________________
नहीं सकता। वास्तव में मूर्खता ने उसको सुखी किया है। यदि मैं भी अपने भाई के समान मूर्ख होता तो आज चैन की नींद सोता ।
इन विचारों से उन्होंने निर्णय लिया कि आज के बाद ना ही मैं स्वयं पढूंगा और ना ही दूसरों को पढ़ाऊँगा। इस प्रकार क्रोधाविष्ट हुए आचार्य वसुदेवसूरि ने बारह अहोरात्री मौन रहकर ज्ञान की विराधना की। आलोचना किये बिना ही मरकर, हे राजन् ! यह तेरा पुत्र वरदत्त हुआ है। इसका बड़ा भाई मानसरोवर में हंस हुआ है। आचार्यदेव की बात सुनकर वरदत्तकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसने भी अपना पूर्वभव देखा। राजा अजितसेन ने आचार्य भगवंत से अपने पुत्र के रोग निवारण करने का उपाय पूछा। तब आचार्य भगवंत ने ज्ञानपंचमी की जैसी विधि गुणमंजरी को बतायी थी, वैसी ही विधि वरदत्त को भी बतायी
गुणमंजरी और वरदत्त दोनों ने भावपूर्वक पंचमी तप की आराधना की । तप के प्रभाव से दोनों निरोगी एवं स्वरुपवान बने। प्रौढ़ावस्था में दोनों ने संयम अंगीकार किया और अनुत्तर विमान में देव बनें। वहाँ से तीसरे भव में केवली बनकर मोक्ष में जायेंगे ।
भाष मुनि की कहानी
किसी आभीर (रबारी) के पुत्र ने बड़ी उम्र में दीक्षा ग्रहण की। आवश्यक सूत्र के योगोद्वहन के पश्चात् उत्तराध्ययन के योगोद्वहन के समय पूर्व संचित ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने से उन्हें उत्तराध्ययन के चौथे अध्ययन का एक अक्षर भी याद नहीं हुआ। बहुत मेहनत की पर निष्फल हुए । तब गुरुदेव ने उन्हें दो शब्द याद करने के लिए दिये - मा रुष, मा तुष अर्थात् द्वेष नहीं करना, राग नहीं करना । यह पद वे याद करने लगे। किन्तु इतना भी उन्हें ठीक से याद नहीं हुआ और मारुष, मातुष के बदले माषतुष- माषतुष याद करने लगे। आसपास के लड़कों ने हास्य एवं निंदा से उनका नाम ही माषतुष मुनि रख दिया।
अब माषतुष मुनि लोगों के लिए हास्यस्पद बन गये। लेकिन उनके प्रति मन में समता भाव रखकर एवं अपने पूर्व संचित कर्मों को दोष देकर मुनि माषतुष पद को ही याद करने लगे। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना प्रयास चालू रखा और एक दिन इस पद को याद करते कर मुनि शुभ ध्यान द्वारा क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ हुए और लोकालोक में प्रकाश करने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया । माषष मुनि की बारह वर्ष की मेहनत रंग लायी। आज तक हमने एक सूत्र की एक गाथा को याद करने में कितनी मेहनत की है ? यह विचारणीय है।