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________________ अतः यह सिद्ध होता है कि आज हम जो भी धर्म कर रहे हैं वह साधर्मिक बंधुओं के आलम्बन से ही हो रहा है। ऐसे उपकारी साधर्मिक बंधुओं की जितनी भक्ति करें उतनी कम है। पर्युषण के पाँच कर्तव्य, वार्षिक 11 कर्तव्य तथा श्रावक के 36 कर्तव्य आदि में साधर्मिक भक्ति का विधान कर ज्ञानियों ने इसका महत्त्व खूब बढ़ाया है। पू. लक्ष्मीसूरीजी म.सा. ने तो यहाँ तक कहा है कि तराजू के एक पलड़े में हमारी सारी धर्म आराधना रखें और दूसरे पलड़े में मात्र साधर्मिक की एक बार की गई भक्ति रखें तो उसमें साधर्मिक भक्ति का पलड़ा ही भारी होगा। यह बात जानने के बाद साधर्मिक-भक्ति किए बिना श्रावक को चैन की नींद कैसे आ सकती है? ___ सच्चा प्रभु भक्त तो वही होता है जो प्रभु के भक्त का भी भक्त हो। उसके हृदय में ऐसे साधर्मिक की भक्ति करने के लिए हमेशा आदर-बहुमान भाव उछलते हो। यदि उसे एक दिन भी साधर्मिक भक्ति करने का अवसर न मिले तो वह दिन निष्फल लगने लगे। खास ध्यान रहे कि साधर्मिक चाहे आर्थिक स्थिति से कमज़ोर हो और आप उसे आर्थिक सहयोग कर रहे हो, फिर भी आपके दिल में उनके प्रति प्रेम तथा वात्सल्य के ही भाव होने चाहिए। प्रभु का भक्त कभी बेचारा नहीं होता। उस पर दया नहीं अपितु प्रेम ही होना चाहिए। कोई बाप अपने पुत्र को पैसे देता है तो वहाँ बेचारेपन के भाव नहीं अपितु वात्सल्य ही छलकता है। ऐसे ही भाव साधर्मिक के लिए भी होने चाहिए। प्रः आपकी यह बात तो सही है कि साधर्मिक ही धर्म को टिकाए रखता है इसलिए उनकी अहोभाव से भक्ति करनी चाहिए। परंतु हर जैन-व्यक्ति धर्म नहीं करता तो फिर उसकी भक्ति करनी चाहिए या नहीं? उ .: गुणवान साधर्मिक की भक्ति करने से हमारे अंदर भी गुण आते हैं। लेकिन मानो कि कोई साधर्मिक जैन होने के बावजूद भी यदि किसी कुकर्म के उदय से उनका जीवन खराब हो गया हो, वह व्यक्ति सातों व्यसन में डूब गया हो। फिर भी उसने जन्म से वीतराग परमात्मा, पंच महाव्रतधारी गुरु भगवंत एवं जैन-कुल को प्राप्त किया है, अतः वह महान है। व्यक्ति का जैन कुल में उत्पन्न होना ही उसकी योग्यता का सूचक है। इसलिए धर्म-विहीन साधर्मिक को धिक्कारने के बदले उसे प्रेम से सत्कारना ही हितावह है। ___एक बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी को धिक्कार से जीतने के बजाए प्रेम एवं वात्सल्य से हार जाना हजार गुना अच्छा है। दुराचारी बने हुए जैन साधर्मिक को आप प्रेम, आदर सहित प्रोत्साहन देंगे तो उसके अंदर रहे हुए दोष एक दिन आपके प्रेम के कारण गुण में परिवर्तित हो जाएंगे।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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