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* ज्ञान एवं ज्ञानी का, पाठ का, पुस्तक, ठवणी, माला, पेन, पेंसिल आदि ज्ञान के उपकरणों का बहुमान करना। नये नये ज्ञानोपार्जन में समय का सदुपयोग करना ।
पाठशाला में बच्चों को इनाम से प्रोत्साहित करना। गुरुजी का बहुमान करना। बच्चें पाठशाला में जुडे इस हेतु सांस्कृतिक प्रोग्राम रखना। जैनिज़म कोर्स के विद्यार्थी या प्रतिनिधि बनकर इसका प्रचार करना यह सब भी ज्ञान की आराधना के अन्तर्गत आता है।
ज्ञान की आशातना से बचें -
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शासन के किसी भी कार्यक्रम के प्रचार का मुख्य साधन है पत्रिका । इसके माध्यम से लोग ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम में जुड़ते हैं। तथा इससे शासन की प्रभावना होती है। परंतु आजकल पत्रिका का यह मुख्य उद्देश्य लुप्त होकर लोकरंजन का नया उद्देश्य आ गया है। सामान्य से जो समाचार 10 रु. की पत्रिका में प्रसारित हो सकता । आजकल वही समाचार 100 रु. की पत्रिका के माध्यम से प्रसारित हो रहा है। यह बात अत्यंत विचारणीय है कि हम परमात्मा की आज्ञा को कुचलकर लोगों को खुश करने जैसा अकार्य कर रहे हैं। इससे कई नुकसान उठाने पड़ते हैं। ज्ञान की आशातना भी होती है क्योंकि सामान्यतः कोई भी व्यक्ति अपने घर में पत्रिका का भार रखने के लिए तैयार नहीं होते। अतः वे पत्रिकाओं को जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं। इससे ज्ञान की आशातना होती है एवं परमात्मा की आज्ञा भंग का पाप भी लगता है। यदि यही राशि पाठशाला में लगाई जाए तो कितने ही बालकों के ज्ञानोपार्जन का लाभ हम ले सकते हैं। जिससे अपने ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता है।
* हो सके वहाँ तक पत्रिका में फोटो न छपवाएँ ।
* पत्रिकाओं या अखबारों को परठते समय उसमें रहे हुए पंचेन्द्रिय जीव के फोटो को अलग से फाड़कर फिर परठना चाहिए । फोटो आदि हो सके तो उसके टुकडे टुकडे न करके फोटो अलग से परठे । अन्यथा ज्ञान की आशातना के साथ पंचेन्द्रिय जीव की हत्या का पाप भी लगता है।
* पत्रिकाओं या पेपर्स को निर्जीव स्थान तथा जहाँ किसी के पैर न लगे ऐसे स्थान पर, खड्डे में परठकर ( डालकर) उस पर धूल डाल देनी चाहिए। जिससे अन्य कोई उस पर चलकर या अशुचि कर आशातना न करें।
* आचार्य आदि ज्ञानी का अविनय, आशातना करने से, अकाल में (असमय में) पढ़ने से तथा काल में (पढ़ने के लिए निर्धारित समय में) नहीं पढ़ने से ज्ञान की आशातना होती है।