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एक सत्य घटना - अपने धंधे के काम से राजकोट जा रहे जैन युवक को एक गुरु भक्त ने वहाँ बिराजमान आचार्य म.सा. को देने के लिए एक पत्र दिया। धर्म से अनभिज्ञ युवक ने राजकोट पहुँचकर वहाँ चातुर्मास हेतु बिराजमान आचार्य भगवंत को वंदन कर पत्र दिया। उस समय बाहर गाँव से आए साधर्मिक को देखकर वहाँ के स्थानिक श्रावक के दिल में साधर्मिक के प्रति वात्सल्य उभर आया। उन्होंने युवक को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रण दिया। आगंतुक युवक किसी भी प्रकार से आमंत्रण को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था। दोनों के बीच काफी समय तक आना-कानी चली। अंत में आगंतुक युवक ने कहा कि आप जैसा समझते हो वैसा मैं नहीं हूँ। मेरे जीवन में धर्म का कोई ठिकाना नहीं है। आप मेहरबानी कर घर ले जाने का आग्रह छोड़ दें। . परंतु श्रावक ने एक ही बात कही - आप कौन हो? कैसा जीवन जीते हो? क्या करते हो? उससे मुझे कोई मतलब नहीं है। परंतु आपने मेरे गुरु महाराज को वंदन किए है। अंतः आप मेरे साधर्मिक हो। इससे ज्यादा महत्व की बात मेरे लिए क्या हो सकती है। बस, अब आपको आना ही पड़ेगा।
अंत में सेठ के अति आग्रह के आगे हारकर आगंतुक युवक उनके साथ जाने के लिए तैयार हुआ। घर . पहुँचते ही उस श्रावक ने अपनी धर्मपत्नी से कहा-मूंग की दाल का सीरा, भजियाँ आदि भोजन तैयार करो। महापुण्योदय से साधर्मिक भाई हमारे आँगन में पधारें हैं। इतना सुनते ही आगंतुक भाई ने कहा - "अरे भाई ! तुम्हारी धारणा गलत है। तुम मुझे छोड़ दो, मैं तो पापी हूँ। मात्र जन्म का जैन हूँ।" पर उसकी बात को अनसुना करके उस श्रावक ने युवक को भोजन करने के लिए बैठाया। तत्पश्चात् श्रावक और उसकी पत्नी भाव-विभोर होकर गरमा-गरम सीरा परोसने लगे तथा पुण्योदय से मिले साधर्मिक भाई का पूरा लाभ लेने लगे।
यह देख आगंतुक युवक की आँखें छलक आई, वह जोर-जोर से रोने लगा। युवक को इस तरह रोता देख वह श्रावक विचार में पड़ गए। उन्होंने उस युक्क को रोने का कारण पूछा? तब वह बड़ी मुश्किल से अपने आँसुओं को रोककर धीरे-धीरे बोलने लगा - “भाई ! मुझे माफ कर दो। मैं सातों व्यसन में डूबा हूँ। पाप नाम से जाना जानेवाला हर कार्य, मैंने अपने जीवन में किया है। मेरी इस परिस्थिति की जानकारी आपको होने के बावजूद मुझे धिक्कारने या तिरस्कारने के बदले आप भाव-विभोर होकर मुझे खाना खिला रहे हो। पर आप ही बताईये कि मैं यह खाना कैसे खा सकता हूँ? आफ्के वात्सल्य के प्रभाव से मेरे दोष आज काँप उठे है। अब सर्वप्रथम आप मुझे सातों व्यसन की जिंदगी भर के लिए प्रतिज्ञा दीजीए।