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________________ यदि आपने आलोचना के द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित नहीं किया तो कर्म अगले भव में इतने भयंकर रुप में उदय में आयेंगे कि उस समय आप बचाओ...बचाओ...की पुकार करेंगे या रोएँगे, तो भी आपका वह दुःख कम नहीं होगा। अतः आपको यदि अपना परभव सुधारना है तो इसी भव में अपने पापों की आलोचना कर लेनी चाहिए। ___ अनादिकाल से जीव पाप करने की वृत्ति में प्रवृत्त होने से उसके द्वारा पाप सहजता से हो जाता है। पाप होने के बाद उसे स्वीकार कर गुरु के समक्ष यथावत् पश्चाताप पूर्वक कहना अतिदुष्कर है। अभी गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए आँखों में पश्चाताप के आँसू आ जाए तो परभव में दुःख के आँसू नहीं रोना पडेगा। * दुःख में रोना, यह आर्त्तध्यान-रौद्रध्यान यानि अशुभध्यान है। * पाप के पश्चाताप में रोना, यह शुभ ध्यान है। * दुःख में रोने से नये पापों का आगमन होता है। *. पाप के पश्चाताप में रोने से अनेक पापों का निकंदन होता है। पसंदगी आपके हाथ में है। पाप दुःख में परिवर्तित हो जाये तब रोना या पहले ? पहले रोना यानि कि पश्चाताप पूर्वक पाप की आलोचना कर लेना। जिससे दुःख आए ही नहीं। कुदरत ने हम पर इतनी महेरबानी की है कि पाप तुरंत दुःख में नहीं पलटता। इसलिए हमें उसे नाबूद करने का एक चान्स मिल जाता है। * श्रीपाल राजा ने पूर्व भव में एक मुनि को कोढ़ी कहा। लेकिन उसकी शुद्ध आलोचना नहीं - करने से श्रीपाल राजा के भव में बचपन से ही उन्हें कोढ़ का रोगी बनना पड़ा। * एक किसान ने सूई में जूं को पिरोया और उसका प्रायश्चित नहीं लिया। जिसके कारण उसे 7 भव तक सूली पर चढ़ाया गया। * भगवान महावीर स्वामी ने त्रिपुष्ठ वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में गरमागरम सीसा डलवाया एवं उसकी आलोचना नहीं ली। वह भव पूर्ण कर नरक में 33 सागरोपम तक महाभयंकर दुःखों को सहन किया। फिर भी उस पाप से मुक्त नहीं हुए। वहाँ से कई भवों तक भटकते-भटकते 25 वें नंदनमुनि के भव में 11,80,645 मासक्षमण किए। फिर भी उस पाप का प्रायश्चित नहीं हुआ। अंत में महावीर स्वामी के भव में उस कर्म का उदय होने पर गोपालक के द्वारा कान में खीले ठोके गये। पाप तो कान में सीसा डालने जितना किया था। जिसके बदले में नरक की घोर यातना सहन की, कठिन तपस्या आदि की। फिर भी उस पाप से मुक्त नहीं हुए। कोई जीव अति आवेश में आकर रसपूर्वक कोई कर्म बांध ले और आलोचना किए बिना मर जाएँ तो उस कर्म को भुगते बिना दूसरा कोई चारा नहीं हैं। भ * *
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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