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________________ साधर्मिक भक्ति जिस प्रकार कन्या की सगाई मात्र होने से उसके पति के सारे रिश्तेदारों के साथ कन्या का संबंध स्वतः ही जुड़ जाता है। फिर उसे पति के माता-पिता, भाई-बहन, काका-काकी, मामा-मामी आदि के साथ अलग से संबंध जोड़ने की जरुरत नहीं रहती। चतुर कन्या इन सारे रिश्तों को सहर्ष स्वीकार कर अपनी सेवा भक्ति से सभी के दिल को जीतकर अपने पति के हृदय में अद्भूत स्थान प्राप्त कर लेती है। इसके विपरीत जो कन्या अपने पति के रिश्तेदारों को पराया मानती है। वह जीवनभर अथक प्रयासों के बाद भी पति के दिल में वैसा उच्च स्थान नहीं पा सकती। ___ उसी प्रकार अनादि काल से भव अटवी में भटकते हुए हमें वीतराग प्रभु “स्वामी” के रुप में प्राप्त हुए हैं। प्रभु को अपने भर्तार के रुप में स्वीकारने मात्र से ही प्रभु से जुड़े हुए शासन के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका आदि के साथ हमारा संबंध स्वतः ही जुड़ जाता है। इसलिए हमें साधर्मिक के साथ कैसे प्रेम करना यह अलग सिखने की जरुरत नहीं रहती। जो व्यक्ति साधर्मिक के प्रति पुत्रवत् प्रेम नहीं ला सकता वह व्यक्ति लाख प्रयास करने के बाद भी प्रभु को खुश नहीं कर सकता। “समानः धर्मः येषां ते इति साधर्मिकाः” अर्थात् अपने समान धर्म वाले को साधर्मिक कहते है। साधु-साध्वी के लिए अन्य साधु-साध्वी साधर्मिक है तथा श्रावक-श्राविकाओं के लिए अन्य श्रावक-श्राविकाएँ साधर्मिक है। जिस प्रकार परमात्मा ने मोक्ष मार्ग दिखाकर हम पर उपकार किया है, उसी प्रकार श्रावक-श्राविकाओं ने उस मार्ग पर चलकर हम पर उपकार किया है। वह इस प्रकार है____ आज हजारों लोग संघ में आयंबिल करते हैं तो हमें भी आयंबिल करने की इच्छा होती है और जिसे पशु भी न खाए ऐसे रुखे-सुके आहार को बड़े से बड़ा श्रीमंत भी प्रसन्नता पूर्वक खा लेता है। जहाँ व्यक्ति को एक दिन भी आहार के बिना रहना दुष्कर है, वहाँ श्रावकश्राविकाएँ मासक्षमण जैसे कई भीष्म तप सहजता से कर लेते हैं। इसका कारण क्या है? यहीं कि अनेकों को करते देख अपने मन में भी हिम्मत बढ़ती है और उत्साहं पैदा होता है जो हमें यह दुष्कर कार्य करने में सफल बनाता है। इस प्रकार पूजा सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, उपधान, नव्वाणु, छःरी पालित संघ एवं दीक्षा लेना आदि सर्व धर्मानुष्ठान की सुविशुद्ध परम्परा को टिकाए रखने का श्रेय धर्म करने वाले साधर्मिकों को ही जाता है।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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