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________________ आदि जो पढ़ने के साधन थे, वे सब अग्नि में डाल दिये। जब जिनदेव को यह बात पता चली तब वह बड़ा दुःखी हुआ। उसने अपनी पत्नी को बहुत समझाया। लेकिन उसकी पत्नी समझने के बदले उल्टा जिनदेव पर क्रोध करने लगी। इधर ये पाँचों पुत्र बड़े हुए। पाँचों दिखने में तो सुंदर एवं सुशील थे। लेकिन थे अनपढ़, मूर्ख । अतः किसी भी श्रेष्ठी ने उनको अपनी पुत्री नहीं दी। इस बात पर जिनदेव एवं उसकी पत्नी सुंदरी के बीच प्रतिदिन कलह होता था। दोनों पुत्रों के अनपढ़ रहने का कारण एक-दूसरे को बतातें थे। एक बार दोनों के बीच झगड़ा बहुत बढ़ गया और गुस्से में जिनदेव ने एक बड़ा पत्थर सुंदरी के मस्तक पर मार दिया । इससे सुंदरी का मस्तक फट गया और वही पर उसकी मृत्यु हो गयी। वह सुन्दरी ही मरकर तेरी पुत्री मंजरी बनी है। इसने पूर्वभव में ज्ञान और ज्ञानी की आशातना की थी, जिससे इस भव में इसकी ऐसी स्थिति हुई है।" आचार्य भगवंत की वाणी सुनकर गुणमंजरी को वहीं पर जातिस्मरण ज्ञान हुआ और उसने अपना पूर्वभव देखा। उसने इशारे से गुरुभगवंत को कहा कि आपने जो फरमाया वह सत्य और यथार्थ है । सिंहदास ने गुरुभगवंत से गुणमंजरी के रोग को दूर करने का उपाय पूछा। तब गुरुभगवंत ने कहा कि “निकाचित कर्मों के लिए तप अमोघ उपाय है।” उन्होंने गुणमंजरी को ज्ञान - पंचमी तप की विधि बताई । उसी समय राजा अजितसेन ने भी ज्ञानी गुरु से अपने पुत्र वरदत्त की रोगोत्पत्ति का कारण पूछा। तब ज्ञानी गुरु ने वरंदत्त का पूर्वभव सुनाया। भरतक्षेत्र के श्रीपुर नामक नगर में वसु नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। उस सेठ को वसुसार एवं वसुदेव नाम के दो पुत्र थे । मुनिसुंदर नामक आचार्य से प्रतिबोधित होकर दोनों ने दीक्षा ली। छोटे भाई वसुदेव बुद्धिमान होने से गुरु ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। अब वसुदेव आचार्य प्रतिदिन पाँच सौ साधुओं को पढ़ाते थे । एक दिन वसुदेवाचार्य मध्याह्न में आराम करने जा रहे थे कि इतने में एक मुनि आकर किसी सूत्र पद का अर्थ पूछा । आचार्यश्री ने उसे समाधान देकर भेजा कि इतने में दूसरे मुनि आए, दूसरे के बाद तीसरे, तीसरे के बाद चौथे मुनि आए । आचार्य ने सब को संतुष्ट करके भेजा। इसके बाद आचार्यश्री सो गये। अभी नींद लगी ही थी कि एक क्षुल्लक शिष्य ने आकर आचार्यश्री की निद्रा भंग कर दी। इस प्रकार बार-बार निद्रा में स्खलना होने से आचार्य श्री संतप्त होकर विचार करने लगे कि मेरा बड़ा भाई वास्तव में पुण्यशाली है। वह शांतिपूर्वक खा-पी - सो सकता है। पर मैं तो अपनी इच्छा से सो भी
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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