्रकार की होती है, वह सारी 'मूलगुण 'उत्तरगुणे, यदि प्रतिक्रमण के समय 'याद नहीं आयी हो, 'तं "निंदे तं च "गरिहामि।।42।। तो उन सब की मैं निंदा और "गर्दा करता हूँ।।42।। 'तस्स ‘धम्मस्स 'केवलि पन्नत्तस्स 'केवली भगवंत के कहे हुए 'उस 'श्रावकधर्म की अब्भुट्टिओ मि आराहणाए आराधना करने के लिए मैं सावधान (उद्यत) हुआ हूँ और 'विरओमि 'विराहणाए 'श्रावकधर्म की विराधना से निवृत्त (अलग) हुआ हूँ। 'तिविहेण "पडिक्कतो, 'त्रिविधयोगपूर्वक "अतिचारों (दोषों) से निवृत्त होकर "वंदामि "जिणे "चउव्वीसं।।4311 "ऋषभदेवादि चौबीस "जिनेश्वरों को भाव से "वंदन करता हूँ।।43।। 'जावंति 'चेइआई, 'जितने 'चैत्य (मंदिर) और बिंब 'उढे अ अहे अतिरिअलोए अ; ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, 'ति लोक में है, सव्वाइं ताई "वंदे, वहाँ रहे हुए उन सब जिनबिंबों को "इह "संतो तत्थ 'संताई।।44|| मैं "यहाँ "रहा हुआ "वंदन करता हूँ।।44।। 'जावंत के वि 'साह, जितने भी साधु 'भरहेरवय-महाविदेहे अ, भरत, ऐरावत और महाविदेह रुप पंद्रह कर्मभूमि में विद्यमान हैं।। सव्वेसिं 'तेसिं "पणओ 'तिविहेण, जो तीन दंडों से रहित है, 'तिदंड विरयाणं ।।45।। 'उन सबको 'त्रिविध योग से "वंदन करता हूँ।।45।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चिर 'संचिअ पाव 'पणासणीइ, 'बहुत काल से 'इकट्ठे किए हुए 'पापों को नाश करने वाली और 'भव 'सय सहस्स ' महणीए, 'लाखों "भवों के भ्रमण को 'मिटाने वाली ऐसी "चडवीस 'जिण "विणिग्गय, "चौबीस 'जिनेश्वरों के मुख से "निकली हुई "कहाइ "वोलंतु "मे "दिअहा | | 46 || "कथा के द्वारा "मेरा " दिन "व्यतीत हो । । 46 || 'अरिहंत भगवान, 'सिद्ध भगवान, साधुमहाराज, 'मम 'मंगल 'मरिहंता, 'सिद्धा 'साहू 'सुअं च 'धम्मो अ; 'सम्म तस्स य' सुद्ध (सम्मदिट्ठी) श्रुतधर्म और 'संयमधर्म ये सब मेरे लिए 'मंगल रुप हो और मेरे 'सम्यक्त्व की शुद्धि करें (सम्यग्दृष्टि देव) एवं मुझे "समाधि तथा "बोधि (जिनधर्म ) " प्रदान करें ||47|| 'निषेध किये हुए हिंसाजनक पापकार्यों को 'करने से "दिंतु "समाहिं च "बोहिं च ||47|| 'पडिसिद्धाणं 'करणे, 'किच्चाणमकरणे अ 'पडिक्कमणं । 'सामायिक, पूजादि करने योग्य कार्यों को नहीं करने से "जिनेन्द्र भाषित तत्त्वों में अविश्वास रखने से और 'असद्दहणे अ तहा, 'विवरीअ 'परुवणाए अ । । 48 । । "जिनागमों से विरुद्ध प्ररूपणा करने से जो पाप दोष लगा हो उसका 'प्रतिक्रमण किया जाता है || 48 || 'खामि 'सव्व' जीवे, 'सर्व 'जीवों को मैं 'खमाता हूँ, 'सव्वे 'जीवा 'खमंतु 'मे 'सर्व 'जीव 'मुझे 'क्षमा करें। "मित्ती मे सव्वभूएसु, समस्त जीवों के साथ 'मेरी "मैत्री है (सभी जीव मेरे मित्र है ) "वेरं "मज्झ "न "केणइ | | 49 ।। " किसी जीव के साथ "मेरा "वैरभाव (दुश्मनावट ) " नहीं है। 49 || 'इस प्रकार मैं' आलोचना करके 'एवमहं 'आलोइअ 'निंदिअ 'गरहिअ 'दुगंछिअं सम्मं । निंदा करके, गर्दा करके और 'पापों से घृणा 'तिविहेण 'पडिक्कं तो ‘मन,वचन,काया रुप पापों से निवृत्त होकर, "वंदामि 'जिणे "चउव्वीसं | |50|| 'चौबीसों तीर्थंकरों को " वंदन करता हूँ | |50|| 10 करके Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय उवज्झाए सूत्र भावार्थ : इस सूत्र में आचार्य, उपाध्याय, शिष्य आदि के प्रति कषायों से जो अपराध हुए हो उनकी क्षमा मांगी गई है। इसी प्रकार सकल जीवराशि के जीवों से क्षमा मांगकर उनको क्षमा दी गई है। 'आचार्य 'उपाध्याय 'आयरिय 'उवज्झाए ं 'सीसे 'साहम्मिए 'कुलगणे य। शिष्य, 'साधर्मिक, 'कुल- गण के प्रति 9 'जे' केइ 'कसाया, "मैंने 'जो "कोई 'कषाय किये हो 12 "सव्वे "तिविहेण "खामेमि ।।1।। " उन सबकी " मन-वचन काया से "क्षमा मांगता हूँ ।। 1 ।। 'पूज्य ऐसे 'सकल 'श्रमण-संघ को 'सव्वस्स समणसंघस्स 'भगवओ 'अंजलि करिअ 'सीसे । 'मस्तक पर 'हाथ जोड़कर 'सभी से 'क्षमा मांगकर "सव्वं 'खमावइत्ता "खमामि 'सव्वस्स' अहयंपि ||2|| "मैं भी सभी को " क्षमा करता हूँ||2|| 10 'सव्वस्स 'जीवरासिस्स 'भावओ 'धम्म ' निहिय 'नियचित्तो। ऐसा मैं ' सर्व जीव राशि के 'सभी जीव से 'क्षमा मांगकर 'सव्वं 'खमावइत्ता, "खमामि "सव्वस्स अहयंपि ||3|| मैं भी "सभी को "क्षमा करता हूँ ।। 3 ।। श्रुत देवता की स्तुति 'भाव से 'धर्म के विषय में स्थापित किया है 'चित्त जिसने भावार्थ : पक्खी प्रतिक्रमण में इस स्तुति का उपयोग होता है । 'सुअदेवयाए 'करेमि काउ. अन्नत्य. मैं 'श्रुतदेवी का 'कायोत्सर्ग करता हूँ। 'सुअदेवया भगवई, 'हे भगवती 'श्रुतदेवी शारदा ! " नाणावरणीय "कम्मसंघायं; 'जिनकी 'श्रुत रुपी समुद्र के विषय में सदा 'भक्ति है। "तेसिं "खवेउ सययं "उनके "ज्ञानावरणीय "कर्म के समूह का आप 'जेसिं 'सुअसायरे 'भत्ती ।।1।। 13 क्षय करो ।।1।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का क्षेत्र देवता की स्तुति (पुरुषों के लिए) 'खित्तदेवयाए करेमि काउ. अन्नत्थ. मैं 'क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग करता हूँ। 'जीसे 'खित्ते 'साहू 'जिनके क्षेत्र में साधुगण 'दसण 'नाणेहिं 'चरणसहिएहिं 'सम्यग् दर्शन, ज्ञान चारित्र सहित "साहंति "मुक्खमग्गं मोक्ष मार्ग को "साधते है। "सा "देवी "हरउ "दुरिआई।।1।। "वे "क्षेत्र देवता "विघ्नों को "दूर करें।।1।। (नोट : उपरोक्त दोनों स्तुति का उपयोग त्रिस्तुतिक मत में नहीं होने से त्रिस्तुतिक वालों को कंठस्थ करने की आवश्यकता नहीं है।) अढाईज्जेसु सूत्र - भावार्थ : इस सूत्र द्वारा अढ़ी द्वीप में रहे हुए सर्व साधु मुनिराजों को वंदन किया गया है। 'अड्डाईज्जेसु दीव समुद्देसु 'अढ़ी द्वीप समुद्र में रहे हुए 'पण्णरससु कम्मभूमिसु 'पंदर कर्मभूमि में रहे हुए 'जावंत के वि साहू जो 'कोई साधु 'रजोहरण "गुच्छ और "पात्रा स्यहरण "गुच्छ "पडिग्णह "धारा||1|| वगेरे (द्रव्यलिंग)"धारण करनेवाले।।1।। पंचमहव्वय 'धारा 'पांच महाव्रत, 'अट्ठारस सहस्स 'सीलंग धारा 'अढ़ार हजार शीलांग 'अक्खुयायार- चरित्ता 'अक्षत आचार और चारित्र वगेरे (भावलिंग)को 'ते सव्वे "सिरसा "मणसा 'धारण करने वाले है उन सर्व को "काया तथा "मन से "मत्थएण वंदामि।।2।। "वंदन करता हूँ।।2।। ___ नमोऽस्तु वर्धमानाय सूत्र नोट : यह सूत्र मात्र पुरुषों के लिए हैं। बहनों को याद नहीं करना। 'इच्छामो 'अणुसटिं हे गुरुदेव ! 'आपकी आज्ञा को हम स्वीकार करते हैं। 'नमो 'खमासमणाणं 'क्षमाश्रमणों को नमस्कार हो, C60 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अड्ढाईज्जेसु... 2. JUL JUJUL 000000000000 NENEnt CIES Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न मो. S स्तु व र्ध मा. ना य स्पर्धमानाय कर्मणा नमोऽस्तु वर्धमानाय PB BLADES JA 容容 येषां विकचारविन्दराज्या તખયાવાતોક્ષાય परोक्षाय સીથિવાન कषाय तापादित जन्तु KAMO Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स 'नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्याय 'अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुभ्यः सर्व साधुओं को नमस्कार हो। 'नमोऽस्तु वर्धमानाय जो 'कर्मवैरी के साथ जीतने की स्पर्धा करते हुए 'जय द्वारा 'स्पर्धमानाय 'कर्मणा। मोक्ष प्राप्त करने वाले है, 'तज्जयावाप्तमोक्षाय जिनका स्वरुप 'मिथ्यात्वियों के लिए अगम्य है ऐसे 'परोक्षाय 'कुतीर्थिनाम्।।1।। "श्री महावीर प्रभु को 'मेरा नमस्कार हो।।1।। 'येषां 'विकचार 'विन्दराज्या 'जिनके 'सुंदर पदकमल देवरचित विकसित कमल की श्रेणी पर ज्यायः 'क्रमकमलावलिं 'दधत्या 'धारण करने पर मानो ऐसा लगता है 'सदृशैरिति सङ्गतं "प्रशस्यं कि समान के साथ समागम होना प्रशंसनीय है, "कथितं "सन्तु "शिवाय "इस प्रकार कहे गए "वे "जिनेन्द्र भगवान "ते "जिनेन्द्राः।।2।। "मोक्ष के लिए "हो।।2।। कषाय 'तापार्दित 'जन्तु 'निर्वृति 'जो वाणी समूह जिनेश्वर प्रभु के मुखरुपी मेघ से पैदा होने पर 'करोति यो जैन 'मुखाम्बुदोद्गतः। कषाय रुप ताप से पीड़ित प्राणियों को 'शान्ति देती है। 'स "शुक्रमासोद्भव "वृष्टि "सन्निभो 'वह "ज्येष्ठ मास की "वर्षा "जैसी है, "आपकी वाणी का "दधातु "तुष्टिं "मयि "विस्तार "मेरे ऊपर "अनुग्रह "करें।।3।। "विस्तरो "गिराम्।।3।। श्रुत देवता की स्तुति (स्त्रियों के लिए) 'कमल दल 'विपुल नयना, 'कमल पत्र जैसे 'विशाल नयनों वाली 'कमल ‘मुखी 'कमल 'कमल जैसे 'मुखवाली 'कमल के मध्यभाग गर्भ 'सम "गौरी . 'जैसे गौर वर्णवाली "कमले "स्थिता "भगवती, और "कमल पर "स्थित ऐसी "पूज्य "ददातु "श्रुत-देवता "सिद्धिम्।।1।। "श्रुत देवता "सिद्धि प्रदान करें।।1।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्र देवता की स्तुति (स्त्रियों के लिए) 'खित्तदेवयाए 'करेमि 'काउ अन्नत्थ 'क्षेत्र देवता की आराधना निमित्ते मैं 'कायोत्सर्ग करता हूँ। 'जिसके 'क्षेत्र का 'आश्रय लेकर साधुओं 'यस्याः 'क्षेत्रं समाश्रित्य, 'साधुभिः साध्यते "क्रिया 'सा 'क्षेत्रदेवता "नित्यं, द्वारा की आराधना 'होती है, 'वह 'क्षेत्र देवता ह 10 " सदा "सुख देनेवाले हो || १ || "भूयान्नः' "सुखदायिनी ॥ १ ॥ (नोट : उपरोक्त दोनों स्तुति का प्रयोग त्रिस्तुतिक मत में नहीं होने से त्रिस्तुतिक वालों को कंठस्थ करने की आवश्यकता नहीं है। ) चउक्कसाय सूत्र भावार्थ : इस सूत्र में पार्श्वनाथ प्रभु की स्तवना की गई हैं। देवसिय प्रतिक्रमण के अंत में व संथारा पोरसी पढ़ाते समय इस सूत्र को चैत्यवंदन के रुप में बोला जाता है। 'चठक्कसाय 'पडिमल्लुल्लूरणु, 'दुज्जय 'मयण 'बाण मुसुमरणु, 10 'क्रोधादि चार कषाय रुपी 'शत्रु योद्धाओं का नाश करने वाले "कठिनाई से जीते जाए ऐसे कामदेव के 'बाणों को तोड़नेवाले, 'नवीन प्रियङ्गुलता के समान वर्णवाले, "हाथी के समान "गतिवाले "तीन भुवन के " स्वामी श्री "पार्श्वनाथ प्रभु की "जय हो||1|| 'जिनके 'शरीर का तेजोमण्डल मनोहर है, जो 'नागमणि की किरणों से युक्त है, "सरस पयंगु वण्णु "गय "गामिड, "जयउ "पासु "भुवणत्तय "सामिउ ||1|| 'जसु 'तणुकंति- कडप्प सिणिद्ध, 15 "सोहइ 'फणि-मणि 'किरणा 'लिद्धड, 'नं 'नवजलहर 'तडिल्ललंछिउ, "सो "जिणु "पासु "पयच्छउ "वेंछिठ॥२॥ जो 'वस्तुतः 'बिजली से युक्त 'नवीन मेघ से " शोभित है, "ऐसे "श्री पार्श्वनाथ "प्रभु" मनोवांछित फल प्रदान करें || २ || 14 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा देवसिय प्रतिक्रमण विधि * प्रथम सामायिक लेकर मुँहपत्ति पडिलेहण, दो वांदणा देकर पच्चक्खाण। * एक खमा. चैत्यवंदन जंकिंचि.नमुत्थुणं, अरिहंत चेइयाणं. अन्नत्थ, एक नवकार काउ. पहली स्तुति, लोगस्स, सव्वलोए, अरिहंत चेइयाणं, अन्नत्थ एक नवकार का काउ., दूसरी स्तुति, पुक्खरवर. सुअस्स भगवओ करेमि काउ. अन्नत्थ एक नवकार का काउ. तीसरी स्तुति, सिद्धाणं बुद्धाणं, (चार थुई वाले वैयावच्चगराणं, एक नवकार का काउ. चौथी स्तुति) * नमुत्थुणं (चार थुई वाले मात्र नमुत्थुणं बोले) से जयवीयराय, एक-एक खमा. देते हुए भगवानहं, आचार्यहं, उपाध्यायहं, सर्वसाधुहं बोलते हुए चरवले पर हाथ रखकर, इच्छा. देवसिअ पडिक्कमणे ठाऊं? इच्छं. सव्वस्सवि देवसि। * करेमि भंते. इच्छामि ठामि. तस्स उत्तरी. अन्नत्थ. नाणंमि, सूत्र न आए तो आठ नवकार का काउ. प्रगट .. लोगस्से, मुँहपत्ति, दो वांदणा। * इच्छा. देवसिअ आलोउं? इच्छं, सात लाख पहले प्राणातिपात. सव्वस्सवि * दायाँ घुटना खड़ाकर, एक नवकार, करेमि भंते, इच्छामि पडिक्कमिउं, वंदित्तुं, दो वांदणा, अब्भुट्ठिओ, दो वांदणा। * आयरिय उवज्झाय, करेमि भंते, इच्छामि ठामि, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ, दो लोगस्स का काउ. प्रगट लोगस्स, सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं. अन्नत्थ. एक लोगस्स का काउ. पुक्खरवर, सुअस्स भगवओ करेमि काउ. अन्नत्थ, एक लोगस्स का काउ. सिद्धाणं-बुद्धाणं (चारथुई वाले सुअदेवयाए करेमि काउ. एक नवकार काउ. कमलदल की स्तुति. खित्तदेवयाए करेमि काउ. एक नवकार, काउ. यस्याः क्षेत्र की स्तुति, प्रगट नवकार।) मुँहपत्ति, दो वांदणा. सामायिक चउविसत्थो वंदण पडिक्कमण काउ. पच्चक्खाण किया है जी इच्छामो अणुसटुिं नमो खमासमणाणं तहत्ति, पुरुषों को नमोऽस्तु वर्धमानाय एवं स्त्रियों को संसार-दावानल। नमुत्थुणं, स्तवन, एक-एक खमा. देते हुए भगवानहं आचार्यहं उपाध्यायहं सर्वसाधुहं बोले अड्डाईज्जेसु। * इच्छा. देवसिअ पायच्छित्त विसोहणत्थं काउ. करूँ? इच्छं देवसिअ पायच्छित्त विसोहणत्थं करेमि काउ. अन्नत्थ. चार लोगस्स का काउ. प्रगट लोगस्स। * एक खमा. इच्छा. सज्झाय संदिसाहुँ इच्छं, एक खमा. इच्छा. सज्झाय करूँ? इच्छं. एक नवकार. सज्झाय. बोलकर एक नवकार। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * एक खमा इच्छा. दुक्खक्खओ कम्मक्खओ निमित्तं काउ करूँ ? इच्छं दुक्खक्खय कम्मक्खय निमित्तं करेमि काउ. अन्नत्थ संपूर्ण चार लोगस्स का काउ. ( चार थुईवाले लघु शांति) प्रगट लोगस्स । * खमा. इरियावहियं. तस्स. अन्नत्थ. एक लोगस्स का काउ प्रगट लोगस्स. चउक्कसाय. नमुत्थुणं. से जयवीयराय। फिर मुँहपत्ति पडिलेहन की विधि से सामायिक पारने की पूरी विधि करें। तिविहार उपवास का पच्चक्खाण सूरे उग्गए अब्भतट्टं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि ) तिविहंपि आहारं, असणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि वत्तियागारेणं, पाणहार पोरसी, साढपोरसी, सूरे उग्गए पुरिमुड्ढ, अवड्ड, मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि) अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं. साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहु लेवेणवा, ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिर । (वोसिरामि) चउविहार उपवास सूरे उग्गए अब्भत्तङ्कं पच्चक्खाइ ( पच्चक्खामि ) चउविहंपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ (वोसिरामि) नोट : दो उपवास का पच्चक्खाण लेना हो तो अब्भत्तट्ठे के बदले छट्टभत्तं बोलना। तीन उपवास का पच्चक्खाण लेना हो तो अब्भत्तट्ठे के बदले अट्ठभत्तं बोलना और आगे जितने उपवास पच्चक्खाण लेना हो उतना डबल करके दो जोड कर जितना भत्तं बनते है वो अब्भत्तङ्कं के बदले बोलना. उदाः चार उपवास का पच्चक्खाण लेना हो तो चार का डबल = 8 + 2 यानि दशम् भत्तं पच्चक्खाइ (पच्चक्खामि ) इस तरह बोलना । आज आपकी पत्नी क्या कहती है ? आर्य देश की स्त्री अपने पति से कहती थी कि जितना होगा उसमें चला लेंगे पर ज्यादा मौज शौक करने के लिए ज्यादा पैसे कमाने के लिए पाप मत करना।... आज आपकी पत्नी क्या कहती है ??? जरा सोचिए ...... 72 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तान थई का काव्य वि ग का ई प्रभु सन्मुख बोलने की स्तुति (नोट : तीन थुई वाले इस काव्य विभाग को कंठस्थ करें) गुणीजन विषे प्रीति धरूं, निर्गुण विषे मध्यस्थता, आपत्ति हो संपत्ति हो, राखुं हृदय मां स्वस्थता। सुख मां रहुं वैराग्य थी, दुःखमां रहुं समता धरी, प्रभु आटलुं जनमो जनम, देजे मने करुणा करी।। माता तमे पिता तमे, मुज जीवन ना नेता तमे, सखा तमे भ्राता तमे, सहु जीवना त्राता तमे। चंदा तमे सूरज तमे, त्रैलोक्यना दीपक तमे, हे नाथ हैयुं दई दिधुं, हवे आजथी मारा तमे।। नयनों में शांति है असीम, मुद्रा भी शांत प्रशांत है, संसार के संताप से, प्रभु दिल मेरा अशांत है, मैं परम शांति पाने को, प्रभु शांति के दरिशन करूँ, ऐसे प्रभु श्री शांतिजिन को मैं भाव से वंदन करूँ। 1 श्री सीमंधर भगवान चैत्यवंदन परम शुद्ध परमातमा, परम ज्योति परवीन। परमतत्त्व ज्ञाता प्रभु, चिदानंद सुखलीन।।1।। विद्यमान जिन विचरतां, महाविदेह मझार। सीमंधर आदे सदा, वंदु वार हजार।।2।। जे दिन देखशं दृष्टि में, ते दिन धन्य गिणेश। सूरि राजेन्द्र ना संग थी, काटीश सकल किलेश।।3।। श्री सिब्दाचल तीर्थ चैत्यवंदन सिद्धाचल वन्दो भवि, सिद्ध अनन्तनो ठाम। अवर क्षेत्रमा अहवो, तीरथ नहीं गुणधाम।।1।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व नव्वाणुं ऋषभजिन, आव्या तीरथ एह । नेम विना सहु जिनपति, फरसे गिरि शुभ नेह || 2 || नाम इकवीस जपे भवि, पामे भवनो पार । सूरि राजेन्द्र पणो लही, मोक्ष श्री भरतार || 3 || बासुपूज्य जिन चैत्यवंदन वासुपूज्य महाराजजी, अवधारो अम आश; दुबल ने देखी करी, बिरुद विचारो खास..।।1।। तु मुद्रा दरसण थकी, चित्त पावे अति चेन; मिथ्यामति माने नहीं, भमशे बहु भव लेन... ।। 2 ।। सूरि विजय राजेन्द्रजी संजम ना दातार; प्रमोद रुची ध्यावे सदा, मिथ्या दूर निवार...।।3।। सीमंधर जिन स्तुति सीमंधर स्वामी ने वंदन कीजे, श्रेयांस कुलना दीवाजी, पुंडरीक नगरी में प्रभु जन्मे, चोरासी लक्ष आयु पूर्वाजी। सत्यकी माता गुण मणि जाणी, चौदह स्वप्ना अवलोकेजी, रुक्मणि ना पति कहलाये, निजगुण से अरिदल रोकेजी ... ।। 1 ।। दस क्षेत्रो में जिनवर विचरे, पद कमल में आवे देवो जी नमन कर गुण गरिमा गावे, मुखडु जोई जोई ध्यावेजी । समवसरण रचना वर, छाजे, जिनवर पीठ बिराजेजी, जग जन्तु हित मधुरी ध्वनि, मालकोष में गाजेजी...।।2।। चौविध श्री संघ स्थापन करते, इंद्राणी मंगल गावेजी, गणनायक लायक पद स्थापे, सब जीवों के मन भावे जी । सूरि राजेन्द्र की वाणी गूंथे, स्याद्वाद् सिद्धांत बतावेजी, विद्याचंद्र यतीन्द्र सूरि से, आतम निर्मल पावेजी...।।3।। शत्रुंजय स्तुति सकल तीरथमां सोहतुं ए, सिद्धाचल शणगार तो; कर्म का मुग गयाए, अनंता अनंत अणगार तो..... 11111 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौविसे जिनवर तणा ए, चैत्य इहा उतंग तो; वंदो भवियण भावशुं ए, पामो शीवसुख चंग तो...।।2।। द्रव्य भाव तीरथ कह्या ए, देखो जिन सिद्धांत तो; सूरि राजेन्द्र ना सूत्र ने ए, वंदो धरी मन खन्त तो... ।। 3 ।। शांतिनाथ जिन स्तुति शांति जिनेश्वर जग परमेश्वर, विश्वसेन रायनंदाजी, अचिरा जननी कुखथी जनम्या, चंद्र वदन सुख कंदाजी | ज्योति झगमग झगमग दीपे, अनुपम रुप सोहन्दाजी, सुर नर किन्नर मिलिनित वंदे, चउसठ सुरपति इन्दाजी... । । 1 । । शांतिकर जग शांति प्रभुजी संजम धर वैरागीजी, केवल पामी समवसरण में बैठे, कर्मभय त्यागीजी । मधुर ध्वनि उपदेश दई प्रभु, अनुभव ज्योति जागीजी, पर्षदा द्वादश सुणता भविनी, भवभय भावठ भांगीजी ... ।। 2 ।। सूत्र सिद्धांत में तेह वखाण्या, सोलमा जिन जयवंताजी, सम्मेत शिखर ऊपर जइ सिद्धा, करी अनशन गुणवंताजी । सूरीश्वर राजेन्द्र पसाया, भयभंजन भगवंताजी, नितप्रति अमृतमुनि वंदे, टाले कर्म का फंदाजी....।।3।। सीमंधर स्वामी स्तवन ( राग : सोनामां सुगंध भले ) सहु जीवाने तारवाजी, तारण तरण जहाज, आप सरुपी आप छो जी, विनंती तुमथी आज, सीमंधर जिन सुणीये मुज अरदास....।।1।। हुं हुं दीन दयामणोजी, तुम छो दीन दयाल, निगोद पीड़ा में सही जी, तुम जाणो निरधार... सीमंधर जिन सुणीये...।।2।। जन्म मरणना दुःख सह्याजी, तेहनो नहीं छे पार, अनंत वार मात पिताजी, थाते न थाये आधार, सीमंधर जिन सुणीये... ।। 3 ।। सुख जाणी जे जे आचर्याजी, ते सहु दुःख थया स्वाम, विषय विशेष विष थयो जी, अरति तणो विसराम, सीमंधर जिन सुणीये.....।। 4 ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे तुमचो शरणो साहियोजी, सूरि राजेन्द्र महाराज, भव भयथी उद्धारजो रे, तारण तरण जहाज, सीमंधर जिन सुणीये.... ....11511 शत्रुंजय स्तवन (राग : ए मेरे प्यारे वतन ) विमलता प्रसरे सदा, विमलगिरि को देखता, मलिनता दूरे खसे, विमलगिरि को पेखता ।।1।। पूर्व नव्वाणु समोसरे, रायण तले प्रभु आवता, इन्द्र चंद्र नागेन्द्र सब मिल, पाय प्रभु के सेवता || 2 || संघ सकल मिल आयके, आदि प्रभु गुण गावतां शुद्ध भाव से भक्ति कर, निज कर्म को संहारता ||3|| जन मन रंजन नाथ निरंजन, भक्तो गणो को तारता, दे दर्शन दान भावुक जन को, जन्म जरा भय वारता ।।4।। - तुम खजाने खुट नहीं प्रभु, इस अधम को उगारता, • तुज चरण सेवी निर्बलो पण, शिवपुरी को जावता ।। 5 ।। विजय राजेन्द्र सूरीश को, यतीन्द्र वाचक वंदता, विद्यानि शुद्ध भावे, गिरिराज दर्शन पावता ||6|| शांतिनाथ भगवान स्तवन ए तो शांति जिणंद बलिहारी, सुखकारी रे जिनेश्वर भेटिये शांति जिन भेट्या दुःख जावे, मन वांछित मंगल थावे, ए तो रिद्धी अचिंती आवे.... ।। 1 ।। जिनेश्वर भेटिये 2 प्रभु काउस्सग्ग मुद्रा ठाढे, गिरी मेरु अचल जिम गाढे, तप फोज करम दल काढे, ... II 2 II जिनेश्वर भेटिये 2 मनवांछित आशा पूरे, कोई देव और सनूरे, मैं तो या जिणंद गुण पूरे... ।। 3 ।। जिनेश्वर भेटिये 2 मन भोले जग में भटक्यो, मिथ्यामति वेगलो छटक्यो, एक ध्यान जिणंद में अटक्यो.... ।। 4 ।। जिनेश्वर भेटिये 2 प्रभु तार तुहि बडभागी, अब और की आश न लागी, जिन चरण सेवा में मांगी....11511 जिनेश्वर भेटिये 2 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज मेरे दिल वसिया,अरि फोज करम दल खसीयाँ, सूरि राजेन्द्र शिवपद रसीया....।।6।। जिनेश्वर भेटिये2 मैं तो बुद्धि रहित गुणहिनो, प्रभु चरण सुधारस पीनो, तुम प्रमोद रुचि पद लीनो...।।7।। जिनेश्वर भेटिये२ समकित मूचक मझाय (राग : प्रभु पार्श्वनुं मुखडं जोवा) समकित विना हो भाई, जीव रुले गति चउमांहि, इम कहे जिनेश्वर वाणी, भवि जीवदया दिल आणीजी, विन समकित तरो न भाई, जीव रुले गति चउमांहि।।1।। समकित विना... तप जप क्रिया सहु फोक, इम भाषे सद्गुरु लोक, तुम शंका करो न कांई, जीव रुले गति चउमाहि।।2।। समकित विना... बहु जीवदया नित्य पाली, विण सरधा गई सहु खाली, तमे तजो कुगुरु संग भाई, जीव रुले गति चउमाहि।।3।। समकित विना... ब्रह्मचर्य भली विध पाल्यो, वली दोष झूठ पिण टाल्यो, नवि आतम करणी पाई, जीव रुले गति चउमाहि।।4।। समकित विना... परिग्रहनी ममता मोडी, धर्या लिंग अनंत कोडी, पिण गरज सरी नहीं कांई, जीव रुले गति चउमांहि।।5।। समकित विना... त्रण काल करी जिनपूजा, तिहां भाव थया नहीं दूजा, पिण सरधा सांची न जाई, जीव रुले गति चउमाहि।।6।। समकित विना... भण्यो गण्यो सहु धूल, जिम जाणे पलासनो फूल, एह वातमां सूत्र सखाई, जीव रुले गति चउमाहि।।7।। समकित विना... इम सूरिराजेन्द्र प्रकाशे, भवि समकित भजो उल्लासे, जिम होवे सिद्ध सगाई, जीव रुले गति चउमाहि।।8।। समकित विना... चार शुई का काव्य विभावर नोट : चार थुई वाले इस काव्य विभाग को कंठस्थ करें और इसके साथ प्रभु सन्मुख बोलने की तीन स्तुति पेज नं. 73 से याद करें। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंधर स्वामी चैत्यवंदन समवसरणे बिराजता, सीमंधर स्वामी, मधुर ध्वनि दिए देशना, वाणी सुधा समाणी.... ।। 1 ।। पर्षदा बेठी सांभले, वाणी नो विस्तार, सहु-सहु ना मनमां थयो, आनंद हर्ष अपार.....।।2।। जाति वैर शमाववा, प्रभु अतिशय अद्भुत, संशय सर्व ना टालीने, करे भवि ने पवित्र... ॥3॥ हुं निर्भागी रझलुं इहां, शा कीधा मैं पाप, ज्ञान विनानी गोठडी, क्यां जई करुं विलाप ... ||4|| मात विना नो बालुडो अथडातो कुटातो, आव्यो छं तुज आगले, राखो तो करुं वातो .... ।। 5 ।। क्रोड़ क्रोड़ वंदना माहरी, अवधारो जिनदेव मां निरंतर आपना, चरण कमल नी सेव....11611 सिद्धाचल चैत्यवंदन सोना रुपाना फूलडे, सिद्धाचल वधावुं, ध्यान धरी दादा तणु, आनंद मन मां लावुं ... ।। 1 ।। पूजा ए पावन थया, अम मन निर्मल देह, रचना रचुं शुभभावथी, करुं कर्मनो छेह .... ।। 2 ।। अभवी ने दादा वेगळा, भवीने हियडे हजूर तन-मन-ध्यान एक लगन थी, कीधां कर्म चकचूर... ।। 3 ।। कांकरे- कांकरे सिद्ध थया, सिद्ध अनंतनो ठाम, शाश्वत जिनवर पूजता, जीव पामे विश्राम.... ।।4।। दादा-दादा हुं करूं, दादा वसीया दूर, द्रव्यथी दादा वेगळा, भावथी हैडे हजुर.... ।। 5 ।। दुःषम काले पूजता, इन्द्र धरी बहु प्यार, प्रतिमा ने वंदता, श्वास मांहे सौ वार... ।।6।। सुवर्ण गुफाए पूजता ए, रत्न प्रतिमा इन्द्र, ज्योति शुं ज्योति मिले, पूजे मली भवि सुखकंद...।।7।। ऋद्धि सिद्धि घेर संपजे, पहोंचे मननी आश, त्रिकरण शुद्धे पूजता, ज्ञान विमल प्रकाश...।।8।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पार्श्वनाथ जिन दैत्यवंदन । जय चिंतामणि पार्श्वनाथ, जय त्रिभुवन स्वामी, अष्ट कर्म रिपु जीतीने, पंचमी गति पामी....||1|| __ प्रभु नामे आनंद कंद, सुख संपत्ति लहिए, प्रभु नामे भव भयतणा, पातक सवि दहिए ...।।2।। ॐ हीं वर्ण जोडी करी, जपीए जिनवर नाम, विष अमृत थई परिणमे, लहिए अविचल ठाम...।।3।। का सीमंधर स्वामी स्तुति पूर्वदिशि उत्तरदिशि वचमां, इशान खूणे अभिरामजी, पुक्खलवई विजये पुंडरिकगिरि, नगरी उत्तम ठामजी। श्री सीमंधर जिन संप्रति केवली, विचरंता जय जयकारजी बीज तणे दिन चंद्रने विनवू, वंदना कहेजो अमारीजी...।।1।। जंबूद्वीपमां चार जिनेश्वर, धातकी खंडे आठजी, पुष्कर अरधे आठ मनोहर, एहवो सिद्धांते पाठजी। पंच महाविदेहे थईने, विहरमान जिन वीशजी, जे आराधे बीज तप साधे, तस मन हुई जगीशजी...।।2।। समवसरणे बेसीने वखाणी, सुणी इन्द्र-इन्द्राणीजी, श्री सीमंधर जिन प्रमुखनी वाणी, मुझ मन श्रवणे सुहाणीजी। जे नरनारी समकितधारी, ए वाणी चित्त धरशेजी, बीज तणो महिमा सांभळता, केवल कमला वरशेजी...।।3।। विहरमान जिन सेवाकारी, शासन देवी सारीजी, सकल संघने आनंदकारी, वांछित फल दातारीजी। बीज तणो तप जे नर करशे, तेहनी तु रखवालीजी, वीरसागर कहे सरस्वती माता, दीओ मुज वाणी ओसालीजी....।।4।। शबुनय स्तुति । श्री सिद्धाचल आदिजिन आव्या, पूर्व नव्वाणु वारजी, अनंतलाभ तिहाँ जिनवर जाणी, समवसर्या निरधारजी। विमलगिरि नो महिमा मोटो, सिद्धाचल ए ठामजी, कांकरे कांकरे अनंत सिद्धा, एकसो ने आठ गिरिनामजी....||1|| Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंडरिक पर्वत पहोलो कहीए, एंशी योजननुं मानजी, वीश कोडीशुं पांडव सिध्या, त्रण कोडीशुं रामजी | शांब प्रद्युम्न साडी आठ कोडी, सिध्या दश कोडी वारीखिल्ल जाणोजी, पाँच कोडिशुं पुंडरिक गणधर, सकल जिननी वाणीजी.... ।। 2 ।। सकल तीरथना एवळी राजा, श्री शत्रुंजय कहीएजी, सात छट्ठ दोय अट्ठम करीने, अविचल पदवी लहीएजी । छःरीपाली नी यात्रा करता, केवल कमला वरिएजी, श्रुत सिद्धांत नो राजा कहीए, तीरथ हृदयमां धरीएजी....।।3।। सिद्धक्षेत्र शेत्रुंजो कहीए, श्री आदिश्वर रायजी, गौमुख ने चक्केश्वरी देवी, सेवे प्रभुना पायजी । शासन देवी समकितधारी, स्नात्र करे संभालीजी, रंगविजय गुरु एणी पेरे बोले, मेरु विजय जयजयकारीजी... ।। 4 ।। पार्श्वनाथ स्तुति पोष दशम दिन पास जिनेसर, जन्म्या वामामायजी, जन्ममहोत्सव सुरपति कीधो, वलीय विशेषे रायजी । छप्पन दिक्कुमारी हुलरायो, सुरनरकिन्नर गायोजी, श्री अश्वसेन कुल कमला वतंसे, भानुउदय सम आयोजी..... ।। 1 ।। पोष दशमी दिन आंबेल करिए, जिम भवसागर तरीयेजी, पास जिणंदनुं ध्यान धरंता, सुकृत भंडार भरिएजी। ऋषभादिक जिनवर चौवीसे, जे सेवो भवि भावेजी, शिवरमणी वरी निज घर बेठा, परमपद सोहावेजी ... ।। 2 ।। केवल पामी त्रिगडे बेठा, पास जिनेश्वर साराजी, मधुर गीराए देशना देवे, भविजन मन सुखकारीजी । दान - शीयल तप भावे आदरशे, ते तरशे संसारजी, आ भव परभव जिनवर जपतां, धर्म होशे आधारजी....।।3।। सकल दिवसमा अधिको जाणी, दशमी दिन आराधोजी, तेवीसमो जिन मनमां ध्याता, आतम साधन साधोजी । धरणेन्द्र पद्मावती देवी, सेवा करे प्रभु आगेजी, श्री हर्ष विजय गुरु चरण कमलनी, राजविजय सेवा मांगेजी.... ।। 4 ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंधर स्वामी स्तवन (राग :- सिद्धाचलना वासी) प्यारा सीमंधर स्वामी, तमे मुक्तिगामी, विदेह वासी, सीमंधर ने वंदना अमारी, तने जोवा तल| मने प्रीति तुझशुं, विदेहवासी, विहरमान ने वंदना अमारी....||1|| मारा मनमां तारो एक जाप, तोये पजवे छे त्रिविधे ताप, आधि-व्याधि वारो, उपाधी टालो, विदेहवासी....।।2।। मने समवसरणे बोलावो, मीठी मधुरी वाणी सुणावो, मोह तिमिर बले, मिथ्यात्व टले विदेहवासी ....।।3।। थाय दरिसन तुमारा पवित्र, तमे जगना गुरु जगमित्र, तमे जगना बंधु, तमने भावे वंदूं, विदेहवासी....।।4।। तमे श्रेयांस राय कुलचंद, सती सत्यकी माता ना नंद, तमे जग मन रंजन, आज ज्ञान अंजन, विदेहवासी....।।5।। महाविदेह वासी प्यारो, हुं तो अंतरथी थयो कालोवालो, ज्ञानविमल गुणधारो, आ भव पार उतारो, विदेहवासी....।।6।। की श@जय का स्तवन (राग : जिंदगी प्यार का गीत है ...) डुगर ठंडो ने डुंगर शीतडो, ए गिरि सिध्या साधु अनंत, डुंगर पोलो ने डुंगर फुटडो, ज्यां वसे छे सुनंदानो कंत....।।1।। पहले आरे श्री पुंडरीकगिरि, ऐंशी योजन, परिमाण, बीजे आरे सीतेर योजन जाणिये, त्रीजे साठ जोजन नुं मान....।।2।। चोथे आरे पचास योजन जाणीए, पाँचमे बार योजन, मान, छठे आरे सात हाथ जाणीए, ओणी पेरे बोले श्री वर्धमान...।।3।। ओ गिरि ऋषभ जिणंद समोसर्या, पूर्व नव्वाणु वारी वार, यात्रा नव्वाणु जे जुगते करे, धन धन तेहनो अवतार....।।4।। जे नर शत्रुजय भेट्या सही, जे नर पूज्या सही आदि जिणंद, दान सुपात्र जेणे दीधा सही, ते फरी न आवे गर्भावास....।।5।। जे नर शत्रुजय भेट्या नहीं, जे नर पूज्या नहीं आदि जिणंद दान सुपात्र जेणे दीधा नहीं, तेना नवी छूटे कर्म ना बंध...।।6।। डुंगर निरखी डुंगर जे चढ़े, डुंगर फरसे सो-सो वार, मुक्ति सामा जे पगला भरे, तेना नवी थाय कर्मना बंध....।।7।। उदयरत्न कहे अवसर पामी ने, यात्रा करशे जे नर नार, श्री शत्रुजय महात्म्य मां कडं, तस घर होंशे मंगल माल....।।8।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पार्श्वनाथ जिन स्तवन (राग : याद आवे मोरी माँ....) भवजल पार उतार (२), श्री शंखेश्वर पार्श्वजिनेश्वर मारो तुं एक आधार....।।1।। काल अनंतो भमता-भमता, क्यांय न आव्यो आरो, धन्य घडी ते मारी आजे, दीठो तुम देदार ....||2|| तुं वीतरागी, तुं अविनाशी, तुं निराबाधी नाथ, हं रागी छु पापी जीवडो, भमतो भव अपार....।।3।। आम दुनियामां तारा जेवो, कोई न तारणहार, वामा नंदन-चंदन थी, पण शीतल जेनी छाँव....।।4।। भवोभव तुम चरण सेवा, मांगु छु दीनदयाल, रंगविजय कहे प्रेमशं रे, विनंती अवधार....।।5।। की मुंदटी तपनी सम्झाय (राग : फूल तुम्हें भेजा है खत में ...) सरस्वती स्वामीनी करुं सुपसाय सुंदरी तप नी भणुं सज्झाय ...।।1।। . ऋषभदेव तणी अंग जात, सुंदरीनी सुनंदा मात, भविजन भावे ए तप कीजे, मनुष्य जन्मनो ल्हावो लीजे.... ||2|| ऋषभदेव जब दीक्षा लीधी, सुंदरी ने आज्ञा नवि दीधी, भरत जाणे मुझ थाशे नारी, मुझ प्राण थकी ए छे प्यारी....।।3।। भरतराय जब षट्खंड साध्यो, सुंदरीए तप मांडी आराध्यो, साठ हज़ार वर्ष लगे सार, आयंबिल तप कीधो निराधार....||4|| चौद रतन ने नव निधान, लाख चौराशी हाथीनु मान, लाख चौराशी जेह ने बाजी, भरत राय आव्या गाजी ....।।5।। __भरतराय मोटा नरदेव, दोय सहस यक्ष करे सेव, अयोध्या नयरीये भरतजी आव्या, महीला सर्वे मोतीडे वधाव्या....।।6।। आ कुण दीसे दुर्बल नारी, सहु कहे सुंदरी बेन तमारी, केम तुमे एने दुर्बल कीधी, मुज बेनडीनी खबर न लीधी...।।7।। सहु कहे आयंबिल तप कीधो, साठ हज़ार वर्ष प्रसिद्धो, जाओ बेनी तुम दीक्षा पालो, ऋषभदेवतुं कुल अजवालो....।।8।। भरतरायनी पामी शिक्षा, सुंदरीए तव लीधी दीक्षा, कर्म खपावी ने केवल पामी, कांति विजय प्रणमे शिरनामी....।।9।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन इतिहास 4) राजसभा में शीलसन्नाह मंत्री पर स्थिर हो गई। कुणाल पत्र पढ़ रहा है। yenge candy छः महिने में 1260 हत्या करनेवाले अर्जुनमाली को जिन प्रवचन का रसिक बनानेवाले कायोत्सर्ग करते सेठ सुदर्शन । सेठ के धर्म प्रभाव से अर्जुन के देह में से भागता यक्ष कुणाल पिता की आज्ञा पालन के लिए अपनी दोनों आंख फोड़ रहा है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धि की सीढ़ी • मारना हो तो जीतना हो तो • खाना हो तो . पीना हो तो देना हो तो • पहनना हो तो लेना हो तो छोड़ना हो तो • बोलना हो तो • खरीदना हो तो • देखना हो तो • सुनना हो तो करना हो तो खराब इच्छाओं को मारो क्रोध-तृष्णा को जीतो गुस्से को खाओ ईश्वर भक्ति का शरबत पीओ नज़र नीची करके देकर, फिर भूल जाओ नेकी का जामा पहनो माता-पिता, गुरु के आशीर्वाद लो मान, अभिमान, घमंड छोड़ो सत्य, मीठे वचन बोलो प्रेमभाव को खरीदो अपनी बुराई को देखो गुणीजनों के गुणगान सुनो साधु-संतों, अबला, वृद्धों, तपस्विओं की सेवा वैयावच्च करके मानवजीवन को सफल करो. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बान की आशातना से बचिए वरदत्त और गुणमंजरी की कथा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सर्व शोभा युक्त पद्मपुर नामक नगर था। वहाँ के राजा अजितसेन एवं रानी यशोमति को वरदत्त नामक पुत्र था। जब वह आठ वर्ष का हुआ तब राजा-रानी ने उसे पंडित के पास पढ़ने के लिए भेजा। लेकिन ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण वह एक भी अक्षर पढ़ नहीं पाया। वरदत्त कुमार जब यौवनावस्था में आया तब उसे कोढ़ रोग हो गया। कोढ़ रोग से कुमार का शरीर बेडौल और कुत्सित बन गया। राजा-रानी ने अनेक उपचार करवायें पर सब निरर्थक गये, रोग कम नहीं हुआ। उसी पद्मपुर नगर में सिंहदास नामक सेठ रहता था। उसको कर्पूरतिलका नाम की पत्नी और गुणमंजरी नाम की पुत्री थी। उसकी पुत्री जन्म से ही रोगी एवं गूंगी थी। माता-पिता ने गुणमंजरी के रोग एवं गूंगेपन को दूर करने के अनेक प्रयास किये, पर रोग नहीं गया। ___एक दिन उस नगर के उद्यान में चतुर्ज्ञानी श्री विजयसेनसूरिजी पधारें। नगर के लोग उनको वंदन करने के लिए उमड़ पड़े। राजा भी सपरिवार वंदन करने के लिए गए। आचार्यप्रवर ने धर्मदेशना दी। देशना के पश्चात् सिंहदास सेठ ने खड़े होकर ज्ञानी गुरु से पूछा “हे भन्ते ! मेरी पुत्री गुणमंजरी ने ऐसा कौन-सा निकृष्ट कर्म बाँधा है जिसके फलस्वरुप इसे रोगी एवं गूंगी होना पड़ा?" तब ज्ञानी गुरु ने कहा “हे देवानुप्रिये ! यह विश्व अनेक संकटों एवं विपदाओं का स्थान हैं। इस विश्व में जीव जैसा कर्म बाँधता है वैसा फल भोगता है। तेरी पुत्री भी पूर्व भव में बाँधे गये कर्म के कारण रोगी एवं दुःखी बनी है। इसका पूर्वभव इस प्रकार है ___ धातकीखंड के भरतक्षेत्र में खेटकपुर नामक नगर में जिनदेव नामक एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुंदरी था। उन दोनों को 5 पुत्र एवं 4 पुत्रियाँ थी। जिनदेव ने अपने पाँचों पुत्रों को अध्ययन करने के लिए पाठशाला भेजा। परन्तु वे पाँचों उन्मत होकर खेल-कूद में ही लीन रहते थे। एक बार उन बालकों के तूफानों से रुष्ट होकर अध्यापक ने उन्हें थोड़ा मारा-पीटा। इस पर वे पाँचों रोते-रोते अपनी माँ के पास गये। माँ ने ममतावश अपने पुत्रों से कहा कि "बेटा! आज के बाद तुम पढ़ने मत जाना। तुम्हारे पिता के पास धन की कमी कहाँ है? तुम लोग घर में ही आराम से रहो।” इस प्रकार कहकर स्वयं अध्यापक को डाँटने के लिए पाठशाला गई। वहाँ अध्यापक से कलह (झगड़ा) किया तथा पुस्तकें-पट्टियाँ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि जो पढ़ने के साधन थे, वे सब अग्नि में डाल दिये। जब जिनदेव को यह बात पता चली तब वह बड़ा दुःखी हुआ। उसने अपनी पत्नी को बहुत समझाया। लेकिन उसकी पत्नी समझने के बदले उल्टा जिनदेव पर क्रोध करने लगी। इधर ये पाँचों पुत्र बड़े हुए। पाँचों दिखने में तो सुंदर एवं सुशील थे। लेकिन थे अनपढ़, मूर्ख । अतः किसी भी श्रेष्ठी ने उनको अपनी पुत्री नहीं दी। इस बात पर जिनदेव एवं उसकी पत्नी सुंदरी के बीच प्रतिदिन कलह होता था। दोनों पुत्रों के अनपढ़ रहने का कारण एक-दूसरे को बतातें थे। एक बार दोनों के बीच झगड़ा बहुत बढ़ गया और गुस्से में जिनदेव ने एक बड़ा पत्थर सुंदरी के मस्तक पर मार दिया । इससे सुंदरी का मस्तक फट गया और वही पर उसकी मृत्यु हो गयी। वह सुन्दरी ही मरकर तेरी पुत्री मंजरी बनी है। इसने पूर्वभव में ज्ञान और ज्ञानी की आशातना की थी, जिससे इस भव में इसकी ऐसी स्थिति हुई है।" आचार्य भगवंत की वाणी सुनकर गुणमंजरी को वहीं पर जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसने अपना पूर्वभव देखा। उसने इशारे से गुरुभगवंत को कहा कि आपने जो फरमाया वह सत्य और यथार्थ है । सिंहदास ने गुरुभगवंत से गुणमंजरी के रोग को दूर करने का उपाय पूछा। तब गुरुभगवंत ने कहा कि “निकाचित कर्मों के लिए तप अमोघ उपाय है।” उन्होंने गुणमंजरी को ज्ञान - पंचमी तप की विधि बताई । उसी समय राजा अजितसेन ने भी ज्ञानी गुरु से अपने पुत्र वरदत्त की रोगोत्पत्ति का कारण पूछा। तब ज्ञानी गुरु ने वरंदत्त का पूर्वभव सुनाया। भरतक्षेत्र के श्रीपुर नामक नगर में वसु नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। उस सेठ को वसुसार एवं वसुदेव नाम के दो पुत्र थे । मुनिसुंदर नामक आचार्य से प्रतिबोधित होकर दोनों ने दीक्षा ली। छोटे भाई वसुदेव बुद्धिमान होने से गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। अब वसुदेव आचार्य प्रतिदिन पाँच सौ साधुओं को पढ़ाते थे । एक दिन वसुदेवाचार्य मध्याह्न में आराम करने जा रहे थे कि इतने में एक मुनि आकर किसी सूत्र पद का अर्थ पूछा । आचार्यश्री ने उसे समाधान देकर भेजा कि इतने में दूसरे मुनि आए, दूसरे के बाद तीसरे, तीसरे के बाद चौथे मुनि आए । आचार्य ने सब को संतुष्ट करके भेजा। इसके बाद आचार्यश्री सो गये। अभी नींद लगी ही थी कि एक क्षुल्लक शिष्य ने आकर आचार्यश्री की निद्रा भंग कर दी। इस प्रकार बार-बार निद्रा में स्खलना होने से आचार्य श्री संतप्त होकर विचार करने लगे कि मेरा बड़ा भाई वास्तव में पुण्यशाली है। वह शांतिपूर्वक खा-पी - सो सकता है। पर मैं तो अपनी इच्छा से सो भी Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सकता। वास्तव में मूर्खता ने उसको सुखी किया है। यदि मैं भी अपने भाई के समान मूर्ख होता तो आज चैन की नींद सोता । इन विचारों से उन्होंने निर्णय लिया कि आज के बाद ना ही मैं स्वयं पढूंगा और ना ही दूसरों को पढ़ाऊँगा। इस प्रकार क्रोधाविष्ट हुए आचार्य वसुदेवसूरि ने बारह अहोरात्री मौन रहकर ज्ञान की विराधना की। आलोचना किये बिना ही मरकर, हे राजन् ! यह तेरा पुत्र वरदत्त हुआ है। इसका बड़ा भाई मानसरोवर में हंस हुआ है। आचार्यदेव की बात सुनकर वरदत्तकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसने भी अपना पूर्वभव देखा। राजा अजितसेन ने आचार्य भगवंत से अपने पुत्र के रोग निवारण करने का उपाय पूछा। तब आचार्य भगवंत ने ज्ञानपंचमी की जैसी विधि गुणमंजरी को बतायी थी, वैसी ही विधि वरदत्त को भी बतायी गुणमंजरी और वरदत्त दोनों ने भावपूर्वक पंचमी तप की आराधना की । तप के प्रभाव से दोनों निरोगी एवं स्वरुपवान बने। प्रौढ़ावस्था में दोनों ने संयम अंगीकार किया और अनुत्तर विमान में देव बनें। वहाँ से तीसरे भव में केवली बनकर मोक्ष में जायेंगे । भाष मुनि की कहानी किसी आभीर (रबारी) के पुत्र ने बड़ी उम्र में दीक्षा ग्रहण की। आवश्यक सूत्र के योगोद्वहन के पश्चात् उत्तराध्ययन के योगोद्वहन के समय पूर्व संचित ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने से उन्हें उत्तराध्ययन के चौथे अध्ययन का एक अक्षर भी याद नहीं हुआ। बहुत मेहनत की पर निष्फल हुए । तब गुरुदेव ने उन्हें दो शब्द याद करने के लिए दिये - मा रुष, मा तुष अर्थात् द्वेष नहीं करना, राग नहीं करना । यह पद वे याद करने लगे। किन्तु इतना भी उन्हें ठीक से याद नहीं हुआ और मारुष, मातुष के बदले माषतुष- माषतुष याद करने लगे। आसपास के लड़कों ने हास्य एवं निंदा से उनका नाम ही माषतुष मुनि रख दिया। अब माषतुष मुनि लोगों के लिए हास्यस्पद बन गये। लेकिन उनके प्रति मन में समता भाव रखकर एवं अपने पूर्व संचित कर्मों को दोष देकर मुनि माषतुष पद को ही याद करने लगे। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना प्रयास चालू रखा और एक दिन इस पद को याद करते कर मुनि शुभ ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ हुए और लोकालोक में प्रकाश करने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया । माषष मुनि की बारह वर्ष की मेहनत रंग लायी। आज तक हमने एक सूत्र की एक गाथा को याद करने में कितनी मेहनत की है ? यह विचारणीय है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक राजा कुणाल पाटलीपुत्र के राजा अशोक को कुणाल नामक पुत्र था । सौतेली माता के डर से अशोक राजा ने को बाल्यावस्था में ही अवन्ति नगरी भेज दिया था। जब कुणाल आठ वर्ष का हुआ तब अशोकराजा ने कुणाल के नाम एक पत्र लिखा "हे कुमार ! त्वयाऽधीतव्यमिति मदाज्ञाऽचिरेण विधेया। हे कुमार आपको अभी अध्ययन करना है, यह मेरी आज्ञा है ।" इस प्रकार का पत्र लिखकर अशोक राजा किसी कार्य में व्यस्त हो गये। उस समय कुणाल की सौतेली माता वहाँ आयी और उसने वह पत्र पढ़ा। पत्र पढ़कर उसने विचार किया कि जब तक यह कुमार रहेगा तब तक मेरे पुत्र को राज्य नहीं मिलेगा। इसके लिए मुझे कुछ करना पड़ेगा। और पत्र में जहाँ राजा ने अधीतव्यं ( अध्ययन करने योग्य) लिखा था । वहाँ उसने अपनी आँख में लगाये हुए काजल से "अ" अक्षर के ऊपर एक बिंदी लगा दी अर्थात् अधीतव्यं के बदले अंधीतव्यं हो गया। अर्थात् तू अंधा बनने योग्य है। और उसने वह पत्र बंद करके वहीं रख दिया। राजा अशोक ने वह पत्र पढ़े बिना ही अवन्ति भेज दिया। कुणाल ने जब पत्र पढ़ा तब उसे बहुत ही ' दुःख लगा। परंतु अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करके उसने अपने ही हाथों से गरम लोहे की सलाखें अपनी दोनों आँखों में डाल दी। अब कुणाल अंधा हो गया । अहो ! मात्र एक अनुस्वार रुपी मात्रा बढ़ जाने से अर्थ का अनर्थ हो गया। इस प्रकार हमें भी सूत्र अशुद्ध नहीं सिखने चाहिए । जो मात्रा जहाँ हो, उसका उच्चार भी वहीं होना चाहिए, जिससे अर्थ का अनर्थ न हो जाये। सूत्र याद करते समय ही अक्षर, पद, मात्रा, संपदा आदि बराबर देख लें ताकि सूत्र याद करते समय भूल न हो। माँ-बाप को मत भूलना घर का नाम मातृछाया और पितृछाया पर उसमें माँ बाप की परछाई भी न पडने दे तो फिर उस घर का नाम पत्नीछाया रखना ज्यादा उचित है। 86 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राथमिक र 1. महाराजा कुमारपाल की साधर्मिक भक्ति ___ एक दिन एक श्रावक ने कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत हेमचन्द्राचार्य को जाड़ा वस्त्र वहोराया। वही वस्त्र पहनकर एक बार वे भव्य रथयात्रा में आये। कुमारपाल ने उन वस्त्रों में आचार्यश्री को देखा तो उनका हृदय दुःखी हो गया। उस वक्त उन्होंने गुरुदेवश्री को कुछ भी नहीं कहा। लेकिन रथयात्रा के पश्चात् कुमारपाल राजा तुरंत ही उपाश्रय में आए और कहा “गुरुदेव यह क्या ? हमारे जैसे भक्त होते हुए भी आपके शरीर पर ऐसा खादी का वस्त्र ? प्रभु ! लोग क्या कहेंगे? अठारह देश के राजा कुमारपाल ! और उसके गुरु के पास ऐसे वस्त्र ? लोग मुझे कृपण कहेंगे तथा मेरी टीका करेंगे। यह तो मेरे लिए कितने शर्म की बात है।” . तब गुरुदेव ने कहा- “कुमारपाल ! आपको ऐसा विचार क्यों नहीं आया कि मेरे राज्य में ऐसा वस्त्र वहोराने वाला साधर्मिक बन्धु अपना निर्वाह कैसे कर रहा होगा? उसकी स्थिति कैसी होगी? आपको शर्म तो इस बात पर आनी चाहिए कि आप आराम से राज-सुख भोग रहे हो और आपके साधर्मिक कष्टपूर्वक जीवन जी रहे है।" यह सुनते ही कुमारपाल ने वहीं पर प्रतिज्ञा ली कि मैं हर वर्ष एक करोड़ सोना मोहरें साधर्मिक भक्ति के लिए खर्च करूँगा। इसके पश्चात् कुमारपाल महाराजा 14 वर्ष तक जीवित रहे और उन्होंने 14 वर्ष में 14 करोड़ सोना मोहरें साधर्मिक भक्ति के लिए खर्च की। वे निर्धन साधर्मिक को कम से कम 100 सोना मोहरें देते थे और यदि किसीको उससे ज्यादा जरुरत होती तो उतनी भी देते थे। ____एक वर्ष पूरा होने के पश्चात् एक दिन इस साधर्मिक भक्ति की देख-रेख करने वाले आभड़ सेठ ने कुमारपाल राजा से कहा “हे राजन् ! इस वर्ष की भक्ति का लाभ मुझे दीजिए। मैं इसके पैसे राजभंडार से नहीं लेना चाहता।" तब कुमारपाल राजा ने कहा - "नहीं भाई ! ऐसा नहीं हो सकता। पहले से ही मैं कृपण कहलाता हूँ, यदि तुम्हें लाभ दे दूंगा तो और ज्यादा कृपण कहलाऊँगा। मुझे धन पर रही मूर्छा उतारने का अनमोल अवसर प्राप्त हुआ है। तुम कोषाध्यक्ष के पास से अपनी एक करोड़ सोना मोहरें वापिस ले लो।” __ आभड़ सेठ ने कई दलीले देकर वह लाभ लेने की कोशिश की। परंतु कुमारपाल ने आभड़ सेठ की विनंती को अस्वीकार किया। इस प्रकार 14 वर्ष तक कुमारपाल राजा ने प्रति वर्ष एक करोड़ सोना मोहरों की साधर्मिक भक्ति की। धन्य है ऐसे महान साधर्मिक भक्ति करने वाले राजा को ! Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 2. वढ़वाण के श्रावक वढ़वाण शहर की बात है। वहाँ के निवासी जीवदया को अपना जीवन-प्राण मानने वाले • थे। एक दिन एक साधर्मिक बंधु बिमार हुए। परन्तु आर्थिक स्थिति अच्छी न होने से वह दवाई भी नहीं खरीद सके। बिमारी से ग्रस्त वे साधर्मिक रात को बहुत हैरान-परेशान हो रहे थे। उसी शहर के एक नामी श्रावक को इस बात का पता चला। उस दिन उनको मौन था। चतुराई पूर्वक संकेत से दवाई के नाम का पेपर प्राप्त कर उन्होंने बाज़ार से सब दवाईयाँ खरीद ली। रात के 11-00 बजे वे धीरे से गरीब साधर्मिक के घर गए। अंधेरे में अन्दर जाकर दवाईयाँ चुपचाप रखकर वे श्रावक वापस लौट ही रहे थे कि अचानक उनको किसी वस्तु से ठोकर लगी। आवाज़ से वहाँ के लोग सावधान हो गए और ज़ोरजोर से चोर-चोर चिल्लाने लगे। कोलाहल सुनकर आस-पास के लोग इकट्ठे हुए और उस श्रावक को पकड़कर चोर समझकर मारने लगे। श्रावक मौन रहे। इस विषय में वे कुछ भी ज़ाहिर नहीं करना चाहते थे। लोगों ने उन्हें बहुत मारा, फिर भी उन्होंने मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला। अंत में किसी समझदार व्यक्ति ने कहा “यह चोर नहीं होगा। क्योंकि चोर कभी भी चुपचाप इतनी मार नहीं खा सकता, दीपक लाओ।” दीपक लाकर देखा तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा। “अरे ! यह हमने क्या किया? आवेश में आकर किसे मार दिया। यह तो हमारे सेठ है।" ऐसा कहकर सब लोग पश्चाताप करने लगे। वे श्रावक तो वहाँ से चुपचाप निकल पड़े। बाद में लोगों को सही बात का पता चला कि वे दवाईयाँ रखने आए थे। ऐसे परोपकारी, साधर्मिक भक्ति करने वाले आज भी है। 3. मन्त्रीवर पेथड़ मंत्रीश्वर पेथड़ मांडवगढ़ के मंत्री थे। एक वर्ष का छियालीस मण सोना उनका वेतन था। अढलक संपत्ति के मालिक पेथड़ सेठ राजसभा में जाते समय पालकी में बैठकर जा रहे हो तब सामने से यदि कोई साधर्मिक बंधु आता हुआ दिख जाए तो पालकी से नीचे उतरकर साधर्मिक को प्रेम से गले लगाते थे। फिर उसे आमंत्रण देते थे कि “बंधु! घर पधारो।” मांडवगढ़ के मंत्री जब उनको गले लगाएँ और घर आने का आमंत्रण दे तो कौन अस्वीकार करेगा? पेथड़ शाह स्वयं राज-दरबार में जाते और उस साधर्मिक को घर भेजते थे। वहाँ पेथड़ शाह की माँ उनका स्वागत करती। बातचीत करते हुए पूछ लेती थी कि, “आप कहाँ से आए हो? क्या धंधा करते हो? आपको किस वस्तु की जरुरत है?” उस साधर्मिक को भविष्य में किसी बात की चिंता ही न रहे ऐसी पहेरामणी भेंट देती थी। ऐसी अपूर्व थी उनकी साधर्मिक भक्ति। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सदासोम एक नगर में सदाचंद नामक सेठ रहते थे। वे वहाँ के बहुत बड़े व्यापारियों में गिने जाते थे। देश परदेश में उनका धंधा चलता था। एक बार समुद्र में तूफान आने के कारण सेठ के जहाज परदेश से आते हुए उसमें फँस गये। लेकिन अब तक डूबे की नहीं इसके समाचार लोगों को नहीं मिले थे। फिर भी लोगों ने मान लिया कि जहाज डूब गए हैं। इसलिए उन्होंने अफवाह फैलाई कि सदाचंद सेठ की पेढ़ी उठने वाली है यह सुनकर अनेक लोग अपनी जमा की हुई रकम सेठ के पास लेने आए। सेठ ने लेनदारों को शक्य था उतना दे दिया । एक दिन एक बड़ा व्यापारी अपने 1 लाख रुपये लेने के लिए सेठ के घर आया। परिस्थिति वशात् सेठ ने कहा “भाई थोड़े दिन रुक जाओ। अभी तक जहाज के समाचार नहीं आए है।" लेकिन लेनदार तो मानने के लिए तैयार ही नहीं हुआ । सदाचंद सेठ बहुत परेशानी में आ गए कि अब मैं क्या करूँ? उन्होंने परमात्मा का स्मरण किया और नवकार मंत्र का ध्यान धरना शुरु किया । तभी उन्हें सोमचंद सेठ की याद आई और उन्होंने अहमदाबाद निवासी सोमचंद सेठ को रोते-रोते एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने पत्र लेकर आने वाले को 1 लाख रुपये देने को कहा। पत्र लिखते समय आँसू की दो बूँदै पत्र पर गिरी। लेनदार वह पत्र लेकर सोमचंद सेठ के वहाँ पहुँचा तथा उन्हें पत्र दिया। सोमचंद सेठ ने सदाचंद सेठ की मात्र ख्याति सुनी थी। न तो उनके बीच कोई व्यापारिक संबंध थे और ना ही कोई पहचान। सोमचंद सेठ ने उस पत्र को उलट-पलट कर पढ़ा। सदाचंद सेठ का खाता तो उनकी पुस्तक में कही नज़र नहीं आया। विचार करते-करते वह सदाचंद सेठ के पत्र को देख रहे थे कि अचानक आँसू की बूँद से भीगे हुए पत्र के भाग पर उनकी नज़र पड़ी। अतः उन्होंने. तय कर दिया कि जरुर सदाचंद सेठ ने परिस्थिति वशात् यह पत्र लिखा है। और उन्होंने उस व्यापारी को एक लाख रुपये दे दिये। एवं उसकी कोई हुंडी बही खाते में दर्ज नहीं की। कैसी ज्वलंत साधर्मिक भक्ति ! इस तरफ थोड़े दिन बाद सदाचंद सेठ के सारे जहाज वापस आ गए। व्यापार व्यवस्थित हो गया। थोड़ा धन कमाने के बाद सदाचंद सेठ अपना ऋण उतारने के उद्देश्य से एक लाख रुपये लेकर अहमदाबाद पहुँचे। सोमचंद सेठ से मिलने के बाद वे बोले “सेठजी यह आपके एक लाख रुपये।” सोमचंद सेठ ने कहा, “आप कौन हो ?” तब वे बोले “मैं सदाचंद सेठ हूँ। कुछ महिनें पूर्व मेरे पत्र लिखने पर आपने एक लाख की हुंडी स्वीकार की थी। आपने उस वक्त मेरी सहायता की उसके लिए धन्यवाद। आप यह राशि स्वीकार कर मुझे ऋण मुक्त कीजिए।” तब सोमचंद सेठ ने बहीखाता Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकालकर देखा। लेकिन उसमें उनका नाम कहीं नहीं था। सोमचन्द सेठ ने कहा, “सेठजी ! मेरे बहीखाते में आपका नाम ही नहीं है।" सदाचंद सेठ “यह कैसे हो सकता है। आप याद कीजिए, एक लाख की रकम कोई मामूली बात नहीं है। यह रुपये आपके ही हैं।” सोमचंद सेठ ने वह रुपये स्वीकार नहीं किये। सदाचंद सेठ भी उस पराये धन को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच काफी समय तक आनाकानी चली। अंत में दोनों ने मिलकर एक रास्ता निकाला कि इन पैसों से हम परमात्मा का जिनालय बना दें। प्रभु का भक्त इसके सिवाय और करें भी क्या? और दोनों ने मिलकर गिरिराज पर भव्य जिनालय बनवाया जो आज भी सदा-सोमा की ट्रॅक के नाम से उनकी यश गाथा गा रहा है। दो बूंद आँसू की कथा देखो। जिस व्यक्ति को देखा नहीं मात्र जिसका नाम सुना था ऐसे सोमचंद सेठ को सदाचंद सेठ ने रोते हुए एक पत्र लिखा और दो परोक्ष आँसू ने यह कार्य किया। ऐसी अपूर्व थी हमारे पूर्वजों की साधर्मिक भक्ति। 5. पुणिया श्रावक पुणिया श्रावक पहले पूनमचंद सेठ के नाम से प्रख्यात थे। उनके घर में लक्ष्मी का साक्षात् वास था। दुनिया भर के सारे सुख उनके चरणों में थे। एक दिन उन्होंने प्रभु वीर की देशना सुनी और धन की मूर्छा तथा उसके परिग्रह से होने वाले भयंकर परिणामों को जाना। धन यह सर्व अनर्थों की खान है। इसलिए धन के विषय में कुछ तो मर्यादा रखनी ही चाहिए। ऐसा जानकर पूनमचंद सेठ ने स्वयं के पास रही हुई अपार संपत्ति को सातों क्षेत्र में खर्च कर दी। एवं स्वयं ने अपने हाथों से काती हुई रुई को बेचने का सामान्य धंधा करना शुरु किया तथा गाँव के अंत में एक झोपड़ी में रहने चले गए। उन्होंने परिग्रह का परिमाण कर लिया था तथा उसी में संतोष मानने लगे। अब वे रोज इतना ही कमाते थे जिसमें से पति-पत्नी के एक समय के भोजन की व्यवस्था हो जाये। एक दिन प्रभु वीर के पास उन्होंने साधर्मिक भक्ति की महिमा सुनी। तब उनके हृदय में नित्य साधर्मिक भक्ति के भाव जागृत हुए। घर आकर उन्होंने यह बात अपनी पत्नी से कही। पत्नी को भी यह सत्कार्य अँच गया। परंतु अब तकलीफ यह खड़ी हो गई कि साधर्मिक भक्ति करने के लिए पैसे कहाँ से लाए ? यदि वह चाहते तो ज्यादा धन कमा सकते थे। परन्तु उन्हें ऐसा रास्ता चाहिए था जिसमें ज्यादा कमाना भी न पड़े तथा साधर्मिक भक्ति भी हो जाएँ। यदि अंतर हृदय में सच्ची भावना हो तो कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। आखिर रास्ता निकल गया। पुणिया को कर्मपत्नी नहीं परंतु धर्मपत्नी मिली थी। अतः दोनों ने मिलकर एकांतर से उपवास करने का निश्चय किया और प्रतिदिन एक साधर्मिक को भोजन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवाने लगे। पुणिया श्रावक ने साधर्मिक का महत्त्व कितना आत्मसात् किया होगा कि स्वयं की प्रतिकूल स्थिति में भी एकांतर उपवास करके साधर्मिक भक्ति करने लग गये। धन्य है उस पुणिया श्रावक को। श्री 6. जगईशाह राजा वीरधवल के बाद उनकी राजगद्दी पर विशलदेव नामक राजा हुए। एक बार उनके राज्य में भयंकर दुष्काल पड़ा। तब उसी नगर के निवासी जगडुशाह सेठ ने तीन साल तक उस अकाल के समय में दानशाला चलाई। दान देते समय जगडुशाह स्वयं परदे के पीछे बैठते थे। जिससे दान लेने वालों को शर्म या संकोच की अनुभूति न हो। वास्तव में दाँये हाथ ने जो दिया, वह बाँये हाथ को भी पता न चले इस प्रकार दान देना चाहिए। राजा विशलदेव जगइशाह की परीक्षा करने के इरादे से वेश बदलकर जगडुशाह की दानशाला में गये। वहाँ विशलदेव राजा ने परदे के बाहर खड़े होकर अपना हाथ लंबा किया। जगडुशाह ने हाथ देखा। उसमें रही हुई रेखा देखकर उन्हें पता चल गया कि यह किसी राजा का हाथ है। उन्होंने विचार किया कि “राजा भी इस हालत में है? फिर तो इन्हें विशेष दान देना चाहिए।" __ वैसे भी मानो कि यदि कोई व्यक्ति 2 रोटी खाता हो और कोई 12 रोटी खाता हो, और हम दोनों को समान ही रखे यानि कि 12+2=14 का आधा = 7। यानि दोनों को 7-7- रोटी दें तो दो रोटी खानेवाले को अजीर्ण होगा तथा 12 रोटी खाने वाला भूखा ही रह जाएगा। अतः 2 रोटी खानेवाले को 2 और 12 रोटी खानेवाले को 12 रोटी ही देनी चाहिए। इसलिए जगडुशाह ने विशलदेव राजा के हाथ में किमती रत्न रखा। विशलदेव ने जब रत्न देखा तो पूछा “किसने यह रत्न किसको दिया है?" सेठ जगडुशाह ने कहा “आपके भाग्य ने आपको दिया है।" ऐसा सुनकर तुरन्त ही विशलदेव राजा ने परदा हटाया और जगडुशाह सेठ को देखकर उन्हें खुशी से गले लगा लिया। ऐसे महान गुप्त दानी थे जगडुशाह !. 27. माणेकलाल सेठी मुंबई नगर के बड़े व्यापारी सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल के घर मंदिर में रही रत्न की प्रतिमा किसी श्रावक ने चुरा ली। उस समय माणेकलालजी भी मंदिर में ही थे। चोरी करनेवाले श्रावक को उन्होंने चोरी करते हुए देख लिया था। इसलिए वे जल्दी से मंदिर के बाहर आये और जब वह श्रावक भी मंदिर से Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर आया तब उसको बुलाकर घर पर भोजन के लिए आमंत्रण दिया। सेठ के आमंत्रण को सुनकर वह चोर काँप उठा। परंतु उसके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था। इसलिए वह सेठ के साथ उनके घर चला गया। वहाँ खाना खाते समय सेठ ने उन्हें चोरी करने का कारण पूछा। डरते-डरते उस श्रावक ने बताया कि वह जुएँ में अस्सी हज़ार रुपये हार गया है। इसलिए उसकी भरपाई के लिए उसने यह चोरी की। सेठ ने उसी समय एक लाख रुपये नकद साधर्मिक भाई को पहेरामणी के रुप में भेंट किए। वह श्रावक रोने लगा। तब सेठ ने कहा “भाई ! रो मत, तुमने तो मुझे साधर्मिक भक्ति का लाभ दिया है। तुम तो मेरे उपकारी हो।" ऐसी होनी चाहिए जीवन में साधर्मिक भक्ति। श्री 8. साधर्मिक भक्ति से मिले उदयनमंत्री, कुमारपाल तथा हेमचन्द्राचार्य र परमात्मा महावीर स्वामी के परमभक्त श्रेणिक महाराजा भी अपने राज्य में जितनी जीवदया का पालन नहीं करा सकें उससे भी कई गुणा अधिक जीवदया का पालन कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने महाराजा कुमारपाल के द्वारा करवाई। ऐसे सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य हमें मिले इसके पीछे उदयन मंत्री की विचक्षणता तथा शासन स्नेह था। परंतु यह उदयन मंत्री हमें मिले इसके मूल में हसुमति बहन के हृदय में रही हुई साधर्मिक भक्ति ही थी। . उदा नामक एक वणिक निर्धन बन गया था। गरीबी से लड़ते हुए उसने घर छोड़कर दूसरे नगर में व्यापार करने का विचार किया। अपनी पत्नी तथा बच्चों को साथ लेकर तीन दिन तक भूखे-प्यासे चलते हुए वह एक नगर में पहुँचा। पर अब जाएँ कहाँ ? ना कोई रिश्तेदार है और ना ही किसी के साथ जान-पहचान। दुःखी तथा पापी जीवों के लिए इस विश्व में यदि किसी का सहारा है तो भगवान का। उदा भी अपने परविार को लेकर प्रभु के मंदिर में पहुँच गया। दर्शनादि कर प्रभु की स्तवना करने लगा। पति-पत्नी दोनों प्रभु भक्ति में इतने लयलीन बन गए कि अपनी सारी तकलीफें भूल गए। चीथड़े हाल में बैठे हुए भक्ति में लीन ऐसे कुटुंब पर उसी नगर की श्रीमंत विधवा श्राविका हसुमती बहन की नज़र पड़ी। - उसने उदा की परिस्थिति को भाँप लिया। जब उदा कुटुंब सहित मंदिर से बाहर निकला तब हसमति उसके पास गई एवं उन्हें भोजन का आमंत्रण देकर सबको घर ले आई। सत्कारपूर्वक उस कुटुंब की साधर्मिक भक्ति कर उनको पहेरामणी दी। हसुमति बहन ने पूछा ? “भाई ! निसंकोच होकर मुझे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताओ कि आप लोग इस नगर में कहाँ रहेंगे और क्या करोगे ?” उदा ने जवाब दिया- “फिलहाल मेरे हाथ में थोड़ी रकम है। मैं वणिक पुत्र हूँ । अतः अब क्या धंधा करना और कैसे धन कमाना इसकी बुद्धि मेरे पास है। अब सवाल मात्र रहने का है। भगवान की कृपा से रहने के लिए छत मिल जाये तो अच्छा होगा।” तब हसुमति ने अपना एक छोटा-सा घर उसे रहने के लिए दे दिया। तब उदा ने आग्रह करके घर का किराया निश्चित किया । उदा के भाग्य ने साथ दिया एवं व्यापार द्वारा उसने अच्छा धन कमाया। कुछ दिनों बाद उसने हसुमति से घर खरीदने की बात की। हसुमति के लिए तो साधर्मिक भक्ति का सुनहरा अवसर था। इसलिए उसने कम दाम में उदा को घर बेच दिया। दूसरे दिन उदा ने घर का नव निर्माण करने हेतु घर को तुड़वाना शुरु करवाया। खोदते समय एक सोने का चरु बाहर निकला । चरु लेकर उदा हसुमति के घर गया और चरु हसुमति को सौंपने लगा । परंतु हसुमति ने लेने से इन्कार कर दिया। उसने कहा कि “मैंने घर बेंच दिया है। अब इस घर पर तथा चरु दोनों पर मेरी मालिकी नहीं है। जो यह मेरे किस्मत में होता तो वर्षों से यह घर मेरे पास था तो मुझे पहले ही मिल जाता। लेकिन आपके घर खरीदने के बाद यह बाहर निकला है। अतः यह आपका ही है।" परन्तु उदा को हराम का माल लेना कतई पसंद नहीं था। उसने सिद्धराज जयसिंह राजा के दरबार में जाकर शिकायत की। राजा ने दोनों पक्षों की बात सुनकर चरु का मालिक उदा को बताया। यह न्याय सुनकर हसुमति बहुत ही आनंदित हुई । परन्तु उदा को वह चरु “हराम का माल” लगने से उसने उस धन से जिनमंदिर बनवाने का निर्णय किया। और दूसरे दिन से. ही शिखरबंधी जिनालय बनवाने का कार्य शुरु हो गया । चरु की सारी संपत्ति जिनालय में लगा दी। जब सिद्धराज जयसिंह को इस बात का पता चला तो उसने उदा की उदारता से प्रभावित होकर उदा को मंत्री पद पर नियुक्त किया । उदा उदायन मंत्री बन गया। वह जिन का भक्त, गुरु का दास, साधर्मिक का प्रेमी और जिन धर्म का वफादार सेवक बना। उसी समय में पूज्यपाद देवचन्द्रसूरिजी महाराजा, उस समय के सनातन धर्मियों की ओर से जैन धर्म पर आ रहे आक्षेपों एवं आक्रमण से व्यथित थे। एक रात शासन देवी ने स्वप्न में आकर कहा कि “धंधुका में चाचिंग नामक अजैन वणिक एवं पाहिनी नाम की एक जैन माता के पुत्र चांगा को जैन दीक्षा देने की प्रेरणा करो। आपकी सब मनोव्यथा का अंत यह चांगा करेगा।" इस स्वप्न के अनुसार सूरिजी 93 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धंधुका जाकर पिता की गैरहाजरी में माता की हर्ष पूर्ण संमति पूर्वक चांगा को वहोर कर खंभात आ गए। घर आकर जब चाचिंग को इस बात का पता चला तब वह बहुत ही क्रोधायमान हुए और पुत्र को वापिस लाने के लिए खंभात आए। सूरिजी को जब इस बात का पता चला तब उन्होंने महामंत्री उदायन को सारी बात से अवगत कराया। उदायन मंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि आप चिंता न करों। मैं सब कुछ संभाल लूँगा। जैसे ही चाचिंग उपाश्रय पहुँचा कि तुरंत ही उदायन मंत्री के सेवक उन्हें भोजन के लिए घर ले गये। उस समय चांगा मंत्रीश्वर के घर पर ही खेल रहा था। पिता को देखकर चांगा अपने पिता से लिपट गया। स्वयं उदायन मंत्री ने उनको भोजन करवाया। भोजन के बाद मंत्रीश्वर ने चाचिंग के समक्ष एक जोड़ी धोती और तीन लाख सोना मोहर रखी। तत्पश्चात् स्वयं के दो युवान पुत्रों को भी बुलाया। मंत्रीश्वर ने चाचिंग से कहा “भाई ! हमारे समग्र जैन संघ के अत्यंत आदरणीय एवं प्रिय गुरुदेव श्री देवचन्द्रसूरिजी को देवी के पास से आपके लाडले पुत्र चांगा के अतिभव्य भावी के लिए आगाही प्राप्त हुई है। आपका यह चांगा हमारे जिन शासन के गगन का चाँद बनने वाला है। मुझे पता है कि आपको आपका पुत्र बहुत प्रिय है। फिर भी मैं समस्त जैन संघ की तरफ से विनंती करता हूँ कि हमारे गुरुदेवश्री की इच्छा को आप पूर्ण करें। मैं आपको अतिथि सत्कार में पहेरामणी के रुप में एक जोड़ी धोती और तीन लाख सोना मोहर अर्पण करता हूँ। साथ ही मेरे ये दो युवान पुत्र जो व्यापार के खिलाड़ी हैं। उनको भी आपको अर्पण करता हूँ। आप मुझे अति हर्ष पूर्वक आपका लाडला पुत्र समर्पित कीजिए।" उदायन मंत्री की बातें सुनकर चाचिंग गद्गद् हो गया और कहने लगा “मन्त्रीश्वर ! बस कीजिए, आपको आगें कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने अपना यह पुत्र आपको सौंप दिया। मेरा पुत्र जिन शासन का चमकता सितारा बनेगा। ऐसा सद्भाग्य मुझ रंक की ललाट पर कहाँ से....? आप खुशी से इसे स्वीकार कीजिए और आपके प्रेम के प्रतीक रुप में यह एक मात्र धोती की पहेरामणी मैं स्वीकार करता हैं।" तत्पश्चात् उल्लासपूर्वक चांगा की दीक्षा हुई। उनका सोमचन्द्र विजयजी नामकरण हुआ। यह मुनिराज ही भविष्य में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव हेमचन्द्राचार्य बनें। इनकी निश्रा में ही परमार्हत गूर्जरेश्वर कुमारपाल राजा ने जैन शासन में अमारि प्रवर्तन का डंका बजाया था। इन महान आत्माओं के मिलन में कारणभूत हसुमति बहन की साधर्मिक भक्ति ही थी। जैन धर्म के तमाम अंगों को मजबूत करती है साधर्मिक भक्ति। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. झांझण सेठ झांझण सेठ महान साधर्मिक भक्त सेठ पेथड़ शाह के पुत्र थे। 'बाप से बेटा सवाया' इस बात को चरित्रार्थ करनेवाली उनके जीवन की यह घटना है। झांझण सेठ ने कर्णावती (अहमदाबाद) से छ:रि पालित संघ निकाला। उस समय संघ में ढाई लाख यात्रालु थे। उस समय कर्णावती में सारंगदेव राजा राज्य करते थे। उन्होंने झांझण सेठ से कहा कि “तुम्हारे संघ में जितने भी सुखी यात्रालु है, उनको मैं भोजन के लिए आमंत्रण देता हूँ। उन्हें तुम मेरे यहाँ भोजन के लिए भेजो।" सेठ ने कहा "मेरे संघ में सुखी-दुःखी का कोई भेद ही नहीं है। मेरे लिए सारे यात्रालु एक समान है।" तब राजा ने कहा “ठीक है तुम तुम्हारे संघ के मुख्य 2-3 हज़ार लोगों को भोजन के लिए ले आना।” तब सेठ ने प्रत्युत्तर में कहा “मैं यह भी नहीं कर सकता क्योंकि मेरे लिए सब एक समान है।” इतना कहकर उन्होंने राजा के निमंत्रण को साभार अस्वीकार कर दिया तथा कहा “यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं पूरे गुजरात को भोजन करवाना चाहता हूँ।” तब राजा ने हँसते हुए कहा कि “मेरे जैसा राजा ढाई लाख यात्रालु को भोजन नहीं करा सकता और तुम पूरे गुजरात को भोजन करवाने की बात कर रहे हो। ठीक है, मैं तुम्हारा आमंत्रण स्वीकार करता हूँ।” संघ-कार्य पूरा होने के पश्चात् पूरे गुजरात को भोजन करवाने का तय हुआ। राजा ने झांझण सेठ को नीचा दिखाने के लिए जोर-शोर से पूरे गुजरात में इस आमंत्रण का प्रचार किया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आए। झांझण सेठ ने भी “सेर पर सवा सेर" बनकर एक दिन नहीं अपितु पूरे 5 दिन तक पूरे गुजरात को भोजन करवाया। 5 दिन के बाद झांझण सेठ ने राजा को स्वयं के रसोई घर में आने के लिए आमंत्रण दिया। रसोई घर में मिठाईयों के ढेर देखकर सारंगदेव राजा आश्चर्य चकित हो गये। विराटकाय वाले राक्षस का पेट भर सके उतनी मिठाईयाँ 5. दिन के बाद भी बची थी। अद्भूत एवं अकल्पनीय भक्ति द्वारा झांझण सेठ ने साधर्मिक भक्ति का लाभ लिया। 10. सांतनु और जिनदास भगवान महावीर स्वामी के समय में सांतनु नामक पुण्यशाली श्रावक था। उसकी पत्नी का नाम कुंजीदेवी था। उसी नगर में जिनदास नामक सेठ थे। सांतनु और जिनदास दोनों संघ के अग्रगण्य थे। सांतनु के दुष्कर्मों के उदय से लक्ष्मी ने चारों तरफ से अपना मुँह फेर दिया। उन्हें धंधे में बहुत बड़ा नुकसान हुआ। यहाँ तक की खाने-पीने के लिए एक दाना भी नसीब में न रहा। एक बार रात्री में Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांतनु अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर रहे थे, कि “अब क्या करें? कुछ समझ में नहीं आ रहा?" तब पत्नी ने सलाह दी कि “एक काम करो आप चोरी करो।” जिनदास ने कहा “क्या?" “हाँ ! मैं सही कह रही हूँ। जिनदास सेठ प्रतिक्रमण में अपना मूल्यवान हार उतारकर रखते हैं। उसे आप चुरा लो।" यह सुनकर एक बार तो सांतनु को एक झटका लगा परंतु सांतनु को अपनी पत्नी पर पूरी श्रद्धा थी। क्योंकि कुंजीदेवी स्वयं श्राविका थी। उसके पास वीतराग का धर्म था। उसने कुछ सोच-विचार कर ही ऐसी सलाह दी होगी। ऐसा सोचकर दूसरे दिन सांतनु वह हार चुरा कर घर पहुंचा। इधर जब जिनदास सेठ ने हार नहीं देखा तो विचार किया कि “आज मेरे पास सांतनु के सिवाय अन्य कोई व्यक्ति नहीं था। हो न हो हार जरुर सांतनु ने ही लिया है।” पर उस समय जिनदास बिना कुछ बोले ही घर आ गए। उसी रात्रि में सांतनु को विचार आया कि मैंने कभी जीवन में अनीति-अन्याय का कार्य नहीं किया। यदि मैं पकड़ा गया तो ? मेरे पूर्वजों के मेहनत से कमाई हुई ख्याति पर कलंक लग जाएँगा। उन्होंने अपने विचार अपनी पत्नी को बताएँ। तब कुंजीदेवी ने धीरता पूर्वक कहा “आप किसी प्रकार की चिंता न करें। अब यह हार आप जिनदासजी की दुकान में ही गिरवी रख कर आइए।" सांतनु दूसरे दिन डरते हृदय से जिनदास की दुकान पर गये तथा वह हार गिरवी रखने को कहा। जिनदास सेठ सांतनु की परिस्थिति से परिचित थे। अतः उन्होंने अनजान बनकर 5 हज़ार रुपये देकर हार गिरवी पर ले लिया। सांतनु दुःखी मन से घर पहुंचा। पत्नी ने समझाया कि “दुःखी होने की जरुरत नहीं है। अब इस नीति के धन से व्यापार करो। देखना यह नीति का धन क्या रंग लाता है।" सांतनु ने धंधा शुरु किया। कुछ ही समय में पूर्ववत् धन कमाया। परन्तु फिर भी मन में चोरी करने का पश्चाताप था। एक दिन अपने पाप का इकरार करने की भावना से ब्याज सहित रुपये लेकर सांतनु जिनदास सेठ के पास गया और कहा-“सेठजी ! यह आपकी रकम” सेठ ने कहा- “हाँ ! भाई दे दीजिए तथा अपना हार वापिस ले जाइए।" उस समय सांतनु रो पड़ा और सेठ से कहा “सेठजी अनजान क्यों बन रहे हो किसका हार वापिस दे रहे हो?” उस समय जिनदास सेठ की आँखों में भी आँसू आ गए और वे बोले - सांतनु गलती मेरी ही है। हम दोनों एक ही गद्दी पर बैठने वाले, टीप आदि में भी एक समान पैसे देने वाले। फिर भी तुम्हारी परिस्थिति बिगड़ी तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया। गुन्हेगार तुम नहीं मैं हूँ। इतना कहकर दोनों गले लग गए यह है परमात्मा का शासन। ऐसी होती है, साधर्मिक भक्ति। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चत कर भव रुक्मिराजा क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा की रुक्मिणी नामक पुत्री थी। यौवनवय में एक सुंदर राजकुमार के साथ उसका विवाह करवा दिया गया। विवाह सानंद संपन्न हुआ। परंतु कर्मवशात् विवाह के दिन ही रुक्मिणी के पति की मृत्यु हो जाने से दुर्भाग्य वश उसकी सारी खुशियाँ गम में पलट गई। अत्यंत शोकाकुल बनी रुक्मिणी ने अपने पति के साथ चिता में प्रवेश करने का निर्णय किया। उसने यह निर्णय अपने पिताजी को बताया। उसके पिताजी ने उसे समझाते हुए कहा - “पुत्री ! इस जगत में हर व्यक्ति दुःखी ही है। परंतु महान तो वही बनता है, जो दुःखों का सामना करता है। मैं तुम्हारे दुःख को समझ सकता हूँ, परंतु मृत्यु की शरण लेना यह दुःख मुक्ति का सच्चा उपाय नहीं है।” रुक्मिणी ने दुःखित स्वर में कहा। "पिताजी ! मैं दुःखों से डरकर मरना नहीं चाहती, परंतु मुझे डर है कि भर युवानी के कारण इस विधवा के वेश में कहीं आपके कुल को कलंकित न कर दूँ।” रुक्मिणी के विचार सुनकर राजा का हृदय गद् गद् हो गया, उनकी आँखों में हर्ष के आँसू आ गए। उन्होंने कहा,“रुक्मिणी । शील संबंधी तुम्हारी सावधानी सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। परंतु पुत्री ऐसी कल्पना से अपने मानव जीवन को खत्म करना यह उचित नहीं है। यह अमूल्य मानव भव तो सुकृतों से भरने के लिए हैं।” तब रुक्मिणी ने कहा - "पिताजी इतना कहने मात्र से मेरी समस्या का समाधान नहीं हो जाता, मेरे शील की रक्षा का क्या ?" तब राजा ने कहा - “रुक्मिणी ! मैं तुम्हारे लिए एक अलग महल की व्यवस्था कर दूंगा। तुम वहाँ रहकर उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करना। साध्वीजी भगवंतों की शुभ निश्रा में रहकर धर्माराधना करना।” रुक्मिणी को पिताजी की यह बात जंच गई। तत्पश्चात् वह एकांत में प्रसन्नतापूर्वक निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करने लगी। कुछ समय बाद पिताजी की मृत्यु हो गई। राजपुत्र नहीं होने के कारण सब ने मिलकर सर्वानुमति से उत्कृष्ट ब्रह्मचारिणी रुक्मिणी का राज्याभिषेक कर दिया। उस समय से वह 'रुक्मिराजा' के नाम से जानी जाने लगी। राजा बनने के पश्चात् निर्मल-ब्रह्मचर्य के कारण उसकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई। उसके ब्रह्मचर्य के प्रभाव से राज्य व्यवस्थित रुप से चलने लगा। एक दिन रुक्मिणी के ब्रह्मचर्य की ख्याति सुनकर ‘शीलसन्नाह' नामक एक ब्रह्मचर्य प्रेमी राजकुमार रुक्मि राजा के दर्शन करने के लिए पधारें, तथा राजसभा में परदेशियों के विभाग में उचित स्थान पर बैठे। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजसभा में चारों तरफ नज़र डालते हुए रुक्मि राजा की दृष्टि एवं शीलसन्नाह की दृष्टि परस्पर मिली। शीलसन्नाह का रुप एवं यौवन देखकर रुक्मि राजा की दृष्टि में विकार उत्पन्न हो गया। "अहो ! क्या अद्भूत रुप है।” रुक्मि राजा की आँखों में उत्पन्न हुआ विकार राजकुमार की नज़र से बच नहीं पाया। वह तुरंत राजसभा से निकल गया। राजकुमार अत्यंत खेद करने लगा एवं स्वयं के रुप को धिक्कारते हुए सोचने लगा कि, “धिक्कार है मेरे इस रुप को जिसने सर्वत्र प्रख्यात बनी हुई ब्रह्मचारिणी को भी लुभा दिया। अहो ! कैसी भयंकर है यह कामवासना। इतने वर्षों तक की हुई उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की साधना मात्र दृष्टि में निष्फल हो गई।” वैराग्य उत्पन्न होने से राजकुमार ने संसार का त्याग कर संयम ग्रहण किया। क्रमशः गीतार्थ आचार्य बने। एक दिन विचरते-विचरते क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आचार्य भगवंत का पदार्पण हुआ। आचार्य भगवंत के वैराग्यवर्धक उपदेश को सुनकरं रुक्मिराजा का अंतःकरण भी वैराग्य वासित हो गया। उन्होंने आचार्य भगवंत को हाथ जोड़कर निवेदन किया कि गुरुदेव ! भवजलधि से पार उतारने. में जहाज समान चारित्र जीवन मुझे प्रदान करने की कृपा करें। इस भवंसमुद्र से मेरा उद्धार कीजिए। विशाल राजपाट का त्याग करके साध्वी बनने का उत्कृष्ट वैराग्य देखकर आचार्य भगवंत ने भी अनुमति दे दी। परन्तु आचार्यश्री ने उन्हें चारित्र जीवन स्वीकार ने से पूर्व अति महत्त्वपूर्ण भव-आलोचना करने की प्रेरणा दी। गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर रुक्मि राजा ने अपने जीवन की किताब खोलनी शुरु की। बचपन से लेकर आज दिन तक की जीवन रुपी किताब के पन्ने खुलते गए। परंतु जैसे ही जीवन का वह पन्ना आया जब किसी राजकुमार को देखकर उनका मन विकृत हो गया था तब अहंकार ने उनके मन पर कब्जा जमा दिया। उन्होंने सोचा यदि मैंने यह बात बता दी तो मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? मेरी ब्रह्मचारिणी की पदवी का क्या होगा? अतः उन्होंने उस पन्ने को अनदेखा कर बाकि सारी आलोचना ले ली। _आचार्य भगवंत को तो सारी बात मालूम ही थी। अतः उन्होंने कहा- “रुक्मि याद करो और कुछ बाकि तो नहीं रह गया?” रुक्मि राजा ने कहा - “नहीं गुरुदेव सब कुछ कह दिया है।” तब आचार्य श्री ने सोचा “अभी भले ही ये आलोचना नहीं कर रहे हैं, परंतु दीक्षा लेने के पश्चात् सूत्रों का अध्ययन करने से इनका वैराग्य प्रबल बनेगा। तब दोष छिपाने से होने वाले परिणामों को समझकर अपने आप प्रायश्चित कर लेंगे।" ऐसा सोचकर आचार्यश्री ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी। दीक्षा के पश्चात् रुक्मि साध्वीजी ज्ञान, ध्यान, तप, साधना द्वारा अपना जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ वर्षों के बाद आचार्यश्री ने जीवन का संध्याकाल नज़दीक जानकर जिनाज्ञानुसार अनशन करने का निर्णय किया तथा अनशन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्य अन्य साधु-साध्वीजी को भी प्रेरणा दी। इससे रुक्मि साध्वीजी ने भी अनशन करने का विचार किया। अनशन करने के पूर्व आचार्यश्री ने फिर से एक बार आलोचना करने को कहा। अनशन करने वाले सभी साधु-साध्वीजी आचार्य भगवंत की पावन निश्रा में सूक्ष्मता से स्वजीवन की आलोचना करने लगे। रुक्मि साध्वीजी भी संयम जीवन में लगे हुए सूक्ष्म से सूक्ष्म दोषों को याद कर उनकी आलोचना करने लगी। “एक बार बोलते वक्त मुँहपत्ति का उपयोग नहीं रहा। दस-बारह कदम ईर्यासमिति के पालन में चुक गई। बगीचे में रहे हुए मोहक फूल पर दृष्टि स्थिर हो गई। प्रतिक्रमण में एक बार एक काउस्सग्ग बैठे-बैठे किया।" इस प्रकार की अनेक प्रकार की आलोचनाएँ की। परंतु अपने राग-विकार वाली उस दृष्टि की आलोचना नहीं ली। आचार्यश्री ने बार-बार “और कुछ, और कुछ” ऐसा पूछकर उन्हें याद दिलाने की कोशिश की, परंतु सब प्रयास निष्फल गये। बार-बार आचार्य भगवंत के कहने के बाद भी जब रुक्मि साध्वीजी पाप स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुई। तब अवधिज्ञानी महर्षि करुणार्द्र हृदय से आचार्यश्री ने आगे कहा “वत्से ! याद करो जब तुम राजा थे तब हम दोनों की नज़र मिली थी। उस समय तुम्हारे मन में विकार भाव पैदा हुआ था।” यद्यपि उस वक्त रुक्मि साध्वी को सारी जानकारी थी ही। परंतु ब्रह्मचर्य पालन करने में मैने एक बार मानसिक भूल की थी। यह बात प्रगट करने के लिए उनका मन तथा उनकी जीभ तैयार नहीं थी। अतः माया भरे शब्दों में उन्होंने कहा, “नहीं गुरुदेव ! उस वक्त मेरे मन में विकार नहीं था। मैंने तो मात्र आपकी परीक्षा करने के लिए ऐसा दिखावा किया था।” दूसरे चाहे कितना भी कहे लेकिन जब तक व्यक्ति खुद के पापों को खुद स्वीकार नहीं करता है तब तक उन्हें गुरुभगवंत भी नहीं तार सकते। यह सोचकर आचार्य भगवंत ने भवितव्यता पर छोड़ दिया। परिणाम? इतनी भव्य साधना-आराधना करने वाली आत्मा को भी एक लाख भव तक भटकना पड़ा। अतः कोई भी बात गुरु के आगे कभी भी न छिपाकर शुद्ध आलोचना लेनी चाहिए। श्री अर्जुनमाली मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक की राजधानी राजगृही नगरी के बाहर एक रमणीय उद्यान था। उसमें मुद्गरयक्ष का एक मंदिर था। उस यक्ष का परम भक्त था - 'अर्जुनमाली'। वह नित्य अपनी पत्नी बंधुमति के साथ उस यक्ष की पूजा करता था। एक दिन दोनों पूजा करके आ रहे थे, तब वहाँ खड़े छ: कामांध पुरुषों की नज़र बंधुमति पर पड़ी। नज़र पड़ते ही उनकी कामवासना जागृत हो गई और वे बंधुमति की तरफ गये। अर्जुनमाली एक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सामने छ: व्यक्ति थे। अतः वह अकेला कुछ भी करने की स्थिति में नहीं था। उन्होंने मिलकर अर्जुनमाली को स्तंभ से बाँध दिया तथा उसी के सामने बंधुमति के साथ कुचेष्टा करने लगे। यह देख अर्जुनमाली क्रोध में आकर यक्ष को धिक्कार ने लगा कि “सचमुच तुम पत्थर के बने हो। अन्यथा अपने ही स्थान पर हो रहे इस अनर्थ को कैसे देख सकते हो ? आज तक आपकी इतनी भक्ति की उसका यह फल ?" संयोगवश उस देव ने अवधिज्ञान से सारी स्थिति जान ली। यक्ष ने क्रोधित बने अर्जुनमाली के शरीर में प्रवेश किया। यक्ष के बल से अर्जुनमाली ने सारे बंधन तोड़ दिये और यक्ष की मूर्ति के हाथ से मुद्गर लेकर क्रोधावेश में आकर उन छःओं को और साथ ही बंधुमति को मार दिया। उसका क्रोध इस हद तक बढ़ गया कि उसने उसी वक्त प्रतिज्ञा ली कि “जब तक मैं एक दिन में छः पुरुष एवं एक स्त्री को मौत के घाट नहीं उतारूँगा तब तक चैन से नहीं बैठेंगा।” अब वह नित्य ही सात लोगों को मारने लगा। इससे सारी नगरी में हाहाकार मच गया। नगरवासी जब तक सात लोगों के मर जाने की खबर नहीं सुनते तब तक घर से बाहर नहीं निकलते थे। यह क्रम छ:महिने तक चलता रहा। एक दिन प्रभु महावीर स्वामी राजगृही उद्यान में पधारें। राजगृही नगर के सम्यक्त्वी श्रावक श्रेष्ठी सुदर्शन को प्रभु दर्शन करने की तीव्र इच्छा हुई। सभी के मना करने के बावजूद भी वे निडर बनकर परमात्मा के दर्शनार्थ निकल पड़े। रास्ते में अपने शिकार को देखते ही अर्जुनमाली क्रोध से लाल बनकर उन्हें मारने के लिए दौड़ा। उसे अपनी ओर आते देख सेठ तुरंत काउस्सग्ग ध्यान में खड़े हो गए तथा जहाँ तक उपसर्ग न टले वहाँ तक चारों आहार का त्याग कर दिया। अर्जुनमाली उनके पास आया। लेकिन श्रमणोपासक, श्रेष्ठिवर्य सुदर्शन के काउस्सग्ग ध्यान के प्रभाव से हिंसक यक्ष अर्जुनमाली के देह को छोड़कर भाग गया। अर्जुनमाली बेहोश होकर गिर पड़ा। कुछ देर बाद उसे होश आया। वह सुदर्शन श्रेष्ठी के चरणों में गिर पड़ा। उसने श्रेष्ठी से पूछा - “आप कौन हो?। और कहाँ जा रहे हो?" तब सेठ ने जवाब दिया। “मैं प्रभु वीर का श्रावक हूँ। समीप के उद्यान में प्रभु पधारे है। मैं उनके दर्शन के लिए जा रहा हूँ। तुम भी मेरे साथ चलो तथा प्रभु दर्शन से अपनी आत्मा को पावन बनाओ।” अर्जुनमाली को अपने किए गए कुकार्यों का पश्चाताप होने लगा। वह प्रभु के दर्शनार्थ गया। वहाँ प्रभु की देशना सुनकर उसका अंतःकरण वैराग्य से वासित हो गया। उसने परमात्मा के चरणों में संयम अंगीकार कर उसी समय अपने जीवन में किए गए घोरातिघोर पापों को प्रभु के समक्ष प्रगट किए।अपने कुकार्यों के प्रायश्चित के रुप में जीवन पर्यंत छट्ठ के पारणे छ? करने की प्रतिज्ञा ली। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा के पश्चात् पारणे के दिन जब अर्जुनमाली मुनि गोचरी वहोरने जाने लगे तब लोग कहने लगे कि “यह हत्यारा है। इसने मेरे पिता को मारा।” इसी प्रकार कोई माँ, भाई, बहन, पुत्र, पति आदि का घातक बताकर उन्हें अपमान भरे शब्दों से धिक्कारने लगे। परंतु अर्जुनमाली मुनि - “यह सब मेरे ही कर्मों का फल है" ऐसा सोचकर सब कुछ समतापूर्वक सहन करने लगे। इस प्रकार प्रचंड समता भाव से सारे उपसर्गों को सहन करते-करते उन्होंने अंत में अनशन कर सर्व घाति कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। छः महिने तक नित्य सात-सात जीवों की हत्या करने से छः महिनों के 180 दिनों में कुल 1260 जीवों का घात किया। जिसके प्रायश्चित के रुप में छ: महिने तक उत्कृष्ट तप करके अंत में केवली बनकर मोक्ष में गए। अतः घोर से घोर पापी भी उसी भव में प्रायश्चित कर लेने से मोक्ष में जा सकता है। इसलिए किये हुए पापों की इसी भव में शुद्ध आलोचना कर लेनी चाहिए। 8 खंधक ऋषि जितशत्रु राजा तथा धारिणी रानी को खंधक नामक पुत्र था। एक दिन धर्मघोष मुनि की देशना सुनकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर उन्होंने संयम जीवन अंगीकार किया। इस संसार सागर को अस्थिर जानकर खंधक ऋषि छट्ठ-अट्ठमादि उग्र तप के साथ समिति-गुप्ति का पालन करते हुए विचर रहे थे। एक दिन वे अपनी सांसारिक बहन का ससुराल जिस नगरी में था, उस नगरी में पधारें। वे राज महल के नीचे से गुज़र रहे थे। तब राजमहल के झरोखे में बैठी उनकी बहन की नज़र मुनिवर पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसने अपने भाई मुनि को पहचान लिया। भाई मुनि की ऐसी कृश-काया देखकर रानी को बहुत दुःख लगा। उसने सोचा “ओह ! मैं इतने राजभोग में मस्त हूँ और मेरे भाई की यह स्थिति है।" ऐसा सोचते ही रानी की आँखों में आँसू आ गए। राजा ने यह सारा दृश्य देख लिया तथा उन्होंने अनुमान लगाया कि “जरुर यह मेरी रानी का कोई पुराना प्रेमी होगा।” इससे राजा को बहुत क्रोध आया। उन्होंने तुरंत अपने सैनिकों को बुलाकर कहा “जाओ, उस मुनि की खाल (चमड़ी) उतारकर मेरे समक्ष उपस्थित करो।" राजसेवक आज्ञा का पालन करने हेतु मुनि के पास गए तथा उन्हें सारी बात बताई। यह सुन क्षमा के भंडार मुनि आनंद विभोर हो गए। अपने कर्मों को तोड़ने के लिए सामने से आए निमित्त को वे इतनी सहजता से जाने नहीं देना चाहते थे। उन्होंने राजसेवकों से कहा कि “भाई, आप सुखपूर्वक अपने राजा की आज्ञा का पालन करें। बहुत वर्षों तक त्याग-तप करने से यह काया कृश बन गई है। अतः चमड़ी उतार ने में आपको थोड़ी तकलीफ तो होगी। परंतु फिर भी मैं अपनी काया को वोसिरा देता हूँ। तत्पश्चात् Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप जैसे चाहो वैसे मेरी इस काया को उलट-पलट कर अपना कार्य पूर्ण कर सकते हो। अंत में मैं राजा सहित आप सभी को भी खूब-खूब धन्यवाद देता हूँ जो आप लोग मेरे कर्मों को क्षय करने में मेरी इतनी मदद कर रहे हो।” उन्होंने चारों शरण स्वीकार किए। जगत के सर्व जीवों से क्षमायाचना कर अपनी काया को वोसिरा कर खंधक ऋषि काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर खड़े हो गए। अनिच्छा से राजसेवकों ने अपना कार्य शुरु किया। चमड़ी उतारने की असह्य पीड़ा को एक तरफ रखकर खंधक ऋषि शुभ ध्यान में मग्न हो गए। क्षपकश्रेणी पर आरुढ़ होकर अपने घाति कर्मों का क्षय किया। उसी क्षण आयुष्य कर्म पूरा हो जाने के कारण शेष अघाति कर्मों का भी नाश कर खंधक ऋषि अंतकृत् केवली बनकर अनंत आनंद वेदन के स्थान रुप सिद्धगति को प्राप्त हुए। उसी वक्त खून से लथपथ उनकी मुँहपत्ति को माँस का पिंड समझकर एक पक्षी उसे लेकर उड़ रहा था। अचानक रानी जहाँ महल में खड़ी थी वही उसकी चोंच में से मुँहपत्ति गिर गई। रानी ने उस मुँहपत्ति को पहचान लिया तथा तुरंत राजसेवकों को बुलाकर सारी बात पूछी। राजसेवकों ने राजाज्ञा के बारे में बताया। अपने भाई मुनि की इतनी निर्दयी मौत सुनकर रानी बेहोश हो गई। होश में आते ही वह ज़ोर-ज़ोर से रुदन करने लगी। जब राजा को सच्चाई ज्ञात हुई तब उनके भी पश्चाताप का पार नहीं रहा। राजा मुनि के देह के पास जाकर सोचने लगे कि - "धिक्कार है मेरे जीवन को, धिक्कार है मेरी आत्मा को, महासमतावान् ऐसे मुनि को निष्कारण ही इतनी निर्दयता पूर्वक मारने का आदेश दिया। हे प्रभु ! मेरी क्या गति होगी? मुझे कहाँ स्थान मिलेगा? इस प्रकार पश्चाताप की धारा बहने लगी तथा संसार के स्वरुप को समझकर राजा-रानी दोनों ने संयम अंगीकार किया। अपने किए हुए पापों की आलोचना कर वह राजा भी अपने कर्मों का क्षय कर केवली बनकर मोक्ष में गए। धन्य है खंधक ऋषि को, जिन्होंने इतना दुष्कर परिषह समता भाव से सहन कर सिद्ध पद को प्राप्त किया। धन्य है उस राजा को ! जिन्होंने ऋषि हत्या के प्रायश्चित में राजवैभव छोड़कर संयम जीवन अंगीकार किया तथा केवली बनकर कई जीवों का कल्याण किया। जहाँ परमात्मा ने एकेन्द्रियादि जीवों की हत्या में भी महापाप बताया है। वहाँ मात्र पंचेन्द्रिय ही नहीं, अपितु एक पंचमहाव्रतधारी मुनि की हत्या करने के बावजूद भी राजा ने शुद्ध भावों से आलोचना कर सिद्धगति प्राप्त कर ली। इससे यह सिद्ध होता है कि बड़े पाप की भी शुद्ध आलोचना करने पर सारे पाप धूल जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत छोटे से पाप को भी यदि छुपाए तो वह अति भयंकर परिणाम देनेवाला होता है। आईए यह देखते है लक्ष्मणासाध्वीजी के जीवन चरित्र के माध्यम. से। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मणा राजकुमारी यह प्रसंग आज से 79 चौवीसी पहले का है। उस काल में लक्ष्मणा नामक एक राजकुमारी हुई। पूर्वकृत् पाप कर्म के उदय से विवाह मंडप में ही पति की मृत्यु हो गई । जिससे वह बाल विधवा बन गई। तत्पश्चात् वैधव्य का पालन करते हुए कुछ समय बाद पूर्ण रुप से संसार से विरक्त होकर उन्होंने संयम जीवन स्वीकार किया।. एक दिन लक्ष्मणा साध्वीजी परमात्मा की देशना श्रवण करने जा रही थी। उसी समय रास्ते में कुछ क्षण के लिए ईर्यासमिति का पालन करने में चुक गई और उनकी दृष्टि ऊपर उठी। वहाँ उन्होंने एक वृक्ष पर चकला-चकली के युगल को मैथुन क्रीडा करते हुए देखा। यह क्रिया देखते ही उनके मन में हलचल मच गई। उन्होंने सोचा कि “परमात्मा ने साधु जीवन में मैथुन सेवन की छूट क्यों नहीं दी ? अरे हाँ ! अब समझ में आया कि तीर्थंकर प्रभु छूट कैसे दे सकते हैं? स्त्री वेद, पुरुष वेद के उदय का दुःख तो उन्हें होता ही नहीं है। यदि परमात्मा ने वेदोदय के दुःख का अनुभव किया होता तो उसकी छूट अवश्य देते।” दूसरे ही क्षण उनके विचार पलट गए। इतने भयंकर कुविचार के लिए लक्ष्मणा साध्वीजी को पश्चाताप होने लगा। उन्होंने अपने पाप को धिक्कारते हुए सोचा कि, " अरे यह मैंने क्या विचार किया? भगवान तो सर्वज्ञ है, उनको तीन काल का ज्ञान है। वेदोदय की वेदना का साक्षात् अनुभव करे या न करे इसमें उनको क्या फरक पड़ता है ? बिना अनुभव के भी ज्ञान से वे सब कुछ जानते ही है। वेदोदय के दुःख के साथ-साथ उन्होंने यह भी देखा है कि वेदोदय के आधीन होने से जीव कितना दुःखी होता है ? उसे कितने भवों तक भटकना पड़ता है? इसी कारण अपार करुणा के सागर परमात्मा ने ऐसी अशुभ क्रिया की छूट नहीं दी ।" लक्ष्मणा साध्वीजी को अब अपने किए पर बहुत पश्चाताप होने लगा। उन्होंने सोचा कि, "मैंने कितना अशुभ विचार किया है। मेरी क्या गति होगी ? आज यहाँ साक्षात् परमात्मा देशना दे रहे हैं। मैं वहाँ जाकर अपनी की हुई भूल का प्रायश्चित कर अपनी आत्मा को पुनः विशुद्ध कर लूँ।” प्रायश्चित लेने के ऐसे विचार से साध्वीजी ने जैसे ही पैर उठाया कि उनके पैर में काँटा चुभ गया। काँटा चुभना एक अपशुकन माना जाता है। इसलिए लक्ष्मणा साध्वीजी के विचार पुनः पलटने लगे। उन्होंने सोचा "मेरी छाप जगत में महासती बाल विधवा तथा उच्च शीयलवती के रुप में हैं। यदि मैं अपना यह विचार सबके सामने प्रगट कर दूँ तो लोगों में मेरी कितनी निंदा होगी। अब क्या करूँ ? प्रायश्चित तो करना ही है। परंतु मुझे स्वयं को ऐसा कुविचार आया यह बताने के बदले यदि मैं परमात्मा से एसे पूछें कि यदि किसी को ऐसा विचार आए तो क्या प्रायश्चित आता है ? तो मेरा कार्य हो जाएँगा और बाद में परमात्मा जो प्रायश्चित देंगे वह कर लूँगी। ऐसा निश्चित कर वे देशना सुनने गए। देशना के पश्चात् लक्ष्मणा - - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीजी ने स्वयं के पाप का प्रायश्चित माया करके दूसरों के नाम से पूछा । त्रिलोकगुरु सर्वज्ञ परमात्मा तो जानते ही थे कि दूसरों के नाम से लक्ष्मणा साध्वीजी जो पूछ रही हैं वह स्वयं की ही बात है, परंतु परमात्मा मौन रहे। प्रभु ने लक्ष्मणा साध्वीजी से कुछ भी नहीं पूछा कि “इस तरह क्यों पूछ रही हो ? यह तो माया है,” क्योंकि परमात्मा जानते थे कि इस जीव की भवितव्यता ही ऐसी है। अब किसी भी उपाय द्वारा कुछ भी होना असंभव है। अतः परमात्मा ने उन्हें प्रायश्चित प्रदान किया । लक्ष्मणा साध्वीजी ने प्रायश्चित को तुरंत ही पूर्ण कर दिया परंतु प्रायश्चित लेते वक्त की हुई माया की आलोचना उन्होंने नहीं की। अपनी माया के पाप को धोने के लिए वह स्वयं अपने मन से ज्यादा तप करने लगी। कुल पचास वर्ष तक उन्होंने घोर तप किया। दो उपवास के पारणे तीन उपवास, तीन उपवास के पारणे चार उपवास, चार उपवास के पारणे पाँच उपवास इस प्रकार का उग्र तप कुल 10 वर्ष तक किया। फिर एक उपवास के पारणे दो उपवास का तप दो वर्ष तक किया। पारणे में भी लुखी नीवि की। उसके बाद मात्र सेके हुए अनाज़ खाकर दो वर्ष तक तप किया। तत्पश्चात् मासक्षमण के पारणे मासक्षमण लगातार 16 वर्ष तक किए और उसके बाद सतत आयंबिल का तप 20 वर्ष तक किया। ऐसे कुल 50 वर्ष तक घोरतप करने के बावजूद भी माया की आलोचना नहीं लेने के कारण पाप का प्रायश्चित नहीं हुआ। आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त कर वेश्या के घर अति रुपवती दासी के रुप में उत्पन्न हुइ । देश्या के घर से भागकर छः महिनें तक श्रेष्ठी के घर पर रही। सेठानी ने ईर्ष्या के कारण उसे मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े करके गीद्ध आदि पक्षिओं को खिला दिए । इसके बाद बहुत भव भ्रमण करते हुए नरदेव चक्रवर्ती का स्त्री रत्न बनी। वहाँ से, मरकर छट्ठी नरक में गई। वहाँ से कुत्ते की योनि में उत्पन्न हुई। अनेक बार जन्म-मरण को प्राप्त करके निर्धन ब्राह्मण बनी। अनुक्रम से व्यंतर, फिर वहाँ से 7 भव तक पाड़ा बनी। वहाँ से नरक गमन, मनुष्य-मछली अनार्य देश में स्त्री रुप में उत्पन्न हुई। वहाँ से मरकर छट्ठी नरक में, वहाँ से कोढ़ रोग वाली मनुष्य बनी। बाद में पशु-स् - सर्प आदि योनि में उत्पन्न हुई। मरकर पाँचवी नरक में गई। इस प्रकार चार गति में परिभ्रमण करके लक्ष्मणा का जीव आने वाली चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ स्वामी के काल में किसी गाँव में कुबड़ी स्त्री होगी। वहाँ कुछ पुण्योदय के कारण श्री पद्मनाभ प्रभु के दर्शन प्राप्त होंगे। कर्म के विपाक को जानकर शुद्ध आलोचना कर सिद्ध पद को प्राप्त करेगी। इस चरित्र से यह समझने जैसा है कि लक्ष्मणा साध्वीजी ने आलोचना ली तथा प्रायश्चित पूर्ण भी किया। परंतु आलोचना करते वक्त की हुई माया की उन्होंने पुनः आलोचना नहीं ली। परिणाम स्वरुप उन्हें 80 चौबीसी तक इस संसार में भ्रमण करते हुए कई दुःखों को सहन करना पड़ा। 104 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 212 .... लवण समुद्र 100 जम्बूद्वीप ★ तवझान 4 मेरु पर्वत CH wwwwwwwwwwww A स्नात्रपूजा 00 1. 2. 3. AAA BU C 4 गौतम द्वीप सूर्य द्वीप चन्द्र द्वीप वेलंधर पर्वत अनुवेलंधर पर्वत पाताल कलश हवा हवा-पानी मिश्र पानी 10,000 योजन चौडी एवं 16,000 योजन ऊंची जल की शिखा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा क्या दोष? क्या आपकी पतंग मेरे जीवन की पतंग काटेगी ? क्या आपका मांजा मेरे मृत्यु की चित्कार से रंगेगा ? क्या आपकी मज़ा हमारे लिए मौत की सजा बनेगी ? ओ भाई ? शौक के लिए क्रूरता? कभी भी नहीं...? निर्दोष! अबोल ! असहाय ! पशु-पक्षियों ने आपका क्या बिगाड़ा है....? ओ युवानों ! जरा इतना तो सोचो. फीरकी और पतंग लेकर टेरेस पर जाते हुए जरा इतना तो सोचो कि कही मैं शिकारी तो नहीं हूँ? जैसे शिकारी तीरकमान लेकर जंगल में शिकार करने निकलता है, वैसे ही मैं फीरकी और पतंग लेकर टेरेस पर जा रहा हूँ | पतंग उड़ाते हुए मेरे मांजे से किसी पक्षी की गर्दन तो नहीं कट जाएँगी न ? जो ऐसा हो तो समझना कि मैं भी एक अच्छे कुल का शिकारी हूँ | फरक बस इतना है कि जंगल का शिकारी अपने पेट के लिए जंगल में जाकर शिकार करता है और मैं तो मात्र मेरे शौक के लिए टेरेस पर जाकर शिकार कर रहा हूँ। ___ हे मानव ! तू केवल इतना तो सोच कि कही उस पक्षी के अंडे या बच्चे परवरीश के लिए माता की राह देखते तो नहीं बैठे, या उस पक्षी ने कही गर्भ धारण तो नहीं किया होगा न ? आइए हम पतंग नहीं उडाकर अबोल पक्षियों की कब्र खोदने के महापाप से बचें... Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिच्छालोक में द्वीप-समुद्र की लवण समुद्र जंबूद्वीप के चारों तरफ 2 लाख योजन का लवण समुद्र है। इसके पानी का स्वाद नमक के समान खारा होने से इसका नाम लवण समुद्र है। इसके अंदर मुख्य चार पाताल कलश है। ये एक लाख योजन गहरे एवं बीच में 1 लाख योजन विस्तृत हैं। इन कलशों के तीन भाग है। उसके नीचे के प्रथम भाग में हवा है, दूसरे मध्य भाग में हवा-पानी मिश्र एवं तीसरे ऊपर के भाग में सिर्फ पानी है। एक दिन में दो बार पहले-दूसरे भाग की हवा श्वास के समान ऊँची-नीची होती है। इससे पूरा समुद्र क्षोभायमान होता है तथा समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। __ लवण समुद्र के मध्य भाग में 10,000 योजन चौड़ी एवं 16,000 योजन ऊँची शिखा है। हवा के खलभलोट के कारण यह शिखा 2 गाउ ऊँची जाती है। इससे अधिक ऊँची जाने से उसे 60,000 देव रोकते हैं। इस खलभलाट के कारण इस पानी को जम्बूद्वीप में आने से 42,000 देव रोकते हैं एवं 72,000 देव धातकी खण्ड में पानी को जाने से रोकते हैं। 4 पाताल कलशों के पास में 4 वेलंधर पर्वत है एवं विदिशा में 4 अनुवेलंधर पर्वत है। इन आठों पर्वतों पर 1-1 शाश्वत चैत्य है। जम्बूद्वीप से पश्चिम में 12 हज़ार योजन समुद्र में जाने पर गौतम द्वीप है। वहाँ लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव रहते हैं। गौतम द्वीप के दोनों तरफ 2-2 सूर्य द्वीप है। इसी प्रकार पूर्व में चार चन्द्र द्वीप हैं। शिखा के दूसरी तरफ 8-8 सूर्य एवं चंद्र द्वीप हैं। अन्य समुद्रों में पाताल कलश नहीं होने के कारण ज्वार भाटा नहीं आता। जम्बूद्वीप एवं धातकी खण्ड से लवण समुद्र की शिखा तरफ 95,000 योजन जाने पर गहराई बढ़ती बढ़ती 1000 योजन एवं जल की वृद्धि 700 योजन होती है। उसके बाद 10,000 योजन की चौड़ी शिखा मूल से 17,000 एवं समभूतला से 16,000 योजन ऊँची है। धातकी खण्ड तथा अर्धपुष्करवर द्वीप धातकी खण्ड एवं अर्धपुष्करवर द्वीप वलयाकार में है तथा दक्षिण एवं उत्तर में रहे हुए दो-दो इषुकार (बाण के आकार वाले) पर्वत से पूर्व-पश्चिम दो भागों में विभक्त है। पुष्करवर द्वीप की यह विशेषता है कि वह 16 लाख योजन का होते हुए भी उसके ठीक मध्य भाग में रहे हुए मानुषोत्तर पर्वत से यह द्वीप दो भागों में बँट जाता है। मानुषोत्तर पर्वत से आगे का आधा भाग मनुष्य क्षेत्र गिना जाता 105 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अतः पुष्करवर द्वीप के पूर्व-पश्चिम 8-8 लाख योजन तक ही मनुष्य क्षेत्र है। बाकि क्षेत्रादि में मनुष्यों का जन्म-मरण आदि नहीं होता। दो धातकी खण्ड एवं दो पुष्करवर द्वीप इन चारों का वर्णन जम्बूद्वीप के समान ही समझें परंतु अंतर इतना है कि ये द्वीप वलयाकार एवं जम्बूद्वीप की अपेक्षा से बड़े-बड़े होने से इनके वासक्षेत्र एवं पर्वत आदि सर्व वस्तुएँ क्रमशः बड़ी-बड़ी एवं आकार में भी थोड़े फर्क वाली है। ढाई द्वीप की कर्म तथा अकर्म भूमियाँ जम्बूद्वीप की किसी भी वस्तु को 5 से गुना करने पर ढाई द्वीप की वस्तु प्राप्त होती है। जम्बूद्वीप में भात, ऐरावत एवं महाविदेह ये तीन कर्मभूमि है तो ढाई द्वीप में कुल 5 भरत, 5 ऐरावत एवं 5 पहाविदेह क्षेत्र होने से 3X5=कुल 15 कर्म भूमियाँ हैं। जम्बूद्वीप में 6 अकर्म भूमि होने से ढाईद्वीप में कुल 6X5=30 अकर्म भूमियाँ है तथा 5 मेरु पर्वत हैं। । मनुष्य लोक तथा सूर्य-चन्द्र पंक्ति ति लोक के सबसे बीच में थाली के आकार का जम्बूद्वीप है। परंतु उसके बाद सारे द्वीपसमुद्र वलयाकार (चूड़ी का आकार) होने से पूर्व-पश्चिम दो भागों में विभक्त है। कुल ढ़ाई-द्वीप — प्रमाण अर्थात् 45 लाख योजन विस्तृत ऐसा मनुष्य लोक है। इस ढ़ाई द्वीप में कुल 132 सूर्य एवं 132 चन्द्र है। द्वीप-समुद्र | सूर्य | चन्द्र | द्वीप-समुद्र का माप . | जम्बूद्वीप | 2 | 1 लाख योजन | पूर्व लवण समुद्र ___2 | 2 लाख योजन | पश्चिम लवण समुद्र 2 | 2 लाख योजन पूर्व धातकी खण्ड 6 | 4 लाख योजन पश्चिम धातकी खण्ड | 6 | 6 | 4 लाख योजन पूर्व कालोदधि समुद्र 21 | 8 लाख योजन पश्चिम कालोदधि समुद्र 8 लाख योजन | पूर्व अर्ध पुष्करवर द्वीप 36 36 | 8 लाख योजन | पश्चिम अर्ध पुष्करवर द्वीप ___36 | 8 लाख योजन | 21 द्वीप-समुद्र रुप मनुष्य क्षेत्र में कुल | 132 | 132 | 45 लाख योजन 2 । . 2 2 6 21 21 21 36 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 炒 सं.व. वि. 195 हजार योजन अंतर 110000 यो. लवण समुद्र लवण समुद्र में गोतीर्थ एवं जलवृद्धि का दिखाव ढोलाई 1 1410000 T 1000 यो. लवण समुद्र में शिखा का दिखाव + जल शिखा 16000 या. जंबूदीप लवण समुद्ध धा त 195 हजार योजन अंतर खं ड Rela मालि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाई द्वीप ऐरावत क्षेत्र ऐरावत क्षेत्र हिरण्यवंत क्षेत्र हिरण्यवंत क्षेत्र रम्यक क्षेत्र शिरवरी पर्वत इपुकार पर्वत शिखरी पर्वत रम्यक क्षेत्र रुक्मि पर्वत रुक्मि पर्वत नीलवंत पर्वत नीलवंत पर्वत महाविदेह क्षेत्र महाविदेह क्षेत्र निषध पर्वत मेरु पर्वत जंबू द्वीप लवण समुद्र घातकी खंड कालोदधि समुद्र निषध पर्वत महाहिमवंत पर्वत हरिवर्ष क्षेत्र माहिमवंत पर्वत हरिवर्ष क्षेत्र लघुहिमवंत पर्वत इषुकार पर्वत हिमवंत क्षेत्र लघुहिमवत पर्वत भरत क्षेत्र भरत क्षेत्र हिमवंत क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत नंदीश्वर द्वीप Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य-चन्द्र की पंक्ति : ढाई द्वीप में 132 सूर्य और 132 चन्द्र आमने-सामने 66-66 की पंक्ति में चलते हैं। लवण समुद्र में चलने वाले चन्द्र-सूर्य उदक स्फटिक रत्न से बने हुए हैं। जिससे 16,000 योजन ऊँची शिखा के बीच में से जब ये चलते हैं तब इनके प्रभाव से पानी इनको चलने लिए मार्ग देता है एवं इनकी कांति आदि को क्षति नहीं पहुँचती । ढ़ाई द्वीप 66 सूर्य 66 चंद 66 चंद्र 66 सूर्य कालोदधि समुद्र : यह समुद्र धातकी खण्ड के बाद आता हैं। इस समुद्र का पानी काला होने से इसका नाम कालोदधि है। धातकी खण्ड की जगति (सीमा) से 12,000 योजन पूर्व-पश्चिम दिशा में जाने पर गौतम द्वीप के समान यहाँ के अधिष्ठायक काल- महाकाल देव के स्थान है। कालोदधि की जगति से 12,000 योजन अंदर जाने पर कालोदधि के 42 सूर्य तथा 42 चन्द्र के द्वीप है। इस समुद्र में पाताल कलश आदि कुछ नहीं है। इस समुद्र के पानी का स्वाद बारिश के पानी जैसा होता है। मनुष्य लोक के बाहर असंख्य द्वीप - समुद्र मात्र मनुष्य लोक में ही मनुष्यों का जन्म-मरण होता है। उसके बाहर रुचक द्वीप तक चारण मुनि तथा विद्याधरों का गमनागमन होता है, परंतु वहाँ किसी की मृत्यु नहीं होती । व्यवहार - सिद्ध काल, अग्नि, चन्द्र-सूर्यादि का परिभ्रमण, उत्पात सूचक गांधर्व नगर आदि पदार्थ ढाई द्वीप के बाहर नहीं होते। पुष्करवर द्वीप के बाद सादे पानी वाला तथा 32 लाख योजन विस्तार वाला पुष्करवर समुद्र है। उसके बाद के द्वीप समुद्र इस प्रकार है। : Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | द्वीप योजन समुद्र योजन पानी का स्वाद | 4 वारुणीवर 64 लाख वारुणीवर 128 लाख दारु जैसा इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित 5 क्षीरवर 256 लाख क्षीरवर । |512 लाख । | दूध जैसा इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित | 6 घृतवर | 1024 लाख घृतवर 2048 लाख | घी जैसा इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित | 7 इक्षुवर 4096 लाख | इक्षुवर 9192 लाख | इक्षु (सेलडी) के रस समान इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित 8 नंदीश्वर 16384 लाख नंदीश्वर ।। पूर्व-पूर्व | इक्षु (सेलडी) के रस समान इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित | 9 अरुण (पूर्व-पूर्व | अरुण ।। द्वीप से | इक्षु (सेलडी) के रस समान इलायची.आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित । | 10 कुंडल | समुद्र से | कुंडल || द्वीगुण | इक्षु (सेलडी) के रस समान इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित | | 11 रुचक ।। द्विगुण | रुचक || करना | इक्षु (सेलडी) के रस समान इलायची आदि सुगंधी द्रव्य से मिश्रित कामली काल : जंबूद्वीप से असंख्य द्वीप-समुद्र उल्लंघन करने के बाद अरुणवर समुद्र आता है। इसके बीच में से एकदम काला एवं पानी के जीवों से बना हुआ तमस्काय निकलता है। जो वहाँ से निकलकर 3 9 राज ऊँचे ब्रह्म देवलोक तक पहुँचता है। वह जहाँ से जाता है वे सब स्थान काले बन . जाते हैं। भय के अवसर में देवता इन स्थानों में छिप जाते है। ब्रह्म देवलोक से फिर नीचे गिरता हुआ यह तमस्काय अपने भरतक्षेत्र आदि स्थानों में भी आता है। ये अप्काय के जीव हैं। दिन में सूर्य के ताप से सूक जाने के कारण ये जीव अपने तक नहीं पहुँचते लेकिन संध्या समय एवं रात्रि में इन जीवों की रक्षा के लिए कामली ओढ़नी चाहिए। इस प्रकार दुनिया में जितने भी शुभ नाम है उन सभी नाम वाले असंख्य द्वीप समुद्र है। अंतिम पाँच द्वीप समुद्र क्रमशः देव, नाग, यक्ष, भूत एवं स्वयंभूरमण नाम वाले हैं। इन पाँच नाम वाले द्वीप-समुद्र 1-1 ही है। अंतिम समुद्र दोनों तरफ लगभग पॉव-पॉव राज कुल राजलोक में व्याप्त एवं सादे पानी के स्वाद वाला है। अन्य सभी समुद्रों के पानी का स्वाद सुगंधी द्रव्यों से मिश्रित इक्षुरस के समान है। इनमें से लवण समुद्र में उत्कृष्ट से 500 योजन वाले, कालोदधि में 700 योजन वाले एवं स्वयंभूरमण समुद्र में 1000 योजन वाले मत्स्य होते हैं। इन समुद्रों में मत्स्य बहुत होते है। अन्य समुद्रों में अलग-अलग माप वाले एवं कम मत्स्य हैं। ये मछलियाँ नली एवं चूड़ी इन दो सिवाय सभी आकार वाली होती है। अरिहंत के आकार वाले मत्स्य को देखकर कई मत्स्य को जाति-स्मरण ज्ञान भी हो जाता है। ढाई द्वीप के बाहर कुछ पक्षी ऐसे है जो उड़ते हैं या बैठते हैं तब उनके पंख खुले ही रहते हैं और कुछ पक्षी के पंख उड़ते या बैठते वक्त बंद ही रहते हैं। ऊपर वैमानिक देवों के विमान देव द्वीप के ऊपर से शुरु होकर स्वयंभूरमण समुद्र के ऊपर तक रहे हुए हैं। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाई द्वीप के बाहर भमरा कानखजूरा शंख आठवाँ नंदीश्वर द्वीप अतिरमणीय है । इस द्वीप में स्थान-स्थान पर पद्मवर वेदिका, सर्वरत्न के उत्पाद पर्वत, सुंदर बावडियाँ, बगीचे आदि है। बाबन जिनमंदिर - इस द्वीप के चारों दिशाओं में अंजनरत्न के बने हुए अतिसुंदर 4 अंजनगिरि पर्वत है। एक-एक अंजनगिरि के चारों तरफ 4-4 गोलाकार वाली सुंदर बावडियाँ है। इन बावडियों के मध्य भाग में उल्टे प्याले के आकार वाले सफेद वर्ण के स्फटिक रत्न के दधिमुख पर्वत है। अर्थात् 4x4 = 16 दधिमुख पर्वत हुए। एक-एक दधिमुख पर्वत के दोनों तरफ एक - एक रतिकर पर्वत हैं। अर्थात् 16x2=32 रतिकर पर्वत हुए। 4 अंजनगिरि पर 1 योजन का भी होता है। 3 गाउ का भी होता है। 12 योजन माप वाले भी होते हैं। नंदीश्वर द्वीप के 52 जिनालय 4 शा. जिनालय हैं। 16 शा. जिनालय हैं। 32 शा. जिनालय हैं। कुल 52 शा. जिनालय हैं। तीर्थंकरों के कल्याणक के में अट्ठाई महोत्सव करते हैं तथा दिनों में एवं शाश्वती अट्ठाईयों में चारों निकाय के देव नंदीश्वर द्वीप नंदीश्वर द्वीप की चार विदिशा में 4-4 राजधानियाँ है। कुल 16 राजधानियों में 16 शाश्वत चैत्य है। ये राजधानियाँ 8 सौधर्मेन्द्र की पटरानियों की एवं 8 इशानेन्द्र की पटरानियों की हैं। - 16 दधिमुख पर्वत पर 32 रतिकर पर्वत पर Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप में पूर्व धातकी खंड में पश्चिम धातकी खण्ड में दो ईषुकार पर्वत पर पूर्व पुष्करवर द्वीप में पश्चिम पुष्करवर द्वीप में दो ईषुकार पर्वत पर दाईद्वीप में नंदीश्वर द्वीप के कुण्डल द्वीप की चार दिशा में रुचक द्वीप की ४ दिशा में कुल तिर्च्छालोक में (कुल चैत्य) 3179 तिच्र्च्छा लोक में शाश्वत चैत्य =635_ चै. 20 -635 -635 60 -2 -635 कुल मानुषोत्तर पर्वत पर चार दिशा में -4 चै. नन्दीश्वर द्वीप में सौधर्मेन्द्र -635 की 8 एवं इशानेन्द्र की 8 कुल 16 इन्द्राणी की राजधानी में -16 -20 चै. -2 -52 चै. -4 चै. -4 चै. -60 चै. = 1272 चै. = 1272 चै. = 3179 ये ढाई द्वीप के चैत्य तीन दरवाज़े वाले होने से 120 प्रतिमा वाले है। तीन दरवाज़े के मध्य के कुल प्रतिमाजी 381480 12 प्रतिमाजी 108 प्रतिमाजी ये ढाई द्वीप के बाहर 120 प्रतिमा वाले चैत्य है 20x120=2400 प्रतिमाजी 1.20 प्रतिमा 3179x120=381480 प्रतिमाजी हैं। दाई द्वीप के बाहर ये चैत्य 4 दरवाज़े वाले होने से 124 प्रतिमाजी वाले है । ( 60x124=7440 प्रतिमाजी 2400 7440 3259 391320 परन्तु लवण समुद्र के वेलंधर एवं अनुवेलंधर पर्वत के शा. चै. भी तिर्च्छालोक में ही है, यहाँ पर विवक्षा नहीं की है। उसकी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उत्कृष्ट से 170 तीर्थंकर एक चौवीसी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव एवं 9 प्रतिवासुदेव ये 63 शलाका पुरुष होते हैं तथा । नारद एवं 11 रुद्र भी होते हैं। चक्रवर्ती के जीतने योग्य 6 खण्ड वाली विजय कुल 170 है वे इस प्रकार है। जम्बूद्वीप के महाविदेह की 32 विजय, 1 भरत एवं 1 ऐरावत की 34 विजय पूर्व धातकी खण्ड के महाविदेह की 32 विजय, 1 भरत एवं 1 ऐरावत की पश्चिम धातकी खण्ड के महाविदेह की 32 विजय, 1 भरत एवं 1 ऐरावत की 34 विजय पूर्व पुष्करार्ध के महाविदेह की 32 विजय, 1 भरत एवं 1 ऐरावत की 34 विजय पश्चिम पुष्करार्ध के महाविदेह की 32 विजय, 1 भरत एवं 1 ऐरावत की 34 विजय कुल 170 विजय एक विजय में एक साथ दो तीर्थंकर नहीं हो सकते। इसलिए जब इन सर्व विजयों में 1-1 तीर्थंकर होते हैं, तब उत्कृष्ट से 170 तीर्थंकर एक साथ विचरते मिलते हैं। उस समय उत्कृष्ट से केवली भगवंत 9 करोड़ एवं 90 अरब साधु भगवंत होते हैं। वर्तमान में 5 महाविदेह की 4-4 विजयों में कुल 5x4=20 तीर्थंकर परमात्मा जघन्य से विचर रहे हैं तथा केवलज्ञानी 2 करोड़ एवं 20 अरब साधु भगवंत विचर रहे हैं। चक्रवर्ती एवं वासुदेव एक साथ एक क्षेत्र में नहीं हो सकते। अतः जब चक्रवर्ती उत्कृष्ट से 150 होते हैं, तब वासुदेव जघन्य से 20 होते हैं एवं जब वासुदेव उत्कृष्ट से 150 होते हैं। तब चक्रवर्ती जघन्य से 20 होते हैं। महाविदेह में हमेशा चौथा आरा होने से जिस विजय में तीर्थंकर नहीं है वहाँ से भी मोक्ष गमन चालु है। च मोक्ष गमन की प्रक्रिया ___45 लाख योजन प्रमाण मनुष्य लोक के किसी भी स्थान से जीव मोक्ष में जा सकता है। जहाँ से जीव मुक्त बनता है उसी आकाश श्रेणी से लोकाग्र भाग में जाकर जीव अनंत काल तक सिद्धशीला के ऊपर रहता है। यह सिद्धशीला ठीक मनुष्य क्षेत्र के उपर लोकाग्र से 1 योजन दूरी पर है। “इषद्प्राग्भार” नाम की यह सिद्धशीला 45 लाख योजन वाली एवं अर्ध मोसंबी के आकार जैसी गोल है। बीच में आठ योजन मोटाई वाली एवं घटती-घटती मक्खी के पंख जितनी किनारी पर पतली है। उत्कृष्ट से 500 धनुष के एवं जघन्य से 2 हाथ की काया वाले जीव मोक्ष में जा सकते हैं। अपने शरीर में 1/3 भाग पोलान वाला स्थान हैं। मोक्ष में जाते समय यह स्थान आत्म प्रदेशों से भर जाता Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है एवं शरीर के 23 भाग में आत्म प्रदेश समा जाते है। अर्थात् 500 धनुषवाले की आत्मा 333 % धनुष जितनी बनती है। यह अनिश्चित आकार है। BF IIIIIIII IIIIIIHI. A-B= 45 लाख योजन E-F= एक राजलोक . A-C= 333 75 धनुष G-H= 45 लाखथ योजन I-J= 8 योजन C-G= 3 गाउ. 1667 - धनुष A-G= 1 योजन K-L= 45 लाख योजन मनुष्य लोक . आत्माओं के ऊर्ध्वगमन के हेतु एवं उपमा (1) पूर्व प्रयोग : हाथ से फेंकी हुई गेंद के समान कर्म मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (2) बंधच्छेद : बंधन मुक्त बने कपास के समान कर्म बंधन से मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (3) असंग : मिट्टी के लेप से मुक्त तुंबडे के समान कर्म मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (4) तथागति परिणाम : आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन होने से आत्मा ऊँची जाती है। इन चार कारणों से आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है। एक समय में 7 राज का अंतर काट कर लोकाग्र भाग तक अस्पृशद् गति से पहुंचती है। आगे धर्मास्तिकाय नहीं होने के कारण लोकाग्र भाग में स्थिर बनती है। जैसे ज्योत से ज्योत मिलती है। वैसे एक ही स्थान में अनंत आत्माएँ रहती है। ये मुक्त आत्मा लोकाग्र में अधर लटकी हुई हैं। क्योंकि सिद्धशीला तो लोकाग्र से 1 योजन = 8000 धनुष दूर है। उसमें ऊपर के 333 5 धनुष भाग में आत्मा रहती है। अर्थात् सिद्ध के जीव सिद्धशीला से 3 गाउ 1667 धनुष की दूरी पर है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव प्रति समय मोक्ष में जा सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा 6 महिने का अंतर पड़ सकता हैं। अर्थात् 6 महिने में तो एक जीव अवश्य मोक्ष में जाता ही हैं। वन, नदी, मेरुपर्वत, समुद्र आदि ढ़ाई द्वीप के प्रत्येक भाग से अनंत आत्माएँ मोक्ष में गई है। ढाई द्वीप में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ से अनंत जीव मोक्ष में न गये हो। प्र. : लवण आदि समुद्र, वन एवं अकर्मभूमि एवं केवलज्ञान विच्छेद होने के बाद कर्मभूमि में से जीव मोक्ष में कैसे जाते हैं? उ.: पूर्वभव में द्वेष आदि के कारण कोई देव किसी मनुष्य का या केवली का संहरण कर लवण समुद्र ____ में या वन आदि में छोड़ दे तो वहाँ से भी केवलज्ञान प्राप्त करके जीव मोक्ष में जा सकते है। जब कि ऐसा तो कभी-कभी बनता है। लेकिन अनंत काल में अनंत बार ऐसा बन जाता है। इसलिए ऐक-ऐक स्थान से अनंत जीव मोक्ष में गये हैं। प्र. शत्रुजय के एक-एक कंकर में अनंत जीव मोक्ष में गये है, ऐसा कहा जाता है और आप तो सर्व स्थान से अनंत जीव मोक्ष में गये हैं, ऐसा कहते हो तो इसका तात्पर्य क्या समझना? उ.: सर्व स्थान से अनंत जीव मोक्ष में गए ही है, फिर भी शत्रुजय पर्वत का ऐसा महात्म्य है कि अन्य स्थलों में से जितने मोक्ष में गये हैं उससे भी अनेक गुणा अधिक शत्रुजय से मोक्ष में गये हैं। 'प्र. निरंतर कितने समय तक कितने जीव एक साथ मोक्ष में जा सकते हैं? उ.: एक साथ 1 से 32 तक की संख्या में से यदि जीव मोक्ष में जाएँ तो निरंतर 8 समय तक जीव मोक्ष में जा सकते है। ___ उदा.: जैसे पूरे अढ़ी द्वीप में से कहीं से भी कुल मिलाकर मानो 15 जीव मोक्ष में गये तो दूसरे समय में 22 तीसरे समय में 5, चौथे समय में 32, पांचवें समय में 20, छठे समय में 27, आठवें समय में 1 जीव मोक्ष गया। इस प्रकार 1 से 32 की संख्या वाला जीव निरंतर 8 समय तक मोक्ष में जा सकता है। उसके बाद 1 समय का अवश्य अंतर पड़ेगा ही यानि कि नौवें समय में कोई भी जीव मोक्ष में जायेगा ही नहीं। लेकिन 10 वें समय में फिर से मोक्ष में जा सकता हैं। इसी प्रकार 33 से 48 की संख्या वाले जीव निरंतर से 7 समय तक मोक्ष में जा सकते हैं। उसके बाद अवश्य ही एक समय का अंतराल पड़ता है वैसे ही 6 समय आदि में कितने जीव निरंतर मोक्ष में जा सकते हैं वह निम्न तालिका से जाना जा सकता हैं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितने समय तक निरंतर | कितने जीव कितने समय तक निरंतर | कितने जीव 8 समय तक 1 से 32 जीव 4 समय तक 73 से 84 जीव 7 समय तक 33 से 48 जीव 3 समय तक 85 से 96 जीव 6 समय तक 49 से 60 जीव | 2 समय तक 97 से 102 जीव 5 समय तक 61 से 72 जीव | 1 समय तक 103 से 108 जीव मनुष्य में से 1 समय में एक साथ कितने सिद्धि होते हैं ? उसका कोष्टक | उत्कृष्ट 500 धनु. की ऊँचाई वाले | 2 | कर्मभूमि में संहरण से पांडुक वन में से 2 | अवसर्पिणी के 1,2,3,6 आरे में संहरण से समुद्र में से 2 | उत्सर्पिणी के 1,2,4,5,6 आरे में संहरण से द्रह और नदियों से तीर्थ स्थापना से पूर्व 2 हाथ की ऊँचाई वाले | 1-1 विजय में से . ऊर्ध्वलोक में से अवसर्पिणी के 5 वें आरे मे नंदन, भद्रशाल, सोमनस वन में से तीर्थंकर सिद्ध पृथ्वी एवं अप्काय में से आये हुए अधोलोक में अधोग्राम से वनस्पति में से आये हुए 6 | तिर्छा लोक में से नरक में से आये हुए 6 | पुरुष में से पुरुष बनकर पुरुष में से आये हुए कर्मभूमि में से पुरुष में से स्त्री बनकर उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में से पुरुष में से नपु. बनकर | अवसर्पिणी के चौथे आरे में से स्त्री में से पुरुष बनकर 10 | तीर्थ स्थापना के पश्चात् अकर्म भूमि में संहरण से 10 | देवगति में से आये हुए परभव में जाते समय जीव की गति जीव दो गति से परभव में जाता है : (1) अनुगति : मरण स्थान की समश्रेणी में यदि उत्पत्ति स्थान हो तो जीव एक समय में ही परभव में पहुँच जाता है। इस प्रकार समश्रेणी से गमन करना यह ऋजु गति है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ऋजु गति 2. एक समय की विग्रह गति 3. दो समय की विग्रह गति 4. तीन समय की विग्रह गति 5. चार समय की विग्रह गति ..(2) विग्रहगति : जब मरण स्थान की अपेक्षा जन्म स्थान अन्य श्रेणी में होता है तब जीव को बीच में मोड़ लेना पड़ता है। आनुपूर्वी कर्म का उदय जीव को मोड़ लेने में सहायक बनता है। यह विग्रहगति जघन्य से 1 समय की एवं उत्कृष्ट से 4 समय की होती है। ___(1) एक समय की विग्रहगतिः त्रस नाड़ी में रहा हुआ जीव प्रथम समय में विदिशा में से आकर प्रथम मोड़ लेकर दूसरे समय में किसी भी दिशा में उत्पन्न होता है। (2) दो समय की विग्रहगति : पहले समय में त्रस नाड़ी के बाहर की दिशा में से अंदर आता है। यहाँ प्रथम मोड़ लेकर दूसरे समय ऊर्ध्वलोक में जाता है। वहाँ द्वितीय मोड़ लेकर त्रस नाड़ी के बाहर किसी भी दिशा में तीसरे समय उत्पन्न होता है। इसके बीच एक समय के लिए जीव अणाहारी रहता है। (3) तीन समय की विग्रहगति : अधोलोक की विदिशा में से प्रथम समय में दिशा में आता है दूसरे समय में प्रथम मोड़ लेकर त्रस नाड़ी में आता है। तीसरे समय दूसरा मोड़ लेकर ऊपर जाता है। चौथे समय तीसरा मोड़ लेकर त्रस नाड़ी के बाहर किसी भी दिशा में उत्पन्न होता है। इसके बीच में दो समय के लिए जीव अणाहारी रहता है। (4) चार समय की विग्रहगति : पहले समय में अधोलोक की विदिशा में से जीव अधोलोक की दिशा में आता है। दूसरे समय मोड़ लेकर त्रस नाड़ी में आता है। तीसरे समय में मोड़ लेकर ऊर्ध्वलोक में जाता है। चौथे समय मोड़ लेकर त्रस नाड़ी के बाहर किसी भी दिशा में जाता है Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं पाँचवे समय मोड़ लेकर विदिशा के उत्पत्ति स्थान में पहुँचता है। इसके बीच जीव 3 समय के लिए अणाहारी रहता है। इस प्रकार जीव विग्रहगति में बीच के समयों में अणाहारी रहता है। प्रथम मरण स्थान से आहार लेकर निकलता है एवं अंतिम समय जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ आहार कर लेता है। इसलिए बीच के समय ही अणाहारी रहता है। पहले समय तो कोई भी जीव ऋजुगति से ही जाता है, दूसरे समय से विग्रहगति होती है। ऋजुगति वाले जीव का परभव का आयुष्य प्रथम समय से ही शुरु हो जाता है। जबकि विग्रहगति वाले जीव का परभव का आयुष्य दूसरे समय से शुरु होता है। ऐसी विग्रहगति में जीव अनंतबार अणाहारी बना है। फिर भी जीव का कल्याण नहीं हुआ। इसलिए हमें भगवान के पास अणाहारी पद ऐसा माँगना चाहिए कि जो आने के बाद जाएँ नहीं। अर्थात् शाश्वत पद (मोक्ष) माँगना चाहिए। का स्नात्र पूजा भावार्थ र सरस शांति सुधारस.... शांतिनाथ भगवान को भावभरा नमन कर जिस प्रकार देवों ने मेरुपर्वत पर भगवान के स्नात्र महोत्सव के समय में कुसुमांजलि की थी। यहाँ उसी कुसुमांजलि का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। यह क्रम आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वीरप्रभु, चउवीस जिन, वीस विहरमान भगवान एवं सर्व जिनेश्वरों की देवों के द्वारा की गई कुसुमांजलि का प्राकृत दोहे से स्मरण करते हुए दाल के द्वारा उस कुसुमांजलि का यहाँ के भक्तों द्वारा अनुकरण किया जा रहा है। ___ तत्पश्चात् भगवान को प्रदक्षिणा पूर्वक चैत्यवंदन कर परमात्मा के जन्म कल्याणक की सहेतुक विधि शुरु होती है। सयल जिनेश्वर पाय नमी.... सर्वप्रथम प्रभु अनादि मिथ्यात्व को दूर कर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं । उसके बाद संयम को ग्रहण कर सर्व जीवों के कल्याण की उत्कृष्ट भावना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं। वहाँ से बीच में एक देव का भव कर, वहाँ से च्यव कर पन्द्रह कर्मभूमि के 170 विजय में से किसी भी विजय में राजा की पटराणी की कुक्षि में मति, श्रुत एवं अवधि इन तीन ज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर उपमा दी है - जैसे हंस मानसरोवर में ही रहता है वैसे ही प्रभु पटराणी की कुक्षि में ही आते हैं। भगवान के प्रभाव से प्रभु की माता 14 महान स्वप्न देखती है। वे इस प्रकार है - 1. हाथी, 2. वृषभ, 3. केसरी सिंह 4. लक्ष्मीदेवी, 5. रंगबिरंगी फूलों की दो माला, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पूर्ण चंद्र, 7. उदय होता तेजस्वी सूर्य 8. विशाल ध्वज, 9. पूर्ण कलश, 10. पद्म सरोवर, 11. क्षीर समुद्र, 12. विमान, 13. रत्नों की राशी 14. धूम रहितं अग्निशिखा । इतने भव्य तथा स्पष्ट स्वप्नों को देखकर माता अतिशय हर्षित हो जाती है। परमात्मा का च्यवन होते ही इन्द्र महाराजा का सिंहासन चलायमान होता है। अपने अवधिज्ञान से तारक तीर्थंकर प्रभु का च्यवन जानकर वे अत्यधिक आनंद विभोर हो जाते है। त्रिलोकीनाथ तरणतारण जहाज प्रभु की स्तुति करने के लिए बड़े अहोभाव पूर्वक सिंहासन से सात-आठ कदम आगे आकर शक्रस्तव (नमुत्थुणं ) सूत्र द्वारा प्रभु की स्तुति - ते - स्तवना करते हैं। भगवान की माता रात्री में ही राजा के पास जाकर स्वप्न सुनाकर उसके अर्थ को ग्रहण करती है। राजा कहते है- “तूं तीर्थंकर पुत्र को जन्म देगी, जिसे तीन भुवन नमस्कार करेंगे।” यह सुनकर माता हर्षित होती है। गर्भ के प्रभाव से विश्व में मिथ्यात्वं का जोर घट जाता है। सर्व जीव सुख का अनुभव करते हैं और माता आनंद एवं धर्म पूर्वक रात्री व्यतीत करती है। शुभ लग्ने जिन जनमिया.... जब सर्व ग्रह उच्च स्थान में होते हैं, ऐसी शुभ घड़ी में भगवान का जन्म होता है। भगवान के पाँचों कल्याणक में नारकी में भी सुख की लहर क्षण - मात्र के लिए फैल जाती है। अर्थात् अन्यत्र तो अवश्य सुख फैलता ही है । प्रभु के जन्म से संपूर्ण पृथ्वी नाच उठती है। प्रकृति पूर्ण कलाओं से खिल उठती है। पक्षी खुशी से ऐसा कलरव करते है-मानो प्रभु के जन्मोत्सव के मंगलगीत गा रहे हो। मंद-मंद पवन प्रभु जन्म की सूचना पृथ्वी पर फैला रहा हो इस प्रकार बहता है । छः ऋतुएँ मानो प्रभु जन्मोत्सव मनाने आई हो, ऐसा सुन्दर वातावरण सर्जन करती है। सारे वृक्ष, फल, फूल, लताएँ प्रभु जन्म के आनंद को व्यक्त करने के लिए खिल उठती हैं। पूरी सृष्टि एक उपवन की तरह महकने लगती है। प्रभु के जन्म के समय सृष्टि का वर्णन करती स्तवन की पंक्तियाँ - “मंद पवन और ऋतु मनुहारी, खिले पुष्प, फल और लतारी, सृष्टि सकल लागे एक उपवन प्रकृति मनोहार रे.....” " भगवान के पांच कल्याणक में सात नरक में होनेवाला प्रकाश प्रथम नरक में दूसरी नरक में तीसरी नरक में चौथी नरक में तेजस्वी सूर्य समान आच्छादित (बादल से ढके हुए) सूर्य समान तेजस्वी चन्द्र समान आच्छादित चन्द्र समान 117 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवीं नरक में छट्ठी नरक में सातवीं नरक में छप्पन दिक्कुमारी कृत जन्म महोत्सव सांभलो कलश जिन : प्रभु का जन्म होते ही 56 दिक्कुमारिकाओं का आसन चलायमान होता है। ये देवियाँ कुँवारी होती है। अनेक अन्य देवियों की स्वामिनी है। गजदंत पर्वत एवं रुचक द्वीप के पर्वत पर इनका वास स्थान है। अवधिज्ञान से प्रभु के जन्म को जानकर अति प्रसन्न होती हुई प्रभु के जन्म स्थान पर आती है एवं सम्पूर्ण सूतिका कर्म कर खुशियाँ मनाती है । इनके कार्य एवं स्थान56 दिक्कुमारिकाओं के स्थान संख्या कार्य 4 गजदंत के नीचे अधोलोक की मेरु पर्वत पर ऊर्ध्वलोक की दक्षिण रुचक की पूर्व रुचक की उत्तर रुचक की पश्चिम रुचक की अधोभाग रुचक की विदिशा रुचक की 8 8 8 8 8 8 4 ग्रह समान नक्षत्र समान तारा समान 4 सूतिका गृह बनाती है एवं भूमि शुद्धि करती है। सुगंधी जल छिटकती है। कलश भरकर धारण करती है। दर्पण धारण करती है। चामर धारण करती है। पंखा करती है। रक्षापोटली बांधती है। दीपक ग्रहण करती है। 56 56 दिक्कुमारिकाएँ स्वकार्य करने के पश्चात् तीन कदली गृह (केले के पत्तों से घर) बनाती है। उसमें से प्रथम में प्रभु तथा प्रभु माता को पीठी चोलती है। दूसरे में स्नान कराती है। तीसरे में वस्त्रालंकार पहनाकर कुसुम से पूजा करती है एवं नज़र न लगे इसलिए अरणी के काष्ट को जलाकर उसकी राख की पोटली बांधकर प्रभु तथा माता को शय्या पर पधराती है। फिर माता एवं प्रभु को नमस्कार करके माता को कहती है कि, - “तुम्हारा पुत्र हमें अति प्रिय है एवं जब तक मेरु, सूर्य एवं चंद्र है तब तक आपका पुत्र चिरंजीवी बनें।” ऐसे आशिष देकर भगवान के गुण गाती गाती अपने स्थान पर जाती हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन जन्म्याजी.... उस समय 64 इद्रों के सिंहासन कम्पायमान होते हैं। अवधिज्ञान से इन्द्र प्रभु के जन्म को जानते हैं। अवधिज्ञान से भगवान के जन्म को जानकर सब इन्द्र अपने-अपने अधिकार वाले सभी विमानों में सुनाई दे ऐसा बड़ा सुघोषा घंट बजवाते हैं। इस घंट के नाद से सभी देवलोक में प्रभु जन्म की सूचना मिलती है तथा सभी देवों को प्रभु जन्मोत्सव के लिए मेरुपर्वत पर पधारने का आमंत्रण मिलता है। इस घंट की सुमधुर ध्वनि से सभी को अर्हानंद का अनुभव होता है। घंट-नाद से सर्व विमानों की छोटीछोटी घंटियाँ भी बजने लगती हैं। उन घंटियों के नाद में प्रभु का मेरु पर्वत पर जन्म महोत्सव करने जाने की घोषणा होती है। इससे सभी देवी-देवता मेरु पर्वत की ओर गमन करते हैं। दिशिनायकजी : पूरा ढाई द्वीप 5 सीता एवं 5 सीतोदा नदियों के कारण दक्षिणार्ध एवं उत्तरार्ध इन दो भागों में बँट जाता है। जब उत्तरार्ध की 85 विजयों में प्रभु का जन्म होता है। तब उस दिशा के नायक इशानेन्द्र जन्म महोत्सव के अधिकारी बनते हैं एवं जब दक्षिणार्ध की 85 विजयों में प्रभु का जन्म होता है। तब उस दिशा के नायक सौधर्मेन्द्र प्रभु के जन्माभिषेक के अधिकारी बनते हैं। ___एम सांभलीजी : सुघोषा आदि घंट की आवाज़ को सुनकर सभी देव मेरुपर्वत की ओर जाते हैं एवं भरत क्षेत्र में भगवान का जन्म हुआ है, इस अपेक्षा से सौधर्मेन्द्र अपने परिवार के साथ पालक विमान में बैठकर भरत क्षेत्र में आने के लिए निकलते हैं। सर्व प्रथम देवलोक से रवाना होकर असंख्य योजन तिर्छा आते हैं। फिर असंख्य योजन नीचे जाने पर नंदीश्वर द्वीप आता हैं। वहाँ 1 लाख योजन के “पालक विमान” का संकोच करते है एवं संकोच करते-करते प्रभु के जन्म स्थान पर आते हैं। वहाँ आकर प्रभु तथा माता को वंदन कर एवं बधाई देते हुए कहते हैं कि - “हे रत्नकुक्षि धारिणी ! माता. ! मैं शक्र नामक सौधर्मेन्द्र आपके पुत्र का सुंदर जन्म महोत्सव करूंगा”, इस प्रकार कहकर माता के पास प्रभु के प्रतिबिंब को स्थापित कर माता को अवस्वापिणी निद्रा देते हैं। फिर कई देव-देवी साथ में होने पर भी भक्ति के अतिरेक से स्वयं पाँच वैक्रिय रुप बनाते हैं। एक से भगवान को कर संपुट में धारण करते हैं, एक से छत्र धारण करते हैं, एक से आगे वज्र उछालते हैं एवं दो रुप से चामर वींजते हैं। इस प्रकार भगवान को लेकर सौधर्मेन्द्र मेरु पर्वत पर आते हैं। उस समय अन्य देव-देवियाँ भी हर्ष से नाच गान करते हुए प्रभु के साथ मेरुपर्वत पर आते हैं। ___मेरु उपरजी .... मेरु पर्वत के पांडुक वन में चारों दिशाओं में चार बड़ी-बड़ी शिलाएँ हैं। उसमें से सौधर्मेन्द्र प्रभु को दक्षिण की अतिपांडुकंबला शिला पर रहे सिंहासन पर अभिषेक के लिए ले आते हैं। इतने में दूसरे 63 इन्द्र भी वहाँ पहुँच जाते हैं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्या चौसठ सुरपति... ___64 इन्द्रों की गणना 10 भवनपति के दक्षिण एवं उत्तर दिशा के मिलाकर 20 इन्द्र 8 व्यंतर के दक्षिण एवं उत्तर दिशा के मिलाकर 16 इन्द्र 8 वाणव्यंतर के दक्षिण एवं उत्तर दिशा के मिलाकर 16 इन्द्र असंख्य चन्द्र को मिलाकर 1 गिनने से 1 चन्द्र इन्द्र असंख्य सूर्य को मिलाकर 1 गिनने से ' 1 सूर्य इन्द्र 12 देवलोक में से 9 वें, 10 वें एवं 11 वें, 12 वें देवलोक के बीच में 1-1 इन्द्र होने से 12 देवलोक के कुल 10 इन्द्र . कुल 64 इन्द्र सुर सांभली ने संचरिया .... 64 इन्द्र में सबसे बड़े अच्युतेन्द्र होने से उनकी आज्ञा से सभी देव मागध, वरदाम आदि तीर्थों के, पद्मद्रह आदि द्रहों के, गंगा आदि नदी के एवं क्षीरसमुद्र आदि समुद्रों में से पानी के कलश भरते हैं एवं भद्रशाल, नंदन वन आदि स्थानों से औषधियाँ एवं फूल के थाल भरकर लाते हैं। धूपदानी आदि उपकरण जो-जो सिद्धांत में बताये हैं, वे सभी लेकर शीघ्र -मेरु पर्वत गए आते हैं एवं प्रभु को देखकर हर्षित बनते हुए सभी कलशादिक सामग्री इन्द्र के सामने रखते हैं एवं स्वयं भगवान के गुण-गान गाने लगते हैं। आठ जाति के कलश सोने का चाँदी का 1-1 जाति के कलश 8-8 हज़ार होते हैं। रत्नों का 8x8000=64000 कलश सोना रुपा एवं रत्न का सोना एवं रुपा का ये कलश 25 योजन लम्बे होते हैं सोना एवं रत्न का एवं उसकी नाल 1 योजन की होती है। रुपा एवं रत्न का मिट्टी का 8 जाति के कलश স্কুল 120 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवान के अभिषेक का अधिकार आतम भक्ति मल्या केई देवा.... मेरु पर्वत पर कितने ही देव कोई अपनी भक्ति से, कोई मित्र की प्रेरणा से, कोई स्त्री की प्रेरणा से, कोई कुल धर्म का विचार कर एवं कोई धर्मी देव की मित्रता से स्नात्र महोत्सव में आते हैं। वहाँ चारों निकाय के देव एकत्रित होते हैं। सौधर्मेन्द्र प्रभु को गोद में लेकर बैठते हैं। फिर अच्युतेन्द्र के आदेश से अभिषेक शुरु होते हैं। 1-1 अभिषेक में 64000 कलशों का अधिकार हैं। कुल अभिषेक 250 हैं। अतः 64000x250=1 क्रोड़ 60 लाख कलशों से अभिषेक होता है। ___250 अभिषेक इस प्रकार हैं सूर्य-चन्द्र सिवाय के 62 इन्द्रों के सभी निकाय के लोकपाल के देवों के मिलाकर ढाई द्वीप के चन्द्र के ढाई द्वीप के सूर्य के गुरु स्थानिक देवों का सामानिक देवों का सेनापति देवों का . अंगरक्षक देवों का तीन पर्षदा (बाह्य, अभ्यंतर एवं मध्यम सभा) परचूरण (प्रकीर्णक) देवों का सौधर्मेन्द्र की 8 इन्द्राणियों के इशानेन्द्र की 8 इन्द्राणियों के असुरेन्द्र (भवनपति निकाय) की इन्द्राणियों के नागेन्द्र (भवनपति निकाय ) की इन्द्राणियों के ज्योतिष की इन्द्राणियों के व्यंतर की इन्द्राणियों के कुल 250 अभिषेक 250 में से 204 देवता संबंधी एवं 46 इन्द्राणी संबंधी अभिषेक है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम 249 अभिषेक हो जाने के बाद इशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र से कहते है कि “प्रभुजी को क्षण भर के लिए मुझे दीजिए।" उस समय इशानेन्द्र की गोद में प्रभु को बिठाकर सौधर्मेन्द्र भक्ति से वृषभ (बैल) का रुप धारण कर सींग में कलशों के पानी को भरकर 250 वां अभिषेक करते हैं। इन्द्र प्रभु के सामने वृषभ रुप धारण कर प्रभु के आगे स्वयं को पशु तुल्य बताते हैं। प्रभु के कल्याणक के समय में विशिष्ट प्रकार का विश्वमंगल होता है। फिर पुष्पादि से प्रभु को पूजकर केसर के छांटने करते हैं। आरती एवं मंगल दीपक कर पुनः प्रभु का जय-जयकार एवं भेरी-भुंगल एवं तालियाँ बजाते-बजाते प्रभु को हाथ में लेकर प्रभु के घर आकर माता को पुत्र अर्पण करते हैं। फिर माता से कहते हैं - "हे माता ! ये प्रभु आपके पुत्र हैं एवं हमारे जैसे सेवक के स्वामी है।" तब सौधर्मेन्द्र रम्भा आदि पाँच इन्द्राणियों को प्रभु के लालन-पालन आदि के लिए धाव-माता के रुप में स्थापित करते हैं। वहाँ बत्रीश क्रोड़ सोना, मणिमाणेक रत्न आदि की वृष्टि करते हैं एवं हर्ष के अतिरेक में नंदीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव कर अपने निवास स्थान पर चले जाते हैं। वहाँ पर भगवान कब दीक्षा लेंगे एवं केवलज्ञान प्राप्त करेंगे, उसकी प्रतिक्षा करते हुए हमेशा प्रभु के गुणगान करते रहते हैं। तपागच्छ के नायक सिंहसूरीश्वरजी के बड़े शिष्य पन्यास सत्यविजयजी हुए। उनके शिष्य कपूरविजयजी, उनके शिष्य क्षमाविजयजी, उनके शिष्य यशोविजयजी, उनके शिष्य शुभविजयजी एवं उनके शिष्य पं. वीरविजयजी ने यह जिन-जन्म महोत्सव गाया है। उत्कृष्ट से 170 भगवान विचरण करते हुए मिलते हैं एवं वर्तमान में बीस विहरमान है। भूतकाल एवं भविष्य में अनंत तीर्थंकर हुए है एवं होंगे। उन सभी तीर्थंकर परमात्मा का जन्म कल्याणक जो गाते हैं, वे तथा कर्ता श्री वीरविजयजी महाराज आनंद मंगल युक्त अति सुख को पाते हैं एवं प्रत्येक घर में हर्ष की बधाई होती है। चुने हुए मोती 'देना' उसका नाम दान नहीं, छोडना' उसका नाम दान है। धन के ममत्व के साथ नाम का भी ममत्व छोड़ना वही सच्चा दान है। धन छोड़ देते है, परंतु मैंने छोडा है यह न छूटे तो? नाम के लिए दान देना वह दान का अजीर्ण है। दान करने से धर्म नहीं होता, दान पचे तो धर्म होता है। 122 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन जैनाचार AIMULS aanand गुरुवंदन - सुपात्र दान 50000 श्रावक का श्रृंगार जयणा मटका-गलणा मोरपीछी सुपडी पूंजणी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेष भाव रमात्मा के नव व अंग पूज सन के विशेष हे प्रभु ! आपके च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं निर्वाण कल्याणक से जगत के जीवों के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग रुपी आश्रव क्षय करते आपके चरण कमल की जय हो....... हे परमात्मा ! दीक्षा कल्याणक में कायोत्सर्ग द्वारा अनंत कर्मों की निर्जरा कराने वाले आपके जानु कमल की जय हो.... हे परमात्मा ! दीक्षा कल्याणक में दान की धारा एवं पंचमुष्टि लोच करने वाले आपके कर कमल की जय हो.... हे परमात्मा ! ध्यान में स्थिर होकर एकाकार होकर कषायों को दूर करने वाले आपके खंध कमल की जय हो.... हे परमात्मा ! अनंत आनंद स्वरुप जहाँ से बहती सिद्धरस धारा जगत के जीवों को गुण श्रेणी,क्षपक श्रेणी, केवलज्ञान एवं निर्वाण देती हैं । ऐसे आपके सहस्त्र कमल से शोभित शिर शिखा की जय हो. हे परमात्मा ! हे अनंत पुण्यनिधान ! हे महापुण्यनिधान ! हे अनंत पुण्यराशि ! हे प्रभु श्री तीर्थंकर नामकर्म धारा से युक्त आज्ञाचक्र से सुशोभित आपके भाल तिलक की जय हो.... . हे परमात्मा | भव्य जीवों को भव सागर से पार उतारनेवाले सकल जीव राशि मात्र को हितकारी, दावानल रुप कषाय को शांत करने के लिए पुष्करावर्त मेघ समान, पाप मल, कर्म मल को धोनेवाली ऐसी देशना देनेवाले आपके कंठ कमल की जय हो... हे परमात्मा ! अनाहत चक्र में राग-द्वेष का सर्वथा क्षय होता है, ऐसे आपके हृदय कमल की जय हो.... • हे परमात्मा ! जहाँ से क्षपक श्रेणी की शुरुआत होती हैं ऐसे आपके नाभि कमल की जय हो... Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ w देववंदन प्र. देववंदन यानि क्या? उ. जिसमें पाँच दंडक, प्रणिधान सूत्र, चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन द्वारा विशिष्ट प्रकार से प्रभु को वंदना की जाती है। उसे देववंदन कहते हैं। प्र. दंडक यानि क्या? वे कौन-कौन से हैं? उ. अति गहन अर्थ से युक्त एवं बार-बार उपयोग में आनेवाले मुख्य सूत्रों को शास्त्र में दंडक कहा गया है, तथा जो दंड के जैसे सरलता से, यथोक्त मुद्रा से अस्खलित रुप से बोले जाते हैं। उन्हें दंडक कहते हैं। वे पाँच दंडक इस प्रकार है - 1 नमुत्थुणं, 2 अरिहंत चेझ्याणं, 3 लोगस्स, 4 पुक्खर-वर दीवड्ढे, 5 सिद्धाणं-बुद्धाणं। प्र. प्रणिधान के तीन सूत्र कौन-कौन से हैं? उ. . जावंति चेइयाई, जावंत के वि साहू जय वीयराय। प्र. देववंदन के सूत्रों को किन भावों से बोलने चाहिए एवं उनके साथ चैत्यवंदन, स्तुति (जोड़ा) एवं स्तवन का क्या संबंध है? उ. देववंदन के सूत्र प्राकृत भाषा में गणधर रचित एवं रहस्यों से भरपूर होते हैं। इसलिए सूत्रों की शुद्धि एवं छंद को ध्यान में रखते हुए सूत्र बहुमान एवं अहोभाव पूर्वक बोलने चाहिए, जिससे विशिष्ट कर्म निर्जरा होती है। चैत्यवंदन-स्तुति-स्तवन हिन्दी गुजराती आदि लोकभाषा में होने से व्यक्ति राग में गाकर अपने हृदय को गद्गद् बना सकता है। चैत्यवंदन में प्रभु का अल्पाक्षरी परिचय अथवा वंदना होती है एवं जं किंचि में तीनों लोक के सर्व तीर्थ की प्राकृत भाषा में वंदना की गई है। फिर नमुत्थुणं एवं अरिहंत चेइयाणं में प्रस्तुत जिन की प्राकृत में गुणगान कर प्रस्तुत भगवान की प्रथम थोय होती है। लोगस्स में चौबीस जिन की प्राकृत में नामस्तवना के बाद द्वितीय चौबीस जिन की थोय, पुक्खर वर दीवड्ढे में श्रुत ज्ञान की प्राकृत में महिमा बताकर तृतीय आगम की थोय बोलने से भावों में विशेष वृद्धि होती है। फिर अनंत सिद्ध भगवंत आदि को वंदन करता हुआ सिद्धाणं-बुद्धाणं सूत्र प्राकृत भाषा में बोला जाता है। (चार थुई वाले वैयावच्च सूत्र के बाद चौथी शासन देवी की स्तुति बोलते हैं।) (123 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके बाद नमुत्थु से प्रभु स्तवना, जावंति से चैत्य एवं जावंत से साधु भगवंत आदि को वंदना करने के बाद प्रभु के गुणों को विविध स्तवनों से गाकर आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । एवं अंत में जय-वीयराय सूत्र में प्रभु से भव निस्तार के लिए विविध प्रार्थना एवं समाधि मरण की याचना एवं शरणागति से देववंदन की पूर्णाहुति होती है। प्र. देववंदन में प्रभु वंदना की क्या विशेषता है ? उ. देववंदन में प्रभु की चार निक्षेप से तथा रत्नत्रयी तत्त्वत्रयी, द्विविध तीर्थ आदि से वंदना होती है। प्र. चार निक्षेप से वंदना किस प्रकार होती है ? उ. 1. नाम निक्षेप - लोगस्स में 24 तीर्थंकर प्रभु की नाम से स्तुति होने से यह नाम निक्षेप से वंदना हुई । 2. स्थापना निक्षेप - जंकिंचि, लोगस्स एवं जावंति चेइयाइं इसमें प्रभु प्रतिमा को वंदना की गई है, यह स्थापना निक्षेप से वंदना हुई। 3. द्रव्य निक्षेप - 'जे अ अईया सिद्धा' से 'तिविहेण वंदामि' तक भूत एवं भावि के तीर्थंकर प्रभु की वंदना होने से यह द्रव्य निक्षेप से वंदना हुई। 4. भाव निक्षेप नमुत्थुणं सूत्र में प्रारंभ से नमो जिणाणं तक साक्षात् विचरने वाले तीर्थंकर प्रभु की 33 विशेषणों द्वारा स्तुति की गई है यह भाव निक्षेप से वंदना हुई। प्र. रत्नत्रयी से वंदना किस प्रकार होती हैं ? उ. दर्शन - लोगस्स, सिद्धाणं- बुद्धाणं द्वारा दर्शनपद से वंदना होती हैं। पुक्खर - वर - दीवड्ढे द्वारा ज्ञानपद से वंदना होती हैं। ज्ञान चारित्र - जावंत के वि साहू द्वारा चारित्रपद से वंदना होती हैं। इन सूत्रों में प्रभु के रत्नत्रयी गुणों की स्तवना की गई है। प्र. तत्त्वत्रयी से वंदना कैसे होती है ? उ. देव - नमुत्थुणं, लोगस्स में प्रभु को वंदना की जाती है। गुरु - जावंत के वि साहू में साधु को वंदना की जाती है। धर्म - पुक्खर - वर - दीवड्ढे में श्रुत धर्म एवं चारित्र धर्म की स्तुति की जाती है। प्र. द्विविध तीर्थ स्वरुप प्रभु को वंदना कौन-कौन से सूत्रों से होती हैं ? उ. जंगम तीर्थ : जावंत के वि साहू ( साधु-साध्वी जंगम तीर्थ कहलाते हैं ।) स्थावर तीर्थ - जंकिंचि, जावंति चेइयाई, अरिहंत चेइयाणं (प्रभु के मंदिर आदि स्थावर तीर्थ हैं।) 124 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. तीन प्रकार के चैत्यवंदन बताओं? उ. 1. जघन्य - जिसमें एक नमुत्थुणं आता हो , वह जघन्य चैत्यवंदन है। 2. मध्यम - जिसमें दो नमुत्थुणं और एक स्तुति का जोड़ा आता है, वह मध्यम चैत्यवंदन है। 3. उत्कृष्ट - जिसमें पाँच नमुत्थुणं और दो स्तुति के जोड़े आते हैं, उसे उत्कृष्ट चैत्यवंदन (देववंदन) कहते हैं। प्र. पद एवं संपदा का अर्थ समझाइए? उ. पद : सूत्र में जो विभक्ति सहित शब्द होते हैं, उन्हें पद कहते हैं। प्रत्येक पद के बाद अल्पविराम होता हैं। संपदा : कुछ पद मिलकर अथवा अकेला पद जब पूर्ण अर्थ बताता है, उन पदों के समूह को संपदा कहते हैं। जैसे वाक्य पूरा होने पर पूर्ण विराम लिया जाता है वैसे ही संपदा पूर्ण होने पर पूर्ण विराम लिया जाता है। (सूत्र विभाग में सभी सूत्र अल्प विराम एवं पूर्ण विराम, पद-संपदा के अनुसार दिये गए हैं। उसका ध्यान रखकर बोलें।) प्र. चैत्यवंदन भाष्य के आधार पर पद, संपदा एवं अक्षर की गणना बताओं? 09 2. 28 43 | क्र. | सूत्र के नाम पदों की संख्या | संपदा की संख्या | कुल अक्षर | | 1. | नवकार 68 | इच्छामि खमासमणो | 3. | इरियावहियं (तस्स उत्तरी सहित) | 32 199 4. | नमुत्थुणं 33 297 5. | अरिहंत चेइयाणं (अन्नत्थ सहित) 229 6. |लोगस्स । 28 260 7. | पुक्खर-वर-दीवड्ढे 16 216 | सिद्धाणं-बुद्धाणं 198 | जावंति चेइयाई ___0 35 10. | जावंत के वि साहू 11.| जय वीयराय (प्रथम दो गाथा) । 0 79 20 9. / 38 0 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. स्तवन कैसे बोलने चाहिए? उ. पूर्वाचार्यों द्वारा रचित गंभीर एवं महान अर्थवाले स्तवन मधुर स्वर में बोलने चाहिए। __ प्रतिक्रमण करने वाले श्रावक को एक दिन में कितने चैत्यवंदन करने चाहिए? उ. प्रतिक्रमण करने वाले श्रावक को एक दिन में 7 चैत्यवंदन करने चाहिए, वे इस प्रकार हैं सुबह के प्रतिक्रमण में : 2 (जगचिंतामणि एवं संसार दावानल अथवा विशाललोचन का) त्रिकाल मंदिर में : 3 चैत्यवंदन शाम के प्रतिक्रमण में : 2 (शाम के प्रतिक्रमण का और अंत में चउक्कसाय का) प्र. देववंदन करने का समय क्या है? उ. कालवेला में त्रिकाल देववंदन करने का विधान है। प्र. कोई तप न किया हो तो देववंदन कर सकते हैं? उ. हाँ, प्रतिदिन त्रिकाल देववंदन करना ही चाहिए। समय का अभाव हो तो चैत्यवंदन भी कर सकते हैं। प्र. कभी बहुत प्यास लगने पर पोरसी से पानी पीया हो या एकासणा कर लिया हो तो दूसरा देववंदन करना या नहीं? उ. पोरसी से पानी पी लिया हो या एकासणा कर लिया हो, फिर भी दोपहर की कालवेला में देववंदन करना उचित हैं, ताकि विधि अधूरी न रहे। प्र. गुरु प्रतिमा के समक्ष देववंदन कर सकते हैं? उ नहीं कर सकते हैं। लेकिन गुरु प्रतिमा को स्थापनाचार्यजी समझकर कर सकते हैं। m रत्न कणिका खुदका हो वह जाता नहिं, और जो जाय वह खुद का नहीं। ___यह गणित अगणित संकलेशों से उगार लेगा। (120 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरवदन प्र. गुरुवंदन के कितने प्रकार है और कौन कौन से हैं? उ. गुरुवंदन के तीन प्रकार हैं 1. फेटा वंदन : मस्तक झुकाकर साधु-साध्वी को मत्थएण वंदामि कहना। 2. थोभ वंदन : दो खमासमण, इच्छकार, अब्भुट्टिओ पूर्वक साधु-साध्वीजी को वंदन करना। पुरुष । साधुओं को एवं बहनें साधु-साध्वीजी भगवंत को यह वंदन करें। 3. द्वादशावर्त वंदन : दो वांदणा पूर्वक पदवी-धर को यह वंदन किया जाता है। प्र. कौन से साधु वंदनीय है? उ. पाँच प्रकार के साधु वंदनीय है 1. आचार्य : गण के नायक एवं अर्थ की वाचना देने वाले। 2. उपाध्याय : गण के नायक होने लायक (युवराज के समान) एवं सूत्र की वाचना देने वाले। 3. प्रवर्तक : साधु भगवंतों को क्रिया में प्रवर्ताने वाले। 4. स्थविर : पतित परिणामी साधु को उपदेशादि से मार्ग में स्थिर करने वाले। 5. रत्नाधिक : ज्ञान, दर्शन, चारित्र में जो अधिक है। गृहस्थ की अपेक्षा से सभी साधु रत्नाधिक है। इनको वंदन करने से कर्मों की निर्जरा होती है। प्र. गुरु महाराज को वंदन कब नहीं किया जाता हैं? उ. 1. जब गुरु भगवंत धर्म कार्य की चिंता में व्याकुल हो। 2. पराङ्गमुख (उल्टे) बैठे हो। 3. निद्रा आदि प्रमाद में हो। 4. आहार-विहार-निहार (स्थंडिल, मातरूं) कर रहे हो या करने की इच्छ वाले हो,तब वंदन नहीं करना चाहिए। प्र. गुरु भगवंत किस अवस्था में हो तब वंदन करना चाहिए? उ. 1. गुरु भगवंत जब प्रशांत (अव्यग्र) चित्त वाले हो। 2. अपने आसन पर व्यवस्थित बैठे हो। 3. उपशांत (क्रोधादि रहित) हो। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. वंदन करनेवाले को धर्मलाभ आदि कहने के लिए उद्यत हो, उस समय गुरु की आज्ञा लेकर वंदन करना चाहिए। प्र. वंदन कितनी बार एवं कैसे करना चाहिए? उ. दिन में तीन बार विधि से गुरुवंदन करना चाहिए एवं रात को गुरुवंदन विधि से वंदन न करके मात्र ___ चरण स्पर्श करके या हाथ जोड़कर त्रिकाल वंदन करना चाहिए। प्र. वंदन करने के निमित्त कौन-कौन से हैं? उ. वंदन करने के आठ निमित्त है 1. प्रतिक्रमण : प्रतिक्रमण आवश्यक के पूर्व जो वांदणे दिए जाते हैं। 2. स्वाध्याय : पढ़ाई या वाचना लेने से पूर्व वंदन किया जाता हैं। 3. काउस्सग्ग : उपधान आदि में एक तप में से दूसरे तप में प्रवेश करने के लिए जो वंदन किया जाता है। 4. अपराध : अपराध की क्षमापना के लिए जो वंदन किया जाता है। 5. प्राहुणा : नये आए हुए साधु को जो वंदन किया जाता है। 6. आलोचना : पापों की आलोचना करने हेतु जो वंदन किया जाता है। 7. संवर : पच्चक्खाण लेने के लिए जो वंदन किया जाता है। 8. उत्तमार्थ : अनशन तथा संलेखणा अंगीकार करने के लिए जो वंदन किया जाता है। प्र. गुरुवंदन करते समय कितने दोष टालने चाहिए? उसमें से कुछ दोष बताओं? उ. गुरुवंदन करते समय 32 दोष टालने चाहिए। वांदणा के 25 आवश्यक का बराबर ख्याल न रखकर __ जैसे-तैसे वंदन करना, गुरु के प्रति रोष आदि रखकर मात्र वंदन करना पड़े इसलिए करना, अनादर से करना यह सब दोष है। प्र. दोष रहित गुरुवंदन करने से क्या लाभ होता है? उ. दोष रहित गुरुवंदन करने से छः गुण की प्राप्ति होती है। (1) विनय (2) अहंकार का नाश (3) गुरु की पूजा (4) जिनाज्ञा का पालन (5) श्रुत धर्म की ___ आराधना (6) प्रचुर कर्म निर्जरा द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्र. गुरु के अभाव में उनकी स्थापना किस प्रकार करनी चाहिए? उ. स्थापना दो प्रकार की होती है। C1280 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. सद्भूत स्थापना : लकड़ी, पुस्तक, चित्र में गुरु के जैसा आकार बनाकर उसमें गुरु की स्थापना करना । 2. असद्भूत स्थापना : अक्ष (अरिया), वराटक (कोड़ा) तथा ज्ञान-दर्शन- चारित्र के उपकरण आदि में गुरु का आकार नहीं होने पर भी उसमें गुरु की स्थापना करना । पुनः यह स्थापना दो प्रकार की होती है। 1. इत्वर स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को मात्र सामायिक आदि काल तक के लिए नवकारपंचिंदिय से स्थापना करना । 2. यावत्कथित स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को गुरु के 36 गुणों की प्रतिष्ठा विधि पूर्वक स्थापना करना। इस प्रकार की विधि से स्थापित करने के बाद क्रिया करते समय स्थापनाचार्यजी के सामने नवकार - पंचिंदिय से पुनः स्थापना करने की जरुरत नहीं रहती है। प्र. गुरु के अभाव में उनकी स्थापना करने की क्या जरुरत है ? उ. गुरु के अभाव में उनकी स्थापना करने से गुरु साक्षात् हमें आदेश दे रहे हो, ऐसे भाव पैदा होते हैं एवं उनकी निश्रा में धर्मानुष्ठान करने से सार्थक होता है। गुरु के अभाव में किया गया अनुष्ठान फलदायक नहीं बनता। जैसे परमात्मा के अभाव में उनके बिम्ब की स्थापना कर सेवा पूजा का लाभ ते हैं वैसे ही गुरु की स्थापना करने पर हम वंदनादि का लाभ ले सकते हैं। प्र. गुरु से कितनी दूरी पर रहना चाहिए ? उ. श्रावक एवं साधु को गुरु से 31/1⁄2 हाथ दूर रहना चाहिए। श्रावक एवं साधु को साध्वीजी से 13 हाथ दूर रहना चाहिए । श्राविका एवं साध्वीजी को साधु भगवंत से 13 हाथ दूर रहना चाहिए । श्राविका एवं साध्वीजी को साध्वी (गुरु) से 31/1⁄2 हाथ दूर रहना चाहिए। प्र. गुरु भगवंत की 33 आशातना में से कुछ आशातना बताइये ? उ. गुरु भगवंत के आगे, पास में या पीछे अत्यंत नज़दीक खड़ा रहना, बैठना या चलना, गुरु भगवंत को गोचरी नहीं बताना, उनके बुलाने पर उठकर नहीं जाना, उनके आसन को पैर लगाना, उनकी भूल निकालना, गुरु भगवंत को या स्थापना (यानि - फोटो आदि) को पैर लगाना, थूक लगाना, उनकी आज्ञा का भंग करना, स्थापनाचार्यजी को गिराना, तोड़ना आदि। प्र. गुरुवंदन करते समय हृदय कैसा होना चाहिए? उ. गुरुवंदन करते समय गुरु भगवंत के महान गुणों को नज़र में रखते हुए, उनके प्रति हृदय में अहोभाव Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखते हुए एवं कोई दोष या अहंकार का सेवन न हो जाए उसका पूरा ख्याल रखते हुए 25 आवश्यक का पूरा पालन कर गुरुवंदन करना चाहिए। प्र. द्वादशावर्त वंदन करने से क्या लाभ होता है? उ. 84 हज़ार दानशाला बंधवाने में जितना लाभ होता है, उतना पुण्य गुरु को सामुहिक द्वादशावर्त वंदन करने से होता है। सपात्र-दान COUGGEORUM प्र. सुपात्र दान अर्थात् क्या? उ. श्रावक धर्म में दान धर्म का अग्रगण्य स्थान है। दान में भी सुपात्र दान सर्वश्रेष्ठ है। सुपात्र चार प्रकार के हैं। (1) अरिहंत-रत्न पात्र (2) गणधर-सुवर्ण पात्र (3) गुरु (साधु-साध्वी)-रजत पात्र एवं (4) साधर्मिक-कांस्य पात्र। इन चारों में से साधु-साध्वीजी को दान देने की विशिष्ट विधि होने से सामान्यतया गोचरी वहोराने के अर्थ में सुपात्र दान प्रसिद्ध बन गया है। साधु-साध्वी को आहार देने से उनके संयम जीवन में सहायक बना जाता है। उनकी संयम आराधना का हमें लाभ मिलता है। जीवन में धन-धान्य, भोग सामग्री आदि मिलना सरल है। लेकिन महान पुण्योदय के बिना निःस्पृही ऐसे साधु संतों का समागम होना अति दुर्लभ है। अतः जब गाँव में साधु-साध्वी भगवंत बिराजमान हो तब प्रतिदिन उत्कृष्ट भाव के साथ उनको गोचरी के लिए निमंत्रण देना चाहिए। साथ ही गोचरी के निम्न दोषों को टालने का उपयोग रखना चाहिए :* गोचरी के समय सीढ़ियाँ एवं गृहांगन कच्चे पानी से गीले न हो इस बात का उपयोग रखें। * घर में अपने लिए बन रहे भोजन को साधु-साध्वी के उद्देश्य से बनाकर दूषित न बनाए। उनके उद्देश्य से बनाकर वहोराने पर श्रावक और साधु दोनों पाप के भागी बनते हैं। हाँ, अपने लिए बनाए हुए भोजन को उत्तम भावों से साधु-साध्वी भगवंतों को वहोराने से उत्तम फल मिलता है। * परिचित या अपरिचित सभी साधु-साध्वी को समान भाव से वहोराये, उनकी भक्ति करें। * गुरु महाराज को आए हुए देखकर लाईट, पंखा, टी.वी., गैस आदि बंद हो तो चालु एवं चालु हो तो बंद नहीं करने चाहिए। । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गुरु महाराज को आए हुए देखकर कच्चे पानी का ग्लास, कच्चे पानी की बाल्टी तथा लीलोतरी आदि उनके निमित्त से एक स्थान से दूसरे स्थान पर न रखें एवं उन सबको स्पर्श भी न करें । अन्यथा सचित्त के संघट्टे का दोष लगता है । * फ्रीज खोलकर कुंछ निकाले नहीं। * अचित्त फ्रूट आदि एवं दूध आदि को कच्चे पानी के मटके अथवा फ्रीज के ऊपर न रखें। * म.सा. को वहोराने के लिए कच्चे पानी से हाथ नहीं धोने चाहिए तथा वहोराने के बाद भी कच्चे पानी से हाथ नहीं धोने चाहिए। इसलिए कुकर को गैस से नीचे उतारने के बाद उसके नीचे रहा हुआ पानी रख लें। फिर यदि हाथ अचित्त वस्तु से खराब हो और धोने की जरुरत हो तो वह पानी अचित्त होने से उससे हाथ धोकर वहोरा सकते हैं और वहोराने के बाद भी हाथ आदि उस कुकर के पानी से धो सकते हैं। * अर्धकच्ची पकी हुई काकड़ी आदि म.सा. के लिए अकल्प्य है। * फ्रूट आदि सचित्त वस्तु को सुधारने के बाद 48 मिनिट हुई या नहीं उसका उपयोग रखकर वहोराएँ । * वहोराते समय दूध-घी आदि के छींटे नीचे नहीं गिरने चाहिए। छींटे गिरने पर छर्दित दोष लगता है। अतः पहले ठोस (कठन) वस्तु वहोराने के बाद तरल वस्तु वहोरानी चाहिए। यदि पहले ही छींटे गिर जाए तो म.सा. कुछ भी वहोरे बिना ही चले जायेंगे। * छर्दित दोष से बचने के लिए पात्रे रखने के स्थान पर थाली या पाटीया आदि लगाए ताकि ज़मीन पर कोई छींटे न गिरें। फिर उस थाली का उपयोग खाने के लिए कर लेना चाहिए। * छर्दित दोष पर दृष्टांत : एक बार साधु भगवंत गोचरी वहोरने के लिए गए। श्रावक के हाथ से दूध का छींटा जमीन पर गिर गया, जिससे म. सा. बिना वहोरे ही पुनः लौट गये। सामने मंत्री झरोखे से यह देख रहा था उसने विचार किया कि एक छींटा गिरने में क्या दोष लगता होगा। इतने में दूध से चींटियाँ आई, चींटियों के पीछे,मक्खियाँ, उसके पीछे गिरोली, बिल्ली, कुत्ता, कुत्ते के मालिक आए, अंत में कुत्ते के मालिकों के बीच घमासान युद्ध हुआ । इससे मंत्री समझ गया कि एक छींटे के पीछे कितनी विराधना हो सकती है। जैन धर्म की सूक्ष्मता को देखकर उन्होंने जैन धर्म अंगीकार कर लिया। गोचरी में उपयोग रखने संबंधी कुछ बातें : 1. साधु भगवंतों को शुद्ध एवं निर्दोष आहार- पानी वहोराने का लाभ मिले, इस हेतु से श्रावक-श्राविका को जब साधु-संत गाँव में हो तब कच्चा पानी, सचित्त एवं रात्रीभोजन का त्याग करना चाहिए। गोचरी 131 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय को ध्यान में रखते हुए उस अनुसार अपना भी आहार- पानी का समय बना लेना चाहिए। शाम को चौविहार या तिविहार अवश्य करना चाहिए । लेकिन उन सब में गुरु भगवंत का उद्देश्य न आ जाए इस बात का पूरा-पूरा ख्याल रखना चाहिए। ऐसा करने पर साधु-संत पधारें तो उन्हें निर्दोष आहार- पानी वहोराने का उत्तम लाभ मिलता है एवं न भी पधारें तो श्रावक को प्रासुक अन्न-जल वापरने से लाभ ही है । दृष्टांत : एक बार विहार करते हुए हम बड़गाँव गए । प्रत्येक घर में गरम पानी एवं अचित्त फ्रूट आदि देखकर हमें आश्चर्य हुआ । शंका होने से हमने फ्रूट आदि नहीं वहोरे । तब उन्होंने कहा जब भी म.सा. पधारते हैं तब पूरा गाँव निर्दोष गोचरी वहोराने का लाभ लेने के लिए अपने लिए जो भी फ्रूट आदि वापरते हैं। वह सचित्त नहीं वापरते एवं कच्चे पानी का भी त्याग करते हैं। साथ ही चौविहार भी करते हैं। अपने घर पर भी ऐसी व्यवस्था करना यह विवेक की बात हैं। 2. साधु बीमार, वृद्ध, बाल, तपस्वी हो अथवा विहार में अव्यवस्था आदि विशिष्ट कारण आ जाए तो उपयोगवंत श्रावक को उस समय साधु भगवंत को जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उस बात का उपयोग रखना चाहिए। अथवा कोई महात्मा उन्हें उपयोग (कुछ बनाने को कह दे ) दे तो बड़े उत्कृष्ट भाव से उस वस्तु को वहोरानी चाहिए। इसमें भी लाभ ही है। 3. श्रावक को साधु-साध्वी के माता-पिता की उपमा दी गई हैं। उनकी संयम आराधना का ध्यान रखना श्रावक का फर्ज़ है। श्रावक न तो उनके संयम को शिथिल बनने दे, और न ही संयम को सीदाने (मुरझाने) दे लेकिन जिस प्रकार से साधु ज्यादा से ज्यादा संयमी बने रहें, उस प्रकार से उन्हें संयम के उपकरणादि की अनुकूलता कर देने का विधान हैं। 4. स्थापना कुल : उदार वृत्तिवाले और विशाल परिवार वाले घर जहाँ साधु भगवंतों को जो वस्तु जब भी चाहे मिल जाए। जहाँ पर चार-पाँच बार जाने पर भी श्रावक मन में अभाव न लाकर भावपूर्वक वहोराते रहें, ऐसे घरों को स्थापना कुल कहते हैं। साधु भगवंत आचार्यादि के लिए या विशिष्ट कारण से ही ऐसे घर से गोचरी लाते हैं। 5. जो घर उपाश्रय के नज़दीक है एवं जिस गाँव से साधु-साध्वी भगवंतों का विहार अधिक होता है उनको विशेष उत्साह एवं विवेक रखना चाहिए। उनके लिए सब प्रकार के सुकृतों से सुपात्र दान का लाभ विशेष बन जाता है। कहीं घर कम हो या अपना घर पास में हो तो श्रावक को उत्कृष्ट भाव से ही लाभ लेना चाहिए । लेकिन मन में दुर्भाव नहीं करना चाहिए । साधु संतों को शाता मिलने से . उनके अंतर के आशिष प्राप्त होते हैं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. जब भी महात्मा गृहांगन में पधारें उस समय अति आनंदित होकर उन्हें पधारने का आमंत्रण देना चाहिए। घर के सारे सदस्यों को खड़े होकर उनका विनय करना चाहिए। लेकिन छोटे या बड़े गुरु भगवंत की उपेक्षा करके टी.वी. देखना, समाचार पढ़ना, बातें करना आदि में व्यस्त रहे तो आशातना का दोष लगता है। वहोराने का लाभ सभी को लेना चाहिए। गुरु भगवंत को वहोराने के संस्कार बच्चों को भी देने चाहिए। 7. बहुत बार अज्ञानी लोग पास में म.सा. की आवाज़ सुनकर अपने घर में साधु के निमित्त आरंभ करके खिचिया, पापड़ सेकते हैं। वह उचित नहीं हैं। बहुत लोग अपने लिए बन रही रसोई, दूध आदि को म.सा. का उद्देश्य बनाकर दोषित कर देते हैं। कुशल श्रावक-श्राविकाओं को नियम (1) के अनुसार उपयोग रखना चाहिए। 8. गाँव में आयम्बिल खाता न हो एवं म.सा. को आयम्बिल हो तो म.सा. के लिये खाना अलग बनाने की जरुरत नहीं होती। आपके घर जो भी बन रहा हो उसमें से ही उपयोग पूर्वक लूखा निकाल लेना चाहिए। अथवा म.सा. को वहोराने के पहले वघारना नहीं चाहिए, सभी अथवा कुछ रोटियाँ लूखी ही रखनी चाहिए एवं उस दिन घर में सभी को अथवा कुछ सदस्यों को लूखी रोटी खाकर साधु भगवंतों को निर्दोष गोचरी वहोराने का लाभ लेना चाहिए। 9. वहोराते समय सर्वप्रथम उत्तम द्रव्यों को बताना चाहिए। फिर सामान्य द्रव्य बताने का विधान है। अन्यथा पहले सामान्य द्रव्य ले लें तो विशेष लाभ से वंचित रह जाते हैं। 10. कभी म.सा. पधारें हो और आपके घर पर रसोई नहीं बनी हो, तो दरवाज़े से म.सा. को रसोई नहीं बनी है इस प्रकार कहकर लौटाना नहीं चाहिए। अपितु उन्हें बहुमान पूर्वक आमंत्रण देकर घी, गुड़, दूध, शक्कर, खाखरा, झूठ, पीपरामूल, मिठाई आदि जो भी वस्तु घर में हो उसका लाभ देने की विनंती करनी चाहिए। . 11. जब भी म.सा. पधारते हैं तब उनका भक्ति पूर्वक स्वागत करना चाहिए एवं वहोराने के बाद समयानुसार पुनः लौटाने जाना चाहिए। कम से कम अपने घर के बाहर तक तो पहुँचाने जाना ही चाहिए। म.सा. गाँव में अनजान हो तो उन्हें आसपास के सभी घर दिखाने चाहिए। 12. म.सा. को वहोराने का आग्रह रखना उचित है, लेकिन इतना आग्रह भी नहीं करना चाहिए कि उनको तकलीफ उठानी पड़े। अतः विवेक रखे। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. जब भी घर से गाड़ी लेकर कहीं बाहर गाँव या तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए निकल रहे हो तब म.सा. को रास्ते में देखने पर अवश्य गाड़ी को रोककर उन्हें गोचरी, दवा आदि काम-काज के लिए पूछे। रास्ते में कोई तकलीफ आदि में भी आप सहायक बन सकते है। जरुरत पड़ने पर अपना काम गौण करके भी म.सा. का कोई काम हो तो वह करने से खूब लाभ मिलता है। 14. बच्चों को बचपन से ही म.सा. को गोचरी के लिए बुलाने भेजना चाहिए। इससे बचपन से ही उनमें ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं। राजकोट में एक 6 साल का लड़का म.सा. को गोचरी के लिए बुलाने आया। म.सा. ने मना किया। इससे वह खूब आग्रह करने लगा। म.सा. के पात्रे पकड़ लिए। म.सा. ने कहा तू इतना आग्रह क्यों कर रहा है? उसने कहा- म.सा. यदि मैं आपको गोचरी बुलाने के लिए आता हूँ तो मेरी मम्मी मुझे 3 रुपये देती है। और यदि मैं आपको साथ ले जाता हूँ तो मेरी मम्मी मुझे 6 रुपये देती है। दृष्टांत : एक बार माँ ने लड़के को म.सा. को गोचरी के लिए बुलाने भेजा। लड़का उपाश्रय में आया और म.सा. को गोचरी के लिए पधारने की विनंती की। म.सा. ने कहा कि “गोचरी वाले म.सा. तो निकल चुके है।" तब लड़के ने कहा 'तो फिर आपके साथ जो साधर्मिक है उन्हें भोजन के लिए भेज दीजिए।' म.सा.ने कहा 'वे भी चले गये है।' फिर लड़के ने म.सा. से कहा 'तो फिर डोली उठाने वाले आदि आपके साथ जो भी आदमी या औरत है उनको भेज दीजिए।' म.सा. ने कहा 'वे भी चले गए।' यह सुन लड़का उदास हो गया। उतने में उसने वहाँ एक कुत्ते को देखा और खुश होते हुए पूछा 'म.सा. यह कुत्ता आपका है?' म.सा.ने कहा 'हमारे साथ विहार में चलता है।' तो उसने कहा 'इस कुत्ते को ही भेज दीजिए।' म.सा. ने कहा 'ले जाओ।' वह कुत्ते के पास जाकर उसे चलने के लिए कहने लगा। लेकिन कुत्ता नहीं गया, तब म.सा. ने कहा 'भाई यह कहने पर चलने वाला नहीं है। इसके लिए तो खाना यहाँ लाना होगा।' तुरंत वह लड़का हसता हुआ चल दिया और थोड़ी देर में 10-12 पेंडे ले आया और बड़े प्रेम से वह कुत्ते को खिलाने लगा। म.सा. तो देखते ही रह गए। म.सा. ने कहा 'यह तो कुत्ता है इसके लिए रोटी लाई होती तो भी चलती।' तब लड़के ने कहा मेरी मम्मी ने कहा है ‘म.सा. के साथ चलने वाले कुत्ते का भी लाभ अपने भाग्य में कहाँ से? इसलिए उसे भी बड़े आदर से पेट भरकर मिठाई खिलानी चाहिए।' अतः हमें भी उपरोक्त नियमों को ध्यान में रखकर उल्लासपूर्वक सुपात्र-दान का लाभ लेना चाहिए। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जीवों की जयणा के उपकरण 1. गरणा : पानी के छानने हेतु सुयोग्य कपड़ा। 2. सावरणी : घर का कचरा निकालने के लिए मुलायम स्पर्श वाली सावरणी (झाडू)। 3. पूंजणी : सुकोमल घास से बनायी हुई मुलायम स्पर्शवाली छोटी पीछी। 4. चरवला : सामायिक, प्रतिक्रमण में उठते-बैठते पूंजने प्रमार्जने के लिए जरुरी उपकरण। 5. मोरपीछी : मोर के पंखों को बांधकर बनाया हुआ उपकरण (पुस्तक, फोटों आदि को पूंजने का उत्तम साधन) 6. छलनी : अनाज, आटा, मसाला आदि छानने हेतु अलग-अलग छलनी। 7. चंदरवा' : रसोई बनाते समय छत पर से कोई जीव जंतु न गिरे उस हेतु रसोई घर में ऊपर बांधने का कपड़ा। जीवों की जयणा की जड़ीबूटियाँ 1. मोर के पंख : मोर के पंख रखने से या हिलाने से साँप तथा छिपकली भाग जाते है। 2. काली मिर्च : केसर की डब्बी में काली मिर्च के दाने डालने से गीलेपन के कारण उसमें होती जीवोत्पत्ति रुक जाती है। 3. डामर (केम्फर) : कपड़े पुस्तकों के बैग, अलमारी आदि में डामर की गोली रखने से जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। 4. पारा : अनाज में पारे की गोली डालने से अनाज़ सड़ता नहीं है। तथा जीवोत्पत्ति नहीं होती। 5. एरंडी का तेल : गेहूँ, चावल, मसाला आदि को यह तेल लगाने से जीव नहीं होते तथा उसकी गंध से चींटियाँ दूर चली जाती है। 6. घोडावज : पुस्तकों की अलमारी में घोड़ावज रखने से जीवोत्पत्ति नहीं होती है। 7. तम्बाकू :: कपड़े अथवा पुस्तकों की अलमारी में तम्बाकू के पत्ते रखने से जीवोत्पत्ति नहीं होती है। 8. चूना : उबाले हुए पानी में चूना डालने से वह पानी 72 घंटे तक अचित्त रहता है। चूना पोतने से दीवारों पर जीव-जंतु जल्दी नहीं आते है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. डामर 10. केरोसिन 11. राख 12. कपूर : डामर के ऊपर निगोद की उत्पत्ति नहीं होती। इससे उदेहि की उत्पत्ति भी रुकती है। : शरीर पर केरोसिन लगाने से मच्छर नहीं काटते। ज़मीन पर केरोसिन वाले पानी से पोछा करने से चींटियाँ नहीं आती है। : चींटियों की लाईन के आस-पास राख डालने से वे चली जाती है। अनाज में राख मिलाकर डिब्बे में रखने से अनाज सड़ता नहीं है। : कपूर की गोली की गंध से चूहे दूर भागते हैं तथा आना-जाना - - दौड़ना कम हो जाता है। कपूर का पाउडर आस-पास डाल देने से चींटियाँ भी चली जाती है। : लकड़ी की अलमारी में यह रखने से जिंगुर (कॉकरोच) की उत्पत्ति नहीं होती । कुंकुम डालने से चींटियाँ चली जाती है। हल्दी डालने से चींटियाँ चली जाती है। : लाल रंग का चूना (गेरु) दीवार पर पोतने से उदेहि नहीं होती है। 13. गंधारोवण 14. कुकु 15. हल्दी 16. गेरु 17. रंग - वार्निश - पॉलिश : लकड़ी पर निगोद और जीवोत्पत्ति रोकने हेतु । निगोद को पहचानो : वर्षाऋतु में घर के कम्पाउन्ड में, पुरानी दीवारों और छत पर हरी, काली, भूरी आदि कई रंगों की (सेवाल - लील) जम जाती हैं। उसे निगोद कहते हैं। आलू आदि कंदमूल के जैसे ही निगोद भी अनंतकाय है। उसके एक सूक्ष्मकण में अनंत जीव होते हैं। उसके ऊपर चलने से, सहारा लेकर बैठने से, उस पर वाहन चलाने से अथवा उस पर कोई वस्तु रखने से या पानी डालने से निगोद के अनंत जीवों की हिंसा होती है। आलू (बटाटा) आदि अनंतकाय है। जब उन्हें दांतों तले चबाना महा पाप है तो अनंतकाय ऐसी निगोद को हम पैरों के नीचे कैसे कुचल सकते हैं? निगोद की रक्षा करों 1. जो जगह अधिक समय तक गीली रहती है, वहाँ निगोद की उत्पत्ति होती है । बाथरुम भी यदि पूरा दिन गीला रहे तो उसमें भी निगोद की उत्पत्ति होती है। इसलिए घर का कोई भी स्थान अधिक समय तक भीगा न रहे, इसकी सावधानी रखें। - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. नीचे देखकर चलना चाहिए। रास्तें में कहीं पर भी निगोद जमी हुई हो तो एक तरफ हटकर स्वच्छ जगह हो वहाँ से चलें। 3. मकान के कम्पाउन्ड में चलने के रास्ते पर निगोद उत्पन्न न हो उस हेतु बारिश का मौसम शुरु होने से पहले ही निम्न उपाय कर सकते है * निगोद न हो ऐसी मिट्टी को बिछा देना अथवा ऐसी फ्लोरींग करा देना । * डामर अथवा सफेद रंग के ऑइल पेन्ट का पट्टा लगा देना । 4. एक बार यदि निगोद हो जाए तो उस पर मिट्टी नहीं डालनी चाहिए। न साफ करना या न उखड़नी चाहिए और न ही कलर या डामर का पट्टा लगाना चाहिए। स्वाभाविक तरीके से वह सूक न जाए तब तक उस पर कुछ नहीं करना चाहिए । 5. लकड़ी के ऊपर रंग, वार्निश, पॉलिश करने से निगोद की उत्पत्ति नहीं होती है। फूलन को पहचानो बासी खाद्य पदार्थ आदि पर सफेद रंग की फूग दिखाई देती है। यह चौमासे में विशेष होती है। मिठाई, खाखरा, पापड़, वड़ी व अन्य वस्तु पर गीलेपन के कारण रातो रात सफेद फूग जम जाती है। फूग होने के बाद वह खाद्य पदार्थ अभक्ष्य बन जाता है। उस वस्तु का स्पर्श करना अथवा यहाँ-वहाँ रखना भी निषेध है। यह फूग अनंतकाय है। इसे निगोद भी कहते है । इसके एक सूक्ष्मकण में अनंत जीव होते हैं। फूलन की रक्षा करो * खाद्य पदार्थों को टाईट दक्कन वाले डिब्बे में रखें। डिब्बें में से वस्तु लेते समय हाथ थोड़ा भी गीला न हो उसका ध्यान रखें और हो सके वहाँ तक चम्मच का उपयोग करें। डिब्बे का ढक्कन बराबर बंद करें। 4 * जिस चीज़ पर फूग जमी हो उसे अलग ही रखें तथा उसे कोई स्पर्श न करें। उसका ध्यान रखें। * मुरब्बा आदि की चासणी तीन तार वाली न होने के कारण कच्ची रहने से फूग हो जाती है। * गरम-गरम मिठाई को डिब्बे में बंद कर देने से फूग उत्पन्न हो जाती है। * बुंदी में चासणी यदि कच्ची रह गयी हो तो भी फूग हो सकती है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की जयणा के सूत्र * ओडोमास की गंध वाला कपड़ा ढंक देने से डिब्बे में आई हुई चींटियाँ चली जाती हैं। * पानी में गिरी हुई चींटियाँ मरी हुई लगती है। लेकिन हल्के हाथ से पानी में से निकालकर उन्हें ऊनी कपड़े पर रखने से अथवा वह पानी गलणे से छानने से सारी चींटियाँ उस गलणे पर आ जाती है। एवं उस गलणे को निचोड़े बिना ऐसे ही सुकाने पर चींटियाँ 5-7 मिनिट में चलने लगती है। * नीम के पत्तों का धूप करने से मच्छर दूर भाग जाते हैं। * नीम का तेल शरीर पर लगाने से मच्छर नहीं काटते। * साबुन के पानी में भिगोये हुए कपड़ों की बाल्टी को ढूँककर रखें ताकि उसमें मक्खियाँ न गिरें। * घर में नमक के पानी से पोछा लगाने से मक्खियाँ नहीं होती हैं। * “देवीका महादेवीआ प्रोडक्टस् मुम्बई” की बनाई हुई दवाई घर में लगाने से कॉकरोच नहीं होते हैं। यदि कॉकरोच हैं तो चले जाते है पर मरते नहीं। यह दवा नीचे के पते पर उपलब्ध है - हुसैन मेनोर, नं 43, बमनजी पेटीट रोड़, पारसी जनरल हॉस्पिटल की गली, केम्पस कॉर्नर, मुम्बई-6. * पुस्तक, फर्निचर या दीवार पर उदेहि हो जाये तो खूब जयणा पूर्वक उन्हें लेकर वृक्ष की छाया में या वृक्ष की कोटर में रख दें। जिस जगह उदेहि की उत्पत्ति हुई है वहाँ पर केरोसिन का पोछा लगाने से उदेहि फिर से नहीं होगी। * साफ किए बिना ही अनाज को पिसवाने से अनेक निर्दोष जीव अनाज के साथ ही पिस जाते है। शाक-सब्जी सुधारे बिना पकाने से उसमें रही ईयल (लटे) पकने से मर जाती है। इसलिए अनाज को छानकर एवं बिनकर ही पिसवाना चाहिए। * वालपापड़ी, मटर, भींडी, शिमला मिर्च, करेला, पत्ता गोबी आदि में ईयल (लटे) की अधिक संभावना रहती है। इसलिए इन चीजों को सुधारते समय विशेष सावधानी रखनी चाहिए। * फूल गोबी में बेइन्द्रिय जीव अधिक सूक्ष्म होते हैं तथा छिद्रों में जीव भरे होते हैं। इसलिए इसका उपयोग न करें। कभी-कभी इसमें छोटे-छोटे साँप भी छिपे हुए रहते हैं। * भीडी को गोलाई में न सुधारें, उसे खड़ी (लंबाई)में ही सुधारे, सुधारते समय हल्के हाथों से चाकु से ___ चीरा लगाये फिर अंगुली से पोहली कर यतनापूर्वक देखें। * मेथी की भाजी में बहुत ही सूक्ष्म केसरी रंग की लटे होती है। छलनी से छनने से उनकी जयणा की जाती है। * गैस-स्टोव का उपयोग करने से पहले उसे पूंजणी से पूंज लीजिए। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गरम पानी में ठण्डे पानी को मत मिलाईए। * फटाके कभी मत फोड़िए। * घास पर मत चलिए। * वनस्पति के पत्ते आदि मत तोड़िए। * गर्भपात न करें और न ही ऐसी हिंसक सलाह दें। ऐसी कुप्रवृत्तियों का दवाखाना भी मत चलाईए। * पर्वतिथि, पर्युषण, ओली आदि में लीलोतरी (हरी सब्जी, फ्रूट) का उपयोग न करें। * रसोई बनाने से पहले आटा-धान्य आदि को छलनी से छानकर देख लें फिर उपयोग में लें। * पर्वतिथि तथा 6 अट्ठाइयों के दिनों में अनाज मत पिसवाईयें। * खाली बर्तन आदि को उल्टे या आडे जमीन पर रखें। जिससे उनमें जीव जंतु गिरकर घबरा न जाए। * टेबल, पलंग आदि कोई सामान ज़मीन से घसीटते हुए न खींचे बल्कि उठाकर रखें। * अलमारी, बेग, डिब्बे आदि आधे खुले मत रखिए उन्हें अच्छी तरह से बंद करें। * चींटियाँ निकल आए तो उस स्थान के आस-पास राख या चूना छिटका दीजिए, चींटियाँ चली जायेगी। चलते फिरते इस बात का ख्याल रखे कि कहीं कोई चींटी पैरों तले दबकर मर न जाए। * लाल रंग के बोर, मिर्ची आदि में उसी रंग के बहुत से जीव होने की संभावना है। इसलिए यतना पूर्वक उपयोग में लीजिए। * रसोई घर में लाईट को चूल्हे के ऊपर मत रखिए। क्योंकि लाईट के आस-पास उड़ते जीव चूल्हे पर तथा तपेली में गिरकर मर सकते हैं। * दही-छाछ को दो रात के बाद उपयोग में न लें। * बासी मावे की मिठाई का उपयोग न करें। ताजा मावा भी यदि पूर्ण रीति से पक्का न किया गया हो तो वह भी दूसरे दिन बासी गिना जाता है। सफेद मावा एक रात के उपरांत बासी हो जाता है। * शहद-मक्खन आदि अभक्ष्य हैं। इनको खाने से पुष्कल विकलेन्द्रिय जीवों का भक्षण एवं हिंसा होती ___ है। इसलिए इनका त्याग करे। * शरीर के खुल्ले भाग में यदि खुजली हो तो खुजलाने से पहले देखे कि कहीं कोई जीव तो नहीं बैठा ___हैं। पीठ आदि जहाँ पर दृष्टि न पहुँचे वहाँ रुमाल फिरा लें। * कपड़े धोने से पहले आगे-पीछे उल्टा करके बराबर निरीक्षण कर लीजिए। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * कोई भी बड़े या छोटे बर्तन में पानी, खाद्य पदार्थ आदि लेने से पहले देख ले कि बर्तन के किसी भी कोने में कोई सूक्ष्म जंतु तो नहीं है न? * दरवाज़े-खिड़की को खोलने, बंद करने से पहले खटखटाये। जिससे यदि छिपकली आदि बैठी हो तो आवाज़ सुनते ही हट जायेगी। खिड़की आदि खोलने, बंद करने से पहले बराबर देख लीजिए कि वहाँ कोई जंतु तो नहीं है। * चाय की पत्ती को छालनी से छानकर उपयोग करें। चातुर्मास व भीगे वातावरण में छोटे जीवों के होने की संभावना रहती है। * वर्षाऋतु में ट्युबलाईट पर छोटे तितली जैसे पुष्कल जीव बड़े प्रमाण में उत्पन्न होते हैं। सुबह कचरे में इन सब जीवों के कलेवर इकट्ठे हो जाते हैं। इसे रोकने हेतु ट्यूबलाईट के साथ नीम के पेड़ की छोटी डाली बांध दीजिए। * शहरों में घर पर आम का रस निकालने की प्रथा घटती जा रही है। कारण यह कि वह बाज़ार में तैयार मिलता है। पर उसका उपयोग करना अनुचित है क्योंकि वह रात्रि में भी निकाला हुआ हो सकता है। तथा उसमें कच्चा दूध भी मिलाया जाता है। जिसे दाल आदि कठोल के साथ खाने से द्विदल होने की संभावना रहती है। आम रस में कच्चा दूध मिलाना नहीं चाहिए। एवं बाज़ार का आम रस भी उपयोग में नहीं लेना चाहिए। शाम की रसोई होने के बाद, बर्नर पर कपड़ा बांधकर उसे ढंक दीजिए। जिससे बर्नर के छिद्रों में जीव न चले जाए। सुबह पूंजणी से पूंजने से जो जीव मात्र बाहर चलते-फिरते हैं, उनकी जयणा की जा सकती है। लेकिन उन जीवों का क्या जो बर्नर के छिद्र में छुपे हैं ? इसलिए बर्नर पर कपड़ा ढंक देना यह एक उत्तम प्रक्रिया है। * बिसलरी आदि मिनरल वॉटर अणगल पानी होने से न पीये न पिलाये। उसमें पानी के जीवों की विराधना है। पहले दिन का छाना हुआ पानी यदि दूसरे दिन उपयोग करे तो छानकर ही उपयोग में लें। * पौओ में पुष्कल जीवात् होने से उसका उपयोग करने से पहले छलनी से निरीक्षण कर लीजिए। * नींबू के फूल (नींबू का सत्त) महाहिंसक होने से उसका उपयोग न करें। * मिठाई के ऊपर यदि केसर का पानी छांटा हुआ हो तो वह मिठाई दूसरे दिन बासी अभक्ष्य होती है। * मेथी आदि भाजी में नीचे के 2-3 पत्ते अनंतकाय गिने जाते हैं। इसलिये सुधारते समय उन पत्तों को छोड़ दीजिए। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पौआ-म -ममरा-सींगदाना तथा किशमिश आदि को छान-बिनकर ही उपयोग में लीजिए। * पूरे काजू का उपयोग न करें। क्योंकि काजू के अंदर की पोलाण (छिद्र) में लटे होने की संभावना रहती है। इसलिए उसके दो टुकड़े कर देखकर ही उपयोग करें। * घर में यदि कुछ मटके ज्यादा हो तो उनके मुँह पर कपड़े बांधकर रखें अन्यथा उसमें मकड़ी के जाल होने की संभावना है। * एक ही मटके में रोज पानी भरने से उसमें लील हो जाने की संभावना है। इसलिए हर 3-4 दिनों में मटके को बदलते रहें तथा पूर्व उपयोग किए हुए मटके अच्छी तरह सूका लें। * ग्लास से पानी पीने के बाद उसे पोंछ दें। झूठी ग्लास मटके में डालने से पूरे मटके के पानी में समूर्च्छिम जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए पानी लेने हेतु एक अलग बर्तन (लोटा, जग ) रखने से समूर्च्छिम जीवों की विराधना से बच सकते हैं। * जलाने हेतु सूकी लकड़ी कोयला आदि का उपयोग करने से पहले प्रमार्जना (पूंजकर) ज़मीन पर ठपका कर देख ले कि कोई जीव तो नहीं है ? * आज छाना हुआ आटा आज ही उपयोग में लें, अगले दिन उपयोग करना हो तो उसे फिर से छानना चाहिए। आज का गूंथा हुआ आटा दूसरे दिन बासी होता है। * मुरब्बे की बरणी के मुँह पर एरंडी का तेल लगा देने से चीटियाँ नहीं आती। * जिस समय बिना लाईट या पंखे के काम हो जाता हो तो घर में या कमरे में प्रवेश करते ही हाथों का दुरुपयोग स्वीच पर न करें। Good Thoughts Remember the Past only if it gives Peace and Pleasure otherwise forget it. 2. Destroy Ego and Control Anger 3. 1. God never closes a door without opening a window. He always gives something better when he takes something away. 141 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों ही स्थिति में मज़ा ही मज़ा विशाल वनराजी से घीरी हुई टेकरी पर एक बाबाजी रहते थे। सात आठ विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। विद्यार्थी ही जंगल में से सुके लकड़े लाकर रसोई कर सबको खाना खिलाते थे। एक दिन पढ़ते हुए लड़कों ने आकर समाचार दिए कि, “गुरुजी, गुरुजी ! सात-आठ गाय कहीं से आ गई है।" गुरुजी ने कहा, “भले ! वहाँ कुछ बांध कर छांव कर दो, माताजी वहाँ सुख से रह सके।” उस तरीके से छांव की गई। गाय आराम से रहने लगी, दूध मिलने लगा, दही-घी होने लगा। पूरा परिवार मौज में आ गया। दिन सुख में बीतते थे। एक दिन वही लड़कें इकट्ठे होकर गुरुजी से कहने आए - “गुरुजी, गुरुजी ! वे सब गाय कहीं चली गई है।” गुरुजीने कहा - "चलो अच्छा हुआ। गोबर साफ करना मिटा।” सभी विद्यार्थियों ने कहा- “जब गाय आई तब आपने कहा कि गौरस मिलेगा और अब उसका मालिक आकर सब गायों को लेकर चला गया तो आप कहते हो कि गोबर साफ करना मिटा, आपको तो दोनों ही स्थिति में अच्छा ही दिखता है?” गुरुजी ने कहा “हाँ, पढ़ाई का यही सार है। दृष्टि एसी बन जाय कि जो अच्छा हो वही नज़र आये, और जो देखे उसमें से भी अच्छा ही ढूंढे।” हमें अच्छा देखने के लिए ही आँखे मिली है, इससे सार्थकता उसी में है कि जो देखों वह अच्छा ही देखों। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टूटा सपनों का महल 单位 of Art Living No Competition But Solution Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्र महिमा बुद्धिवर्धक मंत्र ॐ नमो अरिहंताणं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा मंत्र संख्या: प्रतिदिन 1 माला परिणाम : सवा लाख जाप करके मंत्र सिद्ध कीजिए। स्मरण शक्ति बढ़ती है । TOT * सर्प आदि का ज़हर उतारने का मंत्र ॐ ह्रीँ ह्रीँ हुँ हुँ ह्रीँ हुँ ह्रा नमो सिद्धाणं विषं निर्विषी भवतु फट् गुरु मुख से मंत्र ग्रहण करके इसका प्रयोग करने से सर्प आदि का ज़हर उतरता है। * सर्व कार्य सिद्धि मंत्र अहं स्वप्न में उत्तर प्राप्त करने का मंत्र ॐ ह्रीँ अर्हीँ स्वाहा परिणाम : कपाल पर चंदन का तिलक करके इस मंत्र का 108 बार जाप करके सो जाए । रात को स्वप्न में शुभाशुभ उत्तर मिलता है। जो इस रात को स्वप्न न आए तो तीन दिन तक यह प्रयोग चालु रखें । संघ की रक्षा करने का मंत्र ॐ नमो अरिहंताणं धणु धणु महाधणु महाधणु स्वाहा परिणाम ः यात्रा के लिए संघ निकला हो और चोरों का उपद्रव होने की संभावना हो तब यह मंत्र का ललाट प्रदेश में ध्यान धरने से चोरों का उपद्रव दूर होता है। ॐ ह्रीँ अर्हं श्रीँ क्लीँ ब्लुँ अर्हं नमः परिणाम : : इस मंत्र का लगातार जाप करने से सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टूटा सपनों का महल जैनिज़म के पिछले खंड में हमने देखा कि सुषमा के घर फोन की घंटी बजी। सुषमा का पुण्य प्रबल था और उसके खुशियों के दिन थे अतः फोन खुशबू के पियर से ही था । सुषमा की खुशी का कोई पार नहीं था जब उसे अपने दादी बनने की खबर मिली। इस तरफ कुछ सोच विचारकर अपनी माँ को अपनी दुःखद परिस्थिति बताने के लिए डॉली ने फोन तो उठाया पर अचानक सुषमा के अंतिम शब्द याद आए कि "बेटी यदि तुम आज अपने घर नहीं आई तो तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे।" यह याद आते ही डॉली ने तुरंत ही फोन रख दिया। उसका स्वाभिमान बोल उठा जिससे मैंने हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ दिया है। मैं उस घर में कैसे फोन कर सकती हूँ? उसने सोचा कि थोड़े दिनों में सब कुछ अच्छा हो जायेगा। पर परिस्थिति तो हद के बाहर बिगड़ने लगी और एक दिन डॉली रसोई घर में सब्जी पका रही थी तब समीर ने मुर्गी लाकर डॉली के सामने रख दी। डॉली - समीर ! ये क्या लेकर आये हो और इसे यहाँ क्यों रखा हैं ? समीर - अंधी हो गयी हो क्या ? दिखता नहीं मुर्गी है ? डॉली - समीर तुम शराब पीकर आये हो। यानि तुम शराब भी पीते हो ? समीर - शराब भी पीता हूँ, जुआँ भी खेलता हूँ। तुम्हारा सारा पैसा भी मैं जुएँ में हार गया और अब तुम्हारे हाथ से पकायी हुई यह मुर्गी भी खाऊँगा और तुम्हें भी खीलाऊँगा। बोल क्या कर लेगी? डॉली : बहुत हो गया समीर । बर्दाश करने की भी एक हद होती है। मैं कोई तुम्हारे हाथ का खिलौना नहीं जो जब चाहा तब खेल लिया और जब चाहा तब छोड़ दिया। मेरे रहते इस घर में मुर्गी नहीं पकेगी। तुम्हें खानी हो तो कहीं बाहर जाकर खा लो। समीर - वो ही मैं भी तुम्हें बताना चाहता हूँ कि बर्दाश करने की भी हद होती है। मेरी अम्मी तुम्हें कब तक बर्दाश करेंगी ? मैं तो बाहर खा लूँगा पर अम्मी का क्या ? इसलिए आज तुम यह मुर्गी पकाकर अम्मी को खिलाओगी। (इतना कहकर समीर ने जबरदस्ती डॉली के हाथ में छुरी पकड़ायी और उसके हाथ से मुर्गी कटवायी । डॉली : ( रोते हुए) समीर ! प्लीज़, समीर ! ये क्या कर रहे हो ? प्लीज़ मुझे छोड़ो समीर.... (डॉली ने समीर से अपना हाथ छुड़वाने की बहुत कोशिश की, पर वह समीर के आगे हार गई और समीर ने उसके हाथों से मुर्गी कटवा दी। गुस्से में डॉली ने समीर के हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर समीर को एक जोरदार थप्पड़ मारी । ) 143 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉली - तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई... समीर.. । (डॉली अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही समीर ने उसे जोर से धक्का दिया और वह गिर गई। गिरते ही डॉली के पेट में दर्द शुरु हो गया। वह दर्द के कारण जोर-जोर से रोने लगी।) डॉली : समीर .... प्लीज़ समीर मुझे डॉ. के पास ले जाओ। समीर, मुझे बहुत दर्द हो रहा है। (उसके दर्द की परवाह किए बिना नशे में चूर समीर ने उसे दो-तीन लात मारी और कहा...) समीर : चुप रहो। मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया तुमने। मैंने सोचा था कि तुम से शादी करूँगा तो मुझे मजे ही मजे। तेरे पियर से पैसे आते रहेंगे और मैं आराम से जिंदगी गुजारूँगा। पर तुमने तो मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। अब और खर्चा करवाने पर तुली हुई हो। (इस प्रकार नशे में समीर ने अपनी सारी हकीकत कह दी। दर्द के कारण डॉली बेहोश हो गई। कुछ अनहोनी न हो जाये इस डर से समीर उसे हॉस्पिटल ले गया। पर देर हो जाने के कारण उसका बच्चा बच नहीं पाया। बेचारी डॉली खुद तो कभी माँ का प्यार न पा सकी और जब उसे खुद माँ का प्यार देने का मौका मिला तो कुदरत ने वह मौका भी उससे छिन लिया। माँ-बाप का प्यार नहीं मिलने पर डॉली ने सोचा कि समीर मुझे इस जगत की सारी खुशियाँ देगा और उसके सहारे मैं अपना जीवन बीता लूँगी। लेकिन जब समीर ने भी उसे धोखा दे दिया तब उसके पास एक मात्र सहारा, उसके पेट में पल रहा बच्चा था, लेकिन समीर ने उससे वह सहारा भी हमेशा-हमेशा के लिए छिन लिया। अब उसके किस्मत में आँसू बहाने के सिवाय कुछ भी नहीं था। शबाना और समीर तो डॉली से उसकी तबीयत के बारे में पूछने भी नहीं आए। डॉली अकेली हॉस्पिटल में पड़ी रही। उसे कोई पानी पिलाने वाला भी नहीं था। बेड़ से उठ न सकने के कारण घंटे दो घंटे में कोई नर्स आती तो पानी पिला देती वर्ना ऐसे ही प्यासे रहना पड़ता। ऐसी हालत में डॉली को अपने घर और मम्मी-पप्पा की बहुत याद आई। उसे लगा कि जब वह घर पर थी और उसका थोड़ा भी सिर दुखता तो माँ अपनी गोद में उसका सिर रखकर दबाती और आज उसकी ऐसी हालत में उसे कोई पानी पिलानेवाला भी नहीं हैं। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। उसने मन ही मन निर्णय कर लिया कि वह अपने भूल की माफी अपने मम्मी पापा से माँगेगी और अपने पर बीती सारी बात उन्हें बता देगी। उसे विश्वास था कि उसकी ऐसी हालत देखकर उसके मम्मी - पापा उसे जरुर अपने पास बुला लेंगे। डॉली ने सोचा कि फोन कहाँ से करूँ? इतने में उसकी नज़र पास के टेबल पर पड़े समीर के मोबाईल पर पड़ी। उसने हिम्मत करके अपने घर का नम्बर लगाया। फोन सुषमा ने उठाया। महिनों बाद अपने माँ की आवाज़ सुनकर डॉली फोन पर ही जोर-जोर से रोने लगी।) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुषमा - हेलो ! कौन बोल रहा है? डॉली - (रोते हुए ) मॉम ! मैं डॉली। सुषमा - डॉली तुम, आज यहाँ फोन कैसे किया? डॉली - मॉम ! प्लीज़ मुझे यहाँ से ले चलो। मैं इस नरक में अब और नहीं रह सकती। मम्मी आप जैसा कहोगे मैं वैसा करूँगी। यदि इस नरक से मैं नहीं निकली तो मैं घुट-घुट कर मर जाऊँगी। यहाँ पर मेरा कोई नहीं है। समीर और उसकी माँ को मुझसे नहीं मेरे पैसों से प्यार था और जब मेरे लाए हुए सारे पैसे खत्म हो गए तो उन्होंने मुझे दर-दर भटकने के लिए मजबूर कर दिया। (डॉली ने रोते हुए खुद पर घटी सारी घटना अपनी मॉम को सुना दी। और अंत में-) डॉली : मॉम ! प्लीज़ एक बार मुझे माफ कर दो। मुझे यहाँ से ले चलो मॉम। (कैसी स्थिति हो गई है डॉली की। एक वक्त ऐसा था जब डॉली ने अपने घर को नरक कहकर समीर को वहाँ से भगा ले जाने के लिए कहा था और आज वही डॉली समीर के घर को नरक कह कर अपनी मम्मी को यहाँ से ले जाने के लिए विनंती कर रही है। डॉली की सारी बातें सुनते ही सुषमा की आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। उसने रोते-रोते कहा-) सुषमा : डॉली ! ऐसा कदम उठाने से पहले मैंने तुम्हें लाख बार मना किया था। लेकिन तुमने हमारी बात नहीं सुनी। डॉली, जिस दिन तुम इस घर से भाग कर गई थी। उसी दिन से तुम हमारे लिए मर गई थी। यह तो अच्छा हुआ कि तुमने मुझे ही फोन लगाया यदि तुम्हारे पापा को लगाया होता तो उन्हें दोबारा हार्ट अटेक आ जाता। तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गए हैं। सॉरी मैं तुम्हारी किसी भी प्रकार की मदद नहीं कर सकती। डॉली : प्लीज़ मॉम। फोन मत रखना। सॉरी मॉम। मुझसे गलती हो गई। मुझे माफ कर दो मॉम! प्लीज़ मॉम मुझे यहाँ से ले चलो। (डॉली रोने लगी और रोते-रोते) प्लीज़ मॉम ! आखिर आप भी एक माँ हो। आप इतनी कठोर दिल नहीं बन सकती। (डॉली को रोते देख सुषमा का दिल पिघल गया।) सुषमा : डॉली ! तुम. रोओ मत, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी। (सुषमा से बात करने के बाद डॉली का दिल थोड़ा हल्का हो गया और वह अपनी मॉम के आने का इंतजार करने लगी कि कब मॉम मुझे लेने आए और कब मैं अपने घर जाऊँ। इधर दोपहर खाने के समय में आदित्य घर आया। सुषमा ने डॉली की सारी परिस्थिति आदित्य को बताई और साथ ही डॉली को घर पर ले आने की अपनी इच्छा भी बताई। सुषमा की बात सुनकर एक बार तो आदित्य की आँखों में भी आँसू आ गये। लेकिन जब सुषमा ने उसे घर लाने की बात कही तब आदित्य गुस्से में आ गया और जोर से...) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदित्य : खबरदार सुषमा ! जिस डॉली के लिए हमने अपनी सारी खुशियों को छोड़ दिया था, वही डॉली मुझे मौत के मुँह में छोड़कर चली गयी थी। एक मुसलमान लड़के के साथ भागकर जाते समय उसे इतना भी ख्याल नहीं आया कि उसके माँ-बाप की समाज में इतनी इज्जत है। वे मेरे जाने के बाद लोगों को अपना मुँह कैसे दिखाएँगे ? सुषमा आगे से यदि तुमने डॉली को इस घर में लाने की बात की या उससे फोन पर बात करने की या मिलने की कोशिश भी की तो मेरा मरा मुँह देखोगी । ( इतना कहते ही आदित्य की छाती में जोर से झटका लगा और उसकी छाती में दर्द होने लगा। आदित्य की ऐसी हालत देखकर सुषमा ने सोचा कि डॉली का नाम लेने से इनकी यह हालत हुई है तो डॉली घर आएगी तो इनका क्या होगा ? यह सोचकर ही सुषमाने डॉली को घर लाने का विचार छोड़ दिया। लेकिन आखिर माँ का दिल था इसलिए वह आदित्य को बताए ए. बिना ही डॉली से मिलने हॉस्पिटल चली गई। उस समय डॉली सोई हुई थी। सुषमा उसके पास गई। डॉली की ऐसी हालत देखकर सुषमा की आँखों में आँसू आ गये। जैसे ही सुषमा ने अपना वात्सल्य भरा हाथ डॉली के सिर पर फेरा वैसे ही डॉली जाग गई। अपनी मॉम को अपने पास देखकर डॉली के आँखों में भी आँसू आ गये। उसने अपनी मॉम का हाथ पकड़ लिया। और रोते-रोते ....) मुझे पता ही था मॉम कि आप मुझे लेने जरुर आओंगे। ( बेचारी सुषमा | अपनी बेटी के इस प्रश्न का जवाब व आदित्य का फैसला कैसे सुनाती ? ) डॉली : मॉम कुछ बोलो ना आप ऐसे चुप क्यों खड़ी हो ? सुषमा : मुझे माफ कर दो बेटा । तुम्हारे पापा ने तुम्हें स्वीकारने से मना कर दिया है। ( और ऐसा कहकर आदित्य से हुई सारी बात सुषमा ने डॉली को बता दी। यह सुनते ही डॉली के अरमान टूटकर चकनाचूर हो गए। उसने सोचा था कि अब उसे वापिस उस नरक में नहीं जाना पड़ेगा। आराम से अपने घर पर जाऊँगी और फिर से नई जिंदगी शुरु करुँगी । अपना नया कॅरियर बनाऊँगी। लेकिन डॉली के भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। डॉली ने अपनी माँ से बहुत Request की लेकिन आखिर सुषमा भी क्या करती ? ) सुषमा : डॉली तुम्हारे जाने के बाद हमारा घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया और उस पर जब से तुम्हारी बात तुम्हारे पापा को बताई है तब से उनका B. P. नार्मल ही नहीं हो रहा हैं, आखिर वह भी तो एक बाप है। तुम उनकी हालत देखोगी तो अपने आपको धिक्कारोगी । शायद तुम्हें घर वापस लाने के बाद समाज में होनेवाली बदनामी से तो वह जीं भी न पाए। बताओ डॉली तुम मेरी जगह होती तो क्या करती ? डॉली : 146 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इतना कहकर सुषमा की आँखों में आँसू आ गए, डॉली भी रोने लगी।) सुषमा : डॉली ! तुम्हारे पापा ने अपनी कसम डाली है इसलिए तुम अब कभी उस घर पर फोन मत करना। तुम्हारे पापा ही मेरा एक मात्र सहारा है यदि उन्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगी? (इतना कहकर सुषमा ने कुछ पैसे डॉली को दिए और वापस अपने घर लौट आई। सुषमा के जाने के बाद डॉली को अकेलापन महसूस होने लगा। जीवन में पहली बार उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था। उसने विचार किया कि जब मैं घर पर थी तब भी मैंने अपने व्यवहार से मातापिता को दुःखी किया, जब घर से भागी तब भी उन्हें दुःख दिया और आज मेरा दुःखी जीवन उन्हें रुला रहा है। ऐसा सोचकर वह इस निर्णय पर आ गई कि अब जीवन में चाहे मरने की भी परिस्थिति आ जाए तो भी मैं इसका जिक्र अपने घर पर नहीं करूँगी। Already मेरे माता-पिता मेरे कारण बहुत कुछ सहन कर चुके हैं। बस अब उन्हें मेरी तरफ से किसी बात की तकलीफ नहीं होगी। अपनी माँ के दिए पैसों से डॉली हॉस्पिटल का बिल चुकाकर समीर के घर चली गई। डॉली को अंचानक घर आए देख समीर चकरा गया।) समीर : डॉली ! तुम यहाँ कैसे आ गई? तुम्हारे हॉस्पिटल का बिल किसने चुकाया? डॉली : समीर ! तुमने तो मुझे वहाँ मरने के लिए छोड़ दिया था और वैसे भी तुम्हारी अम्मी की बहुत- इच्छा थी ना कि मैं अपने मायके से पैसे मंगवाऊँ, तो सुनो। मैंने अपनी मॉम को पैसे के लिए फोन किया था पर मॉम ने मुझे पैसे देने से साफ इन्कार कर दिया और उन्होंने मुझे यह भी कहा कि मेरा उस घर से कोई रिश्ता नहीं हैं। लेकिन जब मैंने अपनी पूरी परिस्थिति बताई तब उन्होंने अपने ड्राईवर के हाथों से पैसे भिजवाकर मेरे हॉस्पिटल का बिल चुका दिया। (इतना कहते ही डॉली की आँखें भर आई।) समीर : डॉली ! तुमने तो आते ही अपना ढोंग शुरु कर दिया। खैर अब मेरी बात ध्यान से सुन लो तुम चाहे वेश्या बन जाओ या नौकरी करो, मुझे उससे कोई मतलब नहीं है। मुझे तो सिर्फ पैसों से मतलब हैं, समझी.... डॉली : (चौंककर ) समीर ! ये तुम बोल रहे हो। काश यह सब मैं पहले समझ गई होती कि तुमने मुझसे नहीं मेरे पैसों से शादी की हैं। समीर : तुम जो भी समझो डॉली पर इस महिने की आखरी तारीख तक तुम्हारे महिने की सेलेरी मेरे हाथों में आ जानी चाहिए। नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा, कान खोलकर सुन लेना समझी। (बेचारी डॉली, पहले जो कदम उसने उठाए थे आज वही कदम उसकी ओर आकर खडे हो गए। जिस माँ के आँसू को पहले उसने ढोंग का नाम दिया था परिणाम स्वरुप आज उसी के आँसू को ढोंग कहा जा रहा हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीर का फैसला सुनकर डॉली ने अपने मन के साथ एक समझौता कर दिया। उसने सोचा कि वैसे भी उसके घर के दरवाज़े उसके लिए बंद हो गए हैं, इसलिए वह रोए या हँसे उसे रहना तो समीर के साथ ही है, तो क्यों न समीर की बात को ही मानकर उसके साथ हँसीखुशी रहा जाए। वैसे भी डॉली को अपना कॅरियर बनाने का शौक तो पहले से ही था। अब समीर की सहमति होने पर उसे अपने कॅरियर को सफल बनाने का एक मौका मिला। वह भी दुनिया के सामने आना चाहती थी। उसने हँसते-हँसते समीर के फैसले को एक्सेप्ट कर दिया। साथ ही घर के वातावरण से वह तंग आ गई थी। उसे शांति चाहिए थी। वह घूमना फिरना चाहती थी। इसलिए उसने सोचा कि नौकरी करने से ही उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो सकेगी और नौकरी की सेलेरी समीर के हाथों में देने से हो सकता है कि उसके और समीर के संबंध फिर से सुधर जाए। बस उसी आशा में डॉली ने अपना कदम घर से बाहर रखा, पर उसे यह नहीं पता था कि उसका उठाया हुआ यह कदम उसे कहाँ ले जाएगा? अब डॉली नौकरी की तलाश में घूमने लगी। लेकिन उसे कहीं नौकरी सेट नहीं हुई। आखिर एक दिन फेशन डिज़ाईन की वर्ल्ड फेमस कम्पनी में वह इन्टरव्यु दे रही थी। तब....) मि. जॉन (कम्पनी के मालिक) : डॉली वैसे तो कम्पनी की छोटी बडी पोस्ट के लिए मेनेजर ही इन्टरव्यु लेते हैं पर फिलहाल इन्टरव्यु चल रहा है मेरी पी.ए. के लिए। मैं सोचता हूँ कि आप इसके लिए बराबर हो। जो कि आप मेरी पी.ए. यानि पर्सनल असिस्टेन्ट बनने वाली हो तो मुझे थोड़ी जानकारी आपकी निजी जिंदगी के बारे में भी होनी चाहिए। क्या आप शादी शुदा हो। डॉली : हाँ। मि. जॉन : आपके पति का नाम क्या है? और वो क्या बिझनेस करते हैं ? डॉली : सर समीर खान.... मि. जॉन : (थोड़ा चौंककर) क्या? समीर खान और डॉली? डॉली : हाँ सर, हमने लव मेरेज किया है। फिलहाल समीर भी नौकरी की तलाश में है। मि. जॉन : ठीक है डॉली। आप मेरे पर्सनल असिस्टेन्ट के लिए चुनी गई हो। डॉली : सर मेरी सेलेरी? मि. जॉन : डॉली ! आप अपनी सेलेरी की बिलकुल चिंता मत करो। वैसे तो मेरे मेनेजर की सेलेरी भी हर महिने की मात्र 8000 रु. है लेकिन आप मेरी पर्सनल असिस्टेन्ट हो इसलिए तुम्हारी सेलेरी 10,000 रु. हर महिने की होगी ठीक है। डॉली : यस सर ! बैंक्यु सो मच। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मि. जॉन : तो कल ठीक आठ बजे आ जाना। (डॉली वहाँ से चली गई। 10,000 की सेलेरी सुनते ही डॉली बहुत खुश हो गई। उसने सारी बात समीर को बताई। यह सुनकर समीर भी बहुत खुश हो गया। दूसरे दिन, पहली बार ऑफिस में कदम रखने के कारण डॉली बहुत खुश थी। ऑफिस के सारे लोगों ने उसका स्वागत किया । मि. जॉन ने डॉली से सबका परिचय करवाकर ऑफिस का सारा काम उसे समझाया। डॉली को एक पर्सनल केबिन दे दिया गया। ऑफिस के लोगों का अच्छा बर्ताव देखकर डॉली का मन ऑफिस में लग गया। इस तरह डॉली का पहला दिन बहुत अच्छा गया। धीरे-धीरे डॉली ऑफिस के काम में इतनी व्यस्त हो गई कि वह अपने भूतकाल के दुःख भरे जीवन को भूलने लगी । ( एक महिना पूरा होते ही समीर डॉली के पास से उसकी सेलेरी ले लेता था। एक बार - ) डॉली : समीर ! मुझे कुछ रुपये चाहिए । समीर : अभी 6 दिन पहले ही तो तुम्हें 300 रु. दिए थे उसका क्या किया ? डॉली : समीर ! क्या तुम मुझसे एक-एक पैसे का हिसाब माँगोगे ? समीर : हाँ, और तुम्हें देना भी होगा । डॉली : ऑफिस इतनी दूर है आने-जाने के लिए टेक्सी का खर्चा होता है और तुम्हें पता ही है आजकल महँगाई कितनी बढ़ गई है। समीर : वही तो तुम्हें बताना चाहता हूँ कि आजकल महँगाई बढ़ गई है इसलिए अपने खर्चें कम करो। आने जाने के लिए टेक्सी की क्या जरुरत है, बस भी तो चलती है। तुम्हारा काम भी हो जायेगा और पैसे भी बच जायेंगे । डॉली : पर समीर ! शाम को ऑफिस से आने में लेट हो जाता है और तब बस में आना रिस्की होता है। समीर : यह सब तुम्हारी गलतफहमी है, कुछ नहीं होता, सभी नौकरी करनेवाले जाते ही तो है। तुम कौन सी स्पेश्यल हो ? डॉली : लेकिन समीर ये 10,000 रु. जाते कहाँ है ? समीर : जबान मत चलाओ, 10,000 रुपये कहाँ जाते है मैं तुम्हें यह बताना जरुरी नहीं समझता। ( यह सुनकर डॉली को गुस्सा आ गया । ) डॉली : मुझे भी तो पता चलना चाहिए कि कहीं मेरी मेहनत की कमाई शराब के अड्डों पर तो नहीं उड़ाई जा रही ? समीर : वाह ! थोड़े पैसे क्या कमा लिए आसमान में उड़ने लगी हो । उसे मेहनत की कमाई 149 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहती हो। वहाँ मेहनत करती हो या कुछ और यह तो अल्लाह ही जाने और यदि मैं तुम्हारे पैसों को जुएँ में हार जाऊँ या शराब में उडा दूँ तुम मेरा क्या कर सकती हो ? एक काम करते हैं तुम्हें पैसों की ज्यादा जरुरत हो तो तुम्हारे घर से मंगवा देता हूँ। फिर आराम से टेक्सी में घूमना। (इतना कहकर समीर मोबाईल निकालकर डॉली के घर पर कॉल करने लगा। गुस्से में आकर डॉली ने समीर का मोबाईल खींचकर फेंक दिया।) डॉली : खबरदार ! जो मेरे घर पर फोन लगाया तो, तुम्हें यदि.... । (डॉली आगे कुछ बोले उसके पहले ही समीर ने गुस्से में उसे दो थप्पड़ लगाई और अपना बेल्ट निकालकर डॉली को मारने लगा-) समीर : तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा मोबाईल फेंकने की? बाहर पैर क्या रखें, जुबान कैंची की तरह चलने लगी है। कान खोलकर सुन लो। यहाँ रहना है तो कम पैसों में जीना सीख लो। महारानी बनकर जीने की अपनी आदत छोड़ दो और यदि यह आदत न छूटती हो तो अपने . पियर से पैसे मंगवा लो, समझी? (इतना कहकर डॉली को वही रोती छोड़कर समीर वहाँ से चला गया। बेचारी डॉली आज जानवरों की तरह पीटे जाने के बाद भी आँखों से आँसू बहाने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी। कहाँ वो महारानी जैसा जीवन जहाँ वह एक ग्लास पानी भी खुद नहीं भरती थी और कहाँ यह नौकरों जैसा जीवन जहाँ पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी थप्पड़ ही खाने को मिलती थी। डॉली के सुनहरे सपनों पर फिर पानी फिर गया। उसका जीवन नरक से भी बत्तर बन गया था। सोचा था नौकरी करने के बाद सब कुछ अच्छा हो जाएगा। पर यदि किस्मत में रोना ही लिखा हो तो वह कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले उसके होंठों पर हँसी कैसे आ सकती है? यूं देखा जाये तो इसमें किस्मत का भी क्या दोष ? अपनी किस्मत को गलत राह पर ले जाने वाली तो वो खुद ही थी। इतनी मार खाने के बाद डॉली को इतना दर्द होने लगा था कि वह वहाँ से उठ भी न पाई। बड़ी मुश्किल से अपने बॉस को फोन करके उसने एक दिन की छुट्टी माँग ली। पर डॉली के जीवन में इतने से भी शांति कहा थी। शाम को जैसे ही वह खाना खाने बैठी तब ...) शबाना : समीर ! मेरी सारी सहेलियाँ आज देखो कितने आराम से घूमती-फिरती हैं। आए दिन अपने घर आती जाती है। मुझे चार सप्ताह हो गए हैं इस घर से बाहर कदम भी नहीं रखा। क्या इस बुढ़ापे में भी मुझे काम करते-करते ही मरना पड़ेगा? महारानी ने जबसे ऑफिस जाना शुरु किया है तब से घर के काम को हाथ तक नहीं लगाया। ऑफिस जा रही है तो क्या हम पर एहसान कर रही है। कह दो इसे कि मुफ्त की रोटियाँ खाने को नहीं मिलेगी। पहले घर का EsD Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम करो फिर ऑफिस जाओ। वैसे भी ऑफिस का टाईम तो आठ बजे का हैं। चार बजे उठेगी तो सारा काम हो जाएगा, वैसे भी ऑफिस में काम क्या करती है खाली जाकर कुर्सी पर बैठे रहना । समीर : डॉली ! तुमने सुन लिया होगा । (डॉली क्या करती, उस घर में उसका चलता ही कहाँ था । ज्यादा कुछ बोले तो समीर दो थप्पड़ लगाता। ऐसा कुछ न हो इसलिए डॉली ने चुपचाप शबाना की बात मान ली। अब डॉली सुबह चार बजे उठकर घर का सारा काम निपटाकर ऑफिस जाती और पूरे दिन थककर जब वह शाम को घर जाती तब भी उसके नसीब में सिर्फ काम ही था। रोज इसी तरह काम करके ऑफिस जाना और घर आकर फिर काम करना, यह डॉली का रोज का क्रम बन गया था। वह तो मात्र शबाना और समीर की ऊँगलियों पर नाचने वाली कटपूतली बन गई थी। बस जैसा वे कहते वैसे वह नाचती और यदि थोडी भी बगावत करती तो उसे लातों और थप्पड़ों के अलावा और कुछ नहीं मिलता। उस दिन के बाद अब आए दिन डॉली को समीर और शबाना के ऑडर से नॉनवेज पकाना पड़ता। इतना ही नहीं जब कभी समीर की बहनें आती तो जान बूझकर इन्हीं चीज़ों की मांग करती। डॉली काँपते हाथों और रोते दिल से सबकी इच्छाएँ पूरी करती । जिस दिन डॉली नॉनवेज पकाती उसके चार दिन तक वह खाना नहीं खा पाती। लेकिन आखिर क्या करती । गले में घंटी जो बाँधी थी। तो वह अब बजेगी ही.... "जो-जो भी गई भागकर, ठोकर खाती है, अपनी गलती पर रो-रो अश्क बहाती है एक ही किचन में मुर्गी संग साग पकाती है, हुइ भयानक भूल सोचकर अब पछताती है। " बस ऐसा ही कुछ हो रहा था डॉली के साथ। ज्यादा काम होने के कारण एक दिन थककर डॉली अपने केबिन में टेबल पर सिर रखकर सो रही थी। उसी समय मि. जॉन किसी काम से डॉली के केबिन में आए। डॉली को सोया हुआ देख वे वापस अपने केबिन में आ गए और थोड़ी देर बाद अपने केबिन से डॉली को फोन करके उसे अपने केबिन में बुलाया । ) डॉली : आपने मुझे बुलाया सर । मि. जॉन : हाँ डॉली' ! क्या बात है। आज तुम ज्यादा ही थकी हुई हो। काम बहुत ज्यादा है क्या ? मैं तुम्हारे केबिन में आया था। तुम्हें सोया हुआ देख मैंने जगाना उचित नहीं समझा। क्या हुआ ? डॉली : कुछ नहीं सर ! वो ऐसे ही नींद आ गई। कोई काम था ? मि. जॉन : हाँ आओ ! बैठो, मैं तुम्हें मि. शर्मा की सारी डिज़ाईन बता देता हूँ। ( डॉली वहाँ बैठ गई और मि. जॉन समझाने लगे। पर डॉली का ध्यान कही ओर ही था तब - ) मि. जॉन : डॉली ! मैंने अभी-अभी तुम्हें क्या बताया ? 151 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉली : ओह सॉरी सर ! एक्चुली आज मेरा ध्यान कहीं ओर था। (मि. जॉन अपनी कुर्सी से उठकर डॉली के पास वाली कुर्सी पर आकर बैठ गए ।) मि. जॉन : डॉली ! मुझे गलत मत समझना, पर अब मैं एक बॉस (सर) नहीं पर एक दोस्त बनकर तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम अपनी फिलिंग्स मुझे कहोगी ? मैं तुम्हें हमेशा उदास देखता हूँ । यदि तुम चाहो तो मुझे बताकर अपना दिल हल्का कर सकती हो। (जॉन के हमदर्दी भरे शब्द सुनकर डॉली की आँखों में पानी आ गया और उसने शुरुआत से लेकर अंत तक सारी कहानी मि. जॉन को बता दी । ) डॉली : तुम्हारा रोना सही है डॉली ! समीर को ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसने तुम्हें धोखा दिया है। तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ । डॉली : छोडो ना सर ! इन बातों को। वो आप मि. शर्मा के बारे में क्या बता रहे थे ? एक बार फिर से समझा दीजिए। ( और दोनों काम में लग गए । ) (दो दिन बाद डॉली आठ बजे ऑफिस का काम निपटाकर ऑफिस से निकल गई। पर बस के इन्तजार में वह नौ बजे तक बस स्टॉप पर ही खड़ी थी। उसी समय मि. जॉन भी ऑफिस का काम निपटाकर उसी रास्ते से अपनी कार से जा रहे थे। उन्होंने डॉली को बस के लिए इंतजार करते देखा। दूसरे दिन - ) मि. जॉन : डॉली ! कल तुम घर कितने बजे पहुँची। कल नौ बजे तक तो मैंने तुम्हें बस स्टॉप पर देखा था। डॉली : सर ! अब आपसे क्या छिपाना । मेरी पूरी सेलेरी समीर ले लेता है। रोज बस में आने-जाने का किराया मुझे दे देता है। अब 7 रु. में मैं टेक्सी का किराया कहाँ से लाऊँ ? मि. जॉन : ओह शीट डॉली ! तुम्हें एक बार तो मुझसे कहना चाहिए था । मैं तुम्हारी कुछ मदद करता। यह लो 1000 रु. इसे तुम अपने केबिन के लॉकअप में ही रखना और जब मन चाहे खर्च कर लेना। और हाँ, आज से तुम्हें बस स्टॉप पर बस के लिए वेट करने की कोई जरुरत नहीं है। मैं तुम्हें अपनी कार से छोड़ दूँगा। वैसे भी तुम्हारा घर मेरे रास्ते में ही आता है। डॉली : ओह ! थैंक्स अ लोट सर । मि. जॉन : डॉली प्लीज़ तुम मुझे सर मत कहो । अब हम दोस्त है। तुम मुझे जॉन बुलाओगी तो मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा। डॉली ओ. के. जॉन । : (इस प्रकार जॉन थोड़े रुपये देकर, दो-चार मीठी बातें बोलकर, हमदर्दी जताकर भोली-भाली डॉली को अपने जाल में फंसाने लगा। पर एक बार ठोकर खाने के बाद भी डॉली फिर वही 152 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलती कर बैठी। पहले भी घर में प्रेम नहीं मिलने के कारण डॉली ने समीर के प्रेम को सब कुछ माना और आज तक पछता रही है और अब समीर से प्रेम नहीं मिलने के कारण जॉन की झूठी दोस्ती पर भरोसा कर बैठी। देखते है यह भरोसा अब डॉली को कहाँ ले जाता है। जॉन की चालाकी से अनजान डॉली उसको अपना फ्रेन्ड मानने लगी। अपने घर की सारी प्रॉब्लम्स जॉन को बताती। जॉन उसे हेल्प करता और इस तरह डॉली जॉन को अपना सबसे ज्यादा करीबी दोस्त मानने लगी। जॉन ने डॉली को ऑफिस वर्क के लिए एक मोबाईल गिफ्ट कर दिया। ऑफिस की छुट्टी के दिन जब जॉन घर पर बोर होता तो वह घंटों डॉली से फोन पर ऑफिस के काम का बहाना बनाकर बातें करता। अब डॉली रोज जॉन के साथ उसकी कार से ही घर आती। कभी-कभी डॉली और जॉन आपस में अपना टिफीन भी साथ मिलकर खा लेते। कहीं कोई अच्छी फिल्म लगी होती या किसी अच्छे पार्क में जाना होता तो दोनों साथ में चले जाते। कभी ऑफिस में ज्यादा वर्क होता तो जॉन डॉली का इंतजार करता। एक दिन सारे वर्कर्स अपना-अपना काम करके 8 बजे घर चले गए। वर्क ज्यादा होने से डॉली ऑफिस में अकेली ही काम कर रही थी। तभी जॉन अपने फ्रेण्ड की जन्मदिन की पार्टी से सीधा ऑफिस आया। जब उसे पता चला कि आज डॉली ऑफिस में अकेली है। तब वह सीधे डॉली के केबिन में चला गया। उस समय डॉली अपने केबिन में फाइल देख रही थी। जॉन अपने फ्रेण्ड की पार्टी में शराब पीकर आने से नशे में चूर था। वह डॉली के पास जाकर पीछे से गले लग गया। अचानक किसी को आया जानकर डॉली घबरा गई। उसने पीछे मुड़कर देखा तो जॉन को .देखकर वह आश्चर्य चकित हो गई। अपने आप को जॉन से छुड़ाकर डॉली खड़ी हो गई और जॉन से ....) डॉली : ये क्या कर रहे हो सर? जॉन : ओ डॉली। कम ऑन लेट्स एन्जॉय। डॉली : सर ! आप नशे में हो इसलिए आपको पता नहीं है कि आप क्या बोल रहे हो? जॉन : कम ऑन डॉली। आज तक इतने बाहर घूमे, पिक्चर गये कही पर भी इतना एकांत नहीं मिला। आज जब चान्स हाथ लगा है तो इसे क्यों छोड़ रही हो? (और जॉन ने डॉली का हाथ पकड़ लिया) डॉली : (घबराकर) सर साथ में घूमने का मतलब यह नहीं होता जो आप समझ रहे हो। मैं आपको अपना एक अच्छा दोस्त मानती हूँ। बस। जॉन : डॉली । तुम मुझसे दूर क्यों भाग रही हो? मेरे साथ रहोगी तो एशो आराम करोगी। आज तक जो खुशियाँ समीर ने तुम्हें नहीं दी वो सारी खुशियाँ मैं तुम्हें दूंगा और ये तुम्हारी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवानी, इतना सुंदर रुप, ये उम्र कोई काम करने की थोड़ी है। एशो आराम करने की है। मौजमस्ती करने की है। (इतना कहकर वह डॉली के और करीब आकर उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा) (क्या होगा डॉली के साथ ? क्या वह जॉन के चंगुल से बच पाएगी? या फिर उसके जीवन में फिर कोई अनहोनी घट जाएगी। और इस तरफ डॉली के घर में जयणा से मिले समाधानों से खुशबू और सुषमा के जीवन में मधुरता आ गई। साथ ही सुषमा का परिवार भी धीरे-धीरे धर्म में जुड़ने लगा था। परंतु अभी तक सुषमा एम.सी. का पूर्णतया पालन नहीं करती थी और यही संस्कार खुशबू में भी आने लगे। परंतु जयणा को यह बहुत खटकता था। क्या जयणा उन्हें एम. सी. पालन के महत्त्व को समझा पाएगी? क्या वे दोनों पवित्रता के इस गूढ़ रहस्य को समझकर उसे आचरण में ले पाएगी? उन्हे समझाने के लिए जयणा क्या करती है? आइए देखते है जैनिज़म के अगले खण्ड “पवित्रता का रहस्य" में....) OO No Competition But Solutions ) C OOKILADKKAKAKIRNORARY जैनिज़म कोर्स के पिछले खंड में आपने देखा कि प्रेममय व्यवहार से मोक्षा ने किस प्रकार अपने घर में खुशियाँ लाई। इसी बीच धर्ममय जीवन व्यतीत करते परिवार के साथ हँसते-खेलते 9 महिने तक गर्भ का सुचारु रुप से पालन कर उसने एक लड़के को जन्म दिया। लडके का जन्म होते ही उसने उसे नवकार मंत्र सुनाया और उसकी अच्छी परवरिश के लिए सतत जागृत रही। प्रभु वीर के बताए मार्ग पर उसका बेटा चल सके इस भाव से मोक्षा ने उसका नाम 'समकित' रखा। मोक्षा स्वयं अपने जीवन में संस्कारों व परवरिश के सुंदर परिणाम का अनुभव कर चूकी थी। अतः अपने अनुभवों के आधार पर उसने समकित को संस्कार देने में कोई कमी नहीं रखी। ____ मोक्षा की ननंद विधि फेशन डिज़ाईनींग कोर्स के अंतिम वर्ष में पहुँची। एक दिन उसके कॉलेज में प्रेक्टिकल कॉम्पिटिशन था। जिसमें भारतभर के फेशन डिज़ाईनरों ने भाग लिया। कॉम्पिटीशन के आधार पर किसी एक को “बेस्ट नेशनल फेशन डिज़ाईनर अवॉर्ड" मिलने की घोषणा हुई थी। विधि किसी प्रकार से सेमी फाईनल में पास तो हो गई। लेकिन उसे स्ट्रीक्ट वार्निंग दी गई कि यदि इस बार उसने अच्छी प्रस्तुति नहीं दी तो उसे बाहर निकाल दिया जाएगा। इससे विधि दिन-रात अपने डिज़ाईन को कामयाब बनाने के लिए मेहनत करने लगी। एक दिन मोक्षा विधि के कमरे में कॉफी देने आयी और ....) 154 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षा : विधि ! ये लो तुम्हारी कॉफी । क्या बात है विधि ! आज तुम बहुत टेन्शन में दिख रही हो ? विधि : हाँ भाभी | नेशनल प्रेक्टिकल कॉम्पिटीशन का अंतिम दौर नज़दीक आ रहा है। सेमी फाईनल में भी मुझे वॉर्निंग मिल गई है। मेरे सारे दोस्त चुने गए हैं। मैंने यह डिज़ाईन बनाई है। लेकिन यह डिज़ाईन जब मुझे ही पसंद नहीं आ रही है तो जज को क्या पसंद आएगी? मुझे नहीं लगता कि मैं इसके सहारे फाईनल में जीत पाऊँगी । दिमाग ही काम नहीं कर रहा है कि क्या करूँ ? मोक्षा : चलो ठीक है, विधि। पहले ये कॉफी पी लो। तुम फ्रेश हो जाओगी। (मोक्षा कॉफी देकर वहाँ से सीधे अपने रूम में अपने पति के लेपटोप पर डिज़ाईन बनाकर विधि के पास आई।) मोक्षा : विधि ! देखो तुम्हें ये डिज़ाईन कैसी लगी? ( डिज़ाईन देखते ही विधि की आँखों में चमक आ गई । ) विधि : वाह भाभी ! बहुत अच्छी है। आपने ये कहाँ से लाई ? मोक्षा : ये ही नहीं इससे भी अच्छी डिज़ाईन हम दोनों बैठे तो मिलकर बना सकते हैं। विधि : इसका मतलब ये डिज़ाईन आपने बनाई है। ग्रेट भाभी। मोक्षा : चलो विधि अब हम मिलकर कुछ अच्छा क्रिएट करते हैं। (दोनों उसी वक्त डिज़ाईन्स बनाने बैठ गई। अब मोक्षा भी अनुकूलता अनुसार घर का काम निपटाकर बचे हुए समय में विधि की मदद करने लगी। रात को भी दोनों देर तक बैठकर काम करते थे। ) मोक्षा : रुको विधि ! इसमें ये कलर मत डालो। ये बहुत ज्यादा लाइट है, एक काम करो बेबी - पिंक कलर डाल दो वैसे भी आजकल इस कलर की फेशन है। (थोड़ी देर में दोनों ने मिलकर अच्छी-अच्छी डिज़ाईनें बनाई ) मोक्षा : विधि ! वैसे मॉडल का स्कीन कलर क्या है? यदि वह सांवली है तो उस पर Light colour अच्छा लगेगा और यदि वह गोरी है तो ये Dark Colour उस पर अच्छा लगेगा। विधि : अरे हाँ भाभी ! मैंने तो कभी ये सोचा ही नहीं था कि ड्रेस का कलर मॉडल के स्कीन कलर पर आधारित होता है। (दोनों मन लगाकर काम करने लगे और अंत में जाकर उनकी डिज़ाईनें तैयार हो गई। अब विधि को भी मोक्षा की जरुरत महसूस होने लगी। वह अपने मन की हर एक बात मोक्षा से करती थी । 155 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आखिर फाईनल का दिन आ गया। प्रतियोगिता में विधि की डिज़ाईन सबके ध्यान का केन्द्र बन गई और विधि "बेस्ट नेशनल फेशन डिज़ाईनर” बन गई। घर आते ही...... विधि भाभी ! ये देखो। : मोक्षा : वाह विधि ! कितनी अच्छी ट्रॉफी है। आखिर तुम Competition जीत ही गई। मोक्षा : मैं नहीं भाभी ! हम जीत गए । बहुत-बहुत धन्यवाद भाभी ! जो आपने मेरी इतनी मदद नहीं की होती तो शायद ही मैं ये प्रतियोगिता जीत पाती । (इस प्रकार प्रतियोगिता के माध्यम से विधि मोक्षा के बहुत करीब आ गई और अपने कॉलेज के सिवाय भी जब भी उसे कुछ काम होता तो वह मोक्षा की मदद लेती थी। इतना ही नहीं घर के काम में भी वह मोक्षा की खूब मदद करने लगी। मोक्षा भी समय-समय पर उसे अच्छी बातें सिखाती, गलती होने पर समझाती और धार्मिक वातावरण में जोड़ती थी। विधि और मोक्षा अब ननंद-भाभी कम और सहेलियाँ ज्यादा बन गई थी। इसी बीच विधि के लिए अच्छे-अच्छे रिश्ते आने लगे। अच्छा खानदान, अच्छा लड़का, अच्छे परिवार को देखकर उसके माता-पिता ने विधि की सगाई 'दक्ष' से कर दी। 'दक्ष' मोक्षा के चचेरे चाचा का बेटा था। इसलिए मोक्षा भी दक्ष के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थी। कुछ ही दिनों में शादी की तारिख भी तय हो गई। मोक्षा विधि को ससुराल में कैसा व्यवहार करना चाहिए इस बारे में समय-समय पर बताती रहती थी। देखते ही देखते विधि की शादी का दिन नज़दीक आ गया और विधि हमेशा-हमेशा के लिए उस घर से पराई हो गई। शादी के बाद विधि अपने पति के साथ थोड़े दिनों के लिए घूमने गई। घूम फिरकर आने के पश्चात् कुछ दिन तक तो विधि ने अपने सास ससुर के साथ अच्छा बर्ताव किया। लेकिन सहनशीलता की कमी एवं सास-ससुर के नियंत्रणों से विधि का स्वभाव बिगड़ता गया। घर में आए दिन झगड़े होने लगे इन झगड़ों से दक्ष की हालत भी खराब होती गई। वह न तो अपनी पत्नी का पक्ष ले पाता और न अपनी माँ का । इससे दोनों के बीच भी आए दिन मन-मुटाव होते रहते थे । ससुराल जाने के बाद भी विधि अक्सर किटी पार्टी में जाया करती थी। उसके सास-ससुर को यह बिलकुल पसंद नही था। पर वे विधि से डरते थे इसलिए उसे कुछ कहते नहीं थे। एक दिन विधि की सासु शारदा की तबियत ठीक नहीं थी, फिर भी विधि अपनी सासु को घर में अकेली छोड़कर पार्टी में चली गई। घर आते-आते रात के 9 बज गए। जैसे ही वह घर पहुँची तब विधि के ससुरजी ) सुधीर : बहु ! इतनी रात हो गई, कहाँ से आ रही हो? कुछ बता कर भी नहीं गई ? 156 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि : हाँ, हाँ पता ही था मुझे, मेरे आते ही मुझ पर इल्ज़ाम लगाने शुरु हो जाएँगे । सुधीर : पर बेटा ! मैं तो यही पूछ रहा था कि इतनी देर हो गई, तुम कहाँ पर थी ? विधि : वो ही तो, आते ही मेरी पूछताछ करनी शुरु कर दी। कहाँ से आती हूँ, कहाँ जाती हूँ। सबका हिसाब दूँ आपको ? सुधीर : लेकिन बेटा ! मैं तो इसलिए कह रहा था कि आज तुम्हारी सासुमाँ की तबियत ज्यादा खराब थी। यदि तुम्हें कहीं जाना ही था, तो मुझे कह देती, मैं ऑफिस से जल्दी आ जाता। विधि : सासुमाँ की तबियत तो आए दिन खराब होती रहती है। इसका मतलब ये थोडी है कि मैं बाहर जाना छोड़ दूँ। वैसे भी आज मेरी बहुत इम्पोर्टेन्ट पार्टी थी और मेरा वहाँ जाना भी बहुत जरुरी था। ( बहुओं का कर्तव्य होता है कि वे सास-ससुर की सेवा करें, परंतु विधि अपने इस कर्तव्य को कर्तव्य नहीं मानकर उसे भाररूप समझती थी । उसे अपने सास-ससुर की सेवा से ज्यादा बाहर घूमने-फिरने में दिलचस्पी थी। सास-ससुर उसे बोझ लगते थे। इसलिए वह अपने सास-ससुर से अलग होना चाहती थी। दक्ष को अपने माता-पिता के प्रति बहुत अहोभाव और आदरभाव थे । इसलिए विधि अपना कार्य सफल करने के लिए आए दिन छोटी-छोटी बातों पर झगड़े और नाटक खड़े कर देती । जिससे दक्ष तंग आकर अपने माता पिता को अलग कर दे या स्वयं अपने माता-पिता से अलग हो जाए।) ( इतने में दक्ष ऑफिस से आया और विधि दक्ष के आते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने का नाटक करने लगी । ) विधि : हे भगवान ! मेरी तो किस्मत ही फुटी हुई है। मेरी किस्मत में तो सबके ताने ही सुनना लिखे है । दक्ष : अरे ! ये क्या हँगामा हो रहा है? विधि तुम रो क्यों रही हो? पिताजी, ये सब क्या हो रहा है ? कुछ तो बताओ? सुधीर : बेटा ! मैं बताता हूँ। विधि : (रोते हुए) आप क्या बताएँगे? मैं बताती हूँ। देखिए ना, आपको तो पता ही है कि मेरे माता-पिता ने मुझे कितने प्रेम से पाल पोसकर बड़ा किया है। हम चारों भाई-बहन कहाँ आते-जाते है, कभी कुछ भी नहीं पूछा। हमारी हर इच्छा पूरी की अलावा और भी कुछ बताओगी? दक्ष : विधि ! इन फालतु बातों के विधि : (गुस्से में) बता तो रही हूँ। आपको तो पता ही है कि आजकल मैं सप्ताह में दो-तीन बार ही किटी पार्टी में जाती हूँ और आज मेरे लिए किटी पार्टी में जाना बहुत जरूरी था। बस मुझे आने 157 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में थोड़ी देर क्या हो गई, मुझ पर तानों की बारिश शुरु कर दी। कहेंगे ही ना आखिर परायें घर की जो ठहरी (और जोर-जोर से रोने लगी) (बेचारे ससुरजी विधि की झूठी दलीलों के आगे अपनी सच्चाई पेश भी न कर सके। दक्ष की हालत तो घट्टी में पीसे जाने वाले दानें जैसी हो गई। उसके एक और कुँआ था तो दूसरी ओर खाई। न तो अपने पिताजी से कुछ कह सकता था और न अपनी पत्नी से। विधि की बात सुनने के बाद दक्ष तंग आकर वहाँ से चला गया। इस प्रकार अपने सास-ससुर से अलग होने के लिए विधि दक्ष के घर आते ही प्रतिदिन नए-नए झगड़े इस प्रकार रो -धोकर पेश करती कि दक्ष भी अपने माता-पिता से अलग होने के लिए मजबूर हो जाए। यदि कोई झगड़ा न होता तो रात में दक्ष को पूरे दिन की हिस्ट्री सुनाती। ऑफिस में क्लाइन्ट्स से माथापच्ची कर दक्ष थका-हारा इस उम्मीद से घर आता कि घर में उसे शांति मिलेगी। लेकिन विधि ने तो आकर उसके जीवन की शांति ही छीन ली थी। इन रोजरोज के टेन्शन से दक्ष पूरी तरह थक गया था और अब वह भी यही सोच रहा था कि या तो विधि मुझे छोड़कर चली जाये या मम्मी-पापा। सचमुच किसी ने ठीक ही कहा है कि आज कल बेटे, बेटे. नहीं, परंतु बाप बनकर जन्म लेते है। बहू-बहू बनकर नहीं परंतु सास बनकर घर में प्रवेश करती है। विधि ने भी कुछ ऐसा ही किया।) ___ एक बार दिन में झगड़े का कोई मौका नहीं मिलने पर रात को दक्ष के आते ही विधि ने अपनी राम कहानी शुरु कर दी-) विधि : आ गए आप। दक्ष : आ तो गया, पर तुम आज इतनी गुस्से में क्यों हो? विधि : गुस्सा नहीं करूँ तो क्या करूँ? आप पूरे दिन ऑफिस में रहते हो और यहाँ पर आपके बूढ़े माता-पिता के ताने मुझे अकेली को सुनने पड़ते है। आपको यदि मेरी चिंता होती तो कब का मुझे यहाँ से ले गए होते? दक्ष : लेकिन आज हुआ क्या, ये तो बताओ? विधि : पता है, आपकी मम्मी, पापा से कह रही थी बहू बहुत देर से उठती है। आज बहू ने गुस्से में हमारी सब्जी में नमक ज्यादा डाल दिया। बहू पियर जाकर अपनी निंदा करती है। महारानी बनकर आई हो ऐसा बर्ताव करती है। आपके मम्मी-पापा आस-पास के लोगों से भी मेरी बातें करते-फिरते हैं। जिसके कारण मेरा बाहर आना-जाना ही बंद हो गया है। घर में इनके ताने सुनों और बाहर जाओ तो लोगों के। आप ही बताओं क्या मैं इतनी बुरी हूँ। आप कुछ बोलते क्यों नहीं? Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दक्ष क्या करता, किसके पक्ष में बोलता? ऐसे समय में उसे मौन रहना ही ज्यादा श्रेष्ठ लगा। क्योंकि उसे पता था कि जिस हद तक विधि बढ़ा-चढ़ाकर बता रही है उसके माता-पिता वैसे नहीं है। लेकिन विधि के आगे उसकी एक नहीं चलती थी। ____ एक दिन वृद्धावस्था होने के कारण दक्ष के पिताजी के दाँतों में दर्द होने लगा। वे डॉ. को बताने गए। डॉ. ने उनकी दाढ़ खराब होने के कारण निकाल दी और उन्हें थोड़ा गरम सीरा खाने की सलाह दी। दक्ष की मम्मी की तबियत खराब होने के कारण वे सो रही थी। सुधीर विधि से इतना डरता था कि वह विधि को सीरे के बारे में कह नहीं सका। इसलिए दक्ष से बात की-) सुधीर : बेटा ! आज डॉ. ने दाढ़ निकाली है इसलिए मुझे सीरा खाने को कहा है। तुम्हारी मम्मी की तबियत ठीक नहीं है। इसलिए तुम जरा विधि से कह दो कि वह सीरा बना दे। (दक्ष विधि से कहने के लिए अपने कमरे में गया) दक्ष : विधि ! आज पापा ने दाढ़ निकलवाई है। इसलिए पापा के लिए थोडा सीरा बना दो। विधि : अरे ! इतनी उम्र हो गई अब तक सीरा खाने का शौक नहीं गया। सीरा माँगने से पहले थोड़ी उम्र का तो लिहाज़ किया होता। वैसे भी बैल की तरह खा-पीकर इतने हट्टे-कट्टे हो गए हैं। अभी और सीरा खायेंगे तो हाथी जैसे हो जाएंगे। उनसे कह दो कि अभी र सब खाना छोड़ दे। यदि खाना ही है तो मम्मी से कहो कि रसोई में जाकर बना दें। फिर खुद भी खाएँ और तुम्हारे बाप को भी खिलाएँ। मैं चली शॉपिंग करने। वैसे भी मुझे बहुत काम है। दीपावली के दिन नज़दीक आ रहे हैं और मेरी पूरी शॉपींग भी बाकि है। (विधि की ये सारी बातें हॉल में बैठे उसके सास-ससुर ने सुन ली। हार्ट-अटेक आ जाए ऐसे विधि के शब्दों को सुनकर दोनों की आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। जैसे ही दक्ष अपने कमरे से बाहर आया और हॉल में अपने माता-पिता को रोते देखा तो उसे स्थिति को समझते देर नहीं लगी कि मम्मी-पापा ने विधि की सारी बातें सुन ली है। दक्ष को देखते ही ......) सुधीर : बेटा दक्ष ! मुझे पता है कि तुम्हारी स्थिति कैसी है, तुम भी उसे कुछ नहीं कह सकते। बेटा ! इस रोज-रोज की खटपट से तो अच्छा है कि हम लोग तुमसे अलग हो जाए। जिससे चैन से दो वक्त की रोटी तुम्हें भी नसीब होगी और हमें भी। दक्ष : पापा ! ये आप क्या कह रहे हो? शारदा : बेटा ! ये ठीक ही कह रहे हैं। यदि हम लोग तुम्हारे साथ रहे तो झगड़े दिन-ब-दिन बढ़ते ही जाएँगे। इससे अच्छा तो हम कहीं दूर चले जाए जिससे कम से कम प्रेम तो बना रहेगा। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष : नही माँ ! मैं आपको इस घर से अलग नहीं होने दूंगा। अलग होना है तो विधि होगी। वह इस घर में नई आई है। सुधीर : ऐसा होता होगा बेटा ! तू आराम से उसके साथ रहकर अपना जीवन बीता। वैसे भी हम ज्यादा दूर थोड़े ही जा रहे हैं। इस शहर में ही तो है। आते जाते रहेंगे। बेटा इससे तुम भी खुश रहोंगे और हम भी। (पिताजी की बात सुनकर दक्ष नहीं माना। तब माता-पिता ने उसे बहुत समझाया और साथ ही यहाँ रहने से भविष्य में आने वाले दुःखद परिणामों से अवगत कराया तब-) दक्ष : मम्मी-पापा ! यदि आपकी यही इच्छा है, तो मेरी भी एक शर्त है। सुधीर : कैसी शर्त बेटा? दक्ष : आप लोग अलग ही रहना चाहते हो तो ठीक है लेकिन मैं आपको दूर नहीं भेज सकता। इसलिए आप लोग घर के पीछे वाले कॉटेज में ही रहो। मैं आपके रहने का सारा इंतज़ाम कर दूंगा। सुधीर : ठीक है बेटा जैसी तेरी इच्छा। (अपने माता-पिता को थोड़ी भी तकलीफ न हो इस प्रकार दक्ष ने उस कॉटेज में सारी व्यवस्था कर दी। उसके माता-पिता को जैसी सुख और शांति विधि के साथ रहते हुए नहीं मिली उससे कई गुणा अच्छी सुविधा दक्ष ने अपने माता-पिता के लिए कॉटेज में कर दी। विधि के बाज़ार से आते ही दक्ष ने विधि को यह समाचार दिये कि मम्मी-पापा अब अलग होने जा रहे है। तब विधि की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। आखिर उसे जो स्वतंत्रता चाहिए थी वह उसे मिल ही गई। . __ आजकल के वातावरण को देखे तो बहुएँ ससुराल आने के बाद अपनी सासुमाँ में सदैव सासु का ही रुप देखती है, कभी माँ के दर्शन नहीं करती। इसी कारण से वे इतनी निर्दयी बनकर उनके एक मात्र आधार उनके पुत्र को उनसे अलग करने में जरा भी नहीं हिचकिचाती। घर में आनेवाली बह के लिए, पति के बाद कोई सबसे ज्यादा नज़दीक हो जिसे वह अपनी बात बता सके तो वह होती है सासु। पति तो सुबह ही ऑफिस या दुकान चले जाते है। तब एक सासु ही है जो उसके साथ रहती है। लेकिन विधि ने अपने गलत व्यवहार द्वारा अपने देवता तुल्य सास-ससुर का सहारा खो दिया था। ___ इस तरफ शुभ दिन देखकर सुधीर और शारदा उस घर से अलग हो गए। दक्ष ऑफिस जाने के पहले और ऑफिस से आने के बाद सबसे पहले अपने माता-पिता से मिलने जाता। उन्हें किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ न हो उसका वह पूरा ध्यान रखता था। अपने मम्मी पापा के लिए वह 160 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिदिन फल-मिठाई आदि ले जाता। सास-ससुर के अलग हो जाने के बाद तो विधि एकदम आज़ाद पंछी बन गई थी। अब वह मन चाहे ढंग से खा-पी सकती थी, घूम-फिर सकती थी इसलिए उसे झगड़ा करने का कोई मौका ही नहीं मिलता था। शुरुआत के थोड़े दिन तो वह दक्ष के साथ अच्छा व्यवहार करती थी, क्योंकि वह दक्ष को बताना चाहती थी कि पहले उसके माता-पिता के कारण ही उसका बर्ताव इतना खराब बन गया था। पर आखिर हाथी को नाजुक बंधनों से बांधे तो वह बंधन कब तक टिकेंगे। वैसे ही धीरे-धीरे विधि का स्वभाव उभरने लगा। विधि बचपन में खिलौनों के लिए अपने भाई से झगड़ी, स्कूल गई तब अपनी सहेलियों से झगड़ी, कॉलेज जाने के बाद भाभी के साथ झगड़ी और ससुराल आने के बाद अपने सास-ससुर से झगड़कर उन्हें अलग भेज दिया। ऐसे झगड़ालु स्वभाव को विधि कब तक छुपा सकती थी। अपना अहं टूटने पर दक्ष भी अब छोटी-छोटी बातों में उस पर गुस्सा होने लगा। इस प्रकार दोनों में मन-मुटाव बढ़ने लगे। ऐसे में एक दिन विधि को खुश करने के लिए दक्ष ने विधि के मनपसंद हीरो की फिल्म के टिकट लाए और साथ ही डीनर होटल में ही करने का विचार किया। तब-) दक्ष : विधि ! आज रात 6 से 9 की फिल्म के टिकट लाए है। साथ ही २ का डीनर हम लोग तुम्हारी मनपसंद होटल ताज़ में ही करेंगे। तुम ठीक 5.45 को सिनेमा हाल के सामने मेक्डोनल की केन्टीन में मेरा इंतजार करना। विधि : दक्ष ! फिल्म, वो भी आज? एक बार टिकट लाने से पहले मुझे पूछा तो होता कि आज मैं फ्री हूँ कि नहीं? आज तो मुझे एक बहुत ही इम्पोर्टेन्ट किटी पार्टी में जाना था। पता है उसमें आज मेरी फॉरन की भी सारी सहेलियाँ आनेवाली थी और ये प्लान हमने एक महिने पहले ही बना दिया था। अब मैं उन्हें क्या जवाब दूंगी? दक्ष : कम ऑन विधि ! रोज तो जाती हो किटी पार्टी में, एक दिन नहीं जाओगी तो क्या फर्क पड़ जाएगा? अपनी सहेलियों से फिर कभी मिल लेना। प्लीज़ तुम्हारा प्लान फिर कभी बना लेना। विधि : ठीक है दक्ष तुम इतनी जिद्द कर रहे हो तो मैं किटी पार्टी केन्सल करने की कोशिश करती हूँ। (उसने अपनी सहेली को फोन लगाया ) विधि : हेलो सुज़ी क्या कर रही हो? सुज़ी : अरे विधि ! बस पार्टी के लिए तैयार हो रही थी। तुम्हें तो पता ही है मुझे तैयार होने में कितना समय लगता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधि : परतुं सुज़ी एक तकलीफ है। हमें आज की पार्टी केन्सल करनी पड़ेगी। सुज़ी: क्या? पार्टी केन्सल करनी पड़ेगी? क्यों क्या हुआ ? तुम्हारे सास-ससुर की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गई है क्या ? विधि : अरे यार ! उनकी तबियत खराब होती तो मैं कैसे भी करके आ जाती, परंतु आज तकलीफ मेरे पति की है। सुजी : क्यों ? क्या हुआ तुम्हारे पति को ? विधि : हुआ कुछ नहीं। वो क्या है ना कि उन्होंने भी आज ही फिल्म के टिकट लाए है और होटल में डिनर लेने का प्लान बनाया है। तुम्हें तो पता ही है कि ज्यादातर मिटिंग में व्यस्त होने के कारण मेरे पति कितने कम बाहर घूमने आते हैं। इसलिए मैं उन्हें मना नहीं कर सकती। सॉरी मैं नहीं आ पाऊँगी। सुज़ी : मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी तकलीफ विधि । पर तुम्हारे बिना पार्टी में मज़ा नहीं आयेगा और वैसे भी आज पार्टी में जितने प्रोग्राम होने वाले थे उन सबको तुम ही संभालने वाली थी। तुम ही नहीं आओगी तो कौन संभालेगा ? चलो कोई बात नहीं। मैं सबको फोन करके बता देती हूँ कि आज की पार्टी केन्सल करके कल रखी है। विधि : थैंक्स सुज़ी। (दक्ष ऑफिस चला गया और विधि तैयार होकर शाम को ठीक साढ़े पाँच बजे केन्टीन पहुँच गई।) विधि : क्या बात है दक्ष अभी तक क्यों नहीं आए ? कहीं भूल तो नहीं गए। आते ही होंगे मैं ही थोड़ी जल्दी आ गई हूँ। (इधर ऑफिस का काम ज्यादा होने के कारण दक्ष को ऑफिस में ही 6 बज गये। और जैसे ही वह निकलने की तैयारी में था उतने में.... ) मैनेजर: अरे सर ! आप कहीं जा रहे हों ? दक्ष : हाँ ! आज मेरी पत्नी के साथ बाहर जाने का प्लान है। वह मेरा इंतजार कर रही होगी । मेनेजर : सर ! आप शायद भूल रहे है कि आज आपकी फॉरन क्लाईन्ट्स के साथ इम्पोर्टेन्ट मिटिंग है, सारे लोग मिटिंग हॉल में आ गये हैं। सिर्फ आप का इंतजार हो रहा है । दक्ष : अरे मैं तो भूल ही गया था। अब विधि को मेसेज कौन देगा ? तुम एक काम करो मेरे मोबाईल से मेरी पत्नी को मेसेज कर देना कि बहुत जरुरी मिटिंग होने के कारण मैं नहीं आ पाऊँगा और फोन यही केबीन में रखकर तुम भी सारी फाईल लेकर हॉल में आ जाना। 162 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनेजर : ओ.के. सर। (विधि को जैसे ही मेसेज मिला उसने तुरंत ही दक्ष के मोबाईल पर कॉल किया। पर फोन उठाने वाला कोई नहीं था। गुस्से में विधि घर आकर खाना बनाए बिना ही सो गई। दक्ष मिटिंग के बाद अपनी माँ से मिलकर घर आया और आते ही।) दक्ष : मुझे माफ करना विधि। अचानक एक जरुरी मिटिंग होने के कारण मैं नहीं आ सका। चलो अभी जल्दी खाना लगा दो बहुत जोरों की भूख लगी हैं। विधि : (गुस्से में) आपको यदि आना ही नहीं था तो पहले ही कह देते, मैं अपनी किटी पार्टी तो केन्सल नहीं करती (थका हुआ दक्ष भी यह सुनकर गुस्सा हो गया) दक्ष : कम ऑन विधि। सॉरी कह रहा हूँ ना। अचानक जरुरी मिटिंग आ गई तो नहीं आ सका, थोड़ा समझा करो, तुम मेरी प्राब्लम नहीं समझोगी तो और कौन समझेगा? विधि : अचानक मिटिंग आ गई तो केन्सल भी तो कर सकते थे। आपकी मिटिंग जरुरी है और मेरी किटी पार्टी की कोई किमत नहीं। आपके पीछे मैं पागलों की तरह वहाँ केन्टीन में बैठी रही। पता है लोग मुझे कैसे घर-घूरकर देख रहे थे। दक्ष : विधि ! मैंने मेसेज तो भिजवाया ही था ना। थोड़ी देर बैठ गई तो क्या हो गया। छोटी सी बात को बड़ा करने की आदत पड़ गई है तुम्हारी। इसलिए मम्मी पापा भी चले गए। विधि : हाँ-हाँ सारी बुरी आदतें तो मुझमें ही है, मुझसे ही गलती हो गई जो मैंने आपके पीछे अपनी इतनी जरुरी पार्टी केन्सल कर दी। पर आपको तो सिर्फ आपके प्रेस्टीज की ही पड़ी है। मेरे लिए एक मिटिंग नहीं छोड़ सकते थे आप? दक्ष : विधि ! तुम कुछ ज्यादा ही बोल रही हो। मिटिंग, मिटिंग होती है और पार्टी, पार्टी। तुम मेरी मिटिंग को अपनी फालतु पार्टी से तुलना मत करो। विधि : मेरी पार्टी को फालतु कहनेवाले तुम कौन होते हो? ज्यादा मैं नहीं तुम बोल रहे हो। वो तो मैं हूँ जो तुम्हारे स्वभाव को लेकर अब तक चल रही हूँ। मेरे ऊपर की आई होती तो पता चल जाता। दक्ष : हाँ ठीक ही कह रही हो तुम। तुम से अच्छा तो मैंने किसी गँवार से शादी की होती तो ज्यादा कुछ नहीं पर अच्छे से तो रहती और दो वक्त का खाना तो नसीब होता। इस प्रकार भूखा तो नहीं रहना पड़ता। (इतना कहते ही दक्ष रुम से तकिया लेकर बाहर भूखा ही सो गया। विधि भी गुस्से में आकर रुम में सो गई। इस प्रसंग के बाद विधि और दक्ष के बीच में चार दिनों तक कोई बातचीत नहीं Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई। कुछ दिन बाद विधि का जन्म दिन आया। तब बिगडे हुए संबंधों को सुधारने की इच्छा से दक्ष विधि के लिए एक सोने की अंगूठी, उसके मनपसंद रंग की साड़ी और साथ ही बाज़ार से केक और आईस्क्रीम भी लेकर आया। इतने सारे तोहफे देखकर विधि बहुत खुश हो गई और जन्मदिन के निमित्त से उनके जीवन में फिर खुशियाँ आने लगी । उन खुशियों में मिठास की और बढोतरी हुई जब विधि को पता चला कि वह माँ बनने वाली है। इससे दक्ष तथा दक्ष के मातापिता भी बहुत खुश हो गये । इस बात को हुए अभी एक महिना ही बीता था कि उनके हँसते-खेलतें जीवन को किसी की नज़र लग गई। एक दिन - ) दक्ष : विधि ! ये फाईल्स तुमने ठीक की हैं? विधि : हाँ, बहुत अस्त-व्यस्त पडी थी तो मैंने ठीक कर दी । दक्ष : उसमें एक बहुत ही इम्पोर्टेन्ट पेपर था वो कहाँ है ? विधि : दक्ष ! मैंने थोडे ही लिया है। यही पर पड़ा होगा। दक्ष : (थोड़े गुस्से में) विधि ! दो घंटे से मैं ढूंढ रहा हूँ पर मुझे नहीं मिला। किसने कहा था तुम्हें मेरी चीज़ों को हाथ लगाने के लिए? आज यदि वो पेपर खो गया तो पता है मुझे कितना नुकसान होगा। विधि : दक्ष ! तुम तो ऐसे बोल रहे हो जैसे मैं तुम्हारी चीज़ों को कभी हाथ ही नहीं लगाती और यदि अपनी चीज़ों का इतना ही ख्याल है तो खुद ही थोड़ा व्यवस्थित रखा करो ताकि मुझे हांथ लगाने की जरुरत ही ना पड़े और वैसे भी आज तक ऐसी तुम्हारी कौन सी चीज़ है जो तुम्हें ढूँढनी पड़ी है। आज एक पेपर क्या खो गया पूरा घर सिर पर उठा लिया। दक्ष चुप रहो विधि ! तुम्हारी ये बकवास बंद करो और पेपर ढूँढो । (दक्ष और विधि दोनों पेपर ढूंढने लगे, और ढूँढते - ढूँढते दक्ष मन ही मन कहने लगा, पता नहीं कहाँ रख दिया, मिल ही नहीं रहा । ) विधि : बस-बस ! अब मन ही मन मुझे गालियाँ देना बंद करो । दक्ष : तुम्हारे इस शंकालु स्वभाव के कारण ही तो मम्मी-पापा की ऐसी स्थिति है कि घर होते हुए भी उन्हें कॉटेज में रहना पड़ रहा है। विधि : हाँ सारी गलतियाँ मेरी ही है। तुम्हें अपने माता-पिता की गलती तो दिखती ही नहीं। अपने माता-पिता के भक्त जो ठहरे। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष : शट्अप विधि। अपनी जबान को काबू में रखों। इस घर में आने के बाद तुमने मम्मी-पापा को सिर्फ दुःख ही दिया है और इतना ही नहीं मेरे भी कान भर-भर के मुझे भी उनके विरुद्ध भड़काया है । छोटी-छोटी बातों को पहाड़ जितना करना तो कोई तुमसे सीखे। आए दिन किटी पार्टी में जाना, शॉपिंग करने जाना पैसे तो तुम्हारे लिए पेड़ पर उगते हैं। अपनी गलतियाँ तो तुमसे स्वीकार नहीं होती, और मुझसे उस दिन छोटी सी गलती क्या हो गयी, तुमने मिटिंग की बात को लेकर कितना बड़ा महाभारत खड़ा कर दिया था। विधि : बस-बस ये पुरानी कहानी बंद करो। तुम, तुम्हारे माँ-बाप, तुम्हारा पूरा खानदान तो जैसे दूध में धूला है। दोषी तो मैं अकेली ही हूँ। ( गुस्से में दक्ष ने विधि को एक थप्पड़ लगाई ) दक्ष : खबरदार विधि ! मेरे खानदान तक जाने की कोई जरुरत नहीं है। पहले अपना देखो । विधि : तुमने मुझे थप्पड़ मारी। बस अब मैं तुम्हारे साथ एक पल भी नहीं रह सकती। मैं जा रही हूँ अपने घर। दक्ष ; खुशी से । (एक पेपर के झगड़े ने दो दिलों की दरारों को इतना बढ़ा दिया कि विधि रुठकर अपने मायके चली गई। मायके आने के बाद विधि ने अपने घर में बीती हुई एक भी घटना किसी से नहीं कही। चार पाँच दिन तो ऐसे ही गुजर गये और फिर एक दिन विधि मोक्षा के कमरे में गई । ) विधि : भाभी मुझे आपसे बात करनी है। ( उसी समय सुशीला भी किसी काम से मोक्षा के कमरे में आ रही थी। बाहर से विधि और मोक्षा को बातें करते सुन सुशीला वही रुक गई और बाहर से ही दोनों की बातें सुनने लगी । ) मोक्षा : अरे विधि ! आओ-आओ बैठो बोलो क्या बात है ? विधि : भाभी ! मुझे Abortion कराना है। मोक्षा : (खुश होते हुए ) क्या तुम माँ बनने वाली हो ? ये तो कितनी खुशी की बात है। तुमने अब तक किसी को कुछ बताया क्यों नहीं और ये तुम गर्भपात की बात क्यों कर रही हो? विधि : धीरे भाभी ! प्लीज़ मैं किसी को बताना नहीं चाहती क्योंकि मुझे यह बच्चा नहीं चाहिए। मोक्षा : विधि ! तुम गर्भपात क्यों करवाना चाहती हो, यह तो मैं तुमसे बाद में पूछूंगी पर क्या तुम्हें पता है गर्भपात यानि क्या? उसमें कितना पाप है ? विधि : पाप किस चीज़ का भाभी। अभी तक गर्भ रहे हुए एक महिना ही तो हुआ है। वैसे भी Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शुरुआत के महिनों में जीव कहाँ होता है ? मोक्षा : गर्भ में जीव नहीं होता ये भला तुम्हें किसने बताया ? अरे ! जीव के गर्भ में आने से ही तो गर्भ ठहरता है। गर्भधारण के प्रथम दिन से ही उसमें विकास शुरु हो जाता है। प्रथम एवं दूसरे सप्ताह में माता के द्वारा ग्रहण किये गए भोजन से उस जीव का पालन पोषण होता है। तीसरे सप्ताह में जीव आँख, रीढ़, मस्तक, फेंफड़े, पेट, जिगर एवं गुदा का आकार धारण करता है। चौथे सप्ताह में मस्तक का आकार | पूरा होता है। रीढ़ की हड्डियाँ आकार धारण कर लेती है । सुषुम्ना बन जाती है। हाथ-पाँव आकार लेने लगते हैं और जानती हो पाँचवें सप्ताह में छाती व पेट आकार धारण कर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। सिर पर पहला सप्ताह तीसरा सप्ताह BASY CAN CLJCH THINGS WTH HIS HANDS पाँचवा सप्ताह हो जाती है जो 80 वर्ष की आयु तक वैसी ही रहती है। आठवा सप्ताह ELECTRICAL AFLI RFS FRON THE ERAN DECTED ------ BABYS PAGERPRAT ग्यारहवें और बारहवें सप्ताह में स्नायु व मांस पेशियाँ की रचना पूरी हो जाती है। हाथ-पाँव हिलने-डुलने लगते हैं। अंगुलियों के नाखून निकलने शुरु हो जाते हैं। बालक का वजन लगभग एक औंस जितना हो जाता है। तीन माह की अवधि में आँख, आँख पर लेन्स और दृष्टि पटल तैयार हो जाता है। कान, हाथ-पाँव की अंगुलियाँ तैयार होने लगती हैं। छट्ठे व सातवें सप्ताह में बालक के सभी अंग आकार लेने लगते है। पूरा सिर, मुँह व जीभ तैयार हो जाती है। आठवें सप्ताह में बालक के हाथ-पाँव की सभी अंगुलियाँ पूरी तरह विकसित हो जाती है। इस सप्ताह में अंगूठे की छाप तैयार बालक का संपूर्ण गठन हो जाता है। फिर क्रमशः विकास होने की ही देरी रहती है। इस प्रकार सोचो विधि एक सप्ताह का K K 166 दूसरा सप्ताह चौथा सप्ताह छठा सातवां सप्ताह. ME FOR TCBET CCRG BOOK ग्यारहवां-बारहवां सप्ताह ALL SYSTEMS ARE GO! THE CHILD CAR FEEL MIN Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक जब इतना विकास कर सकता है तो तुम्हारी कुक्षी में तो एक महिने का बच्चा है। अपने जैन शासन में तो एकेन्द्रिय जीव की हत्या में भी पाप बताया है। तो एक पंचेन्द्रिय जीव उसमें भी एक छोटे से बच्चे की हिंसा में कितना पाप होगा? वो भी एक माँ होकर तुम स्वयं कैसे यह कार्य करा सकती हो। जरा सोचो विधि। विधि : पर भाभी.... मोक्षा : पर क्या विधि ? तुम जानती हो गर्भपात केन्द्र में कितने नृशंस उपाय से गर्भ में रहे हुए बालक को बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है। विधि : कैसे उपाय भाभी? मोक्षा : विधि ! एबोर्शन के चार प्रकार होते है। सबसे | पहली पद्धति है डी.एन.सी ओपरेशन - डॉक्टरी साधनों के द्वारा सगर्भा स्त्री के गर्भाशय का मुख चौड़ा किया | जाता है। फिर चाकू अथवा कैंची जैसे हथियार को | अन्दर डालकर जीवित बालक को बींध दिया जाता है। गर्भ में तड़पता हुआ बालक रक्त रंजित होकर असह्य वेदना से अपने प्राण छोड़ देता हैं। फिर चम्मच जैसे साधन से बालक के टुकडे-टुकडे बाहर निकाले जाते हैं। शान्त बना हुआ मस्तिष्क, रक्तरंजित बनी आँते, बाहर गिरी हुई आँखें, अभी तक दुनिया में जिसने पहला श्वास भी नहीं लिया है ऐसे फेंफड़े, छोटा सा हृदय, हाथ तथा पैर आदि अवयवों को बाहर निकालकर जल्दी से बाल्टी में फेंक दिया जाता है। विधि ! दूसरी होती है शोषण पद्धति, जिसमें गर्भाशय में एक चौड़ी नली का अग्रभाग घुसाया जाता है। उस नली के साथ एक पम्प जुड़ा होता है। नली के दूसरे भाग से एक बड़ी बोतल जुड़ी होती है। नली के अग्रभाग को गर्भाशय में व्यवस्थित करने के बाद पम्प को चालु करने से गर्भ में रहा बालक पेट में टकराता है। टकराव से उसे गहरी चोट पहुँचती है और बालक के कोमल अंग के टुकड़े-टुकड़े होकर बाहर आ जाते है। और यदि कोई जीव अत्यंत बलिष्ठ हो तो वह पूरा का पूरा जीवित बाहर आ जाता है तब उसे बाल्टी SPEE Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जोर से फेंकने पर वह अपने प्राण छोड़ देता है ! इस पद्धति से तो कभी-कभी पूरा गर्भाशय ही बाहर आ जाता है। जिससे स्त्री को कमर दर्द आदि अनेक प्रकार की बीमारियाँ आजीवन भोगनी पड़ती है। विधि : बाप रे बाप भाभी मुझसे नहीं सुना जाएगा। मोक्षा : विधि यह तो कुछ भी नहीं है, तीसरी और चौथी पद्धति सुनोगी तो काँप जाओगी। तीसरी पद्धति है हिस्टेरोटोमी (छोटा सीजेरियन)। इसमें पेट चीर कर सगर्भा स्त्री की आँतों को बाहर निकालकर गर्भाशय को खोलकर जीवित बालक बाहर निकाला जाता है, फिर उसे बाल्टी में फेंक दिया जाता है। हाथ-पैर हिलाता हुआ रोता असहाय बालक बाल्टी में ही मर जाता है। कई बार कोई बालक जल्दी नहीं मरता हे और इधर ऑपरेशन थियेटर में नए केस को प्रवेश देना होता है। अतः उस बाल्टी में रहे बालक को तीक्ष्ण हथियारों से बांध दिया जाता है। अथवा अन्य प्रहार से उसको मार दिया जाता है। ___ चौथी पद्धति होती है विषैली क्षार पद्धति - एक लंबा व तीक्ष्ण सुआ गर्भाशय में भोंका जाता है। उसमें पिचकारी से अत्यंत क्षार पानी छोड़ा जाता है। चारों ओर भरे क्षार के पानी से गर्भाशय का बालक थोड़ा-सा क्षार पानी निगल जाता है, उसी समय बालक को हिचकियाँ आने लगती है। विष भक्षण वाले मनुष्य की तरह वह चारों ओर तड़पता है। क्षार की दाहकता के कारण उसकी चमड़ी श्याम हो जाती है और अंत में घबराकर वह बालक गर्भ में ही मर जाता है। उसके बाद वह बाहर निकाल दिया जाता है। कई बार जल्दबाजी में निकालने पर बालक थोड़ा जीवित भी होता है और बाहर निकालने बाद तो थोडी देर में अपने प्राण छोड़ देता है। अब बताओ विधि ! इन चार पद्धतिओं में से कौन सी पद्धति तुम्हारे गर्भ में पल रहा कोमल बच्चा सहन कर पाएगा? विधि : (रोते हुए) प्लीज़ भाभी ! बस करो यह सब सुनकर मैं तो क्या दुनिया की कोई भी माँ अपने बच्चे की हत्या करवाने पर्ल सेन्टर में नहीं जाएगी। पर आप ही बताइए कि तलाक के बाद मैं इस बच्चे का करूँगी क्या? Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षा : क्या तलाक? यह क्या कह रही हो। जरा सोचकर बोलो। विधि : हाँ भाभी ! मैं दक्ष से तलाक लेना चाहती हूँ। यह मेरा आखरी फैसला है। मैंने अपने भविष्य के बारे में भी सोच लिया है। मैं किसी पर बोझ बनकर नहीं जीना चाहती। मैं एक फैशन डिज़ाईनर हूँ। यदि मैं चाहूँ तो मुझे अच्छी नौकरी भी मिल सकती है। इस प्रकार अपने पैरों पर खडी होकर मैं अपना पेट तो भर सकती हूँ। लेकिन प्रश्न आता है इस बच्चे का। मोक्षा : विधि ! यहाँ किसी पर बोझ बनने या पेट भरने का सवाल नहीं है। यहाँ सवाल तुम्हारी और दक्ष की जिंदगी का और तुम्हारे बच्चे का हैं। पहले दिमाग को थोड़ा ठंडा करो और बताओ कि क्या हुआ? विधि : भाभी ! दक्ष के झगड़ालु स्वभाव के कारण मैं उनसे इतनी परेशान हो गई हूँ कि कई बार मन में ऐसे विचार आते है कि या तो आत्महत्या कर अपना जीवन समाप्त कर दूं या दक्ष से तलाक लेकर उनसे हमेशा के लिए अलग हो जाऊँ मोक्षा : विधि ! सबसे बड़ी गलती तो तुमने अपने सास-ससुर से अलग होकर की है। किस कारण वश तुमने यह सब किया और अलग होने के लिए तुमने अपने सास ससुर के साथ कैसा बर्ताव किया उसकी सारी जानकारी दक्ष ने मुझे दे दी है। तुम दक्ष को गलत मत समझना, उसने तो तुम्हारी भलाई के लिए ही यह सब कहा है। विधि उस दिन फोन पर दक्ष का आखरी वाक्य मुझे अभी भी याद है उसने कहा था कि “मोक्षा दीदी मैं विधि से बहुत प्यार करता हूँ और उसकी भलाई के लिए मैं उसे गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहता हूँ प्लीज़ मोक्षा दीदी मेरी मदद करो।” विधि : भाभी ! मैं स्वीकार करती हूँ कि मैंने जो किया वह गलत किया। पर आप ही बताइए मैं क्या करती। आज के जमाने में किसी को भी संयुक्त परिवार में रहना पसंद नहीं आता। मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। मेरे सास-ससुर की दखलअंदाजी के कारण मैं तंग आ गई थी। वे घर पर हो तो मैं कही भी स्वतंत्रता से घूम फिर नहीं सकती थी। अपने सहेलियों के साथ किटी-पार्टी में या शॉपिंग करने कहीं भी नहीं जा सकती थी। मुझे उनकी उपस्थिति बहुत खटकती थी। इसलिए मैंने उनसे अलग होने का निर्णय लिया और अलग होने के लिए मुझे जो लगा वह मैंने किया। मोक्षा : विधि ! यही तो तुम्हारी सोच गलत है। तुमने उस घर में बेटी बनकर अपनी मनमानी करनी चाही। यह बात सही है कि बहु को ससुराल में बेटी बनकर रहना चाहिए। तुमने बेटी बनकर बेटी के अधिकारों को स्वीकार कर लिया। पर माता-पिता की सेवा रुप बेटी के कर्तव्यों को तुमने स्वीकार नहीं किया। सुनो मेरी ही सहेली निर्मला की बात मैं तुम्हें बताती हूँ। निर्मला की शादी के दिन उसके ससुरजी की तबियत खराब हो गई। रात को निर्मला के पति निखिल की इच्छा अपने पिता के साथ सोने की थी पर उसे डर था कि कही निर्मला का दिल टूट न जाये। इतने में निखिल के मन की परिस्थिति Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जानकर निर्मला ने कहा - "निखिल ! पापा की तबियत खराब है और अब अस्वस्थता होने के कारण उनकी तबियत का कोई भरोसा नहीं है। पूरे दिन तो कुछ नहीं हम उनके साथ ही होते हैं। पर रात के वक्त उन्हें किसी चीज़ की जरुरत पड़ जाए तो? इसलिए मैंने सोचा है कि जब तक पिताजी की तबियत ठीक न हो जाये तब तक हम ब्रह्मचर्य का पालन कर पिताजी के पास सोएंगे।” निर्मला की बात सुनकर निखिल की आंखों में से आँसू आ गए वह कुछ नहीं कह पाया। विधि ! आगे जीवन में निर्मला को अपने पति का कितना प्यार और अपने ससुर के कितने आशीर्वाद मिले होंगे, यह कहने की जरूरत नहीं है। विधि सोचो अपना कर्तव्य निभाने के लिए यदि निर्मला ने इतना बड़ा बलिदान दे दिया। तो क्या तुम अपने सास-ससुर की सेवा के लिए किटी-पार्टी आदि छोटी-छोटी चीज़ों का बलिदान नहीं दे सकती। यदि तुम भी अपने कर्तव्यों का पालन करती तो शायद अपने सास-ससुर के हृदय से दूर नहीं होती और ना ही दक्ष के दिल से। ऊपर से संयुक्त कुटुंब से अलग होकर तुमने जो तकलीफें अपने हाथों से मोल ली है वो अलग। विधि : कैसी तकलीफें भाभी? मोक्षा : एक तकलीफ तो तुम प्रत्यक्ष ही देख रही हो कि दक्ष के झगड़े के कारण तुम्हारा मन हमेशा चिंतित रहता है और दूसरा जिसका समाधान तुम मेरे पास लेने आई हो। विधि : भाभी ये तकलीफ कोई संयुक्त कुटुंब से अलग होने के कारण थोड़ी न हुई है। मोक्षा : विधि ! तुम शायद अब तक मेरे कहने का आशय नहीं समझ पाई हो। देखो अपने सास ससुर से अलग होने का जो नुकसान तुम्हें हुआ है आज वह नुकसान तुम्हारी समझ से बाहर है। यदि वह नुकसान तुम्हें पता होता तो तुम कभी ऐसा गलत कदम नहीं उठाती। चलो मैं ही बताती हूँ कि तुमने क्या खोया और क्या पाया? (ऐसा कहकर जैनिज़म के तीसरे खण्ड़ में जयणा ने जो हितशिक्षा मोक्षा को दी थी वही हितशिक्षा मोक्षा ने विधि को दी। हितशिक्षा सुनकर). विधि : (रोते हुए) सचमुच अब मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा है। भाभी ! अब तो मैं अपनी गलती की माफी माँगने लायक भी नहीं रही। मम्मी-पापा से अलग होने के बाद आज तक मैं उनसे मिलने भी नहीं गई। मैंने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य किया है। अब उनसे किस मुँह से माफी माँगुगी? मोक्षाः कोई बात नहीं। जब जागो तब सवेरा। तुम्हें अपने किए पर पछतावा हो रहा है यही बहुत बड़ी बात है। विधि : पर भाभी ! मेरे और दक्ष बीच में जो टकराव है उसे सुलझाये बिना, मम्मी-पापा को भी घर बुलाकर क्या फायदा? भाभी शादी के पूर्व मेरे और दक्ष के बीच के संबंध कितने अच्छे थे यह तो आप जानती हो। सिर्फ मेरी ही नहीं आम तौर पर सभी दम्पतियों की यही समस्या है कि सगाई के समय में रहा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ प्रेम बढ़ने की बजाय घटता क्यों जाता है? शादी के पहले तो संबंध मात्र बातों तक ही रहते हैं। लेकिन शादी के बाद तो साथ साथ रहते हैं, एक दूसरे के उपयोगी बनते हैं। एक दूसरे का घर परिवार संभालते है। तो फिर प्रेम बढ़ने के बजाय घटता क्यों हैं? नई दुल्हन के हाथों की मेहँदी का रंग उतरने से पहले आपस में प्रेम का रंग उतरने लगता है। ऐसा ही कुछ मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। भाभी इन सबके पीछे का रहस्य क्या है? मोक्षा : विधि ! तुम्हारा प्रश्न भी छगन और लीली के जीवन के अनुरुप है सुनो ! मैं तुम्हें एक बहुत ही रोचक कहानी सुनाती हूँ? छगन और लीली को एक दूसरे से प्यार हो गया। दोनों बगीचे में घूमने गए। बगीचे के सुहावने वातावरण का दोनों मज़ा ले रहे थे। इतने में छगन ने रास्ते पर काँटें देखे । तब उसने कहा - "अरे लीली ठहरो ! यह काँटे तुम्हें कही लग न जाये।” ऐसा कहकर छगन ने स्वयं वह काँटे हटाए | समय व्यतित हुआ और दोनों की शादी हुई। कुछ दिनों पश्चात् वे फिर उसी बगीचे में घूमने गये। घूमतेघूमते फिर उस काँटें वाले रास्ते पर पहुँच गए। तब छगन ने कहा "लीली ध्यान रखना आगे काँटे है। " कुछ वर्षों के बाद लीली माँ बनी और बच्चें के साथ वे लोग फिर उसी बगीचे में उसी रास्ते से गुजरे। अचानक काँटा लीली के पैर को चुभ जाने से वह चिल्लाई । तब गुस्से में आकर छगन ने कहा । "अंधी हो, दिखता नहीं है क्या?” यह कहानी भले ही हास्यास्पद है। परंतु इसके पीछे एक बहुत ही बड़ा रहस्य छिपा है और वह यह है कि शादी के पूर्व प्रेम कलरफूल होता है, शादी के बाद प्रेम ब्लेक ॲन्ड व्हाईट और बच्चा होने के बाद तो पिक्चर ही नहीं रहता । विधि : भाभी ! आपने जो बातें बताई वह सौ फिसदी सत्य है। लेकिन अब इन सबके पीछे क्या रहस्य है और उलझनों को कैसे सुलझाया जाये ? मोक्षा : धीरज रखो बता रही हूँ। देखो विधि। वैसे तो समस्या के कई कारण है लेकिन उसमें मुख्य कारण है कॉम्पिटीशन, अहं तथा भूल देखने की दृष्टि । विधि ! पुराने जमाने में तलाक के केसेस नहींवत् होते थे । अब इस हद तक बढ़ गए है कि मेहंदी का रंग न उतरे उसके पहले तो तलाक हो जाता है। इसका एक कारण है परस्पर कॉम्पिटीशन की भावना । पहले पुरुष के कार्य क्षेत्र अलग थे तथा स्त्री के कार्यक्षेत्र अलग थे। प्रायः पुरुष बाहरी कार्य संभालते थे। फिर वह बाहर का कोई भी कार्य हो चाहे वह धंधा करना हो या धान्य खरीदना हो, चाहे गहनें लाना हो या सब्जी लाना हो, सब कार्य पुरुष ही करते थे, तथा स्त्रियाँ घर संभालती थी। - परंतु आज की पढ़ी-लिखी स्त्री ने पुरुष के हर क्षेत्र में पैर पसार लिए है। फिर चाहे वह क्रिकेट का खेल हो या फूटबॉल का, चाहे वह एम. बी. ए. का कोर्स हो या एम. कॉम का, चाहे वह इंजिनियरींग का काम हो या डॉक्टरी का, चाहे वह कम्प्यूटर क्लास हो या ड्राईवींग क्लास, चाहे वह पायलेट की 171 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीट हो या पार्लियामेन्ट की, चाहे लोकसभा की हो या विधान सभा की, हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपने कदम रख दिए हैं। आज की पढ़ी-लिखी स्त्री स्वतंत्र बन गई है। वह अपने आप को पुरुष से कम नहीं समझती। पुरुष के साथ टक्कर लेना उसके दायें हाथ का खेल बन गया है। परंतु पुरुष के कार्य जब से स्त्री ने शुरू किए है तब से दुनिया में एक नया ही विस्फोट हो गया है और इस विस्फोट के शिकार बने हुए है युवा दम्पति। कॉम्पिटीशन की भावना उनके जीवन को तहस-नहस कर देती है। विधि : (बीच में ही) लेकिन भाभी ! हम दोनों के बीच मनमुटाव का जब भी कोई प्रसंग बना तब और आज भी जहाँ तक मैं मानती हूँ, वहाँ तक न तो मेरे मन में कॉम्पिटीशन की कोई भावना थी और ना ही दक्ष के मन में। तो फिर हमारे झगड़े तलाक तक कैसे पहुँच गए ? मोक्षा : विधि ! तुम अपने आपको ही देख लो, तुमने भी मुझे यही कहा था कि मैं एक फैशन डिज़ाईनर हूँ। नौकरी करके अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूँ। अतः तुम्हारे मन में यही भावना है कि मैं भी दक्ष से कुछ कम नहीं हूँ। यानि यदि दक्ष तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध थोड़ा भी कुछ करे तो तुम्हारा अहं बोल उठता है कि मुझे उनकी कोई जरुरत नहीं है और इसके बाद तो जीवन में तनाव होना स्वाभाविक है। अतः इससे यह निश्चित होता है कि तुम भी इस स्पर्धा की बीमारी से ग्रस्त हो । बाकि क्षेत्रों में स्पर्धा इतनी हानिकारक नहीं है, परंतु स्त्री-पुरुष के बीच स्पर्धा की भावना के कारण अहंकार जागृत होता है। जिससे स्त्री पुरुष के तथा पुरुष स्त्री के कार्य करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। इससे परस्पर सहयोग की भावना का नाश होता है और नतीजा - जीवन में दुःख । प्रतिस्पर्धा की विचारधारा वाले ही यह स्त्री - पुरुष आगे जाकर शादी के पवित्र बंधन में बंधते है और वहाँ यदि थोड़े भी विचार भेद हो जाए तो सीधा अहंकार टकराता है। स्वतंत्र बनी नारी एक झटके में अपने जीवनसाथी को तलाक दे देती है। पूरा जीवन पुरुष के बिना व्यतीत करने के लिए तैयार हो जाती है। विधि : भाभी ! आज मुझे पता चला कि मेरी गलतफहमियों ने ही आज मुझे इस राह पर खड़ा किया है। जिसे मैं अपना अधिकार समझती थी आज मुझे पता चला कि वह वास्तव में अधिकार नहीं अपितु मेरा अहम् था। भाभी आपने बिलकुल सच कहा । मेरी मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही है मैं भी अपने अहं के कारण दक्ष को नीचा दिखाना चाहती हूँ। मैं उसे बताना चाहती हूँ कि मैं भी उसके सहारे बिना आराम से जी सकती हूँ। लेकिन आज मेरा यह अहं मेरी आँसुओं का कारण बन गया। भाभी ! अब आप इस अहं को तोड़ने का समाधान बताईए । मोक्षा : विधि ! सामान्यतः पुरुष स्वभाव से अहंकारी होते हैं, तथा स्त्रियों में सहनशीलता एवं प्रेम सहज रुप से होता है। इसका कारण यह होता है कि पुरुष दिमाग से जीते है तथा स्त्रियाँ दिल से । परंतु आज की परिस्थिति तो इसके विपरीत हो गई है। स्त्रियाँ अब दिल को छोड़कर दिमाग में चली गई है और जहाँ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो दिमाग हो वहाँ टकराव होना, विचारभेद होना स्वाभाविक है। स्त्रियों में वह ताकत होती है कि वह अपने दिल से पुरुष के दिमाग को पिघला सकती है। पुरुषों के अहं के सामने वह चुप रहकर बाद में प्रेम से पुरुष के अहं व क्रोध को ठंडा कर सकती है। यह कला, कौशल्य स्त्रियों में सहज ही होता है। इसी कला के बल पर पुराने जमाने की स्त्रियाँ अपने पति के दिलों दिमाग पर राज करती थी। अतः तलाक जैसी कोई बात ही नहीं होती थी। __ परंतु वर्तमान में दिमाग के आधार पर अर्थात् अपने अहंकार के आधार पर जीने वाली स्त्रियों का दिमाग ही तलाक लेने के लिए प्रेरित करता है। दिल तो बेचारा तलाक के बाद भी तड़पता ही है। विधि! मैं तुमसे पूछती हूँ तुम सही-सही बताना कि अपने अहंकार के बल पर तुम तलाक लेने के लिए आतुर तो हो गई हो पर क्या तुम्हारा दिल इस फैसले से तैयार है? क्या तुम इस फैसले से खुश हो? (मोक्षा की बातें सुनकर विधि की आँखें भर आई-) विधि : भाभी ! सच कहूँ तो आपकी बात एकदम सही है, दिल तो सतत दक्ष से समाधान ही मांगता है। परंतु मेरे अपने ही अहं ने मेरे दिल को दबाकर रख दिया है। भले ही मैं तलाक लेने के लिए तैयार हूँ परंतु दक्ष की जरुरत, उसकी कमी मुझे हर स्थान पर महसूस हो रही है। कुछ समझ नहीं आ रहा है, अपने दिल का साथ दूं या अपने दिमाग का ? मोक्षा : विधि ! सीधी-सी बात है यदि तुम दिमाग का साथ देकर तलाक लेना मंजूर करती हो तो तलाक के बाद खुशियाँ तुम्हारे जीवन से हमेशा-हमेशा के लिए विदा ले लेगी। फिर क्या तुम समाज में वह स्थान प्राप्त कर पाओगी जो स्थान दक्ष के साथ रहकर तुमने प्राप्त किया है। सोचो विधि कि तुम रास्ते से गुजर रही हो और लोग यह कहे कि इस औरत का तलाक हुआ है। तो क्या तुम लोगों के वह ताने सुनने के लिए तैयार हो? तलाक के बाद तुम भले ही अपनी मेहनत से किसी अच्छे पद पर आसीन भी हो जाओगी परंतु किसी की पत्नी, किसी की बहू तथा किसी की माँ बनने का हक तुमसे सदा के लिए छीन जाएगा। यहाँ तक कि तुम तुम्हारे माँ बाप की बेटी भी नहीं रह पाओगी। सोचो विधि ! संघर्ष तो तुम्हें दोनों तरफ सहन करना ही है। अब फैसला तुम्हारे हाथ में है कि दिमाग के खातिर दक्ष से तलाक लेकर या तो समाज के ताने सुनो अथवा दिल की बात मानकर दक्ष के साथ होने वाले संघर्षों को प्रेम से सुलझाने की कोशिश करो। विधि : आपने तो मेरे दिल को झकझोर दिया भाभी ! समाज के सामने आपके द्वारा बताया गया भयंकर संघर्ष करने के लिए मैं कतई तैयार नहीं हूँ। भाभी ! अब मैं दक्ष के साथ तलाक नहीं समझौता करना चाहती हूँ। आप मुझे यह बताइए कि यदि आज से मैं कॉम्पिटीशन एवं अहं की भावना को छोड़ दूं तो क्या मेरे और दक्ष के बीच में होने वाले तनाव सदा के लिए बंद हो जायेंगे? क्या हम सुख से जी पाएँगे? Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षा : नहीं विधि ! मैंने पहले ही बताया था कि कॉम्पिटीशन की भावना के साथ-साथ अहं और भूल देखने की दृष्टि झगड़े की छोटी चिनगारी को दावानल बनाने में पेट्रोल का काम करती है। विधि : वो कैसे भाभी? मोक्षा : विधि ! मैं सीधे पॉईंट पर आती हूँ। शादी के बाद पति-पत्नी एक दूसरे के बहुत उपयोगी बनते हैं, जैसे पत्नी को पति के घर को संभालना, घर में आने वाले मेहमानों का स्वागत करना, पति की हर इच्छा को पूर्ण करना। फिर भी मान लो यदि पत्नी से चाय फीकी बन जाए या ऐसी कोई भी छोटीबड़ी भूल हो जाए तो इन सब प्रसंगों की पति के दिमाग में टेपरीकोर्डिंग होती रहती है। फिर जब भी कोई भूल होती है तब टेप के प्ले का बटन दब जाता है और पहले से टेप शुरु हो जाती है। ऐसे में सहनशीलता की कमी के कारण पत्नी भी पति के भूलों की कैसेट शुरु कर देती है। . विधि : भाभी! आपने जो कहा वह मैंने साक्षात् अपने जीवन में अनुभव भी किया है। दक्ष ने मुझे हर प्रकार की खुशी दी पर उस दिन पिक्चर जाने की उनकी एक भूल, जो कि वास्तव में भूल नहीं थी। फिर भी मैं उसे आज तक गा रही हूँ। ऐसी तो कई बातें है भाभी! अब इस दोष दृष्टि को बदलने के लिए मैं क्या करूँ? मन को किस तरह समझाऊँ? भाभी सामने वाला भूल को तो उसे कहे बिना भी नहीं रहा जाता। उसके लिए क्या उपाय करूँ? मोक्षा : देखो ! आईना और केमेरा दोनों ही दृश्य को अपने में प्रतिबिंबित करते हैं। लेकिन फर्क इतना ही है कि आईना सामने से दृश्य हटते ही पूर्ववत् हो जाता है। लेकिन केमेरा एक बार जिस दृश्य को अपने रील में फीट कर देता है, फिर चाहे वह दृश्य वहाँ से दूर भी हट जाए तो भी वह फोटो में अपना अस्तित्व बनाए रखता है। ठीक उसी प्रकार अपना दिल भी दो प्रकार का होता है या तो आईने जैसा है या फिर केमरे जैसा। यदि दिल में प्रसंग खत्म होते ही भूल का दृश्य भी जाता हो जाए तो वह दिल आईने जैसा है, एवं जिस दिल में प्रसंग बीतने के बाद भी भूल का फोटो कायम रहे तो समझ लेना अपना दिल केमरे जैसा है। यदि दिल को केमरे के जैसा बनाया तो दूसरों की भूल तुम्हारे दिल में काँटे की तरह चुभती रहेगी, जो तुम्हें कभी शांति से जीने नहीं देगी। इसके विपरीत यदि तुम अपने दिल को आईने के जैसा बनाओगी तो समस्याएँ तुमसे सौ कदम दूर भागेगी। विधि : भाभी ! मैं अपने मन को आईना बनाने की पूरी कोशिश करूँगी, लेकिन फिर भी यदि मुझे दक्ष के दोष दिखने लगे तो क्या करना? मोक्षा : विधि ! सामने वाले के दोष दिखे तो तुरंत ही उसके गुणों को सामने लाना। ऐसा करते वक्त कभी मन न माने तो भी मन मार कर तुम्हें यह कार्य करना होगा। इस प्रकार गुण रुपी पुष्पों की सुवास Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से तुम्हारा जीवन बाग महक उठेगा। मैं तुम्हें एक दृष्टांत सुनाती हूँ। जिससे मेरी बातें तुम्हारे दिमाग में एकदम फिट हो जायेगी। एक रबाड़ी अपनी पत्नी के साथ बैलगाड़ी में घी बेचने गया । निश्चित स्थान पर पहुँच कर रबाइन घी के मटके रबाड़ी को दे रही थी और रबाड़ी उसे नीचे रख रहा था। एकाएक घी का एक मटका गिर गया और पूरा घी नीचे गिर गया। यह देखते ही रबाड़ी आग-बबूला होकर बोला “जरुर किसी युवक को देख रही होगी जिससे मटका पकडने से पहले ही छोड दिया ।" तब उसकी पत्नी भी गुस्से में बोली “तुम्हारी नजर भी किसी युवती पर ही होगी, जिससे तुमने घड़ा व्यवस्थित नहीं पकड़ा।" बात बढ़ गई और झगड़ा करतेकरते कब शाम हुई पता ही नहीं चला। इस झगड़े में गिरा हुआ घी कुत्ते चाट गए और बाकि रहे घी के घड़े भी दोनों बेचना भूल गए। सभी रबाड़ी घी बेचकर चले गए थे मात्र वे दोनों शाम तक आपस में झगड़ रहे थे। जब उन्हें शाम होने का एहसास हुआ तब घी बेचे बिना ही दोनों दम्पति अपने गाँव जाने लगे। तब अंधेरे में चोरों ने बचा हुआ घी भी चुरा लिया। ऐसा ही किस्सा दूसरे एक रबाड़ी युगल के साथ हुआ। घी के नीचे गिरते ही पत्नी बोली “अरे माफ कीजियेगा। आपके मटका पकड़ने से पहले ही मैंने मटका छोड़ दिया।" इस पर पति भी बोला - "नहींनहीं तुमने तो बराबर ही दिया था मैंने ही ध्यान से नहीं पकड़ा।" दोनों ने हो सके उतना नीचे गिरा हुआ घी ले लिया। घी के अन्य मटके भी बेचकर खुशी-खुशी घर चले गए। बस ऐसा ही हमारे जीवन में भी होता है। जो दम्पति आपस में एक दूसरों की भूल देखते है वे आवेश में आकर आपस में झगड़ते है। इसके बदले दम्पति आपस में अपनी भूल स्वीकार कर लें तो उस घर का वातावरण कैसा होगा यह बताने की जरुरत नहीं है। शायद अब तुम मेरे कहने का आशय समझ गई होगी। विधि : तो फिर इसका मतलब यही हुआ कि दक्ष चाहे कितनी भी गलती करें। कैसी भी गलती करें मुझे नज़र अंदाज ही करते रहना, उनकी गलतियों पर ध्यान नहीं देना। भाभी ! सास - बहू के संबंधों में दरारें हो तो बहू को ही सुधरना चाहिए क्योंकि वह कच्चे घड़े की तरह होती है यह बात तो फिर भी उचित है। परंतु जहाँ पति-पत्नी जिनकी वय समान होती है, एक दूसरे को समझने की शक्ति होती है वहाँ यदि पति को खुश रखने के कुछ कर्तव्य मेरे है तो क्या मुझे खुश रखने के लिए दक्ष के कोई कर्तव्य नहीं हैं? उन्हे सुधरने की कोई आवश्यकता नहीं ? मोक्षा : विधि ! दक्ष का स्वभाव सुधरना चाहिए, मन से इन गलत विचारों को हमेशा के लिए दफना दो और मन में इस बात को आत्मसात् कर लो कि दक्ष के स्वभाव को मुझे नम्रता से स्वीकार कर लेना है। तुम यह तो जानती ही होगी कि हर गाँव में समाज व्यवस्था को अच्छे ढंग से चलाने के लिए गाँव में मंदिर के साथ एक श्मशान की आवश्यकता भी होती है। ठीक वैसे ही अपने जीवन को अच्छे ढंग से चलाने 175 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए हर व्यक्ति के मन में एक मंदिर के साथ एक कब्रिस्तान भी होना चाहिए। जिससे हृदय में रहे मंदिर में वह स्वजनों के गुणों की प्रतिष्ठा कर सके एवं कब्रिस्तान में उनकी भूलों को दफना सके। विधि ! इसी तरह तुम भी अपने मन में एक मंदिर बनाओ जिसमें तुम दक्ष के गुणों, उसके उपकारों की प्रतिष्ठा कर सको और साथ ही एक कब्रिस्तान भी बनाओ, जिसमें तुम दक्ष की भूलों को भी दफना सको । विधि : ठीक है भाभी ! आपके कहे अनुसार मैं मन में एक कब्रिस्तान बना लूंगी जिसमें मैं दक्ष की भूलों को दफना सकूँ परंतु मेरा प्रश्न तो वही का वही रह गया। क्या सुधरने के लिए मुझे ही आगे आना होगा, मुझे ही सहन करना पडेगा ? मोक्षा : अहंकार ने तुम्हारे दिलों दिमाग पर अड्डा जमा लिया है, विधि ! ताली दोनों हाथों से बजती है। अब दायाँ हाथ पहले उठे या बायाँ उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हमें तो खाली ताली बजाने से मतलब है। बस इसी प्रकार तुम्हें तो अपना संसार सुखी बनाने से मतलब है। फिर सहन करने की या प्रेम करने की शुरुआत तुम करो या दक्ष उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम सहनशील बनो और प्रेम दो, इससे सामनेवाला व्यक्ति पिघले ऐसा हो ही नहीं सकता। और विधि ! तुमने यह तो सुना ही होगा कि नारी - सहनशीलता की मूर्ति है, क्या तुमने कभी यह सुना है कि पुरुष सहनशीलता की मूर्ति है। नहीं ना, सृष्टि ने भी जिस गुण से नारी को विभूषित किया है, उस गुण की पुरुष से अपेक्षा रखने में कोई फायदा नहीं है। तुम भी सहनशीलता को अपने जीवन में उतारकर नारी नाम को सार्थक करो। यदि दक्ष की कोई गलती होगी तो मैं उसे जरूर बताऊँगी। वैसे विधि ! जब तुम और दक्ष झगड़ते हो तब कोई तो ऐसी बात होगी या कुछ तो ऐसे शब्द होंगे जिसका उपयोग गुस्से में तुम और दक्ष-बार बार करते होंगे। विधि : भाभी ! कोई गाली गलोच या अपशब्दों का उपयोग तो हम दोनों के बीच नहीं होता । हाँ लेकिन इतना जरुर कहती हूँ कि ये तो मैं हूँ जो आपको संभाल रही हूँ यदि कोई दूसरी पत्नी मिली होती तो पता चल जाता कि औरत क्या बला होती है। और दक्ष भी कहाँ चुप रहते है मेरी बात सुनकर वे भी कहते है। “हाँ-हाँ सही कहा तुमने, तुमसे अच्छा तो किसी गँवार से शादी कर लेता तो ज्यादा नहीं पर दो वक्त का भोजन तो बराबर बनाकर देती । " मोक्षा : बस यही तुम्हारी कमज़ोरी है। विधि ! तुम दक्ष के साथ शांति से रहना चाहती हो तो अगली बार जब झगड़ा हो तब तुम मेरी इस सलाह का उपयोग करना । जब भी तुम्हारे बीच झगड़ा हो तब, "यह तो आप हो जो मुझे संभाल रहे हो, कही और गई होती तो कब का धक्का मारकर घर से बाहर निकाल दिया होता।" यह बोलना इससे तुम्हारी आधी समस्याओं का हल हो जायेगा । विधि : नहीं भाभी ! ये मुझसे नहीं होगा । मोक्षा : विधि ! ये तुम्हें करना ही होगा। मैंने तुम्हें पहले ही कहा है कि तुम सामनेवाले व्यक्ति को प्रेम Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो और बदले में तुम्हें प्रेम न मिले यह हो ही नहीं सकता। तुम एक बार मेरी सलाह पर चल कर तो देखो कि तुम्हारे घर में कितना परिवर्तन आता है। यदि मेरी सलाह से तुम्हारे जीवन में कोई परिवर्तन न आए तो मैं स्वयं तुम्हें तलाक दिलाने में मदद करूँगी। विधि : ठीक है भाभी ! मैं आपके कहे अनुसार करूँगी। लेकिन अब मैं घर जाऊँ कैसे? मैं तो दक्ष से झगड़ा करके आई हूँ। मोक्षा : (बीच में ही...) विधि तुम इसकी टेन्शन मत करो। मैंने दक्ष से बात कर लूँगी। (विधि और मोक्षा की सारी बातें सुशीला ने सुन ली। विधि के निकलते ही सुशीला कमरे में आई और....) सुशीला : (मोक्षा के सिर पर हाथ फेरते हुए ) बेटा ! पहले मैंने तुम्हें समझने में बहुत बड़ी गलती की। पर तुम तो मेरे घर की रोशनी हो जो अपने ही नहीं, पर औरों के घर को भी रोशन करती हो। ऐसी बहू ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी। (मोक्षा ने दक्ष को फोन किया और कहा-) मोक्षा : दक्ष ! विधि को मैंने अच्छी तरह समझा दिया है पर साथ ही तुम्हारे सहयोग की भी जरुरत है। विधि की सारी बात सुनकर मुझे लगा 70% गलती उसकी है तो 30% गलत तुम भी तो हो। अतः सुधरने की आवश्यकता तुम्हें भी है। तुम दोनों के झगड़े का मुख्य कारण है तुम दोनों का अहं। दक्ष : मोक्षा दीदी ! मैं हर प्रकार से सुधरने के लिए तैयार हूँ। बस मुझे तो इतना ही चाहिए कि मेरे और विधि के संबंध अच्छे हों जाये। मैं विधि को वो सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ जिसकी वो हकदार है। मोक्षा : दक्ष ! तुम्हारा अच्छा व्यवहार ही तुम्हें और विधि को खुश रख सकता है। तुम विधि को कहीं भी घूमने-फिरने ले जाओ। लेकिन दिन में एक बार उसे कह दो कि विधि तुम सचमुच बहुत अच्छी हो। मेरे घर को कितनी अच्छी तरह संभालती हो या फिर कभी उसे एक ग्लास पानी लाकर दो और यह कहो कि विधि घर का इतना काम करके तुम थक गई होगी। लो बैठो, पानी पी लो। मात्र तुम्हारे इन प्रेम भरे शब्दों से विधि को वह सारी खुशियाँ मिल जाएगी जो तुम उसे देना चाहते हो। दक्षः थैक्स दीदी ! मैं अब से इन सब बातों का ध्यान रखूगा। (और साथ ही मोक्षा ने दक्ष को विधि की गर्भावस्था में उसे किस प्रकार खुश रखना, उसकी हर इच्छा पूरी करना आदि के बारे में भी बताया। दक्ष भी समझदार था, इसलिए सारे मनमुटावों को भूलकर वह विधि को लेने आया और विधि भी खुशी-खुशी उसके साथ चली गयी। आठ-दस दिन तो यूँ ही हँसते-खेलते गुजर गये। एक दिन विधि ने चाय में भूल से डबल शक्कर डाल दी, और उस दिन ऑफिस से थककर आने के कारण दक्ष पहले से ही गुस्से में था। चाय का चूंट लेते ही।) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्ष : हे भगवान ! तुमसे अच्छा तो किसी गँवार से शादी की होती तो दंग का खाना नहीं पर दंग की चाय तो पिलाती। (विधि को भी इस बात पर गुस्सा आ गया। पर संयोगवश उसे अपनी भाभी की हितशिक्षा याद आ गई और वह अपने गुस्से को कंट्रोल करके बोली-) विधि : ठीक ही कहा आपने। एक आप है जो मुझे सँभाल रहे हो कहीं और होती तो कब का घर से धक्के मारकर बाहर निकाल दिया होता। (विधि के इस अनपेक्षित जवाब को सुनकर दक्ष के आश्चर्य का कोई पार नहीं रहा। ) दक्ष : यह तुम बोल रही हो? विधि : हाँ और मैं मानती भी हूँ। (इतना कहते ही विधि रो पड़ी) दक्ष : अरे विधि ! तुम रो रही हो? विधि ! मैं नहीं तुम हो जो मुझ जैसे खराब स्वभाव वाले को संभाल रही हो। कोई और होती तो मुझसे तंग आकर कब की पियर चली गई होती। (इतना कहकर दक्ष भी रो पडा। फिर दक्ष और विधि दोनों ने अपने किए की माफी माँगी। और शाम को विधि ने मोक्षा को फोन किया-) विधि : थैक्स भाभी ! आपकी दी हुई सलाह से आज एक ही दिन में हमारे घर में परिवर्तन आ गया। हमारे जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ आ गई है। (इतना कहकर विधि ने मोक्षा को पूरी घटना बतायी। और आगे भी मोक्षा द्वारा दी गई हितशिक्षा का पालन करने का वादा किया। इतना ही नहीं उस दिन से विधि रोज अपने सास ससुर को मिलने जाती और उनकी तबियत उनकी जरुरतों का भी ध्यान रखती। विधि में आए इस परिवर्तन से उसके सास-ससुर भी बहुत खुश हो गये। इस प्रकार हँसते-खेलते विधि नौवें महिने में पहली डिलेवरी के लिए अपने पियर गई। दक्ष भी उसे अनुकूलतानुसार मिलने जाता। समय बीतने पर विधि ने एक लड़की को जन्म दिया। लड़की का नाम 'कृपा' रखा। दो महिने बाद विधि फिर से अपने ससुराल आ गई और इधर मोक्षा ने गर्भ धारण किया। नौ महिने बीतने पर उसने भी एक लड़की को जन्म दिया। उसका नाम 'मुक्ति' रखा। इस प्रकार समकित, मुक्ति और कृपा तीनों अपने माता-पिता से मिली जाने वाली परवरिश व संस्कारों से बड़े होने लगे। देखते ही देखते दक्ष और विधि के प्यार में पली कृपा चार साल की हो गई। एक दिन विधि और दक्ष कृपा को मेले में ले गए। मेले की भीड में कृपा कहीं खो गई। दक्ष और विधि उसे पूरे मेले में खोजने लगे। दो घंटे की खोज के बाद भी कृपा नहीं मिली। इससे विधि की हालत रो-रोकर जिन्दा लाश-सी हो गई। उसकी बिगड़ती हालत को देखकर दक्ष उसे समझाकर घर ले आया और अपने मम्मी-पापा को भी बुला दिया। सुधीर और शारदा विधि को सांत्वना देकर शांत करने की कोशिश करने लगे और दक्ष कृपा की खोज Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखवाने गया । दक्ष के घर आते ही - ) विधि : क्या हुआ दक्ष ! कृपा मिली, कहाँ है वो ? दक्ष : विधि ! टेन्शन मत लो, पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाई है, सब ढूँढ रहे हैं। शारदा : हाँ बेटा ! तुम रो रो कर अपना शरीर खराब मत करो, भगवान से प्रार्थना करो सब ठीक हो जाएगा। (इस प्रकार वह रात तो टेन्शन से रोने में ही चली गई, दूसरे दिन सुबह सात बजे फोन की घंटी बजी।) द- हेलो पुलिस : हेलो मि. दक्ष ! आप की बेटी कृपा मिल गई है। आप पुलिस स्टेशन आकर उसे ले जाईए । ( फोन रखते ही .....) दक्ष : विधि ! विधि ! सुनो कृपा मिल गई है। विधि : ( भागती हुई ) क्या? कहाँ है कृपा ? दक्ष : अरे शांति रखो, अभी-अभी पुलिस स्टेशन से फोन आया है कि कृपा मिल गई है । मम्मी- पापा, विधि चलो हम सब कृपा को लेने जाते है । ( चारों गाड़ी में बैठकर पुलिस स्टेशन पहुँच गये ? पुलिस स्टेशन के बाहर ही विधि कृपा से लिपटकर रोने लगी।) विधि : (कृपा के सिर पर हाथ फेरते हुए) बेटा ! कहाँ चली गई थी तू? हे भगवान तेरा लाख लाख शुक्र है जो मेरी बेटी सही सलामत मिल गई बेटा ! तुझे कही लगी तो नहीं ना ? .... (और इस तरफ सुधीर और दक्ष पुलिस इन्स्पेक्टर के साथ) सुधीर : इन्स्पेक्टर साहब। बहुत-बहुत धन्यवाद ! आपने कृपा को ढूँढने में हमारी इतनी मदद की। क्या हम कृपा को घर ले जा सकते हैं ? पुलिस : हाँ क्यों नहीं ? बस इन कानूनी कागज़ पर साईन करके आप कृपा को ले जा सकते हैं। (साईन करके पाँचों वापस घर आए, घर के बाहर आते ही ) शारदा : चलो विधि ! अब हम चलते हैं, कृपा का ध्यान रखना, कृपा बेटा ! कहीं जाना मत। (ऐसा कहकर शारदा और सुधीर वहाँ से निकलने लगे। इतने में -) विधि : एक मिनट मम्मीजी ! आप कहाँ जाने की बात कर रहे हो? शारदा : बेटा ! अपने घर । विधि : (अपने घर की तरफ इशारा करते हुए ) मम्मी यह घर आपका ही तो है । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विधि की बात सुनकर सब चौंक गए। तब विधि रोने लगी, सब सोच में पड़ गए कि आखिर विधि को हुआ क्या तब) विधि : (रोते हुए) हाँ मम्मीजी ! यह आपका ही घर है। आज से आप और पापाजी इसी घर में रहेंगे। मम्मीजी मेरे बर्ताव के कारण आप लोग घर छोड़ने पर मजबूर हो गये थे। लेकिन आज में अपने उन सब गलत बर्ताव की माफी माँगती हूँ। मम्मीजी ! आज मुझे पता चल गया कि जब बच्चे माँ से अलग होते हैं तब माँ की क्या हालत होती है। कृपा मुझसे 24 घंटे अलग हुई तो मैं जिंदा लाश बन गई। मैंने तो आपको, आपके बेटे से अपने स्वार्थ के लिए इतने दिनों तक दूर करने का पाफ किया है। मैं तो कृपा के साथ सिर्फ चार साल से हूँ, और आज उसके गुम जाने से मेरी ऐसी हालत हो गई है, तो 25-25 साल तक जो दक्ष आपके साथ रहे है उनके दूर हो जाने पर आपकी कैसी हालत हुई होगी? मम्मीजी ! मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा है। अब आप और पापाजी हमारे साथ ही रहेंगे हमेशा-हमेशा के लिए। मम्मी-पापा प्लीज़ मुझे माफ कर दो। (इतना कहकर विधि, शारदा और सुधीर के पैरों में गिरकर रोने लगी। दक्ष ने विधि को उठाया और-) दक्ष : विधि ! तुम्हें पछतावा हुआ यही बड़ी बात है। अब मम्मी-पापा हमें छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे। (दक्ष सुधीर की ओर देखते हुए) है ना पापा? (क्या कहते सुधीर और शारदा। आखिर बच्चों के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा। उसके बाद विधि के परिवार में, विधि के जीवन में कितनी खुशियाँ आई होगी यह कहने की जरुरत नहीं हैं।) ___इस प्रकार विधि के खुशहाल जीवन को देख मोक्षा तथा उसका परिवार बहुत खुश था। परंतु उनके परिवार की यह खुशी जल्द ही गम और आँखों के आँसूओं में बदल गई। जब मोक्षा के देवर विनय ने अपनी पत्नी के साथ घर से अलग होने का कदम उठा लिया। अब क्या मोक्षा विनय को माता-पिता के प्रति उसके कर्तव्य को समझाकर उसे पुनः घर लाने में कामयाब हो पाती है या फिर प्रशांत और सुशीला का यह संयुक्त कुटुंब टूटकर बिखर जाता है। क्या यह तूफान थम जायेंगा ? या यह तूफान मोक्षा के परिवार की खुशियों को छिन लेगा? आईये देखते है जैनिज़म के अगले खंड “Duties towards Parents" में.... Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री मोहनखेडा तीर्थ मण्डन आदिनाथाय नमः। श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं श्री राजेन्द्र-धन-भूपेन्द्र-यतन्द्रि-विद्याचंद्र सूरि गुरुभ्यो नमः त्रिवर्षीय जैनिज़म कोर्स खंड-3 लेखिका | ओपन-बुक परीक्षा पत्र ____Total 140 Marks . सा. श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. नोट : नाम, पता, आदि भरकर लिखना प्रारंभ करें. सब प्रश्नों के उत्तर उत्तर पत्र में ही लिखें। उत्तर स्वयं खुद की मेहनत से पुस्तक में से ढूँढकर निकालें। खुद के श्रावकपणा की रक्षा के लिए नकल करने की चोरी के पाप से बचें। उत्तर साफ अक्षरों से लिखें तथा पुस्तक की फाईनल परीक्षा के समय उत्तर पत्र साथ में संलग्न कर दें। प्र.A रिक्त स्थानों कि पूर्ति कीजिए (Fill in the blanks) : 12 Marks 1. क्षायिक प्रीति से ........................ के गुण पैदा होते है। 2. पूर्वकाल में संस्कारी और शिक्षित माँ ही बालकों की...................... कहलाती थी। 3. कुमारपाल राजा एक साल में ................... सोनामोहर साधर्मिक भक्ति में खर्च करते थे। 4. ................. सूत्र में चारित्र धर्म की स्तुति की गई है। 5. कुंडल द्वीप ......... ....... योजन विस्तारवाला है। 6. डॉली तो सिर्फ शबाना और समीर की ऊँगलियों पर नाचनेवाली ...... ... बन गई थी। 7. जो आपको आपका. ................. सुधारना हो तो इस भव में पापों की शुद्ध आलोचना कर लेनी चाहिए। 8. सासु बेटी के साथ तो दिल से व्यवहार करती है पर बहुओं के साथ व्यवहार करने में ..............का __ उपयोग करती है। . 9. पटराणी की कुक्षि को ...................... की उपमा दी गई है। 10. आधी कच्ची पक्की ककडी म.सा. के लिए .......................... है। 11. रक्त और वीर्य के साथ माँ-बाप के ......... बालक में उतरते है। 12. ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत .................. योजन हैं। प्र. B काउस में दिये गए उत्तर में से सही उत्तर ढूंढ कर रिक्त स्थानों की पूर्ति करें 12 Marks (भावना, विहायोगति, 2.92 लाख, इन्द्र, समता, साधु-साध्वी 56 दिक्कुमारी, आनुपूर्वी , संस्कृति, वात्सल्य, पदवीधर, 20,000, परस्पर सहयोग, सर्वज्ञ, 1 लाख, शहद-मक्खन, सहनशीलता, व्यंजन, पांच लाख, ईर्ष्या, चारित्र ) 1. झांझण शेठने कर्णावती से छःरी पालित संघ निकाला था उस संघ में .................. यात्रालु थे। 2. जीवन में रही वासना ................... में परिवर्तित हो जाती है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म का उदय जीव को विग्रहगति में मोड़ लेने में सहायक बनता है। .खाने से पुष्कल विकलेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है। 5. स्त्रियों में . .............. और प्रेम सहज रुप से होता है। 6. प्रभु का जन्म होते ही पहले ..................... का आसन चलायमान होता है। 7. परमात्मा की कृपा से ही ... ..... दशा प्राप्त होती है। 8. द्वादशावर्त वंदन से ...... को वंदन किया जाता है। 9. सदाचंद शेठ ने सोमचंद शेठ के वहाँ आनेवाले को . । आनवाल का ................ ...... रुपये देने को कहा। 10. वारंवार स्वाध्याय करने से .................. की लब्धि प्राप्त होती है। 11. अहंकार जागृत होता है तब ..................... की भावना का नाश होता है। 12. शुरुआत में वात्सल्यनिधि बनकर...........................से पुत्रवधू का निर्माण करना चाहिए। प्र. मुझे पहचानो। (Who am I) : 12 Marks 1. मुझ में बहुत छोटी केसरी रंग की इयल होती है। 2. मैंने मेरे लाडले पुत्र को आपको सौंप दिया। 3. शाम को सूर्यास्त से 48 मिनट तक मैं रहता हूँ। 4. मुझे सुबह चबा-चबा कर खाने से शरीर बलवान बनता है। 5. मैं और वासुदेव एक साथ एक क्षेत्र में नहीं रह सकते। 6. मैंने सबको पार्टी केन्सल करने के समाचार दिए। 7. उपसर्ग टले नहीं तब तक मैंने चारों आहार का त्याग किया। 8. मेरी उत्पत्ति घर में ज्यादा समय गीली रहने वाली जगहों पर होती है। 9. मेरे पिता के क्रोध ने मुझे भी क्रोधी बना दिया। 10. मैं मेले में गुम हो गई। 11. मेरे द्वारा जीव पापों से मुक्त हो सकते हैं। 12. मेरे हाथों की मेहंदी का रंग उडने से पहले ही मुझ पर कर्तव्य का बोझ डाल दिया गया। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 Marks प्र.D एक शब्द में उत्तर दीजिए 1. आलू-कंदमूल की तरह निगोद भी क्या है? . 2. पाहिनी देवी किस गाँव की थी? 3. दुःख के समय में समाधि और समाधान की राह कौन दिखाता है? 4. कालोदधि समुद्र का माप कितना है? 5. छ: साल की उम्र में किसने दीक्षा अंगीकार की थी? 6. बहू के लिए ससुराल में पति के बाद कौन ज्यादा होता है? 7. ज्ञान, दर्शन, चारित्र में जो अधिक हो उसे क्या कहते हैं ? 8. सुई में जूं को परोने से किसे 7 भव तक फाँसी पर चढ़ना पड़ा? 9. खाने जैसा क्या है? 10. प्रथम समय मरण स्थान से जीव क्या लेकर निकलता है ? 11. विवेक सहित यथार्थ वस्तु को जानना ये क्या है? 12. पूनम के चांद को देखने से माता का बालक क्या बनता है? प्र. E सुधार कर फिर से लिखें : 12 Marke 1. सच्चा भक्त तो वही है जो प्रभु के भक्त का भी साधर्मिक होता है (...................) 2. नई बहु को कच्चे घड़े की उपमा दी गई है (... 3. ढाई द्वीप के चैत्य तीन दरवाज़े वाले होने से 108 प्रतिमा वाले होते हैं। (...............) 4... दिव्या ने अपने अधिकारों से घर के सभी लोगों का दिल जीत लिया। (............... 5. सिद्धशीला अर्धचंद्राकार के आकार जैसी होती है। (. 6. क्रोध के कारण धर्म क्रिया में दिखावा बढेगा। (........................) 7. गुरु भगवंत जब पराङ्मुख बैठे होते है तब वंदन कर सकते हैं। (.................) 8. जिन जीवों का मुझ पर उपकार है उन सभी का परमात्मा से प्रेम बंधाता है (............. 9. डॉली वर्ल्ड फेमस इन्टीरीयर डेकोरेशन कंपनी में इन्टरव्यु देने गई(. ..............) 10. सुपात्रदान बिना निःस्पृही ऐसे साधु संतों का समागम होना अति दुर्लभ है। 11. यदि दिल को दिमाग जैसे बनाया तो दूसरो की भूल दिल में काँटें की तरह चूमती रहेगी (................, 12. पेथड़ शाह पहले पूनमचंद शेठ के नाम से प्रख्यात थे। (.. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. F प्रश्नों के उत्तर दीजिए । 1. भव आलोचना करने से क्या होता है ? खंधक ऋषि कौन थे और उनकी मृत्यु कैसे हुई ? तीन प्रकार के चैत्यवंदन बताइए ? मोक्षा ने विधि को अहं कैसे तोड़ना उसके ऊपर क्या समाधान दिया? नंदीश्वर द्वीप के चैत्य और प्रतिमाओं की संख्या बताइए? महिने धर्ममय वातावरण में व्यतीत करने के लिए गर्भवती स्त्री को क्या करना चाहिए? प्र. G नीचे की पंक्तियां पुस्तक के किस पेज पर है और किस लाईन पर है वह बताईए । उदा. ये कितने सुंदर बालक है ? पेज नं. उ. चेप्टर पेज 1. और इनकी निश्रा में धर्मानुष्ठान करने से सार्थक होता है । उन्होंने चार शरण स्वीकार किए। इन पैसों से हमें परमात्मा का जिनालय बना लेना चाहिए। प्रभु को देखकर हर्षित बनकर सब कलशादि सामग्री इन्द्र के सामने रखते है । यह जिनशासन साधर्मिकों से चल रहा है और चलेगा। 2. 3. 4. 5. 6. 2. 3. 4. 5. 6. • खुद की किस्मत को गलत रास्ते पर ले जाने वाली वह खुद ही थी। जिससे सब खुश होकर जाते थे। सर्व प्रथम मन में पापों के प्रति घृणा उत्पन्न करके किए हुए पापों को याद करें। लकड़े पर वार्निश, रंग पॉलीश करने से निगोद की उत्पत्ति नहीं होती । अनुसार प्रश्न ढूंढ कर जवाब लिखें उदा. पाँच दंडक में से एक............ नमुत्थुणं 2. 1. ज्ञान का एक प्रकार एक पेपर के... 12 Marks 7. 8. 9. 10. दूसरे दिन तो घर में रामायण मच गई। 11. सिद्ध के जीव सिद्धशीला से 3 गाउ 1667 धनुष्य की दूरी पर है। 12. उसको सुधारने की कोई आवश्यकता नहीं है? प्र. H बारहखड़ी से शुरु होनेवाले जवाबों के प्रश्नों का क्रम खो गया है। प्रथम अक्षर के 12 Marks ...में दो दिलों की दरार बढ़ गई। 184 12 Marks लाईन नं. 12 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहदास की पत्नी का नाम क्या था किसकी क्रिया देख लक्ष्मणा साध्वीजी विचलित हुए हवा के... 3. 4. 5. 6. 7. वातावरण 9 मास पूर्ण करने चाहिए। दोष लगता है। 8. वहोराते वक्त छींटे गिरने पर. 9. डॉली का जीवन ऐसा था जहाँ पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी... द्वारा रचित होने से कालवेला में पढ़ना नहीं चाहिए। 10. सूत्र 11. 12. छोडना चाहते हो तो... क. विशलदेव राजा ने किस की परीक्षा की ? गर्भवती स्त्री को ख. ग. से शिखा ऊँची जाती है। घ. च. छ. .पर 16 शाश्वत जिनालय है। . छोडो झ. त. थ. द. ध. . ही खाने को मिलती थी। प्र. I कोष्टक में अक्षर पड़े है उनको आडे, तिरछे, ऊपर, नीचे, दाँयें, बाँयें बिखरे हुए कैसे भी रखकर नीचे दिये प्रश्नों के उत्तर दीजिये । 14 Marks ज्म स्था र अ शा ग ल णु श्रा क णि श्रे जा रा वि द्या पू मी नि त चिं फू भ ह ज मी क्ति भ क र्मि ध सा ज्ञा टो प्र चाव व सिं क्ष टो न त्र यी र्स को रा मो ना रो घं दे न य य रो नि मु न द नं जि प क्ष य ट क प ज क्ष स्टे र श सा दी ना नि वि ज रा हि टी वि श्व मं ग ल धो र्जू प द मा रं रा ज म्पी क र व ला जै ग्रा अ न द्म क्ष सा ष्ठ द्ध कॉ सं र वि बंधु म ति हैं मा सं म ढ पु सिनो ता व्र ज सु ले प्र द र्वे नि वे णि प्र त्रि च श्व म त य शि प मो भा श्री वा वि श प उ या श गा भि ग र्थ रा द 185 म चं शि वं Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है दा. त. ज्ञान प्राप्ति का एक प्रकार - वाचना 1. मैंने 11,80,645 मासक्षमण किये 2. मेरा पुत्र जिनशासन का चमकता सितारा बनेगा। यह किसने कहा था . 3. मुद्गर यक्ष का परम भक्त की पत्नी का नाम क्या था 4. एक साथ 20 मनुष्य कहाँ से मोक्ष में जा सकते हैं ................ 5. एक समुद्र का नाम. 6. मिनलदेवी के पुत्र का नाम . 7. वंदन करने का एक निमित्त .. ........................... 6. यशोविजयजी के गुरु का नाम ................ 9. क्या होने के बाद खाद्य पदार्थ अभक्ष्य हो जाते हैं ? .............. 10. दम्पति जीवन में समस्याओं का मुख्य कारण .............................. है। 11. गर्भपात की एक पद्धति ........................... है। 12. हमारा एक ही अभिषेक होता है ....... की मधुर ध्वनि से सब को अर्हानंद का अनुभव होता है। 14. प्रभु के कल्याणक के समय में विशिष्ट प्रकार का .. होता है। प्र.J सूत्र-अर्थ विभाग a) गाथा लिखें 6 Marks 1. बारह व्रत का वर्णन जिसमें आता है वह गाथा लिखें। 2. सकल श्री संघ से जिसमें क्षमा मांगी गई है वह गाथा लिखें। 3. पाँचवें व्रत के अतिचार का जिसमें वर्णन है वह गाथा लिखों। b) अर्थ लिखों 7 Marks 1. चरणसहिअहिं 2. निद्धंधसं 3. सुखदायिनी 4. सइ-अंतरद्धा 5. पडिग्गह 6. मोसुवओसे 7. तडिल्लय लंछिउ 8. खमावइत्ता Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ c) विधि लिखें। 2 Marks 1. वंदित्तु से लेकर सिद्धाणं-बुद्धाणं तक की देवसिअ प्रतिक्रमण की विधि लिखें। प्र. काव्य विभाग 1) स्तुति लिखों 1 Marks 1. चंदा तमे. ................... मारा तमे। b) चैत्यवंदन लिखें 4% Marks 1. विद्यमान................. वारंवार (अथवा) हुँ निर्भागी................. विलाप। 2. नाम .................... भरतार (अथवा) अभवी ने .... चकचूर। 3 वासुपूज्य.................... खास (अथवा) जय................... पामी। c) स्तुति (थोय) लिखें 44 Marks 1. समवसरण .. ............... गाजेजी (अथवा) पंच . ............. गाजजा (अथवा) पच........................ जगीशजी. 2. द्रव्य........ ....................... खन्त तो (अथवा) विमलगिरि ..............गिरिनामजी. 3. ज्योति ........................ इन्दाजी (अथवा) सकल ... .......... साधोजी. d) स्तवन लिखें 3 Marks 1. सुख..................... विसराम (अथवा) थाय .... ................ भावे वंदूं। 2. संघ..................... संहारता (अथवा) डुंगर निरखी .................... बंध। ८) सज्झाय लिखें 2 Marks ___ 1. परिग्रह नी .. ....... दूजा (अथवा) सहु कहे................ अजवालो नोट : भव आलोचना की पुस्तक भर कर उत्तर पत्र के साथ देना जरुरी है। गीतार्थ आचार्य भगवंत के पास उसकी आलोचना मंगवाकर आपको पुनः भिजवा दी जाएगी। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्या राजितं त्रिवर्षीय जैनिज़म कोर्स खंड -3 - लेखिका सा. श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. ओपन-बुक परीक्षा पत्र Total 140 Marks विद्यार्थी का नाम - उम्र ____रोल नं. विद्यार्थी का पता एवं फोन नं.. मूल वतनसेन्टर का नाम एवं पता - प्र.A : रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए। प्र.B: सही उत्तर चुनकर लिखिए। 1. ....... - 2.. .......... 3. ... ............ 2 0 0 0 8 9. 10 11 ......................... ..................... ..................... ........ 11 .... 12 प्र.C : मुझे पहचानिए। प्र.D : एक शब्द में उत्तर दीजिए। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.E : सुधारकर फिर से लिखें। ............... ........... .............. प्र.F : जवाब दीजिए। ................ .................. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . . ........... ..... ................ ............................ ................ .............................. .............. ...................... ..... ...... ...... ............... ............ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र.G : नीचे की पंक्तियाँ पुस्तक के किस पेज पर है और किस लाईन पर है वह बताईए। पेज नं. लाईन नं. पेज नं. लाईन नं. 7 .................. 10 ............... ....... 5 .................. 11 ................. 6 ...... 12 प्र. H बारहखडी से शुरु होनेवाले जवाबों के प्रश्नों का क्रम खो गया है। प्रथम अक्षर के अनुसार प्रश्न ढूंढ कर जवाब लिखें। .............. ......................... ..... ... । | 165 ........... .............. घ ................. न मुत्थुणं प्र.I कोष्टक में छूटे छवाये अक्षर पड़े है उनको आडे, तिरछे, ऊपर-नीचे, दाँयें, बाँयें कैसे भी रखकर नीचे दिये प्रश्नों के उत्तर दीजिये। |ग | ल | णु श्रा क णि श्रेजा | रा | विद्यापू | मी | नि | त चिं फू भ | ह ज | मी क्ति भ क मि | ध सा ज्ञा टो| प्र| चा| व | व | सिं|क्ष टो|त्न त्र | यी|र्स को रा |मो ना | रो घं | दे न य | य | रो नि | मु न | द न जि पक्ष | य | |ट | क| प ज | क्ष स्टे र |श | सा | दी | ज्म |स्था र अशा ना नि वि ज | रा | हि टी विश्व में | ग ल धो |प | द |मा | रं | रा | ज |म्पी क र | व |ला जै | ग्रा | अ| न | क्ष सा | ष्ठ | द्ध कॉ सं| र वि| बंधु | म ति हैं मा सं | म | ढ | पु | मिनाता व्रज | सु | ले | प्र| दर्वे | नि | वे णि प्र त्रिच श्व | म | त | य | शिपमोश | गा | भि | ग भा श्री वा वि श प उ | या र्थ | रा | दम |चं शि वं ...... ....... ...... ....... ......................... ... #wono o ...... .................... | Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. J: सूत्र - अर्थ विभाग (a) गाथा लिखें। 1 2 3 1 2 3 4 1 1 b) अर्थ लिखों। प्र. K : काव्य विभाग (a) स्तुति लिखें। 1 c) विधि लिखें। : : b) चैत्यवंदन लिखें। 5 6 7 8 (191 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 3 1 2 3 1 2 1 c) स्तुति (थोय) लिखें। d) स्तवन लिखें। e) सज्झाय लिखें। 192 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वतारक रत्नत्रयी विद्याराजितं युवति संस्कार शिविर की झलकियाँ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नान करने से पहले प्रभु को प्रार्थना हे प्रभु ! भले मैं स्नान करूँ लेकिन अस्नान रुप साधुता ही सत्य है उसकी मुझे कभी विस्मृति न हो | मेरे स्नान में अप्कायादि जिन जीवों की विराधना हुई हो उनकी क्षमा माँगता हूँ | उन जीवों का शीघ्र मोक्ष हो / कम से कम पानी से आवश्यकता पूर्ति रुप ही स्नान करूँ | साफ एवं सुंदर दिखने का मेरे देहाध्यास का विराम हो / देह की यह द्रव्य शुद्धि मुझे निरंतर आत्मशुद्धि का लक्ष्य करवाकर क्षपकश्रेणी का प्रारंभ करवाकर मेरे सर्व कर्ममल का क्षय करवाकर मुझे सिद्ध स्वरुप की प्राप्ति कराएँ और उसके लिए "सिद्ध स्वरुपी अंग पखाली, आतम निर्मल होय सुकुमाली" यानि कि सिद्ध स्वरुपी प्रभु का पक्षाल करके मैं मेरी वास्तविक शुद्धि करूँ। ___ प्यारे प्रभु ! भले रोज में नये-नये वस्त्र पहनूं लेकिन प्रभु का दिया हुआ श्रमणसुंदर वेष ही सत्य है / उसकी मुझे कभी भी विस्मृति न हो / मेरे वस्त्र बनाने में जिन-जिन जीवों की विराधना हुई हो उनकी क्षमा माँगता हूँ | मेरी वेषभूषा देखने के निमित्त से जिन जीवों ने अशुभ कर्म बांधे हो उनसे क्षमा माँगता हूँ | सुंदर दिखाने का मेरे देहाध्यास का अहंकार और पुद्गल के आसक्ति भाव का विराम हो / शीघ्रातिशीघ्र मुझे श्रमण सुंदर वेष मिले, जो क्षपक श्रेणी का प्रारंभ करवाकर मेरे अरुपी सिद्धस्वरुप की मुझे प्राप्ति कराएँ / नमो चारित्तस्स !!! Vn डीझाईन जैनम् ग्राफोक्स अहमदाबाद, फोन 25627469, 98258 51730