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जाएँगा ? आदि कुविचार कभी न करें। क्योंकि आलोचना दाता गुरु भगवंत की यह विशेषता होती है कि हल्के से हल्का पाप करने वाले के लिए भी उनके दिल में करुणा बहती है। वे जानते है कि पाप होना सहज है। परंतु पाप की आलोचना करनेवाला महान होता है। अतः हम एक भी बात छुपाए बिना जितनी सूक्ष्मता से आलोचना लिखते हैं उतनी अधिक गुरु भगवंत की कृपा दृष्टि हम पर बरसती है। अतः गुरु भगवंत से कुछ भी न छुपाएँ । गुरु भगवंत से पाप को छुपाकर सामान्य पापों की आलोचना करने पर हमें गुरु भगवंत पर विश्वास न होने का महापाप लगता है।
नोट : सरलता से भव आलोचना हो सके इसलिए इस पुस्तक के साथ छोटी भव आलोचना पुस्तक दी गई है। उसे उपरोक्त भावों के साथ भरकर ओपन-बुक परीक्षा के उत्तरपत्र के साथ भेजें।
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पुस्तक के आगे अपना नाम, पता एवं उम्र स्पष्ट अक्षरों में लिखें। यदि पहले "भव आलोचना” ली हो तो वह कब और किसके पास ली ? एवं उसका प्रायश्चित पूर्ण हुआ या · नहीं ? आदि भी लिखें। पहले ली हुई भव आलोचना में याद नहीं आने से या फिर याद आने पर शरम आदि से उस पाप की आलोचना नहीं की हो या अब याद आया हो, तो इस प्रकार बताकर आलोचना करें। तपस्या कितनी कर सकते हो तथा दानादि की कितनी शक्यता है वह भी बताएँ ।
आलोचना देने के पश्चात् आलोचक नीचे की गाथा बोलकर मिच्छामि दुक्कड़ दें अथवा गुरु भगवंत गाथा सुनाकर मिच्छामि दुक्कडं दिलाएँ ।
छउमत्थो मूढमणो कित्तियामित्तं च संभरइ जीवो।
जं जं न संभरामि, मिच्छामि दुक्कई तस्स । १ । जं जं मणेण बद्धं जं जं वाएण भासियं पावं । जं जं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कई तस्स ।।२।।
अर्थ : अज्ञानता से छद्मस्थ जीव कितना याद कर सकता है? जो-जो मुझे याद नहीं आ रहे हैं, उन सबका भी मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ।
जो पाप मन से किये हैं, जो पाप वचन से किये हैं, तथा जो पाप शरीर से किये हैं उन सबका मैं अंतर हृदय से मिच्छामि दुक्कड़ देता हूँ। (यदि आलोचना लिखित में हो तो आलोचना लिखने के बाद स्वयं अर्थ पूर्वक ये गाथा बोलें।)