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________________ * पुस्तक के पेज पलटने के लिए, नोट आदि गिनने के लिए तथा टिकट आदि चिपकाने में थूक का उपयोग न करें। * पुस्तक को यहाँ-वहाँ एवं नीचे नहीं रखें। पुस्तक का तकिया नहीं बनाये तथा उसका टेका नहीं ले । पुस्तक को पास में रखकर पेशाब आदि नहीं करें। * झूठे मुँह अथवा अशुचि अवस्था में नहीं बोले। एम.सी. में तीन दिन पुस्तकादि ज्ञान के उपकरणों का स्पर्श न करें। पुस्तक न पढ़े, न कुछ लिखे तथा 3 दिन संपूर्णतया मौन रखें। * अखबार पत्र आदि से अशुचि साफ करने से, पेपर में खाने से, चप्पल बाँधने से, चिवडा, मिठाई आदि के पैकेट बांधने से तथा फटाखे फोड़ते समय अक्षर वाले कागज़ को जलाने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है। पाप करने का स्वभाव जीव का अनादि काल से है और इसी कारण से 84 लाख योनि में जीव ने बहुधा दुःख ही पाया है। पूर्व भव के कुछ पुण्य कर्म के कारण हमें यह मानव भव तथा जैन धर्म मिला है। जिस प्रकार किसी के शरीर में कैंसर की गाँठ हो जाये और यदि योग्य चिकित्सा करने में आए तो वह मरीज़ उस रोग से मुक्त बन सकता है। इसके विपरीत यदि किसी के शरीर में एक छोटा सा काँटा चुभ जाए और उस काँटे को निकालने में न आए तो उस छोटे से काँटे की पीडा कुछ दिनों में शरीर में इतनी बढ़ जाती है कि इंसान मर भी जाता है। यानि कि कैंसर जैसा बड़ा रोग भी सही इलाज़ से ठीक हो जाता है और एक छोटा सा काँटा भी जीव को मार डालता है। ठीक वैसे ही जीवन में बडे-बडे पाप हो गये हो, फिर भी शुद्ध आलोचना द्वारा जीव उन पापों से मुक्त बन सकता है। लेकिन एक छोटा सा पाप भी यदि मन में छुपा रह जाए तो वह आत्मा के एक-दो भव नहीं परन्तु भवो भव बिगाड़ देता है। इस भव में हम जैसा कार्य करते है वैसा फल कर्मसत्ता हमें अगले भव में देती है। यानि कि इस भव में किया हुआ कार्य अगले भव में उदय में आता है। यदि आपने इस भव में पुण्य कर्म किये है, तो आने वाले भव में आपको सुख उदय में आयेगा और यदि आपने इस भव में पाप कर्म किए है तो आने वाले भव में आपको दुःख ही उदय में आएगा। यदि आपने अब तक अपने जीवन में पाप कर्म ही किये है, लेकिन आपको आने वाले भव में उस पाप के उदय में दुःख नहीं चाहिए तो उस दुःख को निर्मूलन करने का एक ही उपाय है आलोचना । 100 -
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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