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बनता है। इसके विपरीत अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है। इसलिए आलोचना शुद्ध करनी चाहिए। भव आलोचना करने से होने वाले लाभ :
जिस प्रकार भार वाहक व्यक्ति शरीर पर से भार उतारने के बाद हल्का हो जाता है। उसी प्रकार आलोचना द्वारा पाप का भार उतरने से आत्मा हल्केपन का अनुभव करती है। आत्मा में से पापशल्य दूर हो जाने से हृदय आनंद विभोर हो जाता है। सरलता, प्रसन्नता, आदि गुण उसकी आत्मा में विकसित होते हैं। अतिचार रुपी मेल, धुल जाने से आत्म-शुद्धि होती है। इसलिए सम्यग् आलोचना अभ्यंतर तप के अंतर्गत आती है। अतः जीव तप युक्त बनता है, एवं तीर्थंकर भगवान की आज्ञा का पालन होता है। आलोचना किस प्रकार करनी चाहिए? ___ सर्वप्रथम मन में पापों के प्रति घृणा उत्पन्न करके किये हुए पापों को याद करें। हृदय को पश्चाताप से गद्-गद् करके एक भी पाप छुपाए बिना आलोचना लिखना शुरु करें। मात्र पापों को लिखं देना इतना ही नहीं परंतु जो पाप स्वयं ने अज्ञानता से, जान-बुझकर, प्रमाद से, अभिमान से या अश्रद्धा से जैसे किये है वैसे एवं जितनी बार किये है उसे विस्तार से निःसंकोच पूर्वक लिखें। इसके साथ-साथ गुप्त पापों की (जो पाप अपनी आत्मा के सिवाय और कोई न जानता हो) ऐसे पापों की विशेष रुप से आलोचना करें। . इसमें भी कितनी बार पाप किया है वह फिक्स याद न आए तो अंदाज से लिखे। वह भी याद न आए तो उस पाप का समय लिखें। जैसे कि 15 वर्ष की उम्र तक ज्ञान होने के बावजूद भी या अज्ञानता से कंदमूल खाएँ ...आदि। इन पापों का तथा इसके सिवाय और कोई पाप आपको याद हो लेकिन उसकी आलोचना आपके पुस्तक में नहीं दी गई हो, तो उन सब पापों को एक पेपर पर लिखकर आपकी भव-आलोचना की पुस्तक के साथ स्टेप्लर कर लें। अंत में पुस्तक को लिफाफे में बंद करके भेजें ताकि हम गीतार्थ आचार्य श्री को भेजकर आपकी आलोचना मंगवा सके। कोई भी व्यक्ति एक भी पाप छुपाए बिना आलोचना लिखता है और एकाध पाप उसे याद नहीं आए तथा वह लिखना रह जाएँ तो भी उसके मन में सभी पापों के प्रति पश्चाताप एवं शुद्ध आलोचना लेने के परिणाम होने से उसका भी प्रायश्चित हो जाता है। आलोचक को आलोचना लिखते समय ऐसा कोई गम्भीर पाप लिखने में शरम आए कि गुरु भगवंत मेरे बारे में क्या सोचेंगे? उनकी दृष्टि में मैं गिर जाऊँगा? उनको मेरे धार्मिक होने पर अविश्वास हो