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________________ * एक दिन बच्चा स्कूल से घर आया। उसे जोरो की भूख लगी थी। माँ रसोई बनाकर पानी भरने गई थी। जैसे ही माँ घर आई पुत्र ने क्रोध में आकर कहा,“क्या सूली पर चढ़ने गई थी जो इतनी देर हो गई?" माँ को भी गुस्सा आया और उसने भी कहा “क्या तेरे हाथ कट गये थे? जो तू खाना लेकर नहीं खा सका” दोनों ने आलोचना नहीं की जिसके कारण आगामी भव में माँ के हाथ कटे एवं पुत्र को निर्दोष होते हुए भी सूली चढ़ना पड़ा। * पूर्व भव में आलोचना नहीं करने से महासती सीता पर असतीत्व का कलंक आया। * राजा हरिश्चन्द्र को बारह वर्ष तक चंडाल के घर नौकरी करनी पड़ी। तारा रानी पर राक्षसी होने का आरोप आया और पुत्र का विरह सहना पड़ा। * महासती अंजनासुंदरी ने पूर्व भव में 22 घड़ी तक प्रभु की प्रतिमा को कचरे के डिब्बे में छिपाकर रखी और उसका प्रायश्चित नहीं किया। जिसके फल स्वरुप उन्हें 22 वर्ष तक पति का विरह सहना पड़ा। साथ ही कुल्टा होने का कलंक आया और जंगल में भटकना पड़ा। इसके विपरीत अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र जैसे खूनी पाप का स्वीकार कर एवं आलोचना करके उसी भव में मोक्ष गये। कुबेरसेना-कुबेरदत्त एवं कुबेरदत्ता ने संसार की वासना को खत्म करके शुद्ध प्रायश्चित लेकर उसी भव में सिद्धगति प्राप्त की। इस प्रकार आलोचना नहीं करने पर छोटे पाप भी बहुत बड़े हो जाते हैं और आलोचना करने वाले खूनी एवं महापापी भी उसी भव में पार हो जाते हैं। अतः आलोचना करनी ही चाहिए। प्रायश्चित करते वक्त प्रस्तुत पाप के साथ-साथ अन्य भवों-भव के पाप भी धुल जाते हैं। आज तक कई आत्माएँ आलोचना लेने के भाव करते-करते, कई आलोचना लेने के लिए गुरु के समीप जाते-जाते, कई आलोचना करते-करते और कई आत्माएँ आलोचना को वहन करतेकरते मोक्ष में गई हैं। अतः जिस भव में पाप कर्म किया हो, उसी भव में यदि आलोचना हो जाये तो सर्वथा निर्मूलन हो सकता है। अन्यथा अगले भव में उसे मात्र भोगने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं रहता। __शास्त्रकार महर्षि बताते है कि जंबूद्वीप में मेरु आदि जितने भी पर्वत है, वे सभी सोने के बन जाएँ तथा जंबूद्वीप में जितनी मिट्टी है वह रत्न बन जाएँ तथा इन सोने एवं रत्नों को कोई पापी जीव सात क्षेत्रों में दान दे तो भी वह इतना शुद्ध नहीं बन सकता, जितना वह आलोचना द्वारा प्रायश्चित लेकर शुद्ध बनता है। इतना ही नहीं यदि कोई आत्मा शुद्ध आलोचना करने के लिए प्रयत्न करें और वह प्रायश्चित लेने के पूर्व ही मर जाए तो भी वह आराधक
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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