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________________ धंधुका जाकर पिता की गैरहाजरी में माता की हर्ष पूर्ण संमति पूर्वक चांगा को वहोर कर खंभात आ गए। घर आकर जब चाचिंग को इस बात का पता चला तब वह बहुत ही क्रोधायमान हुए और पुत्र को वापिस लाने के लिए खंभात आए। सूरिजी को जब इस बात का पता चला तब उन्होंने महामंत्री उदायन को सारी बात से अवगत कराया। उदायन मंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि आप चिंता न करों। मैं सब कुछ संभाल लूँगा। जैसे ही चाचिंग उपाश्रय पहुँचा कि तुरंत ही उदायन मंत्री के सेवक उन्हें भोजन के लिए घर ले गये। उस समय चांगा मंत्रीश्वर के घर पर ही खेल रहा था। पिता को देखकर चांगा अपने पिता से लिपट गया। स्वयं उदायन मंत्री ने उनको भोजन करवाया। भोजन के बाद मंत्रीश्वर ने चाचिंग के समक्ष एक जोड़ी धोती और तीन लाख सोना मोहर रखी। तत्पश्चात् स्वयं के दो युवान पुत्रों को भी बुलाया। मंत्रीश्वर ने चाचिंग से कहा “भाई ! हमारे समग्र जैन संघ के अत्यंत आदरणीय एवं प्रिय गुरुदेव श्री देवचन्द्रसूरिजी को देवी के पास से आपके लाडले पुत्र चांगा के अतिभव्य भावी के लिए आगाही प्राप्त हुई है। आपका यह चांगा हमारे जिन शासन के गगन का चाँद बनने वाला है। मुझे पता है कि आपको आपका पुत्र बहुत प्रिय है। फिर भी मैं समस्त जैन संघ की तरफ से विनंती करता हूँ कि हमारे गुरुदेवश्री की इच्छा को आप पूर्ण करें। मैं आपको अतिथि सत्कार में पहेरामणी के रुप में एक जोड़ी धोती और तीन लाख सोना मोहर अर्पण करता हूँ। साथ ही मेरे ये दो युवान पुत्र जो व्यापार के खिलाड़ी हैं। उनको भी आपको अर्पण करता हूँ। आप मुझे अति हर्ष पूर्वक आपका लाडला पुत्र समर्पित कीजिए।" उदायन मंत्री की बातें सुनकर चाचिंग गद्गद् हो गया और कहने लगा “मन्त्रीश्वर ! बस कीजिए, आपको आगें कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। मैंने अपना यह पुत्र आपको सौंप दिया। मेरा पुत्र जिन शासन का चमकता सितारा बनेगा। ऐसा सद्भाग्य मुझ रंक की ललाट पर कहाँ से....? आप खुशी से इसे स्वीकार कीजिए और आपके प्रेम के प्रतीक रुप में यह एक मात्र धोती की पहेरामणी मैं स्वीकार करता हैं।" तत्पश्चात् उल्लासपूर्वक चांगा की दीक्षा हुई। उनका सोमचन्द्र विजयजी नामकरण हुआ। यह मुनिराज ही भविष्य में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव हेमचन्द्राचार्य बनें। इनकी निश्रा में ही परमार्हत गूर्जरेश्वर कुमारपाल राजा ने जैन शासन में अमारि प्रवर्तन का डंका बजाया था। इन महान आत्माओं के मिलन में कारणभूत हसुमति बहन की साधर्मिक भक्ति ही थी। जैन धर्म के तमाम अंगों को मजबूत करती है साधर्मिक भक्ति।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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